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सम्यक् चारित्र आध्यात्मिकरूप से सम्यग्दृष्टि (जाग्रत व्यक्ति) की आन्तरिक आवश्यकता
अब हम सम्यक्चारित्र के स्वरूप का वर्णन करेंगे जो आत्मा की संभाव्य उत्कृष्टताओं को यथार्थता में बदल देता है। सम्यक्चारित्र का पालन उन बातों का उन्मूलन कर देता है जो अनवरत आनन्द और अनन्तज्ञान को रोकते हैं। सम्यग्ज्ञान का प्रकाश साधक को अपने अवगुणों को देखने के योग्य बनाता है। सम्यग्ज्ञान मोक्षमार्ग को प्रकाशित करता है और सम्यक्चारित्र मोक्षप्राप्ति के लक्ष्य की ओर ले जाता है। सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान के अतिरिक्त सम्यक्चारित्र भी मोक्ष के लिए आवश्यक है। वास्तव में सम्यक्चारित्र सम्यग्दृष्टि की आन्तरिक आवश्यकता से उत्पन्न होता है। उसके द्वारा वह वर्तमान और भविष्य की अवस्थाओं के मध्य और संभाव्य श्रद्धा और वास्तविक जीवन के मध्य स्थित असामञ्जस्य को मिटा देता है । इस प्रकार सम्यग्दृष्टि आचरण का पालन करता हुआ आत्मा की स्वाभाविक पर्याय के लिए उत्कट रूप से इच्छुक होता है।
वीतराग चारित्र और सराग चारित्र
आत्मा के स्वरूप के अनुभव के लिए सम्यक्चारित्र का पालन इतना महत्त्वपूर्ण है कि कुन्दकुन्द उसे धर्म कहते हैं।' ऐसा चारित्र जो व्यापक अर्थ में सभी प्रकार की कषायों की समाप्ति का कारण होता है वह . वीतराग चारित्र कहलाता है। इसका सराग चारित्र से भेद किया जाना चाहिये, जो शुभ क्रियाओं में शुभ मनोभावों के कारण फलित होता है और यह चारित्र स्वाभाविकता ( आत्मानुभव) के शिखर से नीचे उतरना
1. प्रवचनसार, 1/7
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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