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________________ है।2 वीतराग चारित्र का परिणाम मोक्ष होता है फलस्वरूप उसी का पालन किया जाना चाहिये और सराग चारित्र शुभ कर्मों का बंधन उत्पन्न करा है, अतः आध्यात्मिक शिखर पर पहुँचने की रुचिवालों को उसे भी छोड़ देना चाहिये। इस कर्म बंधन के होते हुए भी शुभ क्रियाएँ कुछ सीमा तक चारित्र का हिस्सा समझी जा सकती हैं, लेकिन अशुभ क्रियाएँ जो अशुभ मनोभावों से उत्पन्न होती हैं वे किसी भी प्रकार चारित्र का हिस्सा नहीं हो सकती हैं, अतः वे पूर्णतया छोड़ दी जानी चाहिये । इस प्रकार अशुभ मनोभावों को आत्मा से मिटाने के उद्देश्य से साधक को हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह से अपने आपको मुक्त रखना चाहिये। ऐसे पापमय कार्यों में आत्मा की तल्लीनता अत्यधिक तीव्र कषायों की अभिव्यक्ति का सूचक है। उनको पापमय कार्यों के न करने से समाप्त किया जा सकता है। आत्मा की शुद्धि की इस निषेधात्मक प्रक्रिया के लिए विधेयात्मक प्रक्रिया का पालन अनिवार्यरूप से अपेक्षित है। अत: इन अशुभ क्रियाओं को समाप्त करने के लिए अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को पालना आवश्यक है। इस प्रकार दोनों प्रकार की प्रक्रियाएँ साथ-साथ चलती हैं। नैतिक (शुभ) और अनैतिक (अशुभ) क्रियाओं को करने के सम्बन्ध में सम्यग्दृष्टि (जाग्रत) और मिथ्यादृष्टि ( मूर्च्छित) में भेद हम सरसरी तौर पर यह उल्लेख करना आवश्यक मानते हैं कि सम्यग्दृष्टि (जाग्रत) भी उपर्युक्त अशुभ क्रियाओं को करने में व्यस्त हो सकता है। ऐसा समझना प्रथम दृष्टि में ज्ञानी और अज्ञानी या सम्यग्दृष्टि (जाग्रत) और मिथ्यादृष्टि (मूर्च्छित) में भेद मिटा देगा। लेकिन यह मान्यता किसी मिथ्याबोध (गलतफहमी ) पर आश्रित है। उनमें बाहरी समानता होते 2. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 2/6 (100) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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