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हए भी वे आन्तरिक भिन्नता दर्शाते हैं अर्थात् ज्ञानी (सम्यग्दृष्टि) किसी अप्रकट दबाव में अनिच्छापूर्वक ऐसी अशुभ क्रियाओं को करते हैं, जब कि अज्ञानी (मिथ्यादृष्टि) प्रसन्नतापूर्वक उनको करता है। इससे स्पष्ट है कि सम्यग्दृष्टि का अशुभ क्रियाएँ करना असंगत नहीं है। यह सच है कि दोनों ज्ञानी और अज्ञानी अशुभ मनोभावों को उन्मूलन करने में समर्थ होते हैं। लेकिन भिन्नता यह है कि सम्यग्दृष्टि में आध्यात्मिक नैतिकता होती है, मिथ्यादृष्टि में केवल शुष्क नैतिकता होती है जो आध्यात्मिकता के बिना संभव है। शुष्क नैतिकता सामाजिक दृष्टि से उपयोगी है, किन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से निष्फल है जब कि आध्यात्मिक नैतिकता सामाजिक दृष्टि और आध्यात्मिक दृष्टि दोनों से हितकर है। सूक्ष्म और दूरगामी होने के कारण इन दोनों प्रकार की नैतिकता में अंतरंग भेद हमारे सीमित ज्ञान के बाहर रह जाता है। अत: हम कह सकते हैं कि सम्यग्दृष्टि (जाग्रत) के लिए नैतिकता साधन है जब कि मिथ्यादृष्टि (मूर्च्छित) के लिए अपने आप में लक्ष्य है। यह स्मरण रखना चाहिये कि किसी भी प्रकार की नैतिकता व्यर्थ नहीं हो सकती है अत: जहाँ कहीं भी यह देखी जाती है हमारे सम्मान के योग्य होती है। आंशिक चारित्र (विकल चारित्र) की आवश्यकता
यह आश्चर्यजनक है कि उपर्युक्त अशुभ क्रियाएँ किसी भी प्रकार चारित्र का हिस्सा न होते हुए भी मनुष्य के मन में गहराई से स्थित होने के कारण ये प्रारंभ से ही पूर्णतया नहीं छोड़ी जा सकती है। अत: इससे सीमित नैतिकता की धारणा उत्पन्न होती है उसे विकल चारित्र कहा जाता है। इसके विपरीत पूर्ण नैतिकता सकल चारित्र कहा जाता है। जिसमें अशुभ क्रियाएँ पूर्णतया छोड़ी जाती है। जो विकल चारित्र का पालन करता है वह अशुभ क्रियाओं को पूर्णतया छोड़ने में असमर्थ होता
3. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 50
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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