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2.
के पंथ ( 11-13 ), श्वेताम्बरों के पंथ (13-14), जैन
आचारशास्त्र का उद्भव ( 14 ) ।
15-55
जैन आचार का तात्त्विक आधार तत्त्वमीमांसा पर आचार की निर्भरता (15-16), द्रव्य का सामान्य स्वभाव (16-17), अनुभव शब्द का अर्थ (1718), द्रव्य की परिभाषा (18-19), द्रव्य और गुण (1920), द्रव्य और पर्याय ( 20 ), गुण और पर्याय ( 2021), द्रव्य और सत् ( 21-23), प्रमाण, नय और स्याद्वाद (23-25), द्रव्य का वर्गीकरण ( 25-26), भौतिकवाद और आत्मवाद दो अतियाँ ( 27 ), द्रव्यों का सामान्य स्वभाव (27-28), पुद्गल का स्वभाव और कार्य (2829), पुद्गल के प्रकार ( 30-33), आकाश (33-34), धर्म और अधर्म ( 34-35), काल (35-37), जीव ( आत्मा ) का सामान्य स्वभाव ( 37-38 ), संसारी जीव (आत्मा) का स्वभाव ( 39 ), संसारी जीव (आत्मा) के भेद - एकेन्द्रिय संसारी जीव (40), दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक के संसारी जीव (41-42), नैतिक आदर्श के रूप में मोक्ष ( 42-43), उच्चतम आदर्श के रूप में परमात्मा (43-45), नैतिक आदर्श के रूप में निश्चयनय (4546), लोकोत्तर लक्ष्य के रूप में स्वसमय (आत्म-प्रतिष्ठित होना) (46-47), लक्ष्य के रूप में शुद्ध उपयोग ( चैतन्य की शुद्ध अवस्था) (47-49), आदर्श के रूपमें शुद्ध भावों का कर्तृत्व ( 49-51), आत्मविकास के लक्ष्य के रूप में स्वरूपसत्ता की अनुभूति (51), नैतिक उच्चतम आदर्श के रूप में पण्डित - पण्डित मरण ( 52-53), लक्ष्य के रूप में
(VI)
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