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मुनि सदैव मुहँपट्टी बांधते हैं, उनका श्वेताम्बर मूर्तिपूजकों से मुनि जीवन के विस्तार में ज्यादा भेद नहीं है। 18वीं शताब्दी में एक नया सम्प्रदाय जो तेरापंथ नाम से जाना जाता है वह भीखनजी द्वारा आरंभ किया गया; जो स्थानकवासी सम्प्रदाय के ही एक साधु थे।45 यह सम्प्रदाय भी अमूर्तिपूजक है। तेरापंथी मुनि अपने ठहरने के लिए बनाये गये मकानों में नहीं रहते हैं जैसे- स्थानकवासी मुनि करते हैं, यद्यपि तेरापंथी हमेशा स्थानकवासियों की तरह मुहँपट्टी बाँधते हैं। यह सम्प्रदाय आचार्य तुलसी तथा आचार्य महाप्रज्ञ के निर्देशन में फला-फूला। जैन आचारशास्त्र का उद्भव
डॉ. उपाध्ये का कथन है, "हम न्यायोचितरूप से कल्पना कर सकते हैं कि गंगा और जमुना के उपजाऊ किनारों पर एक उच्चकोटि का समाज विद्यमान था और इसके अपने धार्मिक गुरु थे। वैदिक ग्रंथों में मगध देश को सदैव विरोध से देखा है जहाँ जैनधर्म और बुद्धधर्म फले-फूले और ये धर्म वैदिकों के प्रति कोई निष्ठा नहीं रखते हैं। अत: हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जैन आचारशास्त्र अपने उद्भव में मागधीय है।''46
45. भिक्षु विचार दर्शन, पृष्ठ 3 46. वृहत्कथाकोश, भूमिका, पृष्ठ 12
प्रवचनसार, पृष्ठ 12-13
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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