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________________ गुम नहीं मानते हैं। दस पंश प्रवर्तन ने भालों की मालित प्रवृत्तियों पर मारक प्रहार किया। तेरापंथी और बीसपंथी दोनों ही मूर्तिपूजक दिगम्बर हैं। (7) सोलहवीं शताब्दी में तारण स्वामी+2 ने समइयापंथ की स्थापना की। इस पंथ के अनुयायी अमूर्तिपूजक दिगम्बर हैं और आगम के मूलपाठ को पूजते हैं। (8) अट्ठारहवीं शताब्दी में जयपुर के पंडित टोडरमल के पुत्र गुमानीराम ने आचरण की पवित्रता के महत्त्व पर जोर देने की दृष्टि से गुमानपंथ की स्थापना की। यहाँ यह बताया जा सकता है कि उपर्युक्त पंथ कटुतापूर्ण सामाजिक भेद उत्पन्न नहीं कर सके और इन पंथों के अनुयायी सद्भावपूर्ण रूप से रहते हैं। दिगम्बर संघ के इतिहास में इतने आंदोलनों के होते हुए भी संघ की एकता खतरे में नहीं डाली जा सकी। श्वेताम्बरों के पंथ अब हम श्वेताम्बरों के पंथों के बारे में विचार करेंगे। मूर्तिपूजक श्वेताम्बरों में यद्यपि बड़ी संख्या में गच्छों का उद्भव हुआ उन्होंने केवल अनुशासन के स्थूल भेदों को दर्शाया और कोई आधारभूत दार्शनिक भेद नहीं दिखाया। 84 गच्छों की पारम्परिक संख्या में से केवल कुछ ही ज्ञात हैं और उनमें से कुछ ही आज तक जीवित हैं। उदाहरणार्थ- खरतरगच्छ, तपागच्छ और अञ्चलिकागच्छ। वह पंथ जिसने श्वेताम्बर संघ के संगठन को गहराई से प्रभावित किया (वह) स्थानकवासी कहा जाता है। स्थानकवासी मूर्तिपूजा और मंदिरों की निन्दा करते हैं और तीर्थयात्रा में विश्वास नहीं करते। इस सम्प्रदाय के 42. History of Jaina Monachism, p. 448 43. History of Jaina Monachism, p. 448 44. History of Jaina Monachism, p. 440 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (13) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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