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________________ दूसरा अध्याय जैन आचार का तात्त्विक आधार तत्त्वमीमांसा पर आचार की निर्भरता जैनदर्शन के अनुसार आचार-सम्बन्धी चिन्तन तात्त्विक विचारविमर्श पर आश्रित होता है। हमारे आचरण और व्यवहार तात्त्विक पूर्वमान्यता पर निर्भर रहते हैं। एक निर्दोष तात्त्विक सिद्धान्त नैतिक चेतना के विकास के लिए प्रेरणा उत्पन्न करता है। समन्तभद्र का तर्क है कि यदि हम द्रव्य के स्वभाव की रचना में केवल नित्यता या क्षणिकता को स्वीकार करते है तो बंधन और मोक्ष, पुण्य और पाप, स्वर्ग और नरक, सुख और दुःख आदि अपनी प्रासंगिकता खो देते हैं। यह कथन तत्त्वमीमांसा पर आचार की निर्भरता को स्पष्टतया व्यक्त करता है। फिर, सब वस्तुओं का क्षणिक विघटन वित्तीय कार्य सम्पादन को, स्मृति को, पति-पत्नी, गुरु-शिष्य आदि के सामान्य संबंधों को असंभव कर देता है। यह कथन बताता है कि आचार-सम्बन्धी समस्याएँ द्रव्य के स्वरूप के अधीन रहती हैं। इसलिए निम्न पृष्ठों में सर्वप्रथम, द्रव्य के सामान्य स्वभाव पर विचार करना प्रासंगिक है और द्वितीय, द्रव्य के ज्ञान और उसकी अभिव्यक्ति की विधि पर विचार करना उपयुक्त होगा, क्योंकि यह 1. आप्तमीमांसा, 40-41 युक्त्यनुशासन, 8-15 स्याद्वादमञ्जरी, 27 2. युक्त्यनुशासन, 16-17 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त . (15) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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