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(महाव्रत ) पर विचार करेंगे अर्थात् गृहस्थ के आचार और मुनि के
आचार पर।
नैतिक और आध्यात्मिक जीवन के लिए अनिवार्य सात तत्त्व सम्यग्दर्शन का अध्ययन प्रारंभ करने से पहले हमारे लिए सात तत्त्वों के स्वरूप, महत्त्व और तात्पर्य को समझना उचित होगा, क्योंकि इन तत्त्वों की समझ हमें सम्यग्दर्शन के अर्थ को हृदयंगम करने के लिए समर्थ बना सकेगी। इन तत्त्वों के स्वभाव में अन्तर्दृष्टि नैतिक और आध्यात्मिक जीवन के लिए अनिवार्य है । आत्मा की मुक्ति के लिए तत्त्वों का बोध अपरिहार्य है। आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर प्रगति की पूर्वमान्यता है तत्त्वों में श्रद्धा ।
विचार की दो धाराएँ हैं, वे तत्त्व और द्रव्य से संबंधित हैं उनको एक दूसरे से नहीं मिलाना चाहिए, किन्तु प्रत्येक का अर्थ बुद्धि में धारण करना चाहिए। जैन दार्शनिकों के दो उद्देश्य हैं- विश्व की व्याख्या और आत्मा की मुक्ति। छह द्रव्य, जिनका हम पूर्व अध्याय में वर्णन कर चुके हैं, विश्व सम्बन्धी जिज्ञासा की अभिव्यक्तियाँ हैं, जब कि सात तत्त्व नैतिक और धार्मिक जिज्ञासा के परिणाम हैं।
तत्त्व के आधार से विचार किया जाता है- आध्यात्मिक रोग, उसके कारण, उसके इलाज के साधन और रोगमुक्त अवस्था का अर्थात् वे तत्त्व संसार और उसके कारण का और उसके साथ ही मोक्ष और उसके कारण का विचार करते हैं। इस तरह साधक को बंध और इसके कारण को जानना चाहिए तथा मोक्ष और उसके कारण संवर और निर्जरा को जानना चाहिए। इन पाँच तत्त्वों के अतिरिक्त उस आत्मा (जीव) के ज्ञान की भी आवश्यकता है जो बंधन में है लेकिन जिसको स्वतंत्र किया जाना अपेक्षित है। आत्मा (जीव) के बंधन अवस्था की पूर्व मान्यता है एक अजीव तत्त्व
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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