________________
के लिए आगे बढ़ाएँ तो हम विकास के व्यवस्थित सोपान प्राप्त कर सकेंगे।यदि स्पष्ट करें तो सामायिक, प्रोषधोपवास और भोगोपभोगपरिमाणव्रत हमको मुनि जीवन की तरफ विकास के नौ सोपान दे सकते हैं। इस प्रकार दो प्रकारों के बीच न पाटनेवाली खाई नहीं है। उनमें निरन्तरता है और उनके बीच कोई विरोध नहीं है। इसके अतिरिक्त ग्यारह प्रतिमाओं के आधार से व्याख्या अधिक पुरानी और पारम्परिक है, क्योंकि इनके बारे में पुराने आगम-ग्रंथों में संदर्भ प्राप्त होते हैं।198 यद्यपि प्रतिमाओं के आधार से वर्णन कालानुक्रम की दृष्टि से पूर्व है फिर भी तार्किक प्राथमिकता का श्रेय व्रतों के प्रकार को दिया जा सकता है। ग्यारह प्रतिमाएँ __ग्यारह प्रतिमाएँ जो कुन्दकुन्द,199 समन्तभद्र,200 चामुण्डराय और वसुनन्दी201 द्वारा उल्लिखित हैं इस प्रकार हैं- (1) दर्शन, (2) व्रत, (3) सामायिक, (4) प्रोषध, (5) सचित्तत्याग, (6) रात्रिभुक्तित्याग, (7) ब्रह्मचर्य, (8) आरंभत्याग, (9) परिग्रहत्याग, (10) अनुमतित्याग और (11) उद्दिष्टत्याग। कार्तिकेय बारह प्रतिमाओं के नाम गिनाते हैं,202 किन्तु इसे परम्परा की संख्या जो ग्यारह है उसका उल्लंघन नहीं समझना चाहिए, क्योंकि प्रथम प्रतिमा जो कार्तिकेय ने गिनायी है वह सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक जाग्रति) को निर्देशित करती है अर्थात् जो दूसरे आचार्यों द्वारा अलग नहीं गिनाई गई है, किन्तु इसको उन्होंने प्रथम प्रतिमा में ही
198. षटखण्डागम, भाग-1, पृष्ठ102
. कषायपाहुड, भाग-1, पृष्ठ130 199. चारित्रपाहुड, 22 200. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 137-147 201. वसुनन्दी श्रावकाचार, 4 202. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 305, 306
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
(149)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org