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________________ सीमा तक कम करते जाना है और स्वीकारात्मक रूप से अपने जीवन के ध्यानात्मक पक्ष को गहरा करना है। निषेधात्मक पक्ष उसी समय . प्रशंसित होना चाहिए जब वह ध्यानात्मक विकास या शुभ प्रवृत्तियों के . स्वीकारात्मक पक्ष के साथ हो। जैन आचार सम्बन्धी रचनाओं के अध्ययन से हम गृहस्थ के .. आचार की व्याख्या अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत के आधार से पाते हैं जो व्याख्या का एक प्रकार है। यह पद्धति भोग और उपभोग की. . वस्तुओं को क्रमिक रूप से त्याग के द्वारा गृहस्थ के चारित्र के नैतिक और आध्यात्मिक विकास के लिए समर्थ है। इस व्याख्या के प्रभावशाली समर्थक हैं- समन्तभद्र, सोमदेव, अमितगति, अमृतचन्द्र और हेमचन्द्र। उन धार्मिक-नैतिक आचार्यों में से उमास्वाति, अमृतचन्द्र और हेमचन्द्र ने पूर्णतया इस दृष्टिकोण का समर्थन किया है जब कि शेष ने उल्लिखित पद्धति से गृहस्थ के आचरण की व्याख्या करते हुए भी इसकी दूसरे प्रकार से भी व्याख्या की है। दूसरे प्रकार के प्रभावशाली समर्थक अर्थात् जो गृहस्थ के आचार को ग्यारह प्रकार की प्रतिमाओं के आधार से व्याख्या करते हैं वे हैं- कुन्दकुन्द,19 कार्तिकेय,195 चामुण्डराय% और वसुनन्दी।” दोनों प्रकारों में समन्वय ये दोनों प्रकार प्रथम दृष्टि में जैन नैतिक आचरण के दो भिन्न दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए प्रतीत होते हैं, किन्तु ये दोनों इतने घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित हैं कि यदि व्रत की व्याख्या को हम आध्यात्मिक विकास 194. चारित्रपाहुड, 22 195. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 305, 306 196. चारित्रसार, पृष्ठ 3 197. वसुनन्दी श्रावकाचार, 4 (148) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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