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दर्शन, ज्ञान और चारित्र में सतत ठहरना ‘स्वसमय' के अर्थ को बताता है; इसको ‘परसमय' से पृथक् किया जा सकता है जिसमें आत्मा शरीर के साथ, राग और द्वेष आदि मनोभावों के साथ तादात्म्य कर लेता
है।127
लक्ष्य के रूप में शुद्धोपयोग (चैतन्य की शुद्ध अवस्था)
___ पाँचवाँ, शुद्धोपयोग की प्राप्ति मानव प्रयत्न का लक्ष्य है। उसमें आत्मा केवलज्ञान और आनन्द का एक ही समय में अनुभव करता है जो इसकी (आत्मा की) क्रमशः ज्ञानात्मक और भावात्मक अन्तःशक्ति है। हम पहले बता चुके हैं कि चेतना आत्मा का विशिष्ट गुण है। यह अपने
आपको उपयोग में व्यक्त करता है जो चेतना से उसी प्रकार फलित होता है, जैसे तर्क के आधार वाक्यों से निष्कर्ष फलित होता है। उपयोग (चैतन्य की प्रवृत्ति) तीन प्रकार का होता है, अर्थात् शुभ, अशुभ और शुद्ध। आत्मा उस समय शुभोपयोग की ओर प्रवृत्त होता है जब वह नैतिक
और आध्यात्मिक पुण्यकर्मों के पालन करने में लीन होता है। फलस्वरूप आत्मा देवयोनि को प्राप्त करता है जो सांसारिक जीवन का ही भाग है। इसके अतिरिक्त, जब आत्मा हिंसात्मक पापकर्मों, ऐन्द्रिक सुखों आदि के दोषों में फँसता है तो अशुभ उपयोग होता है, तब आत्मा तिर्यंच और नरक गति में उत्पन्न होती है। शुभोपयोग और अशुभोपयोग कर्मों के कारण उत्पन्न होते हैं और ये दोनों उपयोग लगातार आत्मा को अन्तहीन दुःखों के चक्र में घुमाते हैं। परिणामस्वरूप, ये दोनों उपयोग मानव जीवन के उच्चतम आदर्श के रूप में कभी भी कार्यकारी नहीं हो सकते। इसलिए जैनदर्शन स्पष्ट घोषणा करता है कि जब तक आत्मा इन दो प्रकार के उपयोगों से घनिष्ठ रूप से संबंधित है, तब तक वह अपनी ऊर्जा को व्यर्थ
127. समयसार, 2
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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