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________________ की मृगतृष्णा में निष्फल रूप से अपव्यय करता है। इसलिए उच्चतम आदर्श रहस्य में ढका रहता है। लेकिन ज्योंहि आत्मा शुभोपयोग और अशुभोपयोग को त्याग देती है, तो इसका शुद्धोपयोग से संसर्ग हो जाता है। दूसरे शब्दों में, शुद्धोपयोग का अनुभव स्वतः ही अशुद्धोपयोग (शुभ और अशुभ) की समाप्ति में प्रेरणा देता है। परिणामस्वरूप, आत्मा का आवागमनात्मक चक्र पूर्णतया समाप्त हो जाता है। ___ आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सोचने पर हम कह सकते हैं कि सद्गुण और अवगुण दोनों अशुद्धोपयोग हैं जो आत्मा को उच्चतम रहस्यात्मक ऊँचाइयों को प्राप्त करने से रोकते हैं। अतः आत्मा के विकास के लिए. उनको समान रूप से अहितकर मानकर निन्दित किया जाना चाहिए, किन्तु यदि संसारी आत्मा पाती है कि रहस्यात्मक ऊँचाई पर आरोहण कठिन है, तो शुभ क्रियाएँ की जानी चाहिए जिससे कम से कम संसारी आत्मा स्वर्गीय सुख प्राप्त कर सके, किन्तु इस स्पष्ट ज्ञान से कि ये क्रियाएँ कितनी ही मनोयोगपूर्वक और निरन्तर की जाए तो भी किसी प्रकार शुद्धोपयोग का स्वाद देने में असमर्थ रहेंगी। अशुभ क्रियाएँ निश्चित रूप से निन्दित की जानी चाहिए, क्योंकि वे हजारों प्रकार के हृदय-विदारक दुःखों को उत्पन्न करती हैं। शुद्ध चेतना ऐसे आनन्द का अनुभव करती है, जो लोकोत्तर, आत्मा से उत्पन्न, अतीन्द्रिय, अद्वितीय, अनन्त और अविनाशी है।128 यह आत्मा आदर्श के रूप में स्वयंभू'129 कही जा सकती है। यह आत्मनिर्भरता की अवस्था है जिसे अपने आप को संभाले रखने के 128. प्रवचनसार, 1/19,13 सिद्धभक्ति, 7 129. प्रवचनसार, 1/16 Ethical Doctrines in Jainism Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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