________________
लिए किसी दूसरे का बाह्य सहयोग अपेक्षित नहीं है। यह आत्मा अपने आप में विषयी, विषय, अपने आपको प्राप्त करने का साधन, अपने लिए प्राप्तकर्ता, बाह्य अवयवों का नाशक और अनन्त अंत:शक्तियों का आधार है। अत: आत्मा अपने मूल स्वभाव को छह कारकों में परिवर्तित होकर प्रकट करती है। यह कर्ता कारक, कर्म कारक, करण कारक, सम्प्रदान कारक, अपादान कारक और अधिकरण कारक क्रमश: है।130 संक्षेप में कहा जा सकता है कि उच्चतम आदर्श ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक आत्मा में निहित अंत:शक्तियों का पूरा प्रकटीकरण है। हमने पहले दो पर विचार कर लिया है, आगे हम अंतिम का संक्षेप में विचार करेंगे। आदर्श के रूप में शुद्ध भावों का कर्तृत्व
छठा, आदर्श क्रिया के रूप में भी अभिव्यक्त किया जा सकता है। कुन्दकुन्द जैन अध्यात्मवाद के प्रमुख व्याख्याता हैं। उन्होंने कर्ता और कृत्य का दर्शन हमें वसीयत में दिया है। उन्होंने घोषणा की है कि जो कुछ भी कृत्य आत्मा संसार में करती है वे कृत्य आत्मा के शुद्ध, निष्कलंक
और लोकातीत स्वभाव का कोई प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। आत्मा अपने यथार्थ स्वभाव में पुद्गल कर्मों का कर्ता नहीं है; वह तो अपनी शुद्ध अवस्था का ही कर्ता है। संसारी आत्मा भी पुद्गल कर्मों का कर्ता नहीं है;वह तो केवल अशुद्ध मनोभावों का कर्ता है, जिनके द्वारा पुद्गल परमाणु विभिन्न कर्मों में अपने आपको रूपान्तरित करते हैं। कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव के विरुद्ध किसी भी कार्य का कर्ता नहीं है, क्योंकि अशुद्ध मनोभावों का आत्मा के मूलस्वभाव से कोई संबंध नहीं है और वे कर्मों से संबंधित होने के परिणाम है। इसलिए शुद्धात्मा अशुद्ध . 130. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 1/16
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
(49)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org