SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मनोभावों के कर्तृत्व को भी अस्वीकार करती है। पुद्गल कर्म के कर्तृत्व को अस्वीकार करना अर्थात् शुभ और अशुभ मनोभावों के कर्तृत्व को अस्वीकार करना आत्मा की निष्कलंक लोकोत्तर अवस्था को बताता इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि संसारी आत्मा अनादिकाल से अशुद्ध मनोभावों में रमता है। इसलिए वह इन अशुद्ध मनोभावों का कर्ता है। जब जैन दार्शनिक कहता है कि संसारी आत्मा अशुद्ध भावों का कर्ता नहीं है तो वे संसारी आत्मा को कर्मों के आवरण के पीछे देखने के लिए प्रेरित करते हैं। अत: यहाँ मुख्य रूप से आत्मा के शुद्ध स्वभाव की ओर संकेत किया गया है। जैनदर्शन कोई विरोध नहीं देखता है यह कहने में कि ज्ञानी आत्मा, जो आत्मा के शुद्ध स्वभाव से परिचित हो गयी है, वह शुद्ध पर्याय को प्रकट करती है और इस प्रकार वह सारभूत कर्ता उन पर्यायों की हो जाती है। यह कहने में कि अज्ञानी आत्मा अशुद्ध स्वभाव से तादात्म्य करने के कारण अशुद्ध भावों को उत्पन्न करता है और उसके फलस्वरूप यह उनका कर्ता कहलाता है।31 जैसे सोने से केवल सोने की वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं और लोहे से केवल लोहे की वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार ज्ञानी आत्मा शुद्ध पर्यायों को उत्पन्न करता है और अज्ञानी आत्मा अशुद्ध पर्यायों को उत्पन्न करता है। 32 जब अज्ञानी आत्मा ज्ञानी हो जाता है तो वह शुद्ध पर्यायों को बिना किसी असंगति के उत्पन्न करना प्रारम्भ कर देता है। इस प्रकार आत्मा केवल अपनी अवस्थाओं का कर्ता होता है और अन्य किसी का भी कर्ता नहीं होता है। संसारी आत्मा अशुद्ध 131. समयसार, 128, 129 132. समयसार, 130, 131 Ethical Doctrines in Jainism Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy