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________________ मनोभावों का कर्ता कर्मों के संबंध के कारण होता है। किन्तु यदि हम एक कदम और आगे बढ़ते हैं और हम लोकोत्तर रूप से सोचते हैं तो हम अपरिहार्य निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शुद्ध आत्मा अशुद्ध मनोभावों का भी कर्ता नहीं हो सकता है, क्योंकि वे उसके स्वभाव के विपरीत हैं। इस प्रकार शुद्ध आत्मा शुद्ध भावों का कर्ता और भोक्ता होता है। परिणामस्वरूप यह कहा जा सकता है कि क्रियात्मक अन्त:शक्ति का प्रकटीकरण आत्मा के वास्तविक स्वभाव की अभिव्यक्ति है जो आदर्श की अनुभूति के समान है। आत्मविकास के लक्ष्य के रूप में स्वरूपसत्ता की अनुभूति सातवाँ, नैतिक आदर्श को तात्त्विक शब्दों में भी अभिव्यक्त किया जा सकता है। आत्मा के स्वरूपसत्ता की अनुभूति या आत्मा के आभ्यन्तर गुणों और पर्यायों का प्रकटीकरण या आत्मा के मौलिक उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की अभिव्यक्ति नैतिक आदर्श है। निःसन्देह आत्मा अस्तित्ववान है, किन्तु इसका अस्तित्व संसारी है और अनादिकाल से अशुद्ध है। आत्मा को अस्तित्व प्राप्त नहीं करना है, किन्तु जो प्राप्त करना है वह केवल अस्तित्व की शुद्धता है। धर्म, अधर्म, आकाश और काल का शुद्ध अस्तित्व है। पुद्गल अणुरूप में शुद्ध है, और स्कन्ध रूप में अशुद्ध है, किन्तु आत्मा का अस्तित्व अनादिकाल से मलिन अवस्था में है। यह संसारी अवस्था में अपनी अशुद्ध पर्यायों और गुणों की विशेषता लिए हुए होता है। परिणामस्वरूप, यह अशुद्ध उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को प्रकट करती है। अपनी कठोर साधना से शुद्ध पर्याय व गुण और शुद्ध उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को प्रकट किया जाना है। केवल इस अवस्था में आत्मा शुद्ध द्रव्य होने का अनुभव करती है। यह वही रूप होता है जैसा सिद्ध अवस्था में, परमात्म अवस्था में, AG (51) Ethical Doctrines in Jainism $ # 347arat For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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