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आत्मा ने स्वयं को आध्यात्मिक अनुभव के क्षेत्र में उन्नत कर लिया है तो व्यवहारनय अयथार्थ हो जाता है और निश्चयनय यथार्थ हो जाता है। दूसरे शब्दों में, तब हमको व्यवहारनय को छोड़ने का अधिकार प्राप्त हो जाता है जब हमने रहस्यात्मक अनुभव की उच्चतम ऊँचाई को प्राप्त कर लिया है।
नैतिक आदर्श की प्रकृति को नय की भाषा में समझाते हुए कुन्दकुन्द एक कदम ओर अधिक आगे बढ़ते हैं और कहते हैं कि शुद्धात्मा का अनुभव सभी बौद्धिक दृष्टिकोणों को चाहे वे निश्चय हो या व्यवहार हो (उनका) अतिक्रमण कर देता है।124 पूर्ववर्ती (निश्चयनय) आत्मा को कर्मों के द्वारा अबद्ध और अस्पर्शित बताता है, जब कि परवर्ती (व्यवहारनय) उनके द्वारा बंधनयुक्त और स्पर्शित बताता है, किन्तु वह व्यक्ति, जो इन शाब्दिक-बौद्धिक दृष्टिकोणों से परे हो जाता है, समयसार कहलाता है।25 जो उच्चतम आदर्श है जिसको प्राप्त करने पर आत्मा शुद्ध चेतना, परमानन्द और शुद्धज्ञान स्वरूप हो जाता है। लोकोत्तर लक्ष्य के रूप में स्वसमय (आत्म-प्रतिष्ठित होना)
चतुर्थ, उच्चतम आदर्श की अन्य अभिव्यक्ति जैन ग्रंथों में देखी जा सकती है। 'स्वसमय' एक दिव्य आदर्श है जिसे प्राप्त किया जाना चाहिए। जो सांसारिक पर्यायों में लीन है, जो चार प्रकार के आवागमनात्मक चक्र में फँसा है, जो विश्वास नहीं करता है कि द्रव्य स्वतः प्रमाण है, स्वतः अस्तित्ववान है, वह आत्मा ‘परसमय' (पर-प्रतिष्ठित) होता है और जो स्व में प्रतिष्ठित है वह 'स्वसमय' कहलाता है।126 आत्मा का
124. समयसार, 144 125. समयसार, 141,142 126. प्रवचनसार, 2/2/6
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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