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________________ पुत्री के समान मानता है। 2 काम कषाय के सहगामी मद्य, मांस, जूआ, कामुक नाच-गान, व्यक्तिगत शृंगार, नशा, व्यभिचारियों का साथ, निरर्थक फिरना इनको त्याग देना चाहिए। इसके अतिरिक्त किसी व्यक्ति को अपने आप में कामुक क्रियाओं को उत्तेजित नहीं करना चाहिए, कामोत्तेजक भोजन और कामोद्दीपक साहित्य से दूर रहना चाहिए।64 परिग्रह का स्वरूप __ अब हम परिग्रह और परिग्रहपरिमाणाणुव्रत के स्वरूप पर विचार .. करेंगे। परिग्रह का अत्यधिक व्यापक लक्षण मूर्छा (आसक्ति, राग) है। प्रथम, यह कहा जाता है कि वे लोग जिनमें थोड़ा-सा भी मूर्छा का भाव विद्यमान है वे बाह्य संसारी परिग्रह का त्याग करते हुए भी अपरिग्रह से बहुत दूर है। द्वितीय, परिग्रह बताता है कि बाहरी वस्तुओं का रखना अंतरंग मूर्छा के बिना संभव नहीं है। इस प्रकार अंतरंग मूर्छा और बाह्य वस्तुओं का रखना- ये दोनों परिग्रह के अन्तर्गत आते हैं। हम यह कह सकते हैं कि यदि कोई अंतरंग मूर्छा को दूर हटाता है तो उसे उसी के अनुरूप बाह्य वस्तुओं को भी हटाना चाहिए। बाह्य वस्तुओं की उपस्थिति में यदि अमूर्छा (अनासक्ति) का दावा किया जाता है तो यह आत्म प्रवंचना होगी क्योंकि बिना मानसिक झुकाव के बाह्य वस्तुएँ जबरदस्ती 62. Yasastilaka and Indian Culture p.267 कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 338 अमितगति श्रावकाचार, 6/64, 65 63. Yasastilaka and Indian Culture p.267 64. Yasastilaka and Indian Culture p.267 65. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 111 66. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 112 67. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 113 (118) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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