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और वह हवा की तरह नहीं होता जो दूसरी वस्तुओं में क्रियाशीलता उत्पन्न कर देती है। उसी प्रकार अधर्मास्तिकाय गतिमान जीव और पुद्गलों को ठहरने के लिए प्रेरित नहीं करता है, किन्तु उदासीन निमित्त हो जाता है, जब वे अपने आप अपनी गति को रोक देते हैं, जैसे वृक्ष की छाया एक राहगीर को इसके नीचे विश्राम करने के लिए प्रेरित नहीं करती है।4 इस प्रकार न तो धर्मास्तिकाय गति उत्पन्न करता है, न ही अधर्मास्तिकाय उसको (गति को) रोकता है। दोनों निष्क्रिय निमित्त हैं। इसके अतिरिक्त ये दोनों सिद्धान्त लोकाकाश और अलोकाकाश की सीमा के विभाजन के लिए भी उत्तरदायी हैं, क्योंकि ये जीव और पुद्गल का केवल लोकाकाश में ही अस्तित्व संभव बनाते हैं। इसके अतिरिक्त लोक के शिखर पर सिद्धों का निवास इस बात को भी सिद्ध करता है कि आकाश गति और स्थिति के लिए उत्तरदायी नहीं हो सकता है और इसलिए धर्म और अधर्म द्रव्यों के पृथक् सिद्धान्तों की मान्यता को स्वीकार किया जाना आवश्यक है।66
काल
. हमने जैनदर्शन की इस मान्यता का बार-बार उल्लेख किया है कि · द्रव्य सतत परिवर्तनशील होते हुए भी अपने एकरूप स्वभाव को बनाए रखता है। प्रत्येक द्रव्य बिना अपवाद के उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से गौरवान्वित होता है। धर्म, अधर्म, आकाश द्रव्य, सिद्धात्मा और पुद्गल के एक परमाणु में गुण लगातार अपने आप में परिवर्तित हो रहे हैं। 83. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 85, 88 84. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 86 85. पञ्चास्तिकाय, 87. 86. पञ्चास्तिकाय, 92, 93 अमृतचन्द्र की टीका 87. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 2/1
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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