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सांसारिक जीवों में और स्थूल पुद्गल में परिवर्तन का अनुभव सर्वव्यापी है और इसको समझाया जाना आवश्यक है और इसे केवल माया (भ्रम) के रूप में निन्दित नहीं किया जाना चाहिए। इस दृष्टिकोण से जैन दार्शनिकों ने यथार्थ रूप से काल को अस्तित्ववाचक प्रतिष्ठा प्रदान की है और अनुभवात्मक परिवर्तन को समझाने के लिए वे इसको द्रव्य कहते हैं, जैसे गति, स्थिति और अवगाहन पर प्रकाश डालने के लिए धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य सुविचारित हैं,89 जैसे आकाश अपना स्वयं का आधार है उसी प्रकार परमार्थ काल अपने परिवर्तन में स्वयं सहयोगी होता है। साथ ही विश्व की रचना करनेवाले दूसरे द्रव्यों में परिवर्तन का निमित्त माना गया है। काल का परमार्थ काल और व्यवहार काल में वर्गीकरण किया जा सकता है। परमार्थ काल द्रव्य है और समय आदि व्यवहार काल के भेद हैं।2 परमार्थ काल का कार्य वर्तना है अर्थात् यह स्वतः परिवर्तित होनेवाले द्रव्यों में उदासीन रूप से परिवर्तन में सहयोगी होता है और व्यवहार काल का कार्य वस्तुओं में परिवर्तन, गति और अपने आप को युवा और वृद्ध समझने का भाव है। जैसा पहले बताया जा चुका है कि काल द्रव्य 'काय' से रहित होता है, क्योंकि इसके केवल कालाणु के रूप में एक ही प्रदेश होता है। ये कालाणु असंख्य होते हैं और लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक दूसरे से मिश्रित हुए बिना अलग-अलग स्थित होते हैं। व्यवहार काल 88. Niyamasāra, 33 89. Niyamasāra, 30 90. सर्वार्थसिद्धि, 5/22 91. तत्त्वार्थसूत्र, 5/39 92. Niyamasāra, 31 93. सर्वार्थसिद्धि, 5/22 94. द्रव्यसंग्रह, 22
Niyamasāra, 32
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Ethical Doctrines in Jainism
fteref Å BERRIRA RAGAT
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