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उनके द्वारा एक हजार वर्ष या उससे अधिक भी सम्पन्न की गयी कठोर तपस्या- ये दोनों ही सम्यग्दर्शन के अभाव में आध्यात्मिकरूप से निष्फल होंगे। 112
कुन्दकुन्द निर्भय होकर घोषणा करते हैं कि प्रज्ञावान (जाग्रत) मनुष्य चेतन और अचेतन वस्तुओं को भोगते समय कर्मों की निर्जरा करते हैं इस तरह से वे नये बन्धन को टालते हैं। प्रारंभ में यह विरोधाभासी प्रतीत होता है, किन्तु यह न्यायसंगत हैं, क्योंकि वे अनासक्त दृष्टि अपनाते हैं और कर्मों की शक्ति को प्रभावहीन करने में असमर्थ होने के कारण उन्हें कुछ क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। यह बात अज्ञानी मनुष्य के लिए घटित नहीं होती है, जो वस्तुओं की आसक्ति के कारण कर्म-मैल से युक्त होता है और वह आसक्ति के कारण नये कर्म बाँधता है। यह बात जो कही गयी है वह सम्यग्दर्शन के महत्त्व को समझाने के लिए है। इसका उद्देश्य दुर्वासनाओं के प्रति आसक्ति को जीवन में बढ़ावा देना नहीं है ।
इस तरह हम कह सकते हैं कि सम्पूर्ण जैनाचार चाहे वह गृहस्थ का हो या मुनि का, पूर्णतया निष्फल है यदि उसकी पृष्ठभूमि में सम्यग्दर्शन नहीं है। दूसरे शब्दों में, सम्यग्दर्शन जो कि शुद्धात्मा की सच्ची श्रद्धा है, उसको आत्मसात् किए बिना सम्पूर्ण जैनाचार का पालन पूर्णतया परिश्रम को व्यर्थ करना है। इस प्रकार जैनाचार अध्यात्मवाद पर आधारित है। यहाँ हम यह उल्लेख करने से भी नहीं रुक सकते कि जैनधर्म केवल आचारशास्त्र और तत्त्वमीमांसा ही नहीं है किन्तु अध्यात्मवाद भी है जो इस बात से स्पष्ट होता है कि जैन दार्शनिकों ने सम्यग्दर्शन की वास्तविक
112. दर्शनपाहुड, 4, 5
(96) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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