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लिया है किन्तु नैतिक आचरण का पालन नहीं कर पाता है वह गुणों की श्रेणी के अन्त में होता है।189 इन सुपात्रों को भक्तिपूर्वक दान दिया जाता है इनसे भेद करने के लिए हम (I) कुपात्र, (II) अपात्र और (II) करुणा पात्र के स्वरूप का वर्णन करेंगे। (I) सम्यग्दर्शन के अभाव में वह जो व्रतों का पालन करता है तथा तपस्या करता है उसको कुपात्र!90 माना जाता है अर्थात् उसको भक्तिपूर्वक दान नहीं दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, आध्यात्मिकता के अभाव में केवल नैतिक शुद्धता भक्तिपूर्वक दान का . विषय नहीं हो सकती। सरसरी तौर पर हम कह सकते हैं कि दान का यह पक्ष जैन आचारशास्त्र की आध्यात्मिकता पर प्रकाश डालता है। (II) वह जो न तो नैतिक आचरण युक्त है, न ही सम्यग्दृष्टि है उसे अपात्र'91 माना जाना चाहिए अर्थात् वह दान के योग्य ही नहीं होता है। अपात्र समाज के लिए अभिशाप है। (III) बच्चे और दूसरे लोग जो वृद्ध, गूंगे, बहरे, अंधे, विदेशी और रोगी हैं उनको करुणावश उचित वस्तुएँ दी जानी चाहिए।192 यह उल्लेखनीय है कि भक्ति दान का सामाजिक दान
और करुणा दान से भेद किया जाना चाहिए। तीन सुपात्र भक्ति से दान प्राप्त करते हैं, किन्तु कुपात्र और करुणापात्रों को भी नैतिक या सामाजिक दृष्टिकोण से दान देना चाहिए। इसका श्रेय जैन चिन्तकों को जाता है कि
189. वसुनन्दी श्रावकाचार, 222
अमितगति श्रावकाचार, 10/32 पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 171
सागारधर्मामृत, 5/44 190. अमितगति श्रावकाचार, 10/ 34, 35
वसुनन्दी श्रावकाचार, 223 191. अमितगति श्रावकाचार, 10/36, 37, 38
वसुनन्दी श्रावकाचार, 223 192. वसुनन्दी श्रावकाचार, 235
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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