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महावीर के द्वारा प्रतिक्रमण (अतिचार की निन्दा) के व्यवहार की पालना अनिवार्य कर दी गयी, इस तथ्य का बिना लिहाज किए कि अतिचार किया गया है। इसका कारण हो सकता है अस्थिर मन की स्वीकृति और शिष्यों का विस्मरणशील स्वभाव या यह विश्वास कि पाप की चेतना से व्यक्ति गलत काम करने से रुकेंगे। प्रथम तीर्थंकर के समय यही व्यवहार चलता रहा लेकिन तीर्थंकरों (दूसरे से तेईसवें तीर्थंकर तक) के शिष्यों ने किसी अतिचार के करने पर ही प्रतिक्रमण के व्यवहार की पालना की क्योंकि वे अतिसूक्ष्म और स्थायी माने गये हैं। चतुर्थ, पूज्यपाद 'चारित्र भक्ति' में बताते हैं कि महावीर ने तेरह प्रकार के चारित्र का उपदेश दिया अर्थात् पाँच समिति, तीन गुप्ति और पाँच महाव्रत। दूसरे तीर्थंकरों द्वारा इतने विस्तार से उपदेश नहीं दिया गया। पाँचवाँ, 'मूलाचार' के अनुसार ऋषभ और महावीर ने छेदोपस्थापना चारित्र के पालने की घोषणा की जब कि दूसरों ने केवल एक सामायिक व्रत पालने की घोषणा की।22 छेदोपस्थापना का अर्थ है- तेरह प्रकार का चारित्र जो ऊपर बताया गया है या पाँच महाव्रत। सामायिक का अर्थ है- सभी प्रकार की पापपूर्ण प्रवृत्तियों का वर्जन जिसमें संक्षेप में सभी प्रकार के चारित्र का समावेश किया जाता है।24 पूर्व में विद्यमान धर्म के व्याख्याता के रूप में महावीर - उपर्युक्त जो कुछ कहा गया है उससे यह निष्कर्ष निकलता है
20. मूलाचार, 624-630 21. चारित्र भक्ति, 7 22. मूलाचार, 533 23. आचारसार, 5/6,7 . सर्वार्थसिद्धि, 7/1 - 24. सर्वार्थसिद्धि, 7/1
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Tarnea Pelle
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