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संसारी जीवों के स्वभाव और भेद का वर्णन करने के पश्चात् अब हम नैतिक आदर्श पर विचार करेंगे जो मनुष्य जीवन का उच्चतम आदर्श है जिससे मुक्तात्मा के स्वभाव का स्पष्टीकरण भी हो जायेगा। जिस प्रकार आत्मा के अस्तित्व की प्रामाणिकता का विरोध नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार उच्चतम आदर्श की विद्यमानता सन्देहरहित है। एकेन्द्रिय से चार इन्द्रिय तक के संसारी जीव तथा कुछ तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीव उसी अवस्था में अपने परमार्थ पर चिन्तन करने में असमर्थ होते हैं। उनको ऐसी समझ प्राप्त नहीं होती है जो उनको कर्मों की दासता से अपने आपको विमुक्त करवाने में सहयोग दे सके। कर्मों का प्रभाव इतना अधिक होता है कि अस्तित्व की उच्च श्रेणियों में उनका विकास 'समय' से ही निश्चित होता है। किन्तु संज्ञी (मनसहित) मनुष्य अपने विकास के लिए चिन्तन कर सकते हैं और उच्चतम आदर्श प्राप्त कर सकते हैं। उच्चतम आदर्श का अनुभव करने की संभावना से स्वतंत्र, पवित्र और अमर मनुष्य जीवन की संभावना है जिससे आवागमनात्मक चक्र और उससे संबंधित अनिष्ट समाप्त हो जाते हैं। तीर्थंकर ऐसी प्राप्ति के प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
नैतिक, धार्मिक और दार्शनिक जैन ग्रंथों में उच्चतम आदर्श विभिन्न प्रकार से प्रतिपादित हैं। संसार के बहुमूर्तिदर्शी (Kaleidoscopic) परिवर्तनों से थककर जैन आचार्यों ने अंतरंग गहन आत्मा में प्रवेश करके, उच्चतम आदर्श को विभिन्न तरीकों से अभिव्यक्त किया है, किन्तु यहाँ यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि उच्चतम आदर्श के सभी प्रतिपादन एक ही अर्थ का संप्रेषण करते हैं। नैतिक आदर्श के रूप में मोक्ष
प्रथम, आत्मा की मुक्ति उच्चतम आदर्श मानी गयी है। प्रत्येक
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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