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मनुष्य को संसार के दुःखों से स्वयं को मुक्त करने के लिए प्रयत्न करना चाहिए। सभी भारतीय दर्शन चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त मोक्ष को नैतिक आदर्श स्वीकार करते हैं, यद्यपि वे मोक्ष की अनुभूति के स्वरूप में भिन्न-भिन्न होते हैं। जैनदर्शन के अनुसार मोक्ष आत्मा का ब्रह्म से तादात्म्य नहीं है, जैसा कि वेदान्त दर्शन के द्वारा स्वीकार किया गया है, किन्तु यह सिद्ध अवस्था की प्राप्ति है जिसमें आत्म-वैयक्तिकता बनी रहती है। सूत्रकृतांग हमें बताता है कि मोक्ष सर्वोत्तम होता है जैसे - तारों के बीच चन्द्रमा सर्वोत्तम होता है । 116 आचारांग घोषणा करता है कि मोक्ष उस व्यक्ति के द्वारा प्राप्त किया जाता है जो आत्म-संयम में अरुचि अनुभव नहीं करता है। 17 जैसे अग्नि सूखी लकड़ियों को तुरन्त जला देती है, उसी प्रकार अपने आप में स्थित आत्मा तत्काल कर्मों के मैल को नष्ट कर देता है। 18 पूर्ण मोक्ष की अवस्था में संसारी जीव सिद्ध की स्थायी अवस्था में रूपान्तरित हो जाता है। 19 आठ कर्मों का पूर्णतया विनाश करके और अतीन्द्रिय परमानन्द प्राप्त करके संसारी जीव कर्मों का बंधन करनेवाली कालिख से पूर्णतया रहित हो जाता है और उसी रूप में लोकाकाश के शिखर पर स्थायी रूप से बना रहता है। अब उसके लिए कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं है । 120 .
उच्चतम आदर्श के रूप में परमात्मा
द्वितीय, बहिरात्मा की अवस्था को छोड़ते हुए, अन्तरात्मा की अवस्था से गुजरते हुए, परमात्मा की प्राप्ति के रूप में आदर्श वर्णित हैं। 121
116. Sūtrakrtanga I. II, 22
117. ācārānga-Sutra I, 2, 2 P. 17 118. ācārānga-Sūtra I, 4, 3 P.39
119. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 68
120. गोम्मटसार जीवकाण्ड, 68 121. मोक्षपाहुड, 7
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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