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________________ पहला अध्याय जैन आचार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि जैनधर्म की पारम्परिक प्राचीनता परम्परा के अनुसार जैनधर्म अपने उद्गम के लिए ऋषभ का ऋणी है जो चौबीस तीर्थंकरों में प्रथम है। ऐसा कहा गया है कि शेष तीर्थंकरों ने इस प्राचीन धर्म को पुनरुज्जीवित किया और समय-समय पर प्रकट किया। भागवतपुराण में ऋषभ के बारे में जो कुछ तथ्य उल्लिखित हैं वे अधिकांश जैन ग्रंथों में बताये गए तथ्यों के समान हैं। प्रो. रानाडे का कथन है-“ऋषभदेव एक विशिष्ट प्रकार के रहस्यवादी संत है जिनकी अपने शरीर के प्रति पूर्ण असावधानी उनके ईश्वरानुभव की उच्चतम निशानी है।" "यह जानना रुचिपूर्ण होगा कि ऋषभदेव के संबंध में जो विस्तार भागवत में दिया गया है वह आधारभूतरूप से जैन परम्परा द्वारा लिखित विस्तार के लगभग समान है।''2 डॉ. राधाकृष्णन् का मत है- “यह दिखाने के लिए पर्याप्त प्रमाण है कि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में ऐसे व्यक्ति थे जो प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की पूजा करते थे। निःसन्देह जैनधर्म वर्धमान या पार्श्वनाथ के पहले भी प्रचलित था। यजुर्वेद तीन तीर्थंकरों के नामों का उल्लेख करता हैऋषभ, अजितनाथ और अरिष्टनेमि। भागवतपुराण इस दृष्टि का समर्थन - 1. Mysticism in Maharastra, p.9 2. परमात्मप्रकाश, परिचय, पृष्ठ 39 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त. (1) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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