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और द्वितीय सल्लेखना को इनमें सम्मिलित नहीं करना है। मूलगुणों और सम्यग्दर्शनसहित व्रतों की धारणा का एक दोष है और वह यह है कि यह सल्लेखना को अपने अन्तर्गत सम्मिलित नहीं करता है।
संभवतया इन दोषों को दृष्टि में रखते हुए जिनसेन226 ने गृहस्थ के आचार का वर्णन करने के लिए व्यापक पद्धति निकाली। उन्होंने सम्पूर्ण आचार को पक्ष, चर्या और साधन में विभक्त कर दिया। इनके आचरण के पालनेवाले को (1) पाक्षिक, (2) नैष्ठिक और (3) साधक श्रावक कहा जाता है। आशाधर ने सागारधर्मामृत में इस पद्धति को आधार रूप में स्वीकार किया। (1) वह व्यक्ति जो त्रस (दो इन्द्रिय से पंचेन्द्रिय तक) जीवों की संकल्पात्मक हिंसा का त्याग करता है और मूलगुणों27 का पालन करता है वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। पाक्षिक श्रावक अपने
आपको मद्य, मांस, मधु, पाँच प्रकार के उदुम्बर फल और सात प्रकार के व्यसनों और रात्रिभोजन से अलग रखता है।28 इसके अतिरिक्त वह अरहन्तों की पूजा करता है, गुरुओं के प्रति श्रद्धा रखता है और पात्रों को दान देता है।229 वह सबके प्रति मैत्री का अभ्यास करे, गुणवानों की प्रशंसा करे, दुखियों के प्रति करुणावान हो और जो विरोधी हैं उनके प्रति उदासीन रहे।30 (2) वह व्यक्ति जो अपने आप को व्रत और प्रतिमाओं के पालन में लगाता है वह नैष्ठिक श्रावक कहलाता है और (3) अंत
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226. आदिपुराण, 145 227. सागारधर्मामृत, 1/19, 2/2 228. सागारधर्मामृत, 2/17, 76 229. सागारधर्मामृत, 2/23, 86 230. सागारधर्मामृत, 1/19
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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