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________________ प्रकार के पापों में आसक्ति रखने से जो दुःख पैदा होते हैं उन पर विचार करना चाहिए। उदाहरणार्थ- यह सोचा जाना चाहिए कि असत्यवादी मनुष्य पर किसी के द्वारा कभी विश्वास नहीं किया जाता। कारावास, अनादर और दूसरे प्रकार के मानसिक व शारीरिक दुःख उसको इस जीवन में दण्ड के रूप में भोगने होते हैं। इसी प्रकार दूसरे पापों के बारे में भी सोचा जा सकता है। द्वितीय, व्यक्ति को प्राणियों के साथ मैत्री, गुणवानों की प्रशंसा, दुःखी प्राणियों के लिए क्रियाशील करुणा और अक्खड़ तथा विपरीत स्वभाव वालों के लिए उदासीनता का अभ्यास करना चाहिए। ऐसा करने से व्रतों का पालन सुविधाजनक हो जाता है। तृतीय, व्यक्ति को सांसारिक वस्तुओं और इन्द्रिय-भोगों की क्षणिकता और शरीर के अस्थायित्व के बारे में चिन्तन करना चाहिए।74 मूलगुणों की धारणा ___ आचार्य समन्तभद्र ने मूलगुणों की धारणा को विकसित किया और पाँच अणुव्रतों का पालन तथा मद्य, मांस और मधु के त्याग को मूलगुण (प्राथमिक नैतिक गुण) स्वीकार किया। मूलगुणों की धारणा गतिशील है जिसका यह सबूत है कि परवर्ती आचार्यों ने समय, स्थान और अनुयायियों के स्वभाव के अनुसार मूलगुणों में परिवर्तन किया। इस परिवर्तनशील संसार में सदैव नयी स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं और उसके परिणामस्वरूप नयी औषधियाँ आवश्यक हो जाती हैं। विभिन्न युगों वाले व्यक्तियों के लिए कोई भी सर्वोच्च औषधि नहीं हो सकती। मूलगुण जो उच्च विकास के लिए सोपान हैं, उन्हें व्यक्तियों के अनुसार बदला जाना 72. तत्त्वार्थसूत्र, 7/9 73. तत्त्वार्थसूत्र, 7/11 74. तत्त्वार्थसूत्र, 7/12 75. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 66 (122) Ethical Doctrines in Jainism Erf # 34TaKu fale Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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