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________________ "हतं ज्ञानं क्रियाहीनं हता चाज्ञानिनां क्रिया । धावन् किलान्धको दग्धः पश्यन्नपि च पङ्गुलः ।। "" प्राक्कथन क्रिया (आचार) से हीन ज्ञान व्यर्थ है और ज्ञान से हीन क्रिया व्यर्थ है । अन्धा व्यक्ति दौड़ते हुए भी जलते हुए जंगल से बाहर नहीं निकल पाता और आँखों वाला व्यक्ति भी यदि पंगु है तो वह भी नहीं निकल सकता। यदि दोनों व्यक्ति मिल जाएं तो पारस्परिक सहयोग से वे दोनों दावानल से बचकर नगर में पहुँच सकते हैं। इसी प्रकार ज्ञान और क्रिया- दोनों अलग-अलग हों तो निरर्थक हैं और यदि दोनों मिल जाएं तो वह जीव संसारदुःख से छूटकर मोक्ष में जा सकता है। जैनदर्शन के आचारशास्त्र को समझना भी कोई साधारण कार्य नहीं है, जैसा कि प्रायः लोग समझ लेते हैं; क्योंकि वह कोई सामान्य शिष्टाचार या लोकाचार मात्र नहीं है, अपितु एक ऐसा गूढ - गम्भीर द्विमुखी सिद्धान्त है जो एक ओर अपनी आधारशिला के रूप में जैनदर्शन की सम्पूर्ण तत्त्वमीमांसा को स्पर्श करता है और दूसरी ओर साधक को आत्मानुभूति में मग्न कर अपनी आध्यात्मिकता भी सिद्ध करता है । प्रायः जब भी कभी जैनाचार को समझने-समझाने की कोई कोशिश होती है, तो साधारण लोग ही नहीं, बड़े-बड़े विद्वान् और शोधार्थी भी उसके मात्र आचार पक्ष पर ही विमर्श करके रह जाते हैं, 1. तत्त्वार्थवार्तिक, 1/1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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