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हो जाते हैं, जो कि अकल्पनीय दुःखों को इस जीवन में और आगामी जीवन में उत्पन्न करते हैं।
अब हम अनर्थदण्ड के पाँच प्रकारों पर विचार करेंगे। प्रथम, अपध्यान- अशुभ चिन्तन- दूसरे मनुष्यों के दोषों और अवगुणों में झाँकना, दूसरों के धन का लालच करना,132 व्यक्तियों की कलह में रस लेना और शिकार, हार-जीत, चोरी व लॅआ आदि में दिलचस्पी रखना।133 हेमचन्द्र'34
और आशाधर!35 आर्तध्यान और रौद्रध्यान को अपध्यान में सम्मिलित करते हैं। द्वितीय, पापोपदेश- उन लोगों को बुरे निर्देश देना जो नौकरी से, व्यापार से, दस्तावेज लिखने से और कला के क्षेत्र में काम करने से आजीविका उपार्जन करते हैं।136 समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक और चामुण्डराय पापोपदेश में निम्नलिखित बातों को सम्मिलित करते हैंलाभ के लिए दासों और पशुओं के बेचने की चर्चा करना, शिकारियों को निर्देश देना। 37 पापोपदेश का संक्षिप्त अर्थ है- इस तरह से पाप प्रवृत्तियों को उकसाना जिनके कारण व्यक्ति दुष्ट, कषाययुक्त और जीवहिंसक तरीकों में आसक्त हो जाता है। तीसरा, प्रमादचरित- निरुद्देश्य क्रियाएँ करना जैसे-जमीन खोदना, पेड़ उखाड़ना, पानी फैलाना, फल-फूलों
132. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 344 133. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 141, 146 134. योगशास्त्र, 3/75 135. सागारधर्मामृत, 5/9 136. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 142 137. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 4/76
सर्वार्थसिद्धि, 7/21 राजवार्तिक, 2/7/20 चारित्रसार, पृष्ठ 16, 17
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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