________________
करती है, क्योंकि पूर्ववर्ती क्रियाएँ किसी भी समय बिना किसी आवश्यकता के की जा सकती है जब कि परवर्ती क्रियाएँ आवश्यकता पड़ने पर किसी विशेष उद्देश्य से सम्पन्न की जाती है।129 इस प्रकार अनर्थदण्डव्रत के स्वरूप के सम्बन्ध में जैन दार्शनिकों के विचारों में स्पष्ट संगति है। अनर्थदण्ड के प्रकार
अब हम अनर्थदण्ड के प्रकारों पर विचार करेंगे। अनर्थदण्ड में अनेक प्रकार की निरर्थक और निष्फल क्रियाएँ स्वीकार की गई हैं, लेकिन समझने के दृष्टिकोण से ये चार या पाँच प्रकार की मानी गयी हैं। उपासकदशा130 और श्रावकप्रज्ञप्ति131 अनर्थदण्ड के चार प्रकार मानती हैं जब कि कार्तिकेय, समन्तभद्र, तत्त्वार्थसूत्र के व्याख्याता पूज्यपाद और अकलंक अनर्थदण्ड के पाँच प्रकार मानते हैं। चार प्रकार हैं- (1) अपध्यान, (2) पापोपदेश, (3) प्रमादचरित और (4) हिंसादान। यदि दुःश्रुति को सूची में जोड़ दिया जाता है तो अनर्थदण्ड के पाँच प्रकार प्राप्त होते हैं। यद्यपि कार्तिकेय और अमृतचन्द्र ने अनर्थदण्ड के पाँच प्रकारों के नामों का उल्लेख नहीं किया है, तो भी उन दोनों आचार्यों द्वारा जो वर्णन किया गया है वह उपर्युक्त पाँच प्रकारों में सम्मिलित किया जा सकता है। यद्यपि गृहस्थ का जीवन गुण-दोषों का मिश्रण होता है क्योंकि वह अणुव्रतों का पालन करता है, तो भी ये अनर्थदण्डकर्ता को इस तरह से अनावश्यक रूप से फंसाते हैं कि ये अशुभ कर्मों के आस्रव के उत्पादक
129. श्रावकप्रज्ञप्ति, 290 130. Uvasagadasao, 43 131. श्रावकप्रज्ञप्ति, 289
(134)
Ethical Doctrines in Jainism
steref # 3 Termesite for free
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org