________________
इसलिए अनन्त काल से विद्यमान है। यह आत्मनिर्भर. और अपने आप में पूर्ण है। यह हमारी सीमित अवधारणाओं से नहीं नापा जा सकता है, क्योंकि इसमें अनन्त गुण हैं।22 यदि हम सत् को द्रव्य का सारभूत गुण नहीं मानें तो द्रव्य या तो अविद्यमान होगा या सत् से अलग हो जायेगा। पूर्ववर्ती बात (द्रव्य को अविद्यमान मानना) को स्वीकार करने पर द्रव्य पूर्णतया लुप्त हो जायेगा और परवर्ती बात (द्रव्य को सत् से अलग मानना) को स्वीकार करने पर सत् का आरोपण प्रयोजनरहित होगा, क्योंकि द्रव्य अपना सारभूत स्वभाव रखने की योग्यता सत् के अभाव में प्राप्त कर लेगा। इसलिए सत् का विनाश अनिवार्य परिणाम होगा। इसके अतिरिक्त वस्तुओं के सत्तात्मक स्वभाव की अस्वीकृति से हमें वस्तुओं की उत्पत्ति असत् से या दूसरे स्त्रोतों से जो श्रृंखला अन्तरहित होगी स्वीकार करनी होगी।24 इसलिए द्रव्य और सत् अग्नि और ताप की तरह अभेद्य रूप से संबंधित है। यद्यपि वे नाम, संख्या और स्वरूपादि में भिन्न होते हैं। दूसरे शब्दों में उनमें अन्यत्व (भिन्नता) है और पृथक्त्व (वियोजन) नहीं है। द्रव्य और सत् प्रदेश (स्थानिक विस्तार) की अपेक्षा भिन्न नहीं हैं, जैसे, दो भिन्न-भिन्न वस्तुएँ प्रदेश की अपेक्षा भिन्न होती हैं। उनका प्रदेशभेद नहीं, किन्तु स्वरूपभेद है। सत् को द्रव्य के आधार की आवश्यकता है, वह दूसरे गुणों से रहित होता है, द्रव्य के अनन्त विशेषणों में से स्वयं एक विशेषण होता है, द्रव्य की
21. पञ्चाध्यायी, 1/8
प्रवचनसार, 2/6 22. पञ्चाध्यायी 1/8 23. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 2/13 24. पञ्चाध्यायी, 1/10, 11 25. प्रवचनसार, अमृतचन्द्र की टीका, 2/14
(22)
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org