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आते हैं, क्योंकि उनकी उत्पत्ति ज्ञानेन्द्रियों और मन के बिना होती है। 'अनुभव' के अन्तर्गत प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान समाविष्ट होते हैं। इस प्रकार ऐन्द्रिक और बौद्धिक ज्ञान उतने ही अनुभव के भाग हैं जितना इन्द्रियातीत ज्ञान। इस प्रकार ऐन्द्रिक और बौद्धिक अनुभव' भी वास्तविक हैं, यद्यपि उनमें (इन्द्रियातीत) ज्ञान की विशुद्धता नहीं होती है। प्रत्यक्ष (अन्तर्बोधात्मक) अनुभव बौद्धिक अनुभव का विरोधी नहीं है, किन्तु केवल क्षेत्र, विस्तार और शुद्धता में बढ़कर होता है। द्रव्य की परिभाषा
जैन दार्शनिकों के अनुसार द्रव्य वह है जो सत् (अस्तित्व) है या एकसमय में उत्पत्ति (उत्पाद), विनाश (व्यय), स्थायित्व (ध्रौव्य) से युक्त है या गुण और पर्याय का आधार है। प्रारंभ में द्रव्य की ये परिभाषाएँ एक दूसरे से भिन्न मालूम हो सकती हैं, लेकिन सच यह है कि इनमें से प्रत्येक परिभाषा शेष परिभाषाओं को अपने में सम्मिलित करती है, क्योंकि अनुभव के दृष्टिकोण से द्रव्य अपने में अनित्यता और नित्यता को समाविष्ट करता है।' नित्यता गुणों सहित द्रव्य की निरन्तरता को व्यक्त करती है और अनित्यता प्रवाहशील पर्यायों को बताती है।" उदाहरणार्थ- द्रव्य के रूप में स्वर्ण अपने गुण और पर्यायों के साथ अस्तित्ववान है। आभूषण बनाने के पश्चात् स्वर्ण द्रव्य के रूप में अपने गुणों सहित अस्तित्व में रहता है और जो कुछ परिवर्तन होता है वह पर्याय है। इस प्रकार सत् द्रव्य और गुण से स्वर्ण के साथ बंधा हुआ है
8. पञ्चास्तिकाय,10
प्रवचनसार, 2/3-4
तत्त्वार्थसूत्र, 2/29, 30, 38 9. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 10 10. पञ्चास्तिकाय, अमृतचन्द्र की टीका, 10
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