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________________ और पर्यायें नये रूप में उत्पन्न होती हैं, पुरानी पर्याय नष्ट होती है और स्वर्ण उसीरूप में एक ही समय में निरन्तर बना रहता है। इस तरह से द्रव्य एक ही समय में क्रम से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के त्रयी से सम्पन्न रहता द्रव्य और गुण द्रव्य, सामान्य और विशेष (गुणों और पर्यायों) से भिन्न नहीं होता। गुण और पर्याय से रहित द्रव्य कपोल-कल्पना के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। गुण अपने आप में एक क्षण के लिए भी विद्यमान नहीं हो सकते। वे (गुण) द्रव्य के समकालिक अस्तित्व को अवश्यंभावी मानते हैं और किसी भी पृथक् स्वरूप को स्वीकार नहीं करते हैं और वे स्वयं गुणरहित होते हैं।" द्रव्य का विचार एकीकृत और सुव्यवस्थित गुणों का विचार है।"12 द्रव्य और गुण अभिन्न और भिन्न दोनों हैं। उनकी अभिन्नता एक ही प्रदेश (स्थानिक विस्तार) में अस्तित्ववान होने के कारण उत्पन्न होती है और भिन्नता इस तथ्य के कारण उत्पन्न होती है कि द्रव्य गुण . नहीं होता है। द्रव्य गुण नहीं है, गुण द्रव्य नहीं है- यह कथन द्रव्य और गुण के भेद के स्वरूप को महत्त्व देने के लिए है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम द्रव्य का गुणों में पूर्णतया निषेध कर दें या गुणों का द्रव्य में पूर्णतया निषेध कर दें। इस प्रकार द्रव्य और गुण में संबंध अभेद-में-भेद का है। द्रव्य और गुण में भेद केवल नाम, संख्या, स्वरूप और प्रयोजन'4 की दृष्टि से है और वह भेद प्रदेशों (स्थानिक विस्तार) की अपेक्षा नहीं है। 11. तत्त्वार्थसूत्र, 5/41 12. Idea of God, P. 159 सर्वार्थसिद्धि, पृष्ठ 310 13. प्रवचनसार, 2/16 14. आप्तमीमांसा,72 Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त (19) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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