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अकलंक'' ने समय की सीमा के दृष्टिकोण से स्पष्ट रूप से जीवनपर्यन्त इसको पालन करने को प्रस्तावित किया है जब कि अन्य आचार्यों ने अस्पष्ट रूप से ऐसा कहा है। श्रावकप्रज्ञप्ति 7 हमको बताती है कि चूँकि गृहस्थ गर्म लोहे के पिंड के समान होता है उसकी गतिविधि जहाँ कहीं भी होती है हिंसा उत्पन्न करती है। यदि उसकी गतिविधि का क्षेत्र सीमित होगा तो वह अपने आपको उस क्षेत्र के बाहर हिंसा करने से बचा सकेगा। इस प्रकार निर्धारित सीमा के बाहर सूक्ष्म पापों को हटाने के कारण अणुव्रती (गृहस्थ ) महाव्रती ( मुनि) की तरह हो जाता है । 108 इसके अतिरिक्त कार्तिकेयानुप्रेक्षा 109 हमको बताती है कि दसों दिशाओं में सीमा का निर्धारण करने से लोभ कषाय नियंत्रित की जाती है। यह इस.. तरह समझाया जा सकता है कि यद्यपि दिव्रती के द्वारा आसानी से सीमा के बाहर के क्षेत्र से धन प्राप्त किया जा सकता है तो भी वह धन की प्राप्ति को त्याग देता है। 10 यहाँ यह बताना निरर्थक नहीं होगा कि बाह्य संसार में गतिविधि की सीमा अंतरंग कषायों को कम कर सकती है जिसके
फलस्वरूप दिग्व्रत का उद्देश्य पूरा हो जाता है।
106.राजवार्तिक, 2/7/21, 20
107. श्रावकप्रज्ञप्ति, 281
योगशास्त्र, 3 / 2
108. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, 70 पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, 138 सर्वार्थसिद्धि, 7/21
अमितगति श्रावकाचार, 6/77 सागारधर्मामृत, 5/3 राजवार्तिक, 2/7/21, 19
109.कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 341 110.सर्वार्थसिद्धि, 7/21
राजवार्तिक, 2/7/21, 18
योगशास्त्र, 3/3
(128)
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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