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अतिशयोक्ति, छिद्रान्वेषण और अशोभनीय भाषा के प्रयोग को त्याग देना चाहिए और ऐसे शब्द बोलने चाहिए जो उच्चकोटि के हों, हितकारी हों और संतुलित हों।'' उसको गंभीर, धीर, उच्च चारित्रवाला, लोकोपकारक, दयावान और मृदुभाषी होना चाहिए। उसे आत्म-प्रशंसा
और दूसरे की निंदा नहीं करनी चाहिए।48 न ही उसको दूसरे के विद्यमान गुणों को छिपाना चाहिए और न अपने अविद्यमान गुणों का वर्णन करना चाहिए। उसे जालसाजी से बचना चाहिए, गिरवी रखी वस्तुओं की वास्तविक संख्या व्यक्ति द्वारा भूल जाने पर भी वस्तुएँ उसे पूरी लौटा दी जानी चाहिए। चोरी (स्तेय) का स्वरूप
अब हम अचौर्य और अचौर्याणुव्रत के स्वरूप का वर्णन करेंगे। चोरी का अर्थ है-स्वामी के बिना दिये किसी वस्तु को लेना चोरी है। यह अनिवार्य रूप से अपने मन में तीव्र कषाय की अंतरंग उपस्थिति को बताता है।" इस संसार में अस्थायी वस्तुएँ एक व्यक्ति के बाहरी प्राणों की रचना करती है और वह व्यक्ति जो उनको लूटता है या चुराता है वह चोरी करनेवाला कहा जाता है, क्योंकि यह किसी व्यक्ति को प्राणों से रहित करने के समान होता है। यह हिंसा से अन्य नहीं है।53
47. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 334
Yasastilaka and Indian Culture, p.266 • 48. Yasastilaka and Indian Culture, p.266 49. Yasastilaka and Indian Culture, p.266 50. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 102 51. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 102 52. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 103 53. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 104
Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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