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बोलचाल में ज्ञान श्रद्धा से पहले घटित होता है, फिर भी (वास्तव में कहा जाय तो) सम्यग्दर्शन के प्रदीप्त होने के पश्चात् ही ज्ञान आध्यात्मिक अभिव्यक्ति का कारण होता है। यहाँ 'सम्यक्' शब्द प्रारंभ में लगाना ज्ञानमीमांसात्मक महत्त्व नहीं रखता है, किन्तु यह आध्यात्मिक मूल्य का द्योतक है। यद्यपि सम्यग्दर्शन का धारक रस्सी को साँप के रूप में जानता है, जो ज्ञानात्मक रूप से अप्रमाणिक है, फिर भी उसका ज्ञान सम्यक् समझा जायेगा। इसके विपरीत सम्यग्दर्शनरहित व्यक्ति यद्यपि वह संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय को दूर करके वस्तु को जैसी है वैसी जानता है, तो भी वह आध्यात्मिक दृष्टिकोण से सम्यक्ज्ञाता नहीं कहा जा सकता है। अतः ज्ञानमीमांसात्मक निश्चितता ज्ञान के सम्यक् होने से कोई संबंध नहीं रखती है। वह (सम्यक् होना) तो आध्यात्मिक जाग्रति (सम्यग्दर्शन) से उत्पन्न होता है। ____ पारमार्थिक अनुभव के संदर्भ में सम्यग्ज्ञान से पूर्व सम्यग्दर्शन होता है। यद्यपि उनका कार्य-कारण संबंध होता है, फिर भी वे एकसाथ उत्पन्न होते हैं जैसे प्रकाश जलते दीपक के साथ उत्पन्न होता है। एकसाथ उत्पन्न होने से उनका भेद (प्रकाश और दीपक) नष्ट नहीं हो सकता है। उसी तरह सम्यक्चारित्र के पूर्व सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होते हैं। उनके अभाव में चारित्र भी नैतिकता के परे नहीं जा सकता है। दर्शनपाहुड बताता है कि सम्यग्दर्शन से सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है, जिससे सद्गुणात्मक
और अवगुणात्मक मार्ग जाने जाते हैं, और सम्यग्दर्शन का धारक अवगुणों को नष्ट कर देता है, और शील (सद्गुण) ग्रहण करता है, जिससे वह मुक्ति का अनुभव करता है। 56. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 34 57. दर्शनपाहुड, 15, 16
मूलाचार, 903, 904
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Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त
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