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विनाशक है, क्योंकि निरपेक्षवाद सदैव चिन्तन की प्रागनुभविक प्रवृत्ति पर आधारित होता है जो अनुभव से बहुत दूर है। अहिंसा की धारणा जो जैन आचार के क्षेत्र से संबंधित है, पदार्थों के तात्त्विक . स्वभाव का तार्किक परिणाम है।
चतुर्थ, जैनधर्म केवल आचार और तत्त्वमीमांसा ही नहीं है बल्कि अध्यात्मवाद भी है। यह इस बात से स्पष्ट है कि जैन आचार्यों द्वारा निरन्तर सम्यग्दर्शन ( आध्यात्मिक जाग्रति) की वास्तविक उपलब्धि पर जोर दिया गया है। सम्यग्दर्शन की पृष्ठभूमि के बिना सम्पूर्ण जैन आचार चाहे गृहस्थ का हो या मुनि का, पूर्णतया निर्जीव है ।
मुझे लिखते हुए हर्ष है कि डॉ. वीरसागर जैन के प्रेरणाप्रद प्रोत्साहन व मार्गदर्शन ने तथा श्रीमती शकुन्तला जैन की कार्यनिष्ठा ने मेरे सम्पादन - कार्य को सुगम बना दिया, फलस्वरूप इसका खण्ड-1 प्रकाशन के लिए तैयार हो सका; अतः मैं इनका अत्यन्त आभारी हूँ । मैं विशेषतया डॉ. वीरसागर जैन के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ जिन्होंने इस पुस्तक को आद्योपान्त अक्षरशः पढ़ा, बहुमूल्य सुझाव दिए और इसका प्राक्कथन लिखने की स्वीकृति प्रदान कर अनुगृहीत किया ।
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डॉ. कमलचन्द सोगाणी निदेशक
जैनविद्या संस्थान
दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी
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