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________________ करने में समर्थ होते हैं। इसी प्रकार यह बात उन सब परमाणुओं के लिए लागू होती है जिनमें स्निग्धता या रूक्षता की दो मात्रा का अन्तर है। यह सिद्धान्त परमाणुओं के मात्र संयोग को निरस्त करता है लेकिन उनका संश्लेषात्मक एकत्व प्रतिपादित करता है। अब हम स्कन्धों की धारणा को समझने की ओर अग्रसर होते हैं। परमाणुओं का संयोग छह विभिन्न रूपों में होता है, अर्थात्- (1) स्थूल-स्थूल, (2) स्थूल, (3) स्थूल-सूक्ष्म, (4) सूक्ष्म-स्थूल, (5) सूक्ष्म, और (6) सूक्ष्म-सूक्ष्म।2 (1) पुद्गल का वह वर्ग, जो विच्छिन्नता को प्राप्त होता है और अपनी मूल अवस्था को बिना किसी बाहरी सहयोग के प्राप्त नहीं कर सकता, (वह) स्थूल-स्थूल कहलाता है, उदाहरणार्थ- लकड़ी, पत्थर आदि। (2) जो विच्छिन्न किए जाने पर बिना किसी तीसरे के हस्तक्षेप के एक हो सकते हैं वे स्थूल कहलाते हैं, उदाहरणार्थ- जल, तेल आदि। (3) जो विच्छिन्न नहीं हो सकते और पकड़े नहीं जा सकते हैं वे स्थूल-सूक्ष्म के अन्तर्गत आते हैं, उदाहरणार्थ- छाया, धूप आदि। (4) स्पर्श, रस, गंध और शब्द के विषय सूक्ष्म-स्थूल कहलाते हैं। (5) कर्म वर्गणा आदि जो इन्द्रियों से अगोचर हैं वे सूक्ष्म कहलाते हैं। (6) दो परमाणुओं के जोड़ और कार्माण वर्गणा से छोटे स्कन्ध सूक्ष्म-सूक्ष्म की श्रेणी में आते हैं। जैसा हम पहले कह चुके हैं कि ध्वनि की उत्पत्ति स्कन्धों के आपसी टकराव से पैदा होती है। अब हम गति के स्वभाव पर प्रकाश डालेंगे। जैनदर्शन गति की वास्तविकता को स्वीकार करता है। वह पर्याय के रूप में समझी जा 70. सर्वार्थसिद्धि, 5/37 71. सर्वार्थसिद्धि,5/37 72. Niyamasara, 21-24 (32) Ethical Doctrines in Jainism जैनधर्म में आचारशास्त्रीय सिद्धान्त Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004206
Book TitleJain Dharm me Aachar Shastriya Siddhant Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherJain Vidya Samsthan
Publication Year2010
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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