Book Title: Jain Dharm
Author(s): Sushilmuni
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Catalog link: https://jainqq.org/explore/010221/1

JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLY
Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. TFIC tries to address these needs too. Our intent is to aid all these repositories and digitization projects and is in no way to undercut them. For more information about our mission and our fair use guidelines, please visit our website. Note that we provide this book and others because, to the best of our knowledge, they are in the public domain, in our jurisdiction. However, before downloading and using it, you must verify that it is legal for you, in your jurisdiction, to access and use this copy of the book. Please do not download this book in error. We may not be held responsible for any copyright or other legal violations. Placing this notice in the front of every book, serves to both alert you, and to relieve us of any responsibility. If you are the intellectual property owner of this or any other book in our collection, please email us, if you have any objections to how we present or provide this book here, or to our providing this book at all. We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनागमों के आधार पर समन्वयात्मक विवेचन - जैन धर्म लेखक: मुनि सुशील कुमार सहायक: आत्मार्थी मोहन ऋषि जी महाराज महासती उज्ज्वल कुमारी जी प्रस्तावना लेखक: अनंतशयनम् आयंगर अध्यक्ष लोकसभा, नई दिल्ली प्रकाशक अ०भा० श्वे० स्थानकवासी जैन कान्फ्रस भवन, १२ लेडी हाडिंग रोड, नई दिल्ली Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरक : न्यू इंडिया प्रेस, कनाट सर्कस, नई दिल्ली : सर्वाधिकार सुरक्षित मूल्य : पांच रुपये पनि २००० सन् १९५८ वि०सं० २०१५ वीर सं० २४८४, शाके १९८० Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रमण संघ के प्राचार्य जैनधर्म दिवाकर, जैनागम रत्नाकर श्री प्रात्माराम जी महाराज - की सम्मति बहुत वर्षों से ऐसी पुस्तक की आवश्यकता अनुभव की जा रही थी जो एक अजैन व्यक्ति को जैन सिद्धांतों * का परिचय कराए। संतोष का विषय है कि एस० एस० जैन कान्फ्रेस के कर्मठ और जैन धर्म प्रभावक र कार्यकर्ताओं ने इस ओर ध्यान दिया है और जैनधर्म नाम की पुस्तक तैयार करवाई है। पुस्तक मैने आद्योपान्त सुनी है। भाव, भाषा और शैली की दृष्टि से सन्तोषप्रद है। वर्षों से समाज को जो कमी खटक रही थी, आशा है उसे पूरा करने मे यह पुस्तक में सहायक सिद्ध होगी। R WAsarestsASAwa Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारमा PHARNADP अन्य सम्मतियाँ भारतीय गणतंत्र के उपराष्ट्रपति, विश्वविख्यात दार्शनिक सर्वपल्ली डाक्टर राधाकृष्णन् मै दृढता पूर्वक कह सकता हूँ कि आज के युग मे राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय समस्याओं में अहिंसा का हमारे लिये महान् मूल्य है। फिर भी वाधा यह है कि हम अहिंसा के सम्बन्ध में बात करते है, किन्तु अहिंसा को जीवन में नहीं उतारते। यदि यह ग्रन्थ (जैन धर्म) पाठकों के अन्त करण में अहिंसा की प्रतिष्ठा कर सफा तो यह महान्तम कार्य होगा। नितम्बर २६-१९५८ नई दिल्ली सर्वपल्ली राधाकृष्णन राष्ट्र कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त, एम० पी० श्री मुनि मुशील कुमार जी ने यह ग्रन्थ लिख कर मेरी सम्मति मे राष्ट्र भारती को एक रत्न को भेंट दो है। इससे जैन धर्म का विश्वसनीय स्वरूप ममाने में नहायता मिलेगी। फारण, यह एक अधिकारी विद्वान् के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। बीच-बीच में रमणीय उद्धरणों ने इसे और भी स्मरणीय बना दिपा है। मैथिली शरण Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना मै 'जैनधर्म', ग्रन्थ का अभिनन्दन करते हुए परमानन्द का अनुभव कर रहा हूँ क्योंकि आदरणीय सुशील कुमार जी जैसे महामुनि इस ग्रन्थ के लेखक है और फिर विद्वान् एवं विद्यार्थी तथा साथ ही सामान्य मुमुक्षु सज्जनो के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपादेय है। ग्रन्थ की भाषा सरल एवं सुन्दर हिन्दी रखी गई है। मुनि सुशीलकुमार जी स्वयं सस्कृत के एक प्रकाण्ड पण्डित है, उनके जीवन मे जैनधर्म का तत्वज्ञान व जैनधर्म का आचारधर्म दोनो ही साकार हो उठे है। जैनधर्म के प्रसार में उन्होने अपने (जनसाधु )जीवन का उत्सर्ग किया है। यह ग्रन्थ उन्ही के द्वारा निर्माण हुआ है। अहिसा जैनधर्म का सर्वोच्च सिद्धान्त है। हिसा के विश्वव्यापी प्रचार के लिए मुनि जी कृतसकल्प ही नहीं, अपितु उनके जीवन का परम उद्देश्य है। आज जगत् द्वितीय महायुद्ध के उपरान्त तृतीय शीतयुद्ध की आशंका से आक्रान्त है। मानव जाति की रक्षा के लिए अहिंसा की भावना को जगत् और जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रतिष्ठापित करने के लिए कोई कसर उठा नहीं रखनी चाहिए । अहिंसा के सद्भाव से ही मानवता जीवित रह सकती है, शान्ति सॉस ले सकती है और विश्व को विध्वंस और विनाश के महाप्रलय में विलीन कर देने वाले शस्त्रो व अस्त्रो से सुरक्षित रखा जा सकता है। युद्ध एवं शस्त्रों का उत्तर अहिंसा है। भारत के महान संतों जैसे जैनधर्म के तीर्थंकर ऋषभदेव व भ० महावीर के उपदेशों को हमें पढ़ना चाहिए। आज उन्हें अपने जीवन म उतारने का सबसे ठीक समय आ पहुंचा है। क्योंकि जैनधर्म का तत्वज्ञान अनेकान्त (सापेक्ष्य पद्धति) पर आधारित है, और जैनधर्म का आचार अहिंसा पर प्रतिष्ठापित । जैनधर्म कोई पारस्परिक विचारो, ऐहिक व पारलौकिक मान्यताओ पर अन्ध श्रद्धा रखकर चलने वाला सम्प्रदाय नही है, वह मूलतः एक विशुद्ध वैज्ञानिक धर्म है। उसका विकास एवं प्रसार वैज्ञानिक ढंग से हुआ है। क्योंकि जैनधर्म का भौतिक विज्ञान, और आत्मविद्या का क्रमिक अन्वेषण आधुनिक विज्ञान के सिद्धान्तो से समानता रखता है। जैनधर्म ने विज्ञान के उन सभी प्रमुख सिद्धान्तो का विस्तृत वर्णन किया है। जैसे कि पदार्थ विद्या, प्राणिशास्त्र, मनोविज्ञान, और काल, गति, स्थिति, आकाश एवं तत्वानुसंधान । श्री जगदीश चन्द्र बसु ने वनस्पति मे जीवन के अस्तित्व को सिद्ध कर जैनधर्म के पवित्र धर्मशास्त्र भगवती सूत्र के वनस्पति कायिक जीवों के चेतनत्व को प्रमाणित किया है। प्रत्येक धर्म ने मानव जाति के लिए नये-नये ज्ञानक्षेत्रो को खोला है । यही कारण है कि प्रत्येक धर्म अपने आप में कुछ असाधारण विशेषताओं से युक्त Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है। जैनधर्म की विशेषता एवं महानता अनेकान्त एव हिसा के सर्वाङ्गीण विवेचन पर प्रतिष्ठित है। सभी धर्म आत्मा की मुक्ति पर विश्वास करते है। जन्म एवं पुनर्जन्म के भव-भ्रमण से वियुक्त हो जाना ही अपना परम ध्येय मानते है। जैसा कि महावीर स्वामी ने सूत्र कृतांग में बताया है कि :-- "निवारण सेट्ठा जह सव्व धम्मा" अर्थात् सभी धर्मों का अन्तिम ध्येय मुक्ति है । जैनधर्म भी निर्वाण प्राप्ति को ही धर्म साधना का अन्तिम साध्य मानता है। और इसी उद्देश्य को सिद्धि के निमित्त उसने मोक्ष मार्ग का विधान किया है। जो तीन सिद्धान्तों का समन्वित स्वरूप है । जैसे कि सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, व सम्यक् चारित्र तीनों संयुक्त रूप मे मोक्ष का मार्ग है। मुझे यह देखकर हर्ष हुआ है कि श्रद्धय मुनि सुशीलकुमार जी ने यह अन्य नशास्त्रो के आधार पर तैयार किया है। जिससे जैनधर्म के प्रामाणिक स्वरूप को संक्षिप्त एव सुरुचिपूर्ण ढंग से पाठक प्राप्त कर सकें। इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसकी सामग्री दिगम्बर (षटखण्डागम् समयतार, श्रावकाचार आदि) एवं श्वेताम्वर (अंग, उपांग, मूल छेद, व जैनाचार्यो के ग्रन्य, उमास्वाती का तत्वार्थसूत्र) आगमो से संचित की गई है। समूचा ग्रन्थ तीन खण्डो में विभाजित है। ज्ञान खण्ड, दर्शन खण्ड, एवं चारित्र खण्ड। इन्हे क्रमशः वर्गीकृत कर १३ अध्यायो मे विभक्त कर दिया गया है। ग्रन्थ में जैन इतिहास व जैन संस्कृति का संक्षिप्त दिग्दर्शन भी कराया गया है। विद्वान् लेखक ने साम्प्रदायिक व विवादास्पद मतभेदो को ग्रन्थ से दूर ही रखा है। लेखक ने 'अतीत की झलक व जैन सभ्यता में इस तथ्य को अधिक सुन्दरता से स्पष्ट किया है कि जैनधर्म आर्यधर्म है। जैनधर्म के सभी तीर्थकर आर्य थे और जैनधर्म का पुराना नाम आर्य धर्म ही था। वैदिक धर्म, जैनधर्म य वद्ध धर्म, आर्यवर्म के ही अग है । दर्शन एव सिद्धान्तो के दृष्टिकोण से ये सब भिन्न-भिन्न है, परन्तु इन सब की संस्कृति एवं पृष्ठभूमि एक समान है। क्योकि इन सब का उद्गम स्थान मुझे इसमें किचित् भी सन्देह नही कि इस ग्रन्थ का धार्मिक क्षेत्रो में स्वागत किया जायेगा। यह ग्रन्थ विद्यार्थियों एवं जिज्ञासुओ को महान् जैनधर्म के समझने व उनके प्रति धारणा बनाने में सहायता करेगा। मुझे विश्वास है कि परम अदरणीय मुनि सुनील कुमार जी महाराज का यह जैनधर्म के प्रसार के निमित्त किया गया गुरुतर प्रयास अवश्य सुफल लायेगा। नई दिल्ली, अनंतशयनम आयंगर, अक्तूबर १, १९५८॥ अध्यक्ष लोकसभा, नई दिल्ली Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्पणा-पत्र श्री वर्द्धमान स्था० जैन श्रमण संघ के आचार्य श्री आत्माराम जी महाराज तथा उपाचार्य श्री गणेशी लाल जी महाराज को सादर समर्पण विनयावनत मुनि सुशील कुमार Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ APA प्रात्म-निवेदन जैनागमों के आधार पर, जैन धर्म के सम्बन्ध में सही जानकारी जगत् के विद्वानों, धर्म जिज्ञासुओ व विद्यार्थियो के सामने रखने की मेरे मन में बहुत देर से माकांक्षा रही है। अ० भा० श्वे० स्थानकवासी जैन कान्फ्रेंस ने ठीक इसी आशय का एक प्रस्ताव पास कर इस प्रकार की जैन धर्म पर समत्वयात्मक पुस्तक लिखने का अनुरोध मेरे से व आत्मार्थी मोहन ऋषि जी म०एवं महासती उज्ज्वल कुमारी जी से किया था। यह मेरे मन की बात थी। मैने बम्बई के निकट लोनावाला जैन बन्धुओं की प्रार्थना स्वीकार कर पार्वतीय सुरम्य वातावरण में बहुत शीघ्र ही सारा मसविदा तैयार कर लिया। चार वर्ष के बाद वह पुस्तक आज पाठकों के सामने है। महासती जी द्वारा प्रेषित पुस्तक का सहकार एवं जैन समाज के लन्ध प्रतिष्ठ विद्वान् श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल का तम्पादन इस पुस्तक के संवर्धन में सहयोगी रहा है। मेरे जैन धर्म पुस्तक लिखने का आशय श्वेताम्बर एवं दिगम्बर आगमों के माधार पर जैन समाज की धार्मिक एकता को प्रोत्साहन देना है। और साथ ही साय जैन धर्म के संबंध में फैलाई गयी भ्रान्तियो को दूर कर जैन धर्म की गहराइयों की ओर भी संसार का ध्यान आकर्षित करना है। पुस्तक में १३ अध्याय है, जैन इतिहास, जैन तत्वज्ञान, जैन समाज, जैन सभ्यता और जैनाचार पद्धति आदि सभी का परिचय इस पुस्तक में शास्त्रीय आधार पर देने का प्रयत्न किया गया है। भूलें होना स्वाभाविक है, जैन धर्म जैसे अगाध तत्वज्ञान एवं विशाल वाङमय से परिपूर्ण धर्म का परिचय देना मेरे जैसे अनभिज्ञ गीतार्थी के लिए अत्यन्त कठिन है, किन्तु श्रद्धावश यह मेरी प्रेमाञ्जलि है। ___अन्त में मै जैन समाज के कर्मठ सेवी भगवान महावीर के अनन्य उपासक श्री कुन्दनमल जी फिरोदिया, स्व० श्री विनय चन्द भाई जौहरी, आनन्दराज सुराणा एवं स्व० श्री जगन्नाथ जी जैनी को भूल नहीं सकता जिनकी उत्साह भरी प्रेरणाएं पुस्तक लेखन में मुझे उल्लसित करती रही है । --मुनि सुशील कुमार Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय अहिंसा आज विश्व-धर्म है। युद्ध एवं विनाश ने अहिंसा के महत्व को जगत् के सामने धौली-धूप की तरह स्पष्ट कर दिया है। व्यक्ति एवं समष्टि को सुरक्षा, शोषणहीन समाज की कल्पना, न्याय व समानता के मानवीय सिद्धान्त अहिंसा के बिना कभी साकार नहीं हो सकते। गाधी जी के अवतरण के बाद संसार ने अहिंसा को खोज प्रारंभ की है। किन्तु जैन-धर्म अहिंसा का संदेश और साधना को लिए प्राचीनकाल से ही मानव जाति की सेवा कर रहा है। तथापि खेद है कि जैन धर्म के उदार सिद्धान्तो व मौलिक मान्यताओं तथा दिव्य धारणाओं और अलौकिक गढ़ विद्याओ का लोकव्यापी प्रचार न किया जा सका। यही कारण है कि स्कूल-कालेज व विश्व-विद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली पुस्तकों में जैन धर्म को लेकर अनेक प्रकार की भ्रान्त धारणाएं प्रसारित की गई है। भारतवर्ष तो अहिंसा प्रधान है ही; परन्तु आज समस्त विश्व अहिंसा और शान्ति की ओर झांक रहा है, जैनधर्म में अहिंसा का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप बताया गया है, अन्यत्र कहीं भी अहिंसा का ऐसा सूक्ष्म और विराट स्वरूप नहीं मिलेगा। अतः अ० भा० श्वे० स्थानकवासी जैन कांफ्रेंस ने जैन धर्म के मौलिक सिद्धान्तों के परिचय के रूप में एक सर्वमान्य पुस्तक प्रकाशित करने के सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित किया था। उसी के अनुसार आज “जैन धर्म" पुस्तक को प्रकाशित कर पाठकों को समर्पित करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है। पुस्तक के लेखक है विश्व-धर्म सम्मेलन के प्रेरक प्रसिद्ध संत मुनि सुशीलकुमार जी । सहकार के रूप में आत्मार्थी मोहन ऋषि म० तथा महासती उज्ज्वलकुमारी जी, उन्ही के द्वारा लिखित जैन धर्म पुस्तक को इसमें सहायता ली गई है। एतदर्थ हम अपनी तथा अ० भा० श्वे० स्था जैन कांफ्रेंस की ओर से उनके आभारी है। मुनि सुशील कुमार जी ने अत्यन्त कार्यव्यस्त होने पर भी जो पुस्तक लेखन व संशोधन सम्बन्धी योग दिया है वह सराहनीय है। Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पुस्तक में किसी प्रकार की साम्प्रदायिकता न आवे और जैन सिद्धान्तों का सर्वमान्य परिचय मिले, यही दृष्टि रक्खी गई है। जैनों को अपने धर्म का परिचय और ज्ञान हो और अजैनो को भी जैन धर्म की जानकारी मिले यही इस 'जैन धर्म' पुस्तक का ध्येय है। 'जैनधर्म' का अधिक से अधिक प्रचार हो इस दृष्टि से इस पुस्तक का अनुवाद गुजराती, मराठी, तामिल आदि भारतीय भाषाओं में तथा अंग्रेजी, जर्मनी, फ्रेन्च आदि विदेशी भापाओ में भी प्रकाशित करने की हमारी भावना है। पुस्तक-सम्पादन में प्रसिद्ध पंडित श्री शोभाचन्द्र जी भारिल्ल ने महत्त्वपूर्ण योग दे कर हमारी चिरकालीन महान् अभिलाषा पूर्ण की है। एतदर्य वे धन्यवाद के पात्र है। हम श्री अनंतगयनम् आयंगर, अध्यक्ष लोक सभा के अत्यंत आभारी हैं कि जिन्होंने अत्यधिक कार्य ध्यस्तता में भी इस अन्य की प्रस्तावना लिखने की कृपा की। प्रस्तावना में जैन धर्म के प्रति उनकी उदाराशयता हमारे लिये स्पृहणीय है। इनके अतिरिक्त श्री शान्ति लाल वनमाली सेठ,श्री भूपराज जैन एम० ए०, श्री जिनेन्द्र मानव, श्री सोमनाथ जोशी शास्त्री प्रभाकर का प्रूफ संशोधन आदि का समय-समय पर दिया गया सहयोग विस्मृत नहीं किया जा सकता।। यद्यपि अशुद्धियों की ओर से पर्याप्त सतर्क रहा गया, फिर भी कई त्रुटियों का रहना संभव है। यदि पाठक अशुद्धियां सूचित करने का कष्ट करेंगे तो आगामी संस्करण में परिष्कृत की जा सकेंगी। विनीत आनन्दराज सुराणा (भूतपूर्व एम एल.ए.) विजयादशमी (आसोज १० १०) जसवंतराज मेहता, एम०पी०, वोर सं० २४८४ वि० सं० २०१५ ।। सौभाग्यमल जैन, (भूतपूर्व वित्त मंत्री) ता० २१-१०-५८ धीरजलाल केशवलाल तुरखिया, खीमचन्द मगनलाल वोरा मंत्री अ० भा० श्वे० स्था० जैन कांफ्रेंस, नई दिल्ली Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहाँ क्या ? १. मंगलाचरण १. नमस्कार, २. मगलपाठ । २. जैनधर्म का स्वरूप ३. अतीत की झलक ९-४८ १. जैन धर्म का अनादित्व, २. भगवान् ऋषभदेव, ३. उपनिषदो मे जैन धर्म, ४ पुराणो मे जैन धर्म, ५. जैन धर्म के तीर्थकर, ६. भगवान् नेमिनाथ, ७. भगवान् पार्श्वनाथ, ८. भगवान् महावीर, ६. भगवान् महावीर का उदार सघ, १०. महावीर की देन, ११. तत्कालीन धर्म प्रवर्तक, १२. गोशालक, १३. महावीर और बुद्ध, १४. महावीर और बुद्ध मे समानता और विभिन्नता, १५. दोनो सस्कृतियो की मूल प्रेरणा एक, १६. सात निन्हव और अन्य विपक्षी, १७ भगवान् द्वारा अचेलत्व की प्रशसा, १८. वैदिक एव जैन सस्कृतियाँ, समन्वयात्मक वृत्ति में परिपूर्ण, १६. अन्य धर्मो पर श्रमण-परम्परा की छाप, २०. प्राचीन काल मे श्रमण-सस्था का कप्ट-सहन, २१. श्रमण और प्रचार, २२. महावीर और भारत की तत्कालीन अवस्था, २३. महावीर के साधु, सेवक-सेना, २४. लोक-भाषा का प्रश्रय, २५. महावीर की परम्परा की रक्षा, २६. विश्व के नाम महावीर का सन्देश, २७. शिष्य परम्परा । ४. मुक्ति-मार्ग ४९-६० १. मुक्ति की परिभाषा, २. सम्यग्दर्शन, ३. सम्यग्दर्शन के आठ अग--(नि शकित, निकाक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़ दृष्टित्व, उपवृहण, स्थिरी-करण, वात्सल्य, प्रभावना) । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५. सन्या ज्ञान ६१-११२ १. सम्यग् ज्ञान का स्वरूप-स्वरूप, ज्ञान की यथार्थता व अयथार्थता, ज्ञान के भेद, ज्ञान की प्रत्यक्ष परोक्षता, मतिज्ञान के भेद, ज्ञान का क्रम-विकास, श्रुत-ज्ञान, मति-श्रुत का अन्तर, श्रुत का प्रामाण्य, भेद, जैनाचार्यों की साहित्य सेवा, अवधिनान, मन पर्याय-ज्ञान, केवल ज्ञान । २ विश्व का विश्लेषण (द्रव्य व्यवस्था)----द्रव्य व्यवस्था का उद्देश्य, द्रव्य क्या है, विश्व का मूल, पृथक्करण, जीवद्रव्य, अजीव । ३. तत्त्वचर्चा--जीव, अजीव, पुण्य के भेद, पाप, आस्रव, सवर, बन्ध, मोक्ष । ४. प्रमाण-मीमासा--प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम प्रमाण, उपमान प्रमाण । ५ नयवाद-नय का स्वरूप, नय की सत्यता, नय के भेद। ६. अनेकान्त, ७ स्याद्वाद, ८ भाषा नीति-निक्षेप विधान। ६. मनोविज्ञान ११३-१३३ १. इद्रियाँ (पाच), २ इद्रियो के विषय, ३ मन, ४. लेश्या (कृष्ण लेश्या, नील लेश्या, कापोत लेश्या, तेजो लेश्या, पद्म लेश्या, शुक्ल लेश्या), ५ कषाय--१ कषाय का अर्थ-कपाय के भेद १ क्रोध, २. अभिमान, ३. माया, ४. लोभ । ७. जैन योग १३५-१४४ १ योग । २ जैन धर्म मे अष्टांग योग-महाव्रत (यम), योगसग्रह (नियम), कायक्लेश (आसन), भावप्राणायाम (प्राणायाम) प्रतिसलीनता (प्रत्याहार), धारणा (धारणा), ध्यान (ध्यान), समाधि (समाधि)। ३ ध्यान--प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, (पिण्डस्थ ध्यान, पदस्थ, रूपस्थ, रूपा तीत), शुक्ल ध्यान ४. समाधि । ८. बाध्यात्मिक उत्क्रान्ति १४७-१५३ १. चौदह गुणस्थान--मिथ्यात्व गुणस्थान, सास्वादन गुणस्थान, मिश्र गुणस्थान, अविरत सम्यग्दृष्टि, देशविरति, सर्वविरति गुणस्थान, अप्रमत्तसयत गुणस्थान, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण गुणम्यान, सूक्ष्म सम्पराय, उपशान्तमोह गुणस्थान क्षीणमोह, सयोगी केवली, अयोगी केवली गुणस्थान । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. कर्मवाद १५५-१७३ १. जैन दर्शन में कर्म का स्थान - कर्म के भेद (द्रव्यकर्म, भावकर्म ), कर्मबन्ध के दो मुख्य कारण, कर्मों का वर्गीकरण, कर्मो का स्वभाव (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयुकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म, अन्तरायकर्म ), कर्मक्षय से लाभ, पुनर्जन्म की प्रक्रिया | १०. चारित्र और नीतिशास्त्र १. द्विविध धर्म -- प्रगार धर्म, अनगार धर्म, २. व्रतविचारव्रत की परिभाषा, व्रत की आवश्यकता, ३. मूलभूतदोष -- हिंसा, सत्य, श्रदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, ४ गृहस्थ धर्म की पूर्व भूमिका - संघ का विभाजन, श्रावक पद का अधिकार, ५. गृहस्थ धर्म, ६. अणुव्रत - अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्या - णुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत, परिग्रह-परिमाण अणुव्रत (गुणव्रत और शिक्षाव्रत ), ७. श्रावक के तीन प्रकार -- पाक्षिक, नैष्ठिक, साधक, ८. जीवन नीति, ६. जीवन का मूलाधार प्रहिसा, १०. मुनि धर्म, ११ पांच महाव्रत, १२. पाच समिति, १३. तीन गुप्ति, १४. अनाचीर्ण, १५. बारह भावनायें, १६. चार भावना, १७, दशविध धर्म, १८. निर्गन्थो के प्रकार, १६. आवश्यक क्रिया, २० साधना की कठोरता, २१ साघना का आधार, २२. मृत्युकला (सलेखनाव्रत ) । १७५-२१७ ११. जैनधर्म की परम्परा २१९-२३० १. जैन सम्प्रदाय, २ भारत के आध्यात्मिक निर्माण मे जैनाचार्यों का योग, ३ राजाओं का योगदान, ४. मंत्री और सेनापति, ५. जैन धर्म का प्रसार । १२. जैनवर्स को विशेषताएँ २३१-२४२ १. जैन धर्म की वैज्ञानिकता, २ सृष्टि रचना, ३ पृथ्वी का आधार, ४ स्थावर-जीव, ५ लोकोत्तर- ज्ञान, ६ अनेकान्त दृष्टि, ७. ग्रहिसा, ८ अवतारवाद ६ गुणपूजा, १०. अपरिग्रहवाद | Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. जन निष्टाचार २४३-२५५ १ जैन गिप्टाचार-देव और गुरु के प्रति, वन्दनापाठ, श्रमणो का पारस्परिक शिष्टाचार, श्रावको का पारस्परिक गिप्टाचार, पति-पत्नी सम्बन्धी, स्वामी सेवक सम्बन्धी २ जैन पर्व--सम्वत्सरी, दशलक्षण पर्व., अण्टान्हिका पर्व, आय विल-ओलि पर्व, श्रृत पचमी, महावीर जयन्ती, दीपावली, तथा सलूनो रक्षावधन । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगलाचरण नमस्कारमंत्र णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाण, णमो आयरियाणं । णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं ॥ (भगवती सूत्र, पाठ १ । अर्थात् अर्हन्तो को नमस्कार हो, सिद्धो को नमस्कार हो, प्राचार्यों को नमस्कार हो, उपाध्यायो को नमस्कार हो, और लोक के समस्त साधुजनो को नमस्कार हो। मंगलपाठ चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। ___चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा, साहू लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा। चत्तारि सरणं पवज्जामि, अरिहिंता सरणं पवज्जामि, सिद्धासरणं पवज्जामि, साहूसरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तो धम्मो सरणं पवज्जामि । अर्थात् चार मंगल है -- १. अर्हन्त मगल है, २. सिद्ध मगल है, ३. साधु मगल है, ४. केवली द्वारा प्ररूपित धर्म मगल है। लोक में चार उत्तम है -- १. महन्त, लोक मे उत्तम है, २. सिद्ध, लोक में उत्तम है, ३ साधु, लोक में उत्तम है, ४. केवली द्वारा प्ररूपित धर्म, लोक में उत्तम है । में चार शरण ग्रहण करता हू - १. अर्हन्त की शरण ग्रहण करता हू, २. सिद्ध की शरण ग्रहण करता हूं, ३. साधु की शरण ग्रहण करता हूँ, ४. केवली द्वारा प्ररूपित धर्म की शरण ग्रहण करता है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ***************************** आशीर्वाद नाणणं दंसणेणं च चरित्तेणं तवेण य । सन्तीए मुत्तिए,बड्डमाणो भवाहि य ॥ --उत्तराध्ययन, अ० २२, गा० २६॥ * "सद् ज्ञान, अटूट निष्ठा, तथा चारित्र बल के सहारे * तप, क्षमा, और निर्लोभता के सम्बल से तुम सदा वृद्धि पाते रहना।" **************************** Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .....००००.....०००००००००००००००००..०.०० ००००००००००.००.००० ...................००००००००............................. न हु जिणे अज्ज दिस्सई, बहुमए दिस्सई मग्गदेसिए । संपइ नेयाउए पहे, समय गोयम मा पमायए ॥ बुद्धे परिनिव्वुडे चरे, गामगए नगरेव संजए। संतिमन्गं च बूहए, समयं गोयम! मा पमायए ॥ -उत्तराध्ययन, अ० १०-पा० ३१-३६ । "हे गौतम ! मेरे निर्वाण के बाद लोग कहेगे--निश्चय ही अब कोई जिन नही देखा जाता।" पर "हे गौतम ! मेरा उपदिष्ट और विविध दृष्टियों से प्रतिपादित मार्ग ही तुम्हारे लिए पथप्रदर्शक रहेगा।" ___ ग्राम या नगर जहाँ भी जानो, वहाँ संयत रहकर शान्ति मार्ग का प्रसार करना, अहिंसा मार्ग का प्रचार करना क्योकि : "शान्ति" मार्ग पर चलने से ही धर्म के स्वरूप का साक्षात्कार होता है।" .०००.००.००००००००००००००००............................००००.... .........०००.०००...........००००००........................ जैन धर्म का स्वरूप Page #20 --------------------------------------------------------------------------  Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का स्वरूप धर्म को लेकर प्राचीन काल से ही चिन्तको में मतभेद रहा है। उसी मत___ विविधता का फल यह निकला कि आज जगत मे धर्म की २२०० सम्प्रदाये अस्तित्व म आ चुकी है । और भी अन्य सम्प्रदायों का नए-नए सम्प्रदायो के रूप में परिवर्तन होता चला जा रहा है । मानवजाति के साथ यह खेद-जन्य घटना प्रारम्भ से ही घटित होती रही है, कि धर्म की शक्ति सदा से साम्प्रदायिको के हाथो का खिलौना रही है और विज्ञान की शक्ति राजनीतिज्ञो के इशारो पर नाचती रही है। धर्म और विज्ञान सत्य का अनुसधान करते-करते मनुष्य को मिले है। धर्मों के अनुसधान की जन्म-भूमि एशिया है। एशिया के भूखण्डो से ही निकली हुई धर्म की धारागो ने समूचे जगत को प्राप्लावित किया है । भारतवर्ष धर्म के अनुसंधान मे सबसे आगे है । जैन, वैदिक और बौद्ध-धर्म की धाराएं इसी देश से निकली है, यद्यपि जोंस्थ, यहूदी, ईसाई, इस्लाम-धर्म की परम्पराएँ ईरान, पैलेस्टाइन और अरब के जन-मानस से प्रस्फुटित हुई है और लाप्रोत्से ताओ और कन्फ्यूशियस तथा सिन्तो धर्म की धारागो ने चीन और जापान को धर्म का पाठ पढाया है। जगत के इन तमाम धर्म-प्रवर्तको ने ऐसा कभी नही कहा कि हम एक नया धर्म प्रवर्तित कर रहे है, अपितु उन सब ने एक ही स्वर मे उद्घोषित किया है Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म कि हम उसी एक अखण्ड सत्य को प्रकट कर रहे है जो त्रिकालाबाधित रूप से सदा विद्यमान रहा है। ____ भगवान महावीर कहते है --"जो जिन अर्हन्न भगवन्त भूतकाल में हुए, वर्तमानकाल में हैं, भविष्य मे होगे उन सबका एक ही गाश्वत धर्म होगा, एक ही ध्रुव प्ररूपणा होगी और वह यह कि "सब्बे जीवा न हन्तवा' किसी जीव की हिमा मत करो, किसी को मत सतायो और न किसी के पराधीन बनो, एवं न किसी को पराधीन वनायो।" ____ भगवान् बुद्ध ने कहा -"भिक्षुको मैने एक प्राचीन राह देखी है, एक ऐसा प्राचीन मार्ग जो कि प्राचीनकाल के अरिहन्तो द्वारा अपनाया गया था, मैं उसी पर चला और चलते हुए मुझे कई तत्वो का रहस्य मिला ।" ऋग्वेद का मन्त्र है -"एक सद विप्रा बहुधा वदन्ति" "मत् एक है, विद्वान् अनेको प्रकार से उसका प्रतिपादन करते है।" जगत के समस्त धर्म, धर्म नही है अपितु धर्म की व्याख्याये है, पूर्ण सत्य नही है, सत्य की खोजे है । ये सब सत्य के अनुसधान है। समन्वित रूप में अखण्ड सत्य का दिडनिर्देश करते है। __ जैनधर्म उसे ही अनेकान्त धर्म कहता है, वही पूर्ण है और माश्वत हे क्योकि अनेकान्त में ऐकान्तिक आग्रह नहीं। अाग्रह का यह फल हुआ कि आज धर्म की सात सी व्याख्याये हमारे भारतवर्ष मे उपलब्ध है, किन्तु वे सब एक दूसरे से भिन्न है और उनके मानने वाले भी भिन्नता की ओर बहे जा रहे है। धर्म के उस परमंक्य और असहमत सगम से हम दूर होते जा रहे है । निश्चित है, एकपक्षीयता अधूरेपन को सदा से जन्म देती आई है, अन्यथा धर्मों का मतभेद और विवाद आग्रह पर खडा न होकर स्वरूप पर खड़ा होता, सत्य और तत्त्व पर आधारित होता । वस्तुत स्वरूप से समस्त धर्म एक है। भगवान् महावीर ने अपने युग के ३६३ धर्मों का वर्णन किया है जिनमें कुछ क्रियावादी और कुछ विनयवादी, एवं कुछ अज्ञानवादी सम्प्रदाये थी। पर उनमें नमन्वय नहीं था, यही एक सबसे बडी भूल रही है कि धर्म के एक पक्ष पर हम वल दे देते हैं और दूसरे पक्ष से हम पीछे रह जाते है। इसी से आग्रहवृत्ति का उदय होता है। स्थानाग सूत्र के द्वितीय स्थान मे भगवान् महावीर ने वताया है कि धर्म के दो पक्ष है- एक श्रुत और दूसरा चारित्र। १. श्रुत के तीन प्रकार है ----सम्यक् श्रुत, नयश्रुत, मिथ्याश्रुत । न्यायावतार ।। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का स्वरूप श्रुत का अर्थ ज्ञान और चारित्र का अर्थ सदाचार है । ज्ञान क द्वारा विकास और उद्देश्य को खोज करना, प्राप्ति के मार्ग ढूढना, और चारित्र का अर्थ है--कि उन सम्यग्मार्गों पर चलकर लक्ष्य-सिद्धि प्राप्त करना । खोज के लिए प्रकाश चाहिए वह ज्ञान देता है, और सदाचार हमे निर्वाण देता है। इसी को श्रुत-धर्म के सहायक रूप मे ग्राम-धर्म, नगर-धर्म आदि के दस भेदो' को भी धर्म का रूप दिया गया है। धर्म का वास्तविक उद्देश्य बहिर्मुखता से झे अन्तर्मुखी बनाना है । हमारा सर्वस्व शरीर नही, यात्मा है । शरीर का सुख काम्य सुख है, किन्तु हमारा अपना सुख काम्य सुख नही हो सकता क्योकि वह नागशील है । इसीलिए जगत के वे तमाम धर्म जो हमे बलि के द्वारा अथवा यज्ञ के द्वारा स्वर्गीय सुखो का आश्वासन वधाते है, वे आध्यात्मिक मानन्द के परमोद्देश्य को प्राप्त करने वाले साधको के लिए ग्राह्य नहीं है। उनको तो आत्मा का आनन्द चाहिए। आनन्द और सुख मे यही सबसे वडा अन्तर है कि सुख ऐन्द्रिय होता है और आनन्द आध्यात्मिक । आध्यात्मिक आनन्द नित्य, शाश्वत और 'ध्रुव' है। आनन्द की प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधा स्वभाव-विपरीतता और विभावो की प्रधानता है । भगवान् महावीर ने फर्माया है कि "अजान से मिथ्यात्व और मिथ्यात्व से अव्रत और अव्रत से प्रमाद एव प्रमाद से कषाय य सब विभाव ह, इन विभावो ने ही आत्मा के असीम आनन्द और अनन्त ज्ञान को दबोच लिया है।" जब तक आत्मा अपने स्वरूप को पा नही लेती तब तक उसे जगत की विफलता को अनुभव करना ही पडेगा, भव-भ्रमण की व्याधि मे ग्रस्त होना ही पडेगा ।" श्रमण महावीर कहते है-"वत्थुसहावो-धम्मो” वस्तु का स्वभाव ही धर्म है, अर्थात् प्रात्मा के नैसर्गिक स्वरूप को पा लेना ही धर्म है, धर्म आत्मा का सगीत है। चैतन्य के ऊर्ध्वगमन की वृत्ति ही धर्म की जननी है। धर्म का वर्णन वाणी से नही अपितु अनुभव से ही हो सकता है, प्रात्मा की विवेक और चैतन्य शक्ति ने ही दूसरे प्राकृतिक पदार्थो से भिन्न अमरता की ओर प्रेरित किया है। कर्तव्य और आदर्श की व्याख्याएँ दी है, दुख निवृत्ति और निर्वाण प्राप्ति ही हमारे धर्म की लक्ष्यसिद्धि है । आत्मा को कर्माणुगो की धूल ने ढक दिया है। इन कर्मों के बन्धनो को पहिचानो और तोड दो। बन्धनो को पहिचानने के लिए जान की, और बन्वनो को तोडने के लिए चारित्र की आवश्यकता १. स्थानांग स्थान, १० Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म है। चारित्र-रूप-धर्म की व्याख्या करते हुए भगवान् ने कहा कि - " ग्रहमा सयम और तप ही धर्म का स्वरूप है । वह उत्कृष्ट और मंगल है ।" ग्रहिता के विषय में हमे सावधानी से काम लेना पडेगा क्योकि अहिसा के दो प्रकार है— एक निषेधक और दूसरा विधायक । -and हिंसा का निषेधक रूप आत्मगत समस्त प्रकार के दोषों का शमन करता है और विधायक रूप मिथ्यात्व से समकित सुव्रत, श्रप्रमाद, श्रकपाय और शुभ योग की ओर प्रेरित करता है। मानव को ग्रशुभ से शुभ की ओर तथा शुभ से शुद्ध (प्रशस्त शुभ ) की ओर ले चलना ही जैनधर्म का उद्देश्य है और ग्रहसा उसकी पूर्ति का साधन है । सब जीव जीना चाहते है, अहिंसा उनको अमरता देती है । प्रश्न व्याकरण-मूत्र में भगवान् ने कहा है : "ग्रहसा समस्त जगत के लिए पथप्रदर्शक दीपक है, डूबते प्राणी को सहारा देने के लिए द्वीप है, त्राण है, शरण है, गति है, प्रतिष्ठा है, यह भगवती अहिंसा भयभीतो के लिए गरण है, पक्षियो के लिए ग्राकाशगमन के समान हितकारिणी है और प्यामो को पानी के समान है। भूखो को भोजन के समान है । समुद्र में जहाज के समान है, रोगियो के लिए औषधि समान है, यही नही; भगवती अहिसा इनसे भी अधिक कल्याणकारिणी है । यह पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति, वीज, हरित, जलचर, स्थलचर, नभचर, बस, स्थावर आदि समस्त प्राणियो के लिए मंगलमय है । (प्रश्न व्याकरण प्रथम सवर द्वार) नि. सन्देह अहिंसा ही माता के समान समस्त प्राणियों का सरक्षण करने वाली, पाप और सताप का विनाश करने वाली और जीवनदायिनी है | अहिंसा अमृत है, अमृत का अक्षय कोप है और हिंसा गरल है, गरल का भण्डार है ।" व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के जीवन मे अहिंसा की मात्रा जितनी - जितनी चढ़ती जायेगी, सुख-शान्ति एव स्थायी कल्याण की मात्रा भी उतनी - उतनी ही वढती जायेगी । इसके विपरीत, ज्यों-ज्यो हिंसा विकराल रूप धारण करेगी, जगत का घोर व्यक्ति का जीवन अशान्त, सतप्त, और व्याकुल दुखी होता जाएगा । है प्रश्न होता है -- जीवन मे ग्राहसा की प्रतिष्ठा किस प्रकार की जा सकती इसका उत्तर है --सयम के द्वारा । इसीलिए अहिंसा के पश्चात् धर्म का दूसरा रूप सयम बतलाया गया है। संयम का अर्थ है इन्द्रियो का और मन का दमन करना अर्थात् उन्हे ग्रात्मवगीभूत करना और हिमाप्रवृत्ति से बचाता । स Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म का स्वरूप एक शान्ता है। अहिंसा साध्य और संयम साधन है। संयम के अनुष्ठान से ही अहिंसा की साधना सम्भव होती है। जिसने अपनी इन्द्रियो को उच्छृखल छोड़ दिया है मन को बेलगाम कर रखा है और जो प्राणियो के प्रति सहानुभूतिशील नहीं है, वह असंयमी अहिंसा का पालन नहीं कर सकता। संयम दो प्रकार का है-इन्द्रिय-संयम और प्राणी-संयम । इन्द्रियो और मन को अपने-अपने विषयो मे प्रवृत्ति करने से रोक कर आत्मोन्मुख करना इन्द्रियसंयम है और षट्काय के जीवों की हिंसा का त्याग करना प्राणी-सयम है। शास्त्रो में सत्तरह प्रकार का जो संयम प्रतिपादित किया गया है, उसका सार इसी मे आ जाता है ।। ___संयम के पश्चात धर्म का तृतीय रूप प्रकट किया गया है । इसका कारण यह है कि संयम की साधना के लिए तपस्या अनिवार्य है। तपस्या का अर्थ इच्छानिरोध है । मनुष्य की इच्छाये अपार, असीम, और अनन्त है । उनकी लालसा पूरी करने के लिए आप दौडेगे तो दौड़ते ही चलेगे। किन्तु वह तृष्णा पूरी नही हो सकती और आपकी दौड़धूप समाप्त हो नहीं सकती। इच्छापूर्ति के लिए आपको असयम के पाप-पथ पर चलना अनिवार्य होगा और वहाँ हिंसा-दानवी आपको अपना लक्ष्य बना लेगी। काँटो से बचने के लिए आप सम्पूर्ण भूमडल को चमड़े से मढ नहीं सकते। बुद्धिमान् मनुष्य अपने पैरो में ही जूता पहन लेता है। इसी प्रकार इच्छाप्रो की पूर्ति करना असंभव है, अतएव इच्छाओ पर नियत्रण कर लेना ही आपके लिए एकमात्र सुखप्रद मार्ग है। यही तप का मार्ग है। तपोनुष्ठान से मनुष्य संयमशील बनता है और सयमशीलता से अहिसा की प्रतिष्ठा होती है । जिस व्यक्ति के अन्तरतर मे अहिसा, सयम और तप की त्रिवेणी निरन्तर बहती रहती है, उसकी आत्मा इतनी निर्मल, निष्कलुष और निर्विकार हो जाती है कि देवता भी उसके चरणो में प्रणाम करके अपने को धन्य मानते है । ____एक जैनाचार्य ने जैनधर्म का स्वरूप प्रतिपादन करते हुए बतलाया है .--- "जहाँ अनेकान्त दृष्टि से तत्त्व की मीमांसा की गई है, अर्थात् प्रत्येक वस्तु के अनेक पहलुप्रो का विचार करके सम्पूर्ण सत्य की अन्वेषणा की गई है, खण्डित सत्यांशों को अखंड स्वरूप प्रदान किया गया है, जहाँ किसी प्रकार के पक्षपात को अवकाश नहीं है, अर्थात् शुद्ध सत्य का ही अनुसरण किया जाता है और जहाँ किसी भी प्राणी को पीडा पहुचाना पाप माना जाता है, वही जैनधर्म है। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म आचार सम्बन्धी अहिसा, विचार सम्बन्धी अहिंसा अर्थात् सत्य एवं स्वादाद का सम्मिलित स्वरूप ही जैनधर्म है।" जैन-धर्म विजेताओ का धर्म है क्योकि वह रागद्वेष के जीतने वाले जिन भगवान् द्वारा प्रतिपादित किया गया है। कर्म-मलल्प अरियो का नाश करने के कारण अरिहन्त देवो द्वारा प्रतिपादित होने से इसे निर्ग्रन्य धर्म भी कहा गया है। श्रीमद्भागवत् मे परमहस धर्म और कैवल्य-श्रुति में इसे यति-धर्म कहा गया है। इस अवसर्पणिक काल मे भगवान् ऋषभदेव इसके आदि प्रवर्तक थे और भगवान् महावीर २४ वे तीर्थकर। युग-युग से जव जीवन अपने प्रात्मस्वरूप को भूल जाता है तो अरिहन्त वा आद्वाणी हमे अहिंसा, सयम, तप और समन्वय का उद्बोधन देते आए हैं । वह दिवस धन्य होगा जिस दिन हमे ज्ञान, दर्शन, चारित्र के द्वारा हम अपने ही अन्तर मे मूर्छित परमात्मा को जागृत कर सकेगे और असीम आनन्द एव अनन्त ज्ञान को प्राप्त कर सकेगे। सच्चा यज्ञ तवो जोई जीवो जोइठाणं, जोगा सुया सरोरं कारिसंग। कम्मेहा संजम जोगसन्ती, होमं हुणामि इसिणं पसत्यं ॥ उत्तराध्ययन० १२, गा० ४४ ।। हे गौतम ! तप अग्नि है, जीव ज्योति स्थान है । मन, वचन, काया के योग कुड़छी है, शरीर कारिपाग है, कर्म इंधन है, सयम भोग शान्ति पाठ है। ऐसे ही होम से मैं हवन करता हूं। ऋषियो ने ऐसे ही होम को प्रशस्ति कहा है। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Live and Let Live जीवो और जीने दो ......ACOC0.......csc.scenesce से बेमि, जेय अईया, जेय पडुप्पन्ना, जेय आगमिस्साअरिहंता भगवन्तो ते सव्वे एव माइक्खन्ति एव भासंति एव पणविति एवं परुवंति - सव्वे पाणा, सब्वे भूया, सव्वे जीवा, सव्वे सत्ता, ण हंतव्वा ण अज्जावेयव्वा ण परिघितव्वा ण परितावेयव्वा ण किलामेयव्वा, उद्दवेयव्वा, एस धम्मे सुद्धे यिए - सासए समिच्च लोयं खेयन्ने हि पवेइए । - आचारांग, अ० १, उ० १ । - .......ooo श्रमण महावीर कहते है : - " मै कहता हूँ कि जो अतीत, वर्तमान और भविष्यकाल में अरिहत भगवान् थे, हैं, और होंगे, वे सब इसी प्रकार का उपदेश, भाषण, प्रवचन और प्रतिपादन करते थे, कर रहे है और करेंगे कि :-- सभी जीवो को अपने समान भूत - जीव तथा सत्व को मत मारो, समझ कर किसी भी प्राणी गुलाम मत बनाओ, पीड़ा मत पहुँचाओ और किसी को भी सताप मत दो और न किसी को उद्विग्न करो। " यही धर्म ध्रुव है, शाश्वत है और नित्य है । 0008000.......scoes......................OODFOR अतीत की झलक oooooooo Page #28 --------------------------------------------------------------------------  Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतीत की झलक जैन धर्म न तो किसी धर्मप्रवर्तक पुरुष के नाम से प्रचलित हुआ है और न किसी पुस्तक के नाम से । वह तो जिनो द्वारा उपदिष्ट धर्म है। इस भूतल पर सदा काल से जिन होते आ रहे है, अतएव जैनधर्मं कब प्रचलित हुआ, यह बतलाना सम्भव नही । पाश्चात्य विद्वान् पादरी राइस डेविड के शब्दो मे यही कहा जा सकता है कि जब से यह पृथ्वी है, तभी से जैनधर्म विद्यमान् है । फिर भी समय-समय पर होने वाले तीर्थकरो - जिनो द्वारा उसका उपदेश दिया जाता है और वह नूतन रूप में प्रकाश मे आता है, इस दृष्टि से उसे आदि भी कहा जा सकता है। अनन्त जीव धर्म का अनुसरण करके अपना कल्याण कर चुके हैं, अनन्त जीव अपना उद्धार करेगे, और अनेक जीव कर रहे है । धर्म का मंगल द्वार सदैव खुला रहता है । फिर भी क्रूर काल के प्रभाव से धर्म का पथ कभी-कभी कही-कही अवरुद्ध हो जाता है । उसे जिन भगवान् पुनः परिष्कृत करते हैं । यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा । जैनधर्म मे काल परम्परा वैदिकधर्म के चार युगो (सत्य, द्वापर, त्रेता तथा कलियुग ) की भाँति मूलत: दो भागो मे विभाजित की गई है -- उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी । उत्सर्पिणीकाल, विकासकाल है । इस काल मे जीवो के बल, वीर्य, Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ जैन धर्म पुरुषार्थ, शरीर उम्र श्रादि की तथा भौतिक पदार्थों में रस आदि की वृद्धि निरन्तर होती रहती है । ग्रवसर्पिणीकाल ह्रासकाल है। इन ग्रवनतिमीलवाल मे उक्त बातो मे निरन्तर हानि होती चली जाती है । तात्पर्य यह है कि दु.ख से सुख की ओर ले जाने वाला काल उत्सर्पिणीकाल और सुख से दुख ( वृद्धि मे ह्रास) की ओर ले जाने वाला काल अवसर्पिणीकाल कहलाता है । यह दोनो काल मिलकर कालचक्र कहलाते हैं। यह सृष्टि रूपी शकट के दो चक्र है। जैसे गाड़ी के चक्र में आरे बने रहते हैं और वे उस चक्र को विभक्त करते हैं, उसी प्रकार उत्सर्पिणी और ग्रवसर्पिणी काल मे छन्छ. प्रारे होते है । इन चारो का कालमान सख्यातीत वर्षो का होता है । छ रो के गुणनिप्पन्न नाम रखे गए है. (१) सुखमा सुखमा अत्यन्त सुखरूप । (२) सुखमा सुखरूप | (३) सुखमा दुखमा सुख-दुख रूप । (४) दुखमा मुखमा दुख-सुख रूप । (५) दुखमा दुख रूप और (६) दुखमा दुखमा, चत्यन्त दुख रूप । यह अवर्सापणीकाल के चारो का क्रम है । उत्सर्पिणीकाल के छ यारो का क्रम इससे विपरीत है । वह दुखमा सुखमा से प्रारम्भ होकर सुखमा सुखमा पर समाप्त होता है । प्रत्येक उत्तर्पिणी और ग्रवसर्पिणी काल मे चौवीस जिन तीर्यं - कर होते हैं । वह प्रचलित या लुप्तधर्म को पुन प्रचलित करते है । इस समय अवसर्पिणीकाल चल रहा है और हम लोग उसके पाँचवे आरे मे गुजर रहे है । सुख दुख नाम के चारे मे धर्मतीर्थंकरो का जन्म होता है । इस अवसर्पिणीकाल के तीसरे आरे मे आदि तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव का अवतरण हुआ । इसी श्रारे के तीस वर्प और साढे प्राठ मास शेष रहते उनका निर्वाण हो गया । श्रीमद्भागवत और मनुस्मृति के अनुसार भगवान् ऋषभदेव का जन्म मनु की पाँचवी पीढी मे हुआ था । गणना करने पर वह काल प्रथम सतयुग का अन्तिम चरण निकलता है । उस सतयुग के बाद श्राज तक २८ सतयुग बीत चुके है । ब्रह्मा जी की आयु का भी बहुत-सा भाग समाप्त हो चुका है । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत को सलक इन उल्लेख ने भगवान् ऋषभदेव के जन्म की प्राचीनता का समर्थन होता भ० रुपमदेव के पश्चात् चौवे प्रारे मे गेप २३ तीर्थकर हुए है, जिनमे भगवान महावीर पन्तिम थे। प्रथम पीर अन्तिम तीर्थकर का कालिक अन्तर जैनशास्त्रो मे कोटि-कोटि सागर बतलाया गया है। नागर (प्रकाशवर्ष की तरह) सख्यातीत वर्षों के समूह की सजा है। इस अवपिणी युग में जैनधर्म के प्रादि प्रणेता समाजस्रष्टा और नीतिनिर्माता भगवान् ऋषभदेव हुए है। भगवान् ऋषभदेव भूतकाल की बात है। भूतकाल भी इतना पुराना कि वहाँ इतिहास की पहच नहीं । उस समय इस भरतक्षेत्र में न धर्म था, न परिवार-प्रथा थी, न समाजव्यवस्था थी, न राज्यगासन था, न नीति और न कला का उद्भव हुआ था। उस समय की प्रजा वृक्षो के फलो पर अवलम्बित थी, जिन्हे कल्पवृक्ष की मंजा प्रदान की गई है। जैनगास्त्रो मे वह युगलकाल के नाम से प्रसिद्ध है, क्योकि मनुष्य का मनुप्य के साथ अगर कोई सम्पर्क था तो वह नर और नारी का ही था। भगवान् ऋपभदेव के पिता महाराज नाभि ये जो इस काल के अन्तिम कुलकर ये। उनकी माता का नाम मरुदेवी था । युगलिक सभ्यता में ही उनका बाल्यकाल व्यतीत हुआ। कालचक्र तेजी के साथ घूम रहा था। प्रकृति में आमूल परिवर्तन हो रहा था। मानवप्रकृति मे भोगलिप्सा का विकास हो रहा था। और भौतिक प्रकृति की फलदायिनी शक्ति का ह्रास हो रहा था। इस दोहरे परिवर्तन के कारण पहली वार अशान्ति का उद्भव हुआ। जो वृक्ष उस समय की प्रजा के जीवननिर्वाह के माधन थे, वे पर्याप्त फल नहीं देते थे और कृषिकर्म आदि से लोग अनभिज्ञ थे। इस परिस्थिति में एक भारी प्राण सकट आ उपस्थित हया। उस संकट का मामना करने के लिए युगानुकूल जो नूतन व्यवस्था की गई, उसने भोगभूमि को कर्मभूमि मे परिणत कर दिया । गुण-कर्म के आधार पर भ० ऋपभदेव ने मानवव्यवस्था की ओर कर्म Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म पुरुषार्थ पर खड़ा करके मनुप्य को स्वावलम्बी बना दिया। प्रजा के हित के लिए लेख, गणित, नृत्य, गीत, सौ प्रकार की गिल्प-कला आदि, बहत्तर कलाएं पुरुषो की और चौसठ कलाएँ स्त्रियो की निर्माण की। (जम्बूद्वीपप्रनप्ति, ऋषभ चरित:) सर्वप्रथम अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपि की शिक्षा दी और इस कारण वह लिपि आजतक ब्राह्मी लिपि के नाम से विख्यात है। कृषि, गो-पालन, भाण्डनिर्माण आदि समस्त कर्म, उत्पादन तथा वितरण व्यवस्था सव भगवान् ऋपभदेव की ही देन है। ____ऋपभदेव जी की सुनन्दा और सुमगला नामक दो पत्नियां थी। दोनों से दो कन्यानो और सौ पुत्रो का जन्म हुा । जिनमे दो भरत और बाहुबली विशेष विख्यात हुए। लोकजीवन की सुव्यवस्था करने के पश्चात् प्रजा का भार अपने पुत्रो को सौप कर भगवान ऋषभदेव परिग्रह से विमुक्त हो दीक्षित हो गए। एक हजार वर्ष तक निरन्तर कठोर तपश्चरण करने के पश्चात् वे जिन वीतराग एवं पूर्ण ज्ञानी हो गए । तत्पश्चात् उन्होने समाज-व्यवस्था की तरह धर्मव्यवस्था करके मानव-जीवन को एक प्रशस्त और उच्चतर ध्येय प्रदान किया। गृहस्थो के लिए अणुव्रतो का तथा सावुप्रो के लिए महाव्रतो का उपदेश दिया। भगवान् के धर्मोपदेश की वह विमल स्रोतस्विनी अति दीर्घ मार्ग को पार करती हुई आजतक प्रवाहित हो रही है। ____ यह उल्लेखनीय है कि भगवान् ऋषभदेव को वैदिकधर्म ग्रथो मे भी परमोच्च पद प्राप्त हुआ है और ऋग्वेद मे अनेक स्थलो पर उनका नाम्मोल्लेख हुआ है और उनकी स्तुति की गई है। एक जगह लिखा है- "हे ऋषभनाथ सम्राट् ! ससार में जगतरक्षक व्रतो का प्रचार करो। तुम्ही इस अखण्ड पृथ्वीमण्डल के सार हो, त्वचा रूप हो, पृथ्वीतल के भूषण हो, और तुमने ही अपने दिव्यज्ञान द्वारा आकाश को नापा है।" (ऋग्वेद मू० अ०३) कहने की आवश्यकता नही है कि ऋग्वेद के इस मन्त्र मे भगवान् को व्रतवर्म का प्रचारक और अनन्त जानी स्वीकार किया गया है। अन्यान्य स्थलो पर भी उनकी अत्यन्त भक्तिमय स्तुति की गई है। उनके व्रतवर्म का भी वहाँ उल्लेख मिलता है। श्रीमद्भागवत मे कहा है- "हे परीक्षित । सम्पूर्ण लोक, देव, ब्राह्मण और गौ के परम गुरु भगवान् ऋषभदेव का यह विशुद्ध चारित्र मैने तुम्हे सुनाया है। यह चारित्र मनुष्यों के समस्त पापो को हरण करने वाला है।" Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक भागवतकार ने भगवान् ऋषभदेव का विस्तृत वर्णन किया है और उनके उपदेशो का गगह भी किया है । उन्होने अपभदेव द्वारा उपदिष्ट धर्म को परमहंल-धर्म और भगवान् को अहंन्त बतलाया है । वे कहते है-"नाभि राजा ने संसार मे धर्म-वृद्धि के लिए मोक्ष-प्राप्ति और अपवर्ग को पथप्रदर्शन के लिए अपत्यकामना की, और अरिहन्त भगवान् को अवतरित करने के लिए यन किया ।" बाहाणो और ऋपियो ने राजा की कामना जानकर उत्तर दिया-"महाराज! यदि आप अर्हन चाहते हो तो अवश्य आपकी कामना पूर्ण होगी।" फिर ब्राह्मणो ने परमात्मा से प्रार्थना की, परमात्मा ने ब्राह्मणों की प्रार्थना स्वीकार की और अर्हन् भगवान् को भेजा। ____ "ग्रहन नाम-रूप प्रकृति के गुणो से निर्लेप, अनासक्त तथा मोह से असंस्पृष्ट होते है और मोक्ष तथा अपवर्ग का मार्ग बतलाते है।" ___"ऋपभदेव आत्मस्वभावी थे। अनर्थपरम्परा (हिंसा आदि पाप) के पूर्ण त्यागी थे। वे केवल अपने ही आनन्द में लीन रहते तथा अपने ही स्वरूप में विचरण करते।" "ऋपभदेव साक्षात् ईश्वर थे। वे सर्व समता रखते, सर्व प्राणियो से मित्रभाव रखते और सर्व प्रकार दया करते थे।" श्रीमद्भागवत ने उच्च स्वर से उद्घोषित किया है कि उस ऋषभदेव भगवान् का ज्येष्ठ और श्रेष्ठी गुणी भरत नामक पुत्र था । वह भारत का प्रादि सम्राट था और उसी के नाम से इस राष्ट्र का नाम "भारतवर्ष" पड़ा है। भरत को सम्पूर्ण राज्य मिल गया, किन्तु ६८ पुत्री को कुछ भी नहीं मिला। वे उद्विग्न होकर परमयोगी ऋषभदेव के पास गए और उनके सामन राज्यचिन्ता का शोक प्रकट किया। भगवान् ऋषभदेव ने उन ६८ पुत्रो की राज्य के प्रति आसक्ति देखकर वहुत ही गम्भीर, मर्मस्पर्शी और कल्याणकारी उपदेश दिया। उसका मूल के अनुसार सार यह है :--- १. हे पुत्रो! मानवीय संतानो ! संसार में शरीर ही कष्टों का घर है। यह भोगने योग्य नही है। इसे माध्यम बनाकर दिव्य तप करो जिससे अनन्त सुख की प्राप्ति होती है। तप से अन्त करण-शुद्धि और अन्त करण-शुद्धि से ब्रह्मानन्द प्राप्त होता है। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म २. हे पुत्रो ! सत्पुरुषो के मनाचार से प्रीति करना ही मोक्ष का ध्रुद हार है। जो लोक मे और नंसार व्यवहार मे प्रयोजन मात्र के लिए आमक्तिकत्र्तव्यबुद्धि रखता है, वही समदी प्रनान्त साध है। 1. जो इन्द्रियो और प्राणो के मुख के लिए नया वामना-तृप्ति के लिए परिश्रम करता है, उसे हम अच्छा नहीं मानते। क्योकि गरीर की ममता भी यात्मा के लिए क्लेशदायक है। ४. साधु जब तक आत्मस्वल्प को नहीं जानता, तब तक वह कुछ नहीं जानता। वह कोरा अनानी है। जब तक वह कर्मकाण्ड (यन यादि) मे फंसा रहता है, तब तक आत्मा और गरीर का संयोग छूटना नहीं है । और मन के द्वारा कर्मों का वन्ध भी रुकता नहीं है। ५ जो सज्ञान प्राप्त करके भी सदाचार का पालन नहीं करते वे विद्वान् प्रमादी बन जाते हैं। मनुष्य अनान भाव से ही मैथुन-भाव में प्रवेश करता है और अनेक संतापो को प्राप्त करता है। ६ नर का नारी के प्रति कामभाव ही हृदय की ग्रंथि है। इसी के कारण जीब का घर, खेत, पुत्र-कुटुम्ब और धन से आकर्षण होता है। मोहासक्ति बढ़ती है। ७. जब हृदय-प्रथि को बनाए रखने वाले मन का बधन गिथिल हो जाता है, तव जीव इन ससार से छूटने लगता है और मुक्ति प्राप्त कर परम लोक में पहुंच जाता है। ८. सार-प्रसार का भेद जानने वाला जीव वीतराग पुरष की भक्ति करता है। भक्ति मे अनानान्वकार नष्ट हो जाता है। तब जीव तृष्णा, सुख-दुःख का त्याग कर तत्व को जानने की इच्छा करता है तथा तप के द्वारा मव प्रकार की चेप्टायो की निवृत्ति करता है। तभी आत्मा कर्मो का नाश करके मुक्ति प्राप्त करता है। ६. विपयो की अभिलाषा ही अन्वकप के समान नरक मे जीव को पटकन वाली है। १० हे पुत्रो । जो हेयोपादेय की विवेक दृष्टि से अन्य हैं, और कामनायो ने परिपूर्ण है, वह संसारी कन्याण के मूलपथ को नहीं पहचान सकता। ११ जो पुरप बुद्धि को मोह में उलझाकर और कुबुद्धि वनकर उन्मार्ग पर चलता है, दगलु विद्वान् उमे कभी भी उन्मार्ग पर नहीं चलने देते। Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक १२. हे पुत्रो ! जो स्थावर और जगम जीवो की आत्मा को भी मेरे समान ही समझता है और कर्मावरण के भेद को पहचानता है, वही धर्म प्राप्त करता है। धर्म का मूल तत्व समदर्शन है। १३ जो साधक यमो (महाव्रतो) को ग्रहण करता है और अध्यात्म-योग विविक्त सेवा द्वारा प्रात्मस्वरूप स्थिति का ज्ञान करता है, श्रद्धा और ब्रह्मचर्य द्वारा उसका साक्षात्कार करता है, वह अप्रमादी साधक मुक्ति के निकट' पहुंचता है। १४ जो सर्वत्र विचक्षणतापूर्वक ज्ञान, विज्ञान, योग, धैर्य, उद्यम तथा सत्व से मुक्त होकर विचरण करता है, वही कुशल है और वही मेरा अनुयायी है। १५. कर्मागय को विध्वंस करने के लिए हृदय-प्रथि को नष्ट करो, यही बंध का कारण है । अविद्या से ही वय होता है । प्रमाद कर्मबंध मे सहायक होता है। १६. इस आत्मा की अपने कल्याण की दृष्टि नष्ट हो गई है और वह स्वार्थ के पीछे पागल हो गया है । पुत्रो ! निष्काम और निस्वार्थ होकर सुखलेश की उपेक्षा करके कर्ममूढता और अनन्त दु खग्रस्तता को नष्ट करो। १७ नेत्रो के अभाव मे जैसे अन्धा कुपथ पर जा चढता है, इसी प्रकार जीव कर्मान्ध होकर कुमार्ग का अनुसरण कर रहा है। कुबुद्धि होने के कारण ही वह सच्चे धर्म पर श्रद्धा नहीं करता। १५. हे पुत्रो ! मेरा शरीर मेरा नही है, यह तो आत्मा के विभाव का दुष्फल है। मेरा अपना तो आत्मस्वभाव ही है। वही मेरा सच्चा धर्म है। मैने उस विभाव रूप अधर्म को दूर कर दिया । अत मुझे लोग श्रेष्ठ आर्य कहते है। १६ अग्निहोत्र मे वह सुख नहीं है जो आत्मयज्ञ में है। २०. मैं उसे ही यज्ञ और धर्म मानता हूँ जो सतोगुण से युक्त, शम, दम, सत्य, अनुग्रह, तप, तितिक्षा और अनुभव से सम्पन्न होता है। इसी मार्ग से अनन्त आत्मायें परमात्मपद प्राप्त कर गई है। यही श्रेष्ठ मार्ग है। २१. स्थावर और जगम जीवो पर सदा अभय दृष्टि रखो, यही सच्चा श्रेष्ठ मार्ग है और मोहनाश का कारण है । मुक्तिप्राप्ति के लिए प्रयत्न करो, यही सर्वोच्च ध्येय है। इसी सिद्धि से अनन्त सुख प्राप्त होता है। भगवान् का यह उपदेश सुनकर उनके पुत्रो ने ससार त्याग दिया। कर्मकाण्ड त्याग कर उन्होने परमहंस धर्म (आत्मधर्म) की पद्धति का अनुसरण किया। Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म भागवत् मे भगवान् ऋषभदेव की तपस्या का बहुत ही रोमाचकारी वर्णन किया गया है। उपसर्गो, परीपहो और संकटो को पार करते हुए तथा वनवाम के नमस्त दुखो को सहन करते हुए भगवान् अवधूत वेग मे विचरने लगे। उनका मन अविग्वण्डित और प्रशान्त था। वे मानापमान की चिन्ता न करके घूमने रहते थे। उनके गारीरिक अतिगय का वर्णन करते हुए लिखा है कि उनकी विष्ठा मे मे भी मुगध याती थी, मारा वातावरण मुगधमय बन जाता था। एक दिन उनके कर्मागय का अन्त या गया, समस्त अर्थ परिपूर्ण होने से मिह बन गए, उन्हे केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। उनकी प्रात्मा मे परमानन्द था, समस्त प्रों का जान था, वे निाकम्प आलोकस्तम्भ थे। ___ भगवान् ऋप भदेव के भागवतोक्न जीवन की जैनागमो और जैन-पुराणो से पूरी तरह तुलना की जा सकती है। वास्तव मे भागवतकार ने श्री ऋषभदेव के जीवन और धर्म को विशुद्ध रूप में उपस्थित करने का प्रयत्न किया है। कहीं भी उन्हें यज-समर्थक या वेदानुयायी प्रदर्शित नही किया गया है। ___ वैदिक-धर्म के चौबीस अवतारो में भ० ऋपभदेव पाठवे अवतार स्वीकार किये गए है, मगर उनका जीवन किसी भी अन्य वैदिक अवतार से मेल नही खाता है। वह अनूठा है। उपनिषदों में जैनधर्म भगवान् ऋषभदेव के समय मे ही भारत मे दो मुख्य विचार धाराएँ प्रचलित हो गयी थी, एक धारा वह थी जिसमे कर्म (यज्ञ) की प्रधानता थी और दूसरी वह जिसमे व्रत, नियम, सयम एव तपश्चरण की मुख्यता थी। ये विचारधाराएँ आज ब्राह्मण विचारधारा और श्रमण विचारधारा के नाम से प्रचलित है। भगवान् ऋपभदेव श्रमण विचारधारा अथवा व्रात्यधर्म (व्रतवर्म) के आद्य प्रवर्तक थे। अतएव उपनिपदो मे जहाँ कही श्रमण विचारधारा का प्रतिपादन हुआ है, वह भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तिन जैन धर्म ही समझना चाहिए । जावाल उपनिषद् मे महायोगी दत्तात्रेय ने जिन अहिंसादि दश यमो का प्रतिपादन किया है, वही ऋपभदेव द्वारा उपदिग्ट धर्म के मूल व्रत है। ऋपभदेव द्वारा प्रलपित धर्म से दत्तात्रेय के प्रभावित होने का कारण यह है कि व्रात्य धर्म वेदो Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक से भी अधिक प्राचीन है । वेदो में उसका वर्णन पाता है। दत्तात्रेय नवीन है क्योंकि उपनिषद् काल मे उनका प्रादुर्भाव हुआ है। दनात्रेय याजिक क्रिया काण्ड और बाह्य शीच का खण्डन करते हुए कहते है - "हे सुव्रत, जो मनुष्य ज्ञान-गौच को त्याग कर बाह्य जल आदि से गौच मानने की भ्रमणा मे पडा है, वह सुवर्ण को त्याग कर मिट्टी के ढेले का संग्रह करता है ।" क्या कोई ब्राह्मणधर्मी ऋपि इस प्रकार उद्गार प्रकट कर सकता है ? दूसरी जगह वही कहते है -- "हे मुने । अहिंमा आदि साधनो द्वारा अनुभवात्मक ज्ञान प्राप्त करके प्रात्मा अविनाशी ब्रह्मपद प्राप्त करता है।" उन्होंने दश यमो का प्रतिपादन किया और उनका समर्थन किया है। तप के विषय में वह कहते है ---"हे मने । कृच्छचान्द्रायण यादि को वैदिक लोग तप मानते है, किन्तु हम उसे तप स्वीकार करते है जिसके द्वारा आत्मा ससार भ्रमण से छूटकर, बन्धन विमुक्त होकर मुक्ति प्राप्त कर सकता है।" दत्तात्रेय जी ने अपने को वैदिको से पृथक् प्रकट किया है। अतएव अमंदिग्ध रूप में कहा जा सकता है कि वे श्रमणगाग्वा के प्राचार्ग थे, किन्तु वैदिक लोग भी उनका सम्मान करते थे। यद्यपि श्रमण परम्परा मे समय-समय पर अनेक विचारक सन्त सम्मिलित होते रहे है और महावीर काल मे तो महात्मा बुद्ध जैसे प्रथमकोटि के सन्त भी उसमें मम्मिलित हुए, किन्तु वेदो और उपनिपदो से पूर्व जैनधर्म के प्रवर्तक ऋपभदेव की परम्परा के अतिरिक्त अन्य किसी प्रभावशाली धर्म या धर्मप्रवर्तक का परिचय नहीं मिलता। इस कारण दत्तात्रेय के विचार जैनधर्म से ही प्रभावित स्वीकार किए जा सकते है। ____दत्तात्रेय यद्यपि ब्राह्मणो और श्रमणो के मध्य की एक महत्त्वपूर्ण कडी के गरूप मे रहे, फिर भी यह स्पष्ट है कि ब्राह्मणो का क्रियाकाण्ड उन्हे अभीष्ट नहीं था। पुराणों में जैनधर्म उपनिपदो के अनन्तर प्राचीनता के नाते पद्म-पुराण की गणना की जा सकती हैं। पद्मपुराण मे जैनधर्म का विस्तृत वर्णन मिलता है । वैदिक साहित्य की यह एक विशेपता रही है कि उसमे जैनधर्म की स्तुति तो ब्रात्यधर्म, परम Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म हसधर्म, या यतिधर्म आदि के नाम से की गई है और जहाँ-जहाँ खण्डन किया गया, वहाँ जैनधर्म या पाखडधर्म नाम का उल्लेख हुआ है। पद्मपुराण मे जैनधर्म का खडन किया गया है, फिर भी उस खंडन से जैनधर्म के आन्तरिक स्वरूप का बोध हो सकता है। पद्मपुराण का भूमिखड तथा राजा वेणु का वर्णन ध्यान देने योग्य है। ऋषियो ने पूछा -~-"सूत जी! राजा वेणु की उत्पत्ति जव महात्मा से हुई तो उसने वैदिक धर्म का परित्याग क्यो कर दिया ?" सूत जी बोले-“मैं तुम्हे सारी कहानी सुनाता हूँ । जव वेणु शासन करता था, उस समय उसके दरबार मे नंग-धडग, विशालकाय, श्वेतमस्तक वाला अतिशय कान्तिमान् साधु ओघा, कमण्डल लिए जा पहुचा।" (पुराणो से जैन साधु के वेप के सम्बन्ध मे भी पर्याप्त परिचय मिलता है। पद्मपुराण से जैन साधु के दिगम्बरत्व का पता चलता है। शिवपुराण के "तुण्डे वस्त्रस्य धारकाः" अर्थात्-~-"मुख पर वस्त्र धारण करने वाले", इस उल्लेख से स्थानकवासी साधु के वेष का और महाभारत के उत्तुंक के स्पष्टीकरण से श्वेताम्बर साधु के वेप का समर्थन होता है । जान पड़ता है, पुराणकाल मे जैन साधुनो के तीनों वेष निश्चित हो चुके थे।) वेणु ने पूछा-"पाप कौन है ?" साधु ने उत्तर दिया--"मै अनन्त शक्तिमय, ज्ञान-सत्यमय आत्मा हूँ। सत्य और धर्म मेरा कलेवर है। योगी मेरे ही स्वरूप का ध्यान करते है। मै जिन स्वरूप हूँ।" राजा ---"आपका देव, गुरु और धर्म क्या है ?" साधु .-"अरिहन्त हमारे देव है, निर्ग्रन्थ हमारे गुरु है और दया ही हमारा धर्म है । मेरे धर्म मे वजन, याजन, वेदाध्ययन जैसा कुछ नही है। पितरो के तर्पण, वलिवैश्वदेव आदि कर्मो का त्याग है। हमारे धर्म में अर्हन् का ध्यान ही उत्तम माना गया है।" ___ मोह से मुग्ध मनुष्य श्राद्ध आदि करते है। मरने के बाद मृतात्मा कुछ खाता नही । ब्राह्मणों का खाया मृतात्मा को मिलता नही है । दया का दान करना ही सर्वश्रेष्ठ है। राजन् ! इन मिथ्या कर्मो को त्याग कर जीवो की रक्षा कर, दयापरायण होकर प्रतिदिन जीवो की रक्षा कर। ऐसी Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक दया करने वाला मनुष्य चाहे चाण्डाल हो या शूद्र, वही हमारे धर्म में ब्राह्मण कहा गया है। जिनं भगवान् का बताया हुया व्रत ही हमारे कल्याण का सच्चा मार्ग है। सब पर दया करो, शातचित्त होकर दया करो। राजा ने पूछा - "हे अये ! ये ब्राह्मण और प्राचार्य गगा आदि नदियो को पुण्यतीर्थ बतलाते है । यह कहा तक सत्य है ?" साघ :-"नरेश, आकाश से वादल एक ही समय जो पानी बरसाते है, वही पृथ्वी, पर्वत आदि सभी स्थानो मे गिरता है । वही वह कर नदियो मे इकट्ठा हो जाता है। नदिया तो जल बहाने वाली है। उनमे तीर्थ कैसा ? सरोवर और समुद्र सभी जल के आश्रय है । पृथ्वी को धारण करने वाले पर्वत भी केवल पापाणराशि है। इनमें तीर्थ नाम की वस्तु नही है।" "यदि समुद्र और नदियों में स्नान करने से सिद्धि मिलती तो मछलियो को तो सबसे पहले सिद्ध हो जाना चाहिए।" "हे राजेन्द्र ! एक मात्र जिन ही सर्वोत्तम धर्म है और तीर्थ है । संसार में जिन ही सर्वश्रेष्ठ है । उनका ध्यान करो।" राजा वेणु के मन मे अर्हत-धर्म के प्रति आस्था उत्पन्न हुई और उसने परमहंस धर्म (जैनधर्म) स्वीकार कर लिया। इस घटना से ऋपियो को वड़ी चिन्ता हुई। यह वृत्तान्त खूब विस्तृत है । इसके उल्लेख करने का आशय यह है कि पुराणकाल में जैनधर्म का प्रभाव इतना बढा हुआ था कि राजा वेणु जैसे भारतसम्राट भी उनके अनुयायी बन गये थे। वेणु की यह कहानी स्पष्ट घोषणा कर रही है कि बाह्याचार जैनधर्म का स्वरूप नही, उसका विश्वास जीवनशोधन पर है। अब जरा स्कन्दपुराण पर दृष्टि डालिए। वहा आवन्त्य रेखा खण्ड मे पाखण्डीजनो के त्याग के प्रकरण मे व्रतियो की निन्दा की गई है। वैदिक व्रत और नर्मदा के स्नान से पापविमुक्ति एव मोक्षप्राप्ति बतलाई गई है। दूसरे पुराणो तथा बृहदारण्यक उपनिपद् के आत्मविषयक गाये और अजातशत्रु के प्रश्नोत्तर भी जैनधर्म की ओर संकेत कर रहे है। साधना के क्षेत्र मे आर्हत् धर्म की साधना सर्वाधिक कठोरतम रही है। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैन धर्म जैनधर्म भारत की उस साधना का प्रतिनिधित्व करता श्राया है जो सार्वभौम है, जो समाज र व्यक्ति में प्रमृतत्व की प्राप्ति का मूल स्रोत रही है । जैन साधना वस्तुशोधन की प्रक्रिया पर नही, जीवन-शोधन पर विश्वास करती है । अथर्ववेद मे व्रात्यो व्रतनिष्ठ मुनियो की साधना के जो उल्लेख पाये जाते है और भागवत मे भगवान् ऋषभदेव की कठोरतम साधना का जो चित्र उपस्थित किया गया है, उससे भलीभाति प्रकट हो जाता है कि जैनधर्म की साधना शरीर की ममता पर कुठाराघात करके ग्रहकार और ममकार का विनाश करती हुई अग्रसर होती है । वह स्वर्ग के स्वप्न नही देख सकती, मुक्ति का पथ प्रशस्त करती है । - विष्णु धर्मोत्तर पुराण खण्ड २ ग्र० १३१ मे "हसगीता" के नाम से यतिधर्मनिरूपण का अलग ही अध्याय रखा गया है, जिसमे जैन साबु के नियमो को ही यति धर्म का प्राचार बतलाया गया है । एक बार भोजन, मौनवृत्ति, इन्द्रियनिरोध, राग-द्वेष रहितता आदि जैन साधु के गुण ही विष्णुपुराण मे यतियो के गुण बतलाये गये है । जैनागम मे प्रसिद्ध दश धर्मो को ही यति धर्म कहा गया है । वि० ० पु० श्लोक ५९ । योगवासिष्ठ मे रामचन्द्र जी अपनी कामना इस प्रकार अभिव्यक्त करते है । " नाहं रामो न मे वाच्छा, भावेषु च न मे मनः । शान्तिमास्यातुमिच्छामि, स्वात्मन्येव जिनो यथा ॥ " "मैं राम नही हूँ, मुझे किसी वस्तु की चाह नही है, मेरी श्रभिलाषा तो यह है कि मै जिनेश्वर देव की तरह अपनी ग्रात्मा मे शान्ति लाभ कर सकूँ ।" शिवपुराण मे भगवान् ऋषभदेव को विश्व का कल्याणकर्त्ता बताया गया है । इन सब उल्लेखो का अभिप्राय यह है कि भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रतिपादित धर्म केवल श्रमण परम्परा का मूलाधार है, परन्तु वाह्मण परम्परा को भी उसकी महत्वपूर्ण देन है । भगवान् ऋषभदेव इस युग के प्रथम धर्म प्रर्वतक है । वेदो, वैदिक पुराणो और जैन साहित्य मे उनका उपदेश विकल या ग्रविकल रूप से उपलब्ध होता है । वह भारत की ही नही, विश्व की अनुपम विभूति थे । स्वनामयन्य भगवान ऋषभदेव विश्व के प्रथम महपि थे I Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामावली इस प्रकार है - संख्या १. ४ ५. ६. ૭ ८. C. १०. ११. १२. १३. १८. १५ १६. अतीत की झलक जैनधर्म के तीर्थंकर जिन चौबीस तीर्थकरों का सामान्य उल्लेख पहले दिया गया है, उनकी १७. १८. १६. २०. २१. २२. २३. २४. तीर्थंकर नाम श्री ऋषभदेव जी श्री अजीतनाथ जी श्री सभवनाथ जी श्री श्रभिन्दननाथ जी श्री सुमतिनाथ जी श्री प्रद्मप्रभु जी श्री सुपार्श्वनाथ जी श्री चन्द्रप्रभु जी काशी चन्द्रपुरी श्री पुष्पदत ( सुविधिनाथ) जी काकान्दी श्री शीतलनाथ जी श्री श्रेयांसनाथ जी श्री वासुपूज्य जी श्री विमलनाथ जी श्री ग्रनन्तनाथ जी श्री धर्मनाथ जी श्री शान्तिनाथ जी श्री कुन्थुनाथ जी श्री ग्ररहनाथ जी श्री मल्लिनाथ जी श्री मुनि सुव्रतनाथ जी श्री नेमिनाथ जी श्री श्ररिष्टनेमिनाथ जी जन्मस्थान अयोध्या अयोध्या श्रावस्ती अयोध्या अयोध्या कौशाम्बी श्री पार्श्वनाथ जी श्री महावीर स्वामी जी भद्दलपुर सिहपुरी - सारनाथ चम्पा पुरी कम्पिला ग्रयोध्या रत्नपुरी हस्तिनापुर हस्तिनापुर हस्तिनापुर मिथिलापुरी राजगृह मिथिला ३३ शौरीपुर काशी कुडग्ग्राम-वैशाली इनमे से धर्मनाथ, ग्ररहनाथ और कुन्थुनाथ का जन्म कुरुवा मे, मुनि सुव्रतनाथ का हरिवश और शेप तीर्थकरो का जन्म इक्ष्वाकुवश मे हुआ था । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म सभी तीर्थंकरो का जीवन कठोर तपोमय था। सभी तीर्थंकरो ने प्रव्रज्या अगीकार की, तीव्रतपश्चर्या की और पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया। कृत कृत्य होकर भी जगत् के समस्त जीवो की करुणा-भावना से प्रेरित होकर मुक्तिमार्ग का उपदेश दिया, व्रतो की व्यवस्था की और तत्व का यथार्थ स्वरूप वतलाया । अन्त मे निर्वाण प्राप्त कर परमात्मा बने और सिद्ध बुद्ध तथा अनन्त यात्मिक गुणो से ___ समृद्ध हुए। इनमे से बहुप्रचलित तीन तीर्थकरों का जीवन परिचय नीचे दिया जाता है। भगवान् नेमिनाथ यह यदुवश के महान् प्रतापी महाराज समुद्रविजय के पुत्र और महारानी शिवा के आत्मज और श्री कृष्ण के चचेरे भाई थे। वैदिक सन्ध्योपासना के गान्तिमत्र मे "अरिष्टनेमि शान्तिर्भवतु,” इन शब्दो से उनकी स्तुति की जाती है । वेदो मे भी अनेक स्थलो पर उनका उल्लेख हुआ है। ___ राजा उग्रसेन की कन्या राजमती के साथ इनका विवाह होना निश्चित हुआ। बारात रवाना हुई और श्वसुरगृह पहुच ही रही थी कि मार्ग मे अरिष्टनेमि ने पशुप्रो की करुण चीत्कार सुनी । सारथी से पूछने पर उन्हें विदित हुआ कि वारातियो के मासभक्षण के लिए यह सब पशु एकत्र किए गए है । यह जानकर उन्हे असह्य मनोव्यथा हुई । उनका अन्त करण करुणा से प्लावित हो उठा, उसी समय उन्होने सारथी को आज्ञा देकर सव पशुओ को बन्धन-मुक्त करा दिया। इस घटना का उनके जीवन पर स्थायी प्रभाव पड़ा। वे विवाह से मुख मोड कर विरक्त हो गये और तपस्या करने चले गये । ___ भगवान् अरिष्टनेमि का पशुरक्षण आन्दोलन जूनागढ के निकट से प्रारम्भ हुआ और समूचे सौराष्ट्र और भारत मे फैल गया। इस त्यागमूलक आन्दोलन ने लोगो के नेत्र खोल दिये । आज भी सौराष्ट्र मे शेष ससार की अपेक्षा बहुत कम हिंसा होती है, यह भगवान् अरिष्टनेमि के इस पशुसंरक्षण आन्दोलन का ही फल है। गिरनार गिरि पर आरूढ होकर अरिष्टनेमि ने स्वत दीक्षा धारण की। तपस्या करके कर्मो का क्षय किया और पूर्ण ज्ञानी बने । अन्त मे मुक्तिलाभ कर सिद्ध हो गए। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत को तलक भगवान् पाश्र्वनाथ तेईसवे तीर्थकर भगवान् पार्श्वनाथ का जन्म २८०० वर्ष पहले हुआ था। वे राजपुत्र थे। महाराजा अश्वसेन इनके पिता थे । माता का नाम वामा देवी था। भारत के विख्यात. विद्याधाम काशी में इनका जन्म हुआ था। गगातट पर एक तापस अग्निताप सहन कर रहा था। पार्श्वनाथ ने उसे बतलाया कि तेरी धूनी के लक्कड़ में नाग-नागिन का एक जोडा जल रहा है। राजकुमार की यह बात सुनकर तपस्वी क्रुद्ध और क्षुब्ध हो गया । तापस ने अग्नि मे से वह लक्कड़ निकाल कर फाड़ा तो राजकुमार की बात सच निकली । दर्शकगण तापस के अज्ञान का विचार कर म्लानमुख हो गये । तापस लज्जित था, क्रुद्ध था, परन्तु विवश था। मृत्यु के पश्चात् तापस देवयोनि में जन्मा । उधर पाश्वनाथ गृहत्याग कर साधु बन चुके थे। उस देव ने अपने अपमान का प्रतिशोध करने के लिए भगवान को वहुत कप्ट पहुचाये। उसने एक बार उन्हे जलवृष्टि में डबा देने की कुचेप्टा की, किन्तु उस नाग-नागिन के युगल ने, जो मर कर धरणेन्द्र देव और पद्मावती के रूप मे जन्मा था, आकर भगवान् का उपसर्ग निवारण किया। भगवान् पार्श्वनाथ भारत के प्रसिद्धतम नागवंग में उत्पन्न हुए थे । आज के इतिहासज्ञ विद्वानो ने आपको ऐतिहासिकता इस प्रकार स्वीकार की है :-- "श्री पार्श्वनाथ भगवान का धर्म सर्वथा व्यवहार्य था। हिंसा, असत्य, स्तेय और परिग्रह का त्याग करना, यह चातुर्याम सवरवाद उनका धर्म था। इसका उन्होने भारत भर में प्रचार किया । इतने प्राचीन काल मे अहिंसा को इतना सुव्यवस्थित रूप देने का यह सर्वप्रथम उदाहरण है।" । ____ "श्री पार्श्वनाथ ने सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह-इन तीनो नियमो के साथ अहिंसा का मेल विठाया। पहले अरण्य में रहने वाले ऋषि-मुनियो के आचरण मे जो अहिंसा थी, उसे व्यवहार में स्थान न था। तीन नियमो के सहयोग से अहिंसा सामाजिक वनी, व्यावहारिक बनी।" इन उद्धरणो से विदित होगा कि अहिंसा के सर्वप्रथम (इतिहास सिद्ध) व्यावहारिक प्रयोग-द्रष्टा पार्श्वनाथ ही थे। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म भगवान् पार्श्वनाथ ने लगभग ७० वर्ष तक भारतव्यापी श्रहिया गा प्रचार किया और १०० वर्ष की उम्र में सम्मेद शिखर पर जाकर निर्वाण प्राप्त किया । भारत में हिंसा को विराट् बनाने का श्रेय भ० पार्श्वनाथ का ही है, जिन्होने जगली जातियो को ग्रहिंसक बनाया । कृतज्ञता प्रकाशन के लिए श्रीर उनके पावन उपदेशो की चिररमृति के लिए भारत राष्ट्र ने पर्वतों तक के 'पारस' नाम रख दिये । सम्मेद शिखर का दूसरा नाम "पारसनाथ - हिल" है । २६ प्रसेनजित पर हुए बर्बर ग्राक्रमण के अवसर पर काशी-कीमल राष्ट्रों की ओर से श्राप अकेले ही उसकी सहायता करने गये । उन्होंने एक ही श्रमृतवचन से एक दूसरे के खून के प्यासे राजाओ को शान्त करके मित्र बना दिया था । यह उनके विलक्षण वाक् कीगल का और प्रान्तरिक शुचिता का ज्वलत प्रमाण था । भगवान् महावीर उस युग के महाराजा तथा गणराज्य के अविपति चेटक की बहिन पी त्रिगला देवी । उनका विवाह ज्ञातृवशीय क्षत्रिय सिद्धार्थ के साथ हुया | जैनशास्त्रो मे महाराज सिद्धार्थ का उल्लेख "सिद्धत्थे खत्तिए" और "सिद्धत्थे राया, " के नाम से हुआ है । 1 यही देवी त्रिशला भगवान् महावीर की माता थी, और सिद्धार्थ भगवान् के पिता थे । ईसा से ५६६ वर्ष, पूर्व ऋतुराज वमन्त जब प्रपने नव यौवन की अगड़ाई ले रहा था, नैसर्गिक सुपमा अपना सिगार कर रही थी, प्रकृति प्रसन्न थी और जन-जन के मानस मे प्रपूर्व उल्लास और ग्राह्लाद उत्पन्न कर रही थी, तब चैत्रशुक्ला त्रयोदशी के दिन भगवान् महावीर ने अपने जन्म से इस पृथ्वी को पावन किया । उनका नाम वर्द्धमान रक्खा गया । } उनके बाल्यकाल की अनेक घटनाएं जैन ग्रंथो में उल्लिखित है, जिनसे प्रतीत होता है कि वर्द्धमान "होनहार बिरवान के होत चीकने पात" की उक्ति के अनुसार बचपन से ही अतीव बुद्धिमान्, विशिष्ट ज्ञानवान्, धीर, वीर श्रीर साहसी थे । उनके माता-पिता भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के अनुयायी थे, 1 तएव ग्रहिंसा, दया, करुणा और संयमशीलता के वातावरण मे उनका लालनपालन हुआ । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक बर्द्धमान में एक बड़ी जन्मजात विशेषता थी अलिप्तता - अनासक्ति की । राजप्रासाद में रहते हुए भी श्रोर उत्कृष्ट भोग सामग्री की प्रचुरता होने पर भी वे समस्त भोग पदार्थों में अनासक्त रहते थे । उनकी ग्रन्तरात्मा मे एक असाधारण प्रकाश था, एक दिव्य ज्योति थी, जो उन्हें एक निराला ही पथ प्रदर्शित करती रहती थी । २७ वर्द्धमान, स्वभाव से ही अत्यन्त गम्भीर और सात्विक थे । उनकी देह ग्रनुपम स्वर्ण समगौर वर्ण श्रौर श्रतिशय प्राणवान थी । उनका श्रानन प्रोजस्वी, ललाट और वक्षस्थल विशाल था । सात हाथ ऊचा उनका सम्पूर्ण शरीर असाधारण सौन्दर्य की पुरुषाकार प्रतिमा के समान था । फिर भी उनका मानस वैराग्य रंग से रंगा हुआ था । वे कभी-कभी अतिशय गंभीर प्रतीत होते, मानो ससार के दुःख-दावानल से पार होने की चिन्ता मे हो । इठलाता हुआ योवन भी उन्हें भोगो मे नही फसा सका । उनकी वृत्तिया वस्तुत श्रात्माभिमुखी थी । - दिगम्बर-परम्परा के अनुसार वह ग्रविवाहित ही रहे और श्वेताम्बर - परम्परा के अनुसार विवाहित होकर भी वे कभी भोगो मे ग्रासक्त नही हुए । 1 वर्द्धमान के माता-पिता का स्वर्गवास हुग्रा, उस समय उनकी अवस्था २८ वर्ष की थी । विरक्ति के जन्मजात सस्कार सभवतः इस घटना से उभर प्राये श्रीर उन्होने अपने ज्येष्ठ बन्धु नन्दिवर्धन के समक्ष दीक्षित होने का प्रस्ताव प्रस्तुत कर दिया । नन्दिवर्धन माता-पिता के वियोग से व्याकुल थे ही, वर्द्धमान के इस प्रस्ताव से उनकी मनोव्यथा की सीमा न रही । नन्दिवर्धन ने उनसे कहा - ' बन्धु, जले पर नमक मत छिडको । माता पिता के विछोह की कथा ही दुसह लग रही है, तिस पर भी तुम मुझे निराधार छोड़ देने की बात कहते हो । मैं इतनी बडी व्यथा न सह सकूंगा ।' भगवान् वर्द्धमान श्रतिशय नम्र, सौम्य, विनीत मोर दयालु थे । किसी को पीड़ा उपजाना तो दूर रहा, वे किसी को म्लानमुख भी नही देख सकते थे । नन्दिवर्धन के व्यथा - निवेदन से उन्होने सकल्प मे परिवर्तत तो नही किया मगर दो वर्ष के लिए उसे स्थगित कर दिया । इन को वर्षों मे वे गृहस्थ योगी की भाति रहते रहे । आखिर तीस वर्ष की भरी जवानी में उन्होने गृह त्याग किया । वह बुद्ध की भाति, पारिवारिक जनो को सोता छोडकर, रात्रि मे चुपके चुपके से नही निकले, वरन् कुटुम्बियो से अनुमति लेकर त्यागी बने । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धम यही से वर्द्धमान स्वामी का साधक - जीवन आरम्भ होता है । वारह वर्ष, पाचमास और पन्द्रह दिन तक कठोरतर साधना करने के पश्चात् उन्हें केवल - ज्ञान की प्राप्ति हुई । २८ इस लम्बे सावना-काल का विस्तृत वर्णन जैनागमो मे उपलब्ध है । उससे प्रतीत होता है कि वर्द्धमान की साधना अपूर्व और अद्भुत, थी । जव हम उनके तीव्रतम तपश्चरण का वृत्तात पढते हैं तो विस्मय से रोगटे खड़े हो जाते हैं । इस विशाल भूतल पर ग्रमस्य महापुरुष, अवतार कहे जाने वाले विशिष्ट पुरुष तथा तीर्थकर हुए हैं, मगर इतनी कठिन तपस्या करने वाला पुरुष दूसरा नही हुआ । भयानक से भयानक यातनात्रो मे भी उन्होने अपरिमित धैर्य, साहस एवं सहिष्णुता का आदर्श उपस्थित किया । गोपाल, शूलपाणि यक्ष, संगम देव, चण्डकौशिक सर्प, गोशालक और लाढ देश के अनार्य प्रजाजनो द्वारा पहुंचाई गई पीड़ाए भगवान् की अनन्त क्षमता और सहिष्णुता का ज्वलन्त निर्देशन है । रोमाचकारिणी उपीड़ा के समय भगवान् हिमालय की भाति अडिग, अडोल और अकम्प रहे । तपश्चरण में असाधारण वीर्यं प्रकट करने के कारण ही वे “महावीर” के सार्थक नाम से विख्यात हुए । आगत कष्टों, परीषहो और पीड़ाओ को दृढतापूर्वक सहर्ष सहन करने वाला पुरुष वीर कहलाता है, परन्तु भगवान् तो श्रात्मशुद्धि के लिए कभी-कभी कष्टो को निमत्रण देकर बुलाते, उनके साथ संघर्ष करते और विजयी बनते थे । इस कारण वह प्रतिवीर और महावीर कहलाये । विशेष वर्णन के लिए देखिए श्राचाराङ्ग, (प्र० द्वि० श्रुतस्कन्ध, कल्पसूत्र, आवश्यक नियुक्ति आवश्यकचूर्णि आदि ) कितनी अद्भुत बात है कि साढे बारह वर्ष के तपस्याकाल मे भगवान् ने छह महीनो जितना लम्बा काल निराहार और निर्जल रहकर बिता दिया । इस १२|| वर्ष के दीर्घकाल मे उन्होने कुल मिलाकर ३४६ दिन भोजन किया और शेष दिनो में उपवास किया । और यह भी कम आश्चर्यजनक नही कि उन्होने एक अपवाद के सिवाय कभी निद्रा भी नही ली । जब नीद आने लगती तो वे थोड़ी देर चंक्रमण करके निद्रा भगा देते और सदैव जागृत रहने का ही प्रयत्न करते रहते थे । इससे ज्ञात होता है कि अभ्यास के द्वारा निद्रा पर मनुष्य विजय प्राप्त कर सकता है। सर्वोत्कृष्ट साधना के फलस्वरूप भगवान् महावीर को सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक सम्पत्ति उपलब्ध हुई । इससे इन्हें सर्वन और सर्वदर्शी पद प्राप्त हुआ । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक २९ तत्पश्चात् भगवान् ने तत्व के स्वरूप तथा मोक्षमार्ग का प्रतिपादन किया । तीस वर्षं तक स्थान-स्थान पर परिभ्रमण करके अन्त में पावापुरी पधारे। मोक्ष की घडी निकट थी, किन्तु वे विश्व को अपनी पुण्यमयी, कल्याणकारिणी श्रीर परमपावनी वाग्धारा से प्राप्लावित कर रहे थे । आखिर कार्तिक कृष्णा श्रमावस्या को रात्रि में वे समस्त कर्मों से विनिर्मुक्त, अशरीरी सिद्ध हो गए । भगवान् महावीर विश्व के अद्वितीय क्रान्तिकारी महापुरुष थे । उनकी क्रान्ति एक क्षेत्र तक सीमित नही थी। उन्होने सर्वतोमुखी क्रांति का मंत्र का था । आध्यात्मिक, दर्शन, समाजव्यवस्था, यहा तक कि भाषा के क्षेत्र मे भी उनकी देन वहुमूल्य है । उन्होने तत्कालीन तापसो को तपस्या के बाह्य रूप के बदले वाह्याभ्यन्तर रूप प्रदान किया । तप के स्वरूप को व्यापकता प्रदान की । पारस्परिक खण्डन- मण्डन में निरत दार्शनिको को अनेकान्तवाद का महामंत्र दिया । सद्गुणों की ग्रवगणना करने वाले जन्मगत जातिवाद पर कठोर प्रहार कर गुण-कर्म के आधार पर जाति-व्यवस्था का प्रतिपादन किया । इन्होने नारियो की प्रतिष्ठा को भूले हुए भारत को साध्वी- सघ बनाकर प्रतिष्ठा प्रदान की। यज्ञ के नाम पर पशुओ से खिलवाड करने वाले स्वर्गकामियो को स्वर्ग का सच्चा मार्ग वतलाया । नदी समुद्रो में स्नान करने से, ग्राग में जल मरने से या पाषाणो की राशि इकट्ठी कर देने से धर्म समझने की लोकमूढता का ह्रास किया । लोकभापा को अपने उपदेश का माध्यम बनाकर पण्डितो के भाषाभिमान को समाप्त किया । सक्षेप में यह कि महावीर स्वामी ने समाज के समग्र मापदंड बदल दिये और सम्पूर्ण जीवन दृष्टि मे एक दिव्य और भव्य नूतनता उत्पन्न कर दी । भगवान् महावीर का उदार संघ यो तो भगवान् महावीर के चौदह हज़ार सत शिग्य थे, किन्तु ग्यारह उनमे प्रधान, थे, जो जैन परम्परा मे गणधर नाम से विख्यात है । यह ग्यारहो शिष्य पहले वैदिक धर्म के अनुयायी थे, और वेद-वेदाग के पारगामी प्रखर पण्डित थे । इनमे भी गौतम इन्द्रभूति के पाण्डित्य की सबके ऊपर धाक थी । वह भगवान् महावीर से शास्त्रार्थ करने गये । पर भगवान् से प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गये । उनके पश्चात् शेष दसो ने भी उन्ही का अनुसरण किया । सबने ती दीक्षा प्रगीकार की और वे वीरसंघ के स्तभ वने । 1 भगवान् के अनुपम त्यागी, तप और सयममय उपदेश सुनकर वीरागक, Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म वीरयक्ष संजय, एणेयक, सेय, शिव, उदयन तथा शंख, इन आठ समकालीन राजानो ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी। अभय कुमार, मेघकुमार आदि अनेक राजकुमारो ने प्रभु का शिष्यत्व स्वीकार किया। स्कन्धक प्रभृति अनेक तापस तपस्या का रहस्य जानकर भगवान की गरण मे आये, राजकुमारी चन्दनवाला, देवानन्दा अादि छत्तीस हजार नाग्यिा माध्वी-सघ मे प्रविष्ट हुई। भगवान् के गृहस्थ अनुयायियो मे मगधाधिपति श्रेणिक, कूणिक (अजातशत्रु), वैशालीपति चेटक (महावीर के मामा), अवंतीपति चण्डप्रद्योत आदि अनेक भूपति थे । आनन्द, काम देव आदि लाखो श्रावक थे, जिनमे शकटाल जैसे धर्मनिष्ठ कुंभार भी सम्मिलित थे। हरिकेगी और मेतार्य जैसे अतिशूद्र भी भगवान् के सघ मे सावुपद प्राप्त कर सके थे। कहना न होगा कि उस जमाने मे यह एक जवर्दस्त क्रान्ति थी। अब तक के ज्ञात इतिहास मे भगवान् महावीर ही प्रथम महापुरुष है, जिन्होने अस्पृश्यता के विरुद्ध तीन और सष्ट स्वर मे अावाज उठाई और अस्पृश्यो को अपने मघ मे उच्च पद प्रदान किया। महावीर की देन १ जाति-पॉति की भेदभाव भरी दरारो को दूर कर मानव समाज के लिए मार्वभौमिक एव सर्वसुलभ धर्मव्यवस्था स्थापित करना । ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र, क्षत्रिय वर्णों का अभिमान आदि बुराइयो को मिटाकर गुण विकास की पोर मानव-जाति को उन्मुख करना ही महावीर का अधिक लक्ष्य रहा है। २ विगट विश्व मे सचराचर (जगम एवं स्थावर) समस्त प्राणीवर्ग मे एक शाश्वत स्वभाव है और वह है जीवन की प्राकांक्षा, सुख की गोध, महान् बनने की उत्प्रेरणा और परमानन्द प्राप्त करने की उद्भावना । इसलिए किमी को "मा हणो" न कप्ट ही पहुँचायो और न किसी अत्याचारी को प्रोत्माहन ही दो। ३ याचार मे अहिंगा, बुद्धि मे समन्वय और व्यवहार में अपरिग्रह का आदर्ग नाकार करो। ४ आत्मा का स्वभाव ही धर्म है और विभाव ही प्रवर्म है, यही गण है कि भगवान् ने पुरुपो की तरह स्त्रियो के भी विकाम के लिए पूर्ण जनता प्रदान की है। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक ५. भापा के व्यामोह पर जो कि अभी तक भी भारत का खून चूस रहा है, और देश को प्रान्तो के नाम से बंटवारे कर खडित कर रहा है, भगवान ने गहरा कुठाराघात किया है। इसलिए तत्कालीन पडिताऊ भाषा संस्कृत में तत्वज्ञान न देकर उस समय की आम जनता की भापा अर्ध-मागधी प्राकृत का ही भगवान् ने अपनी वाणी का माध्यम रखा है, जिसमे सब लाभ उठा सके । . ६ ऐहिक और पारलौकिक सुख के लिए होने वाले पशुहिया से भरे यज, देवीपूजन तथा पशुबलिकर्म और पर्व के विरुद्ध मे भगवान् ने अपनी अावाज बलन्द की और मयम, तप, अहिंसा तथा पुरुषार्थ प्रधान मार्ग की महत्ता स्थापित की। ७ उनका उपदेश समता, वैराग्य, उपगम, निर्वाण, गौच, अजुता, निरभिमान, कपाय, अप्रमाद, निर्वैर, अपरिग्रह अादि गुणो के विकास के लिए होता था। ८ मनुष्य का भाग्य ईश्वर के हाथो मे न देकर, मनुग्य-मनुप्य को ही अपने भाग्य का निर्माता तथा पुस्पार्थ की प्रधानता और काल, कर्म, नियति, स्वभाव, तथा पुरुषार्थ का समन्वय स्थापित करना उनका महत्त्वपूर्ण कार्य था। इमी का नाम कर्मवाद है। ६ आत्मवाद, लोकवाद, कर्मवाद, और क्रियावाद महावीर की विशेप देन है। १० प्रत्येक प्रात्मा, परमात्मा बन सकता है, रागद्वेप-रहित व्यक्ति ही मच्चा ब्राह्मण होता है। इच्छायो का निरोध ही यज है, अात्मा की निर्मलता धन-दौलत से नही । त्याग मे ही कल्याण मभव है। अहकार का दमन और पर का रक्षण ही क्षत्रियत्व है। मंमार के समस्त जीवो के प्रति मैत्री, गुणियो के प्रति प्रमोद, निर्बल एव विपन्न के प्रति दयाभाव और विपरीत वृत्ति वाले मनुष्य के प्रति माध्यस्थ भाव रखना ही धर्म है। महावीर स्वामी दूसरो के प्रति हितपी एव अपने प्रति शोधक बनने का ही उपदेश देते थे। तत्कालीन धर्म-प्रवर्तक महावीर कालीन अन्यान्य धर्म प्रवर्तक ---जामाली, मखली पुत्तगोशाल पूरणकम्यप, प्रक्रुद्धकात्यायन, अजितकेशी कम्बलि, मजय वेलपित्त और Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म गौतमबुद्ध आदि आदि भगवान् महावीर के समान काल में अपना-अपना धर्म स्थापित कर रहे थे । इनमे जामाली भगवान् महावीर के जामाता थे, जो महावीर के केवल-ज्ञान होने पर १५ वर्ष पश्चात् महावीर के विरोधी वन गए थे । गोशालक गोगालक भगवान महावीर का शिष्य था । उसके सम्प्रदाय का उल्लेख आजीवक मत के नाम से आज भी कही-कही शास्त्रों मे पाया जाता है। बौद्ध पिटकों में भी उसका उल्लेख है। गोगालक का जीवन अत्यन्त विलक्षण था, किन्तु जितना विलक्षण था उतना ही उच्छृखल भी था। उसका जन्म ब्राह्मण कुल मे हुआ था। भगवान् महावीर से उसे ज्ञान-प्राप्ति हुई। आजीवक सम्प्रदाय की स्थापना मे उसके जीवन का विकास हुआ । लेकिन उसकी बुद्धि ने पलटा खाया और अरिहन्त देव से उसने वाद-विवाद कर पराजय का मुख देखा। अन्त मे उसने क्षमा याचना की, तत्पश्चात् उसका देहान्त हो गया यही गोशालक का रेखाचित्र है। जैन शास्त्रों के अनुसार गोशालक को भगवान् महावीर से आध्यात्मिक जान की विरासत मिली थी। यहा तक कि उच्च विद्याएं भी उसने भगवान् की कृपा से प्राप्त की थी। जिनमे तेजोलेश्या जैसी लधिया भी है लेकिन उसकी उद्दण्ड वृत्ति और उच्छृखलता ने उसको आजीवक सम्प्रदाय बनाने के चक्कर मे डाला, और उसने केवल नियति को मुख्य सिद्धान्त बनाकर सम्प्रदाय की स्थापना की। उस समय तो, गोशालक का वर्चस्व एव प्रभाव इतना था कि सम्प्रदाय चल निकला। लेकिन उसकी मृत्यु के उपरान्त उसका प्रभाव कम हो गया । गोशालक का जीवन सुन्दर होते हुए भी शालीनता-हीन था, अतः महावीर ने उसे अपने सुशिप्य के स्थान पर कुशिष्य रूप मे स्वीकार किया है । ___ गोशालक और महावीर का वर्णन भगवती सूत्र मे बहुत विस्तार से दिया गया है। उसकी तेजोलेश्या से दो साधुओ का भस्म हो जाना और भगवान् के दाह का होना भी शास्त्र मे वर्णित है। उपर्युक्त सभी धर्म-प्रवर्तको से भगवान महावीर का दार्शनिक, सैद्धान्तिक अयवा आचारविषयक बहुते मतभेद है । महावीर समन्वय-दृष्टि अथवा अनेकान्तात्मक विचारणा को ही मुख्य महत्व देते थे। वे अाग्रह को बुरा मानते थे। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक पिता विभिन्न दृष्टिकोणो अथवा आगिक सत्यो का समन्वय करना ही अनेकान्त है। महावीर और बुद्ध महावीर का विशेप सामना बुद्ध से हुआ। बुद्ध शाक्य गोत्रीय थे। शुद्धोधन महाराज के पुत्र थे, वे भी तपस्वी बने, उन्हें ज्ञान भी प्राप्त हुआ, उपदेशपरम्परा द्वारा उन्होने भी अपने को अरिहन्त बताया। महावीर और वुद्ध की तुलना इस प्रकार की जा सकती है :महावीर वुद्ध सिद्धार्य शुद्धोधन माता विगला महामाया गोत्र कश्यप कश्यप ग्राम क्षत्रियकुडग्राम कपिलवस्तु जात जात शाक्य जन्म सवत् ई० पू० ५९६ ई० पू० ६०० स्त्री यशोदा यशोधरा सतान प्रियदर्शना (पुत्री) राहुल (पुत्र) दीक्षा ५६६ (३० वर्ष की उम्र मे) ५७१ (२६ वर्ष की उम्र मे) आदितप १२ वर्ष ज्ञान प्राप्ति ऋजुवालुका तट निर्वाण वि० स० से (५२७) वर्ष पूर्व वि० स० ५२० वर्ष निर्वाण स्थान मध्यम अपापा (पावापुरी) कुशी नगर आयुष्य ७२ वर्प ८० वर्प महाव्रत पाच महाव्रत पाच शील सिद्धान्त अनेकान्तवाद क्षणिकवाद (विभज्यवाद) महावीर, और बुद्ध में समानता और विभिन्नता जहा कुछ विभिन्नताए है, वहा भगवान् महावीर और बुद्ध मे समानखाए भी है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, तथा अपरिग्रह और तृष्णा निवृत्ति आदि ६ वर्ष का स्थान गया Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैन धर्म मे बुद्ध की भी दृष्टि बहुत ऊची थी। ब्राह्मणसंस्कृति के सम्मुख ये दोनो श्रमणसंस्कृति के उज्ज्वल नक्षत्र थे । न केवल एशियाई वमुन्धरा पर, वरन् समस्त विश्व के कोने-कोने मे दोनो ने अपनी दिव्य करुणा का अमृत प्रवाहित किया है और ज्ञान-प्रकाशद्वारा विश्व की भूत एव भावी पीढियों को मार्ग दर्शन दिया है । जीवन-शोवन, अहिसा - पालन और श्रमण के लिए प्रावश्यक नियमों में इन दोनो महापुरुषो में सामान्यतया अधिक अन्तर नही है । दोनों मे भोग के प्रति गहरी घृणा है । राग-द्वेष के प्रति शत्रुता है । आत्मशुद्धि के लिए उत्कट प्रेरणा है । अहिसा दोनो को प्रिय रही है । दोनों संस्कृतियों की मूल प्रेरणा एक जैन संस्कृति और बौद्ध संस्कृति की मूल प्रेरणा लगभग एक सी है । "पार्श्वनाथा चा चारयाम" ग्रंथ मे पं० धर्मानद कौशाम्बी ने तो यहा तक सिद्ध कर दिया है कि भगवान् बुद्ध ने भगवान् पार्श्वनाथ के चार याम धर्म का ही पांचशील अथवा ग्रष्ट अंग के नाम से विकास किया है । ऐतिहासिक विद्वान तो यहां तक खोज कर चुके है कि भगवान् बुद्ध पार्श्वनाथीय सम्प्रदाय के किसी साधु के साथ रहे थे । किन्तु बाद मे जाकर उन्हें कठोर तपस्या के प्रति घृणा हो गई और उन्होने अपना अलग मध्यम मार्ग निकाला । "भारतीय सस्कृति और अहिंसा" मे धर्मानंद कौशाम्बी ने भगवान पार्श्व - नाथ के चार याम की तथा बुद्ध के मध्यम मार्ग की बड़ी सुन्दर तुलना की है । सम्यक् कर्म सम्यक् वाचा सम्यक् आजीव ( अहिंसा, अस्तेय ) (असत्य) ( अपरिग्रह ) इस प्रकार पार्श्वनाथ के चार यामों का समावेश अष्टांगिक मार्ग के तीन ग्रगो मे हुआ है । शेष पाच भी ग्रहिसा के ही पोषक है । जैसे सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् व्यायाम सम्यक् स्मृति और सम्यक् समावि । बुद्ध इस प्रकार का एव वाचा का सयम, सम्यक्त्व करके मानसिक-शुद्धि की अभिवृद्धि की कल्पना करते थे । जैन और बौद्ध धर्म मे चाहे धार्मिक अथवा सैद्धान्तिक मतभेद हो, तो भी Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक ३५. इन दोनो धर्मो ने और उनकी संस्थानो ने विश्व में अहिंसा प्रचार कार्य का बहुत वडा अनुष्ठान रचा है। दोनो श्रमण संस्कृति के शुद्ध मूलाधार रहे है । आज भी बौद्ध समाज मे जैनधर्म के प्रति श्रद्धाभावना है । सात निन्हव और अन्य विपक्षी १. भगवान् महावीर के केवल ज्ञान के १४ वर्ष पश्चात् बहुरत सम्प्रदाय के स्थापक जमाली निन्हव का नाम आता है। आज तो इस सम्प्रदाय का नाम ही शेष है । २ १६ वर्ष बाद, जीव के प्रदेशो को लेकर, चतुर्दश पूर्वधारी प्राचार्य वसु के शिष्य तिष्यगुप्त ने एक बहुत वडा वितण्डावाद खडा किया था । ३ महावीर निर्वाण के २१४ वर्ष पश्चात् श्रव्यक्तवादी अषाढाचार्य ने; ४ २२० वर्ष बाद समुच्छेदवादी महागिरि के प्रशिष्य और कौडिण्य के शिष्य श्वमित्र ने साधारण बातो पर प्रपच उठाकर, सघ मे फूट डालने की कोशिश की थी। ५ २२८ वर्ष बाद द्वेऋियवादी महागिरि के प्रशिष्य और धनगुप्त के शिष्य गगाचार्य ने भी इसी प्रकार का प्रपच खडा किया था । ६. ५४४ वर्ष पश्चात्, त्रिराशिवादी श्री गुप्त के शिप्य रोहगुप्त ने, और ७ ५८४ वर्ष पश्चात् प्रभद्रवादी गोष्ठा महिल ने साधारण सी बातो पर गुप्त र प्रश्वमित्र के समान फूट डालने का प्रयास किया था, परन्तु सघ अटूट रहा । फूट स्वय फूट गई। तत्पश्चात् इन्होने अपने मत खडे किये । महावीर सघ मे सात निन्हवो ने भयकरतम फूट डालने का प्रयास किया था । किन्तु सघ का सौभाग्य रहा कि फूट फल न सकी, और सातो निन्हवो को परास्त होना पड़ा । सचेल अचेल -- भगवान् महावीर के सघ मे जो सबसे बडी खटकने वाली बात थी सचेल और अचेल की विवादास्पद गुत्थी । इसका मूल कारण है पार्श्वनाथ के साधु सचेल थे और महावीर का बल अचेल होने की ओर था । जिसका समाधान पाश्वपात्यिक केशी कुमार श्रमण को, महावीर संघ के प्रथम गणवर, गौतमस्वामी के द्वारा दिया गया था । याम, चार और पांच - गौतमस्वामी ने चार याम की जगह पॉच याम सप्रतिक्रमण, रात्रि दिवस की व्यवस्था का जितना तर्कपूर्ण उत्तर दिया, उतनी Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म वस्त्रो के प्रति कठोर नीति नहीं अपनाई । मोक्ष के लिए पारमार्थिक लिग, साधन, जान, दर्शन चारित्र रूप प्राध्यात्मिक सम्पत्ति का निर्देश किया और सचेल, अथवा अचेल को लौकिक लिंग मात्र कह कर और उसे पारमार्थिक नीमा से बाहर कहकर, उपेक्षा कर दी गई। यही कारण थे कि समाज मे सचेल और अचेल की कोई निश्चित और नियमित रूपरेखा तैयार नहीं हो सकी। महावीर ने महाव्रत और प्रतिक्रमाणात्मक अन्त शुद्धि पर जितना दढना से बल दिया उतनी दृढ़ता से सचेल अथवा अचेल के एकान्तिक पक्ष पर नही दिया । यही कारण है कि उनके समय मे तो विवाद समन्वयात्मक सिद्धान्तो से और पापिात्यिक और महावीर मघ मे ममझोतेवादी दृष्टिकोण से समूत्रे संघ मे प्रेम से काम चलता रहा, किन्तु जम्बू स्वामी एव भद्रबाहु जी के सर्वतोमुखी व्यक्तित्व के समाज मे से उट जाने से सचेल और अचेल का पुराना विवाद श्वेताम्बर और दिगम्बर नाम से फूट निकला। इतना निश्चित है कि भगवान महावीर ने जव गृहत्याग किया तब एक वसन चेल धारण किया था, क्रमनः उन्होने हमेशा के लिए उस वस्त्र का त्याग कर दिया और पूर्णत अचेल हो गए। आचाराग सूत्र १ श्रुत, अध्याय ६ उद्देशा प्रथम मे उनकी इस अचेलत्व भावना का स्पष्ट वर्णन किया गया है। जैसे कि - णोचेविमेण वत्थेण, पिहिस्सामि तसि हेमते । से पारए आवकहाए, एय खु अणुधम्मिय तस्स ।। सवच्छरं साहियं मासं, जंण रिक्कासि दत्थगं भगवं । अचेलए ततो चाई, तं वौसज्ज वत्थ मणगारे । णो सेवती य परवत्य, परपाए वि सेण भुजित्था। परिवज्जियाण ओमाणं, गच्छति संर्खाड असरणाए॥ १९ अर्थात् भगवान महावीर के दीक्षा धारण समय इन्द्र प्रदत्त एक देववस्त्र प्राप्त हुआ था किन्तु भगवान् ने यह निश्चय किया कि मैं इसे छोडकर ही शीत नहूगा और फिर उन्होने ग्राजीवन वस्त्र धारण नही किया। इस देव-दत्त वस्त्र को पन्म्परा स्त्र मे ही स्वीकार किया और तेरह मास उपरान्त उतार दिया। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक तत्पश्चात् अचेलक होकर विचरने लगे। सर्वथा वस्त्र रहित विचरण करने लगे। वे न तो पराए पात्र में भोजन करते थे, मानापमान का सर्वथा त्याग कर, स्वय भगवान् गृहस्थो के रसोईघर मे जाकर निर्दोप आहार की गवेपणा करते थे। उपर्युक्त पाठ द्वारा प्रमाणित होता है कि भगवान् महावीर साधनावस्था में सर्वथा अचेल और उपकरण रहित थे, किन्तु भगवान् महावीर ने प्राचाराग सूत्र के दूसरे श्रुतस्कन्ध मे साधुअो की वस्नैषणा मे वस्त्र रखने का स्पष्ट विधान किया है । प्राचाराग' मूत्र १४ अध्याय प्रथम उद्देशे में इसका स्पष्टीकरण मिलता है कि सा ऊन का, पान का, कपास और रूई का वस्त्र ग्रहण कर सकता है। भगवान् द्वारा अचेलत्व की प्रशंसा लेकिन वस्त्र-विधान करने पर भी भगवान् महावीर आचाराग के छठे अध्याय के ३ उद्देशे मे अचेलक साधु की प्रशमा करते है और साधु के तीन मनोरयो मे पहला मनोरथ 'अचेल भयो आवई' के द्वारा अचेलक बनने की अोर साधु को उत्प्रेरित करते है। किन्तु, इन उद्धरणो से स्पष्ट अचेलकत्व का ऐकान्तिक आग्रह रखने वालो के लिए वस्त्र- विधान किया और अचेलकत्व को आदर्श रखा इससे ऐकान्तिक किसी भी सिद्धान्त सचेलकत्व व पूर्ण अचेलकत्व की पुष्टि नही होती है। इसलिए शास्त्र में पार्वापात्यिक परम्परा में से निकल कर महावीर संघ में सम्मिलित होने वाले साधु और स्थविरो का, जहा सभी परिवर्तनो का उल्लेख आता है, वहा पर उनका सचेलकत्व से अचेलकत्व की ओर आने का कोई निर्देश प्राप्त नहीं होता। जबकि उनके चारयाम के स्थान पर पाच महाव्रत और रात्रिदिवस के प्रतिक्रमण का स्पष्ट विधान किया गया है । हमने उपर्युक्त स्पष्टीकरण इसलिए आवश्यक समझा है कि श्वेताम्बर आम्नाय मे वस्त्र पर और दिगम्बर अाम्नाय मे अवस्त्र पर जोर दिया गया है। लेकिन भगवान् महावीर न सचेलकत्व और अचेलकत्व के आग्रही थे, न विरोधी । क्योकि भगवान् महावीर को वस्त्रविवाद मे कुछ रस नही था और न पारमार्थिक सिद्धि मे वस्त्रो का कुछ भी उपयोग वे मानते थे। उन्हे तो साधक के लिए अन्त शुद्धि की अधिकतम अपेक्षा थी। यही कारण है कि उस समय वस्त्रावस्त्र के विवाद को समन्वयात्मक दृष्टिकोण से सुलझा लिया गया , हा, Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म द्रव्य, क्षेत्र, काल और मानव की उसमे व्यवस्था कर दी गई। जिसके अनुसार युगानुरूप समस्त सघ वाह्य विधान मे उचित परिवर्तन कर सके । ध्यान रहे, अचेलकत्व के आग्रह के कारण दिगम्बर आम्नाय मे स्त्री के मोक्ष का द्वार बंद कर दिया गया। इसमे हम आग्रह का विकृत रूप कह सकते है । त्याग की ओर व ढना एक सत्य सिद्धान्त है, जो श्रेयस्कर है। किन्तु द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव के महत्व को भुलाकर नही, वरन् उनको योग्य कसौटी पर कसकर ही किसी सिद्धान्तानुसार प्रगति करना अधिक श्रेयस्कर होता है। भगवान् महावीर की अन्य धर्मों पर छाप श्रमण सस्कृति के प्रतिष्ठापको मे महावीर का एक अनन्यतम स्थान है। धार्मिक अन्धश्रद्धा, जनता की रूढिवादिता, और पाखंड के ठेकेदारो के विरुद्ध महावीर ने क्राति की, और सात्विक धर्म का प्रचार किया। ____ आत्मशुद्धि और राग-द्वेषनाग की ओर उनका प्रधान उद्देश्य था । जिसका प्रभाव तत्कालीन वैदिक परम्परा पर अधिकतम पड़ा। भारत मे श्रमण और ब्राह्मण के नाम से उभयमुखी आर्यसंस्कृति का संस्मरण हुआ। जैन और बुद्ध धर्म के विचारो को श्रमण-सस्कृति वैदिक तथा वैष्णवो के सम्प्रदायो की विचारधारा को वैदिक-संस्कृति के नाम से पुकारा जाता है। वैदिक एवं जैन संस्कृतियां-समन्वयात्मक वृत्ति से परिपूर्ण इतिहास तथा वैदिक वाडमय इस बात का साक्षी है कि वैदिको के पास श्रमण तथा साधु-सस्था के लिए कोई सुव्यवस्थित विधान-शास्त्र तथा प्राचारशास्त्र उपलब्ध नहीं है। यद्यपि वौद्धो और जैनों के पास भी गृहस्थो के लिए धर्म-विधान के सिवाय गृहस्थवर्म को बताने वाले धर्मग्रथो का अभाव है। इसीलिए मै समझता हूं कि ये दोनो संस्कृतिया अपने आप मे नही, अपितु । समन्वयात्मक वृत्ति मे ही परिपूर्ण है। यदि हम वैदिक संस्कृति को पेट और चरण कह सकते हैं, तो जैन और वौद्ध मस्कृति को हृदय और मस्तिष्क कह सकते है। सस्कार और श्राद्ध, कर्म और त्याग, निवृत्ति और प्रवृत्ति, इन सवका मेल जीवन के क्षेत्र में यदि आवश्यक है तो वैदिक और जैन सस्कृति का भी समन्वय अत्यधिक उपयोगी है। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक ऐतिहासिक भागों मे यदि सचोट तर्क द्वारा इस सस्कृति के आदान-प्रदान का यथार्य वर्णन किया जाये तो हमे कहना होगा कि साधु सस्था का विधान जैन और बौद्ध धर्म के सिवाय अन्यत्र कही उपलब्ध नहीं है, वैदिक धर्म में साधु धर्म का विधान केवल जैन आचार गास्त्र का वैदिक छायानुवाद मात्र है । जैन तथा दौद्ध सम्प्रदाय में गृहस्थकर्मों का सासारिक विधान वैदिक विधान का भावानुवाद मान है। जैन, बौद्ध तथा वैदिक ये तीनो विचारवाराएं समुचित रूप मे ही वास्तनिक अनेकान्त की अजस्रप्रवाहिनी अमर धाराए है। इनके सगम से भारतीयसस्कृति का सूर्य चमका है। यह निश्चय ही कहा जा सकता है कि ये तीनों धाराए एक दूसरे से प्रामाणिक एवं अनुप्राणित है। तीनो ने जी भर कर एक दूसरे से अपने पोषण तत्वो को प्राप्त किया है। कम से कम, निवृत्ति त्याग तथा साधु सस्था का नियमित रूप वैदिकों को जैन धर्म की देन है । अहिंसा की प्रतिष्ठा तथा वैष्णवो की आहार शुद्धि और आत्मा तथा परमात्मा की एकरूपता तो वैदिक धारा को जैन धर्म की ही विरासत है। भगवान महावीर ने अहिंसा के अतिरिक्त सर्वप्रथम, भाव-यज की स्थापना की, जिससे देश के पवित्रतम ब्राह्मणो की हिसाप्रधान यज्ञवृत्ति से रुचि हट गई। इसी समय, राक्षसी वृत्ति को छोड़कर राजानो ने श्रावक धर्म स्वीकार किया । वैदिक गृहस्थो और ब्राह्मणो पर महावीर की अहिसा की इतनी छाप पडी कि आज सैकडो वर्षों से याज्ञिक हिसा देश से लोप हो गई। सन्यासियो, त्रिदण्डियो और योगियो का अधिकाधिक ध्यान अहिसा तथा महावीर प्रणीत श्रमण-याचार-शास्त्र पर गया। जिसके फलस्वरूप अध्ययन अथवा श्रवण द्वारा उन्होने अपने सम्प्रदायो मे वे नियम लाग किए। त्रिदण्डी सन्यासियो की क्रिया पर जैनधर्म की श्रमण-परम्परा का पूरा प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। अन्य धर्मों पर श्रमण-परम्परा की छाप बुद्ध और महावीर के साधुप्रो मे सैद्धान्तिक आचार-सम्बन्धी मान्यताए तो कितनी ही एक जैसी दीखती है। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० जैन धर्म जामाली और गोगालक की परम्परा ने महावीर स्वामी की श्रमण परम्परा से ही पाठ पढा था। सचमुच, महावीर की श्रमण-संस्था अपेक्षाकृत बहुत सुव्यवस्थित और समुन्नत थी । आज भी महावीर के साधुअो के प्राचार-संयम तथा तप की धूम वैज्ञानिक विश्व आश्चर्य से देख रहा है कि जैन साधु किस प्रकार इतना त्याग कर लेते है, और अपने जीवन का कल्याण करने में सफल होते है । भारतवर्ष में आज भी जैन साधुओ को जितना विश्वास तथा आदर दिया गया है, वह सब महावीर की समुचित व्यवस्था का ही वरदान है । तत्कालीन सकट और-साधु-सस्था -जैन साधु परम पर्यटक होता है। इसका घर वार परिवार उसके कन्धो पर रहता है। ग्राम, पिडोलक और नगर पिंडोलक साधुओ को भगवान् ने पापी श्रमण तक कह दिया क्योकि एक जगह अधिक देर निवास करना ही सयम शिथिलता का कारण बन जाता है। जैन श्रमण पाट विहारी है वह दूसरे के सहारे के आधीन नहीं है । उसे तो अपने ही पैरो से समूची-भूमि, विकट अटवी तथा भयानक वनान्तर नापने पड़ते है । इसलिए शास्त्रो मे साधु सस्था पर आए हुए घोरतम संकटो का विस्तृत वर्णन किया गया है। साथ ही, उस अपवाद-मार्ग का भी निर्देश किया गया है जिसे साधु समय-समय पर उचित विधान के अनुसार अवलम्बन रूप में अपना सके । साधु-साध्वी के सामने मुख्य समस्या चोर-डाकुओ का उपद्रव, नदी पार करने के लिए वाहन का उपयोग, बीमारी, सर्प-विच्छु का विषैला उपद्रव मिटाने के लिए औषधोपचार, सकटकालीन स्थिति में राजसस्था मे जैन साधुनो का हस्तक्षेप, विधर्मी राजा द्वारा उठाये गये उपद्रव का निराकरण, दुर्भिक्ष के समय भिक्षा की समस्या का समाधान, धार्मिक संकट का प्रतिकार, संघ विपत्ति का निवारण आदि समस्त समस्याओं का समाधान-भगवान् महावीर ने विवेक पूर्ण आचरण करने के लिए अपवाद मार्गों का उल्लेख किया है। प्राचीन काल मे श्रमण-संस्था का कष्ट सहन समय की बहुत विचित्र गति है। अतएव, साधु-साध्वियो के लिए द्रव्य, क्षेत्र, काल भाव की मर्यादा वाव दी है। जिससे समय पड़ने पर साधु समाज सब के साथ अनुमति कर विशेष विधान भी बना सकता है, ऐसा अधिकार भगवान् महावीर ने सघ को दिया है। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक ४१ यदि ऐतिहासिक गोव एवं खोज की दृष्टि से देखा जाय तो आज २५०० वर्ष पहले के पिछले जमाने मे श्रमण संस्था को किन किन कष्टो का सामना करना पडा होगा, उसकी कल्पना भी नही की जा सकती । भयंकर बनान्तरो में होकर साधु श्रमणो को विहार करना पडता था । श्रावादिया दूर-दूर तथा बहुत थोडी थी । जंगल, पहाड नदी-नाले, रेगिस्तान सब मे से होकर अपनी राह, आप बनानी पडती थी, किन्तु ध्यान रहे, श्रमण, ससार की बाधाओ के वीच अपनी राह स्वयं वनाने के लिए ही तो म्राया है । लीक-लीक पर चलना महावीर का मार्ग नही था । क्योकि लीक पर ब्राह्मणों की याज्ञिक हिंसा और क्षत्रियो के उद्दण्ड जीवन की गहरी छाप पड़ी थी । उस काल मे राज्यो की श्रराजकता भी साधुग्रो के लिए अत्यन्त कष्टकारी श्री । किसी राजा के मर जाने पर, राज्य सत्ता प्राप्ति के लिए जो बखेडे खडे होते, उनका विषैला प्रभाव साधुओ पर भी पडता और उन्हे अनेक भाति त्रास दिये जाते । उस समय चोर डाकुओ के गाव के गाँव बसते थे, जिन्हे चौरपल्ली कहा जाता था। चोरों का नेता उनका नेतृत्व करता । ये चोर साधु और साध्वियो को बडा दुख देते थे । यदि राजा विधर्मी हुआ तो जैन साधुओ को बड़ी कठिनाइयाँ उठानी पडती थी । उन्हें बहुधा गुप्तचर समझ कर पकड लिया जाता था । बस्ती के निकट रहने वाले साधुओ को वडी कठिनाइयाँ उठानी पडती थी । उन्हें बहुधा अपने उपाश्रय अथवा स्थानक का पहरा देना पड़ता था । बहुधा दुराचारिणी स्त्रियां अपन भ्रूण उनके निकट छोड़कर चली जाती थी । चोर चोरी का माल छोड़कर चले जाते थे । सर्प, बिच्छु और कुत्ते आदि से अन्य साथी संतो की निरन्तर रक्षा करनी पड़ती थी । दुष्काल की भयकरता का प्रभाव भी बहुत बुरा पडता था । पाटलिपुत्र का दुष्काल कुख्यात है, जबकि भिक्षा के अभाव मे सहस्रो साधुओ को देश छोड़ना पड़ा था और अनेक ग्रागम ग्रथ नष्ट हो गए थे । इस प्रकार के अनेकानेक कष्ट और प्रातक - विशेष उपस्थित होने पर साधु को धर्म एव देह रक्षा के लिए शरीर त्याग करने को भी वाध्य होना पड़ता था । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म श्राज के गातिमय राष्ट्रीय जीवन में जबकि सामाजिक न्याय और राज्य शासन की समुचित व्यवस्था है । किन्तु उस काल के कप्टो का अनुमान लगाना दुप्कर है, जिनकी जलती ज्वाला मे जीवित निकल कर भगवान् महावीर के सहस्रो प्रजातनाम साबुत्रो ने अपने धर्म और कर्तव्य का पालन किया था । वे अत्याचारी न रहे, जिन्होने अनेक अराजकत्व काल में हमारे पूर्वज साधुग्री को अमानवीय पीडायें दी थी, वे लोग न रहे, जिनके अधर्ममय शासन में जैन साधुग्र की कष्ट - कहानिया बढ़ गई थी, वे सब न रहे, पर जैनधर्म और जैन माधु श्राज भी विद्यमान है । यह अन्याय और अधर्म पर, न्याय, धर्म और सत्य की जीत का सबूत है। ૪૨ श्रमण और प्रचार महावीर का धर्म किसी की जन्मगत, वर्ण-वर्गगत अथवा समाजगत वर्षांती नही है | यह तो अन्तशुद्धि पर बल देने वाली अत्यन्त वैज्ञानिक विचारधारा है, जो मनुष्य को सहज सरल तरीके से आध्यात्मिक जीवन, और लौकिक पारलौकिक मुक्ति की ओर ले जाती है । ग्रव, यह तो व्यक्ति और समाज की सावता पर निर्भर है, कि वह इस अमृत मे से कितनी बूंदे प्राप्त कर ले | विचार का जीवन - प्रचार आज भी पहले भी -- विचार का जीवन, प्रचार है | विचार धाराये प्रचार-प्रसार के आधार पर जीवित रहती है । भगवान् महावीर के विचारो को प्रचार ने ही अक्षुण्ण रखा है । यद्यपि प्रचार उद्देश्य नही है, माव्य नही है, पर वह साधन अवश्य है । विचार धारा का जितना विस्तार होगा, समाज में उतना ही प्रचार होगा । विचार-विषयक जितनी जानकारी बढेगी, उतनी ही अनुयायी वर्ग की संख्या में वृद्धि होगी, और विचारधारा को भी जीवित रहने के लिए अनुकूल वातावरण मिलेगा । पारस्परिक सौहार्द, महयोग एव साहस का सचार होगा । महावीर सबसे बडे प्रचारक एव दिव्य सदेश सवाहक थे । उन्होने अपने समस्त साधुओ, श्रावको साध्वियो और श्राविकाओं को आह्वान किया कि "धर्म प्रचार के पवित्रतम ग्रनुष्ठान मे ययागक्ति योग देकर ग्रात्मोद्धार एव परोद्धार करो ! " भगवान् महावीर धर्म प्रचारको, समाज व्यवस्थापको और अहिंसा के सेवको को सदैव प्रोत्साहन देते थे । उपासक दगागसूत्र में गोशालक मत के समक्ष ग्रार्हती विचार धारा को विजयिनी बनाने वाले कुण्डकोलिया श्रावक को भगवान महावीर ने "धन्योऽसि कुण्डकोलियाण तुम" कहकर धन्यवाद दिया है । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक ४३ शख श्रावक, कामदेव तथा आनन्दादि श्रावको का विस्तृत वर्णन, गौतम स्वामी को तपस्वियो के स्वागतार्थ जाने के लिए अनुमति देना व स्कन्धक सन्यासी जो गौतम स्वामी के वाल मित्र थे उन्हे गौतम गणधर को स्वागतार्थ जाने की अनुमति देना महावीर की महानता प्रकट करते है। केगीकुमार श्रमण का परदेशी को समझाने के लिए जाना, साधुओं का नगर नगर मे घूमना-यह सब व्यवस्थाए प्रचार के लिए ही हुई थी। राजा परदेशी का जीवन और केशीकुमार श्रमण का श्वेताम्बिका जाना प्रचार वृत्ति का एक ज्वलन्त उदाहरण है। __धर्म के लिए आवश्यक है, प्रचार प्रचार विना धर्म कभी ठहर नही सकता । इसलिए भगवान् ने धर्म प्रभावना तथा धर्म प्रद्योत करना सम्यक्त्व के महत्वपूर्ण अंग माने है । दीक्षा से पहले भगवान् महावीर को नवलोकान्तिक देवताओ ने जो प्रार्थना की है, उसमे भी आत्मकल्याण की अपेक्षा "सन्व जग्ग जीव हिंयं तित्य, पवत्तेहि" का उल्लेख आया है, अर्थात् जगत् के हित के लिए तीर्थ की प्रवर्तना करो। (प्राचाराग सूत्र) विश्व के उद्धार के लिए ही अहिसक धर्म की स्थापना की गई है। भगवान् महावीर ने उन्हे धन्य पुरुष कहा है, जो सकटो का सामना करके अहिसा तथा आहतो की सस्कृति का प्रचार करते है । महावीर और भारत की तत्कालीन अवस्था श्रमण परम्परा को अधिक सुव्यवस्थित करने के कारण महावीर के पास एक शान्ति सेना बनाई गई जो सामाजिक एव धार्मिक क्षेत्र मे क्राति कर सकी। यही कारण है कि महावीर तत्कालीन बुराइयो के विरुद्ध लड़ सके । यद्यपि उनकी विचारधारा का मोड़ निवृत्ति-गामी था, तथापि विधायक विचार कम महत्वपूर्ण नही थे । उस काल मे यज्ञो मे जो हिसा हो रही थी, उसकी अमानवीयता से समाज और प्रजा काप उठी थी। लेकिन ब्राह्मण एव उच्चवर्ग के सम्मिलित पड्यन्त्र के फलस्वरूप किसी व्यक्ति मे इतनी शक्ति नहीं थी कि वह उठ खडा होता और असामाजिक, अमानवीय प्रवृत्तियो के सचालको को ललकारता । समाज एक बडा बदीगृह था, जहा वर्णाश्रम और भेद उच्चवर्गों की दया और दान पर निर्भर था। उसे व्यक्तिगत स्वतत्रता नही थी, क्योकि Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म जाति और सम्प्रदाय के अन्यत्र व्यक्ति का अस्तित्व नही था । ऐसे अधकारमय युग में प्रकाश की किरण के समान महावीर की महागिरा गुंजित हुई। व्यक्तिव्यक्ति को अपना मुक्तिदाता मिला । न केवल मनुष्य, वरन् पशुप्रो ने भी शांति की सास ली । यज्ञ का जो धूमिल धूम्र पशु के लहू और मज्जा से गंधित था, अब केवल घी से पूर्ण रहने लगा । महावीर के साधु, सेवक सेना ज्ञान, कर्म और पाण्डित्य के दावेदारो के सिर झुक गए यह ज्ञान पर हृदय की, कर्म पर निष्काम भावना की और पांडित्य पर प्रेम की विजय थी । यह मानवता की वह सर्वोच्च स्थिति थी जो मानव में तब तक चले आए दानवत्व का अन्त करती थी । यात्रिक हिसा क्या वद हुई मानो कराल काल के काण्ड का मृत्युगीत बंद हो गया । प्रेम, शान्ति और त्याग का वातावरण मुखरित हुआ । ४४ इसके अतिरिक्त महावीर स्वामी ने तयुगीन समस्याओ पर विस्तृत रूप से विचार प्रदर्शित किए । यहा तक कि भगवान् ने व्यापार मे सतुलन, सत्य और मूर्च्छा का श्रावक को व्रत दिया । साधु के द्वारा महावीर स्वामी देश की आध्यात्मिक शिक्षा चाहते थे । सेवको की एक ऐसी सेना चाहते थे जिनके जीवन का धर्म मनुष्य मात्र को आध्यात्मिक मार्ग पर लाना हो । अर्थतंत्र की भावी विजय से महावीर स्वामी परिचित थे । उन्होने 4 पनी दूर दृष्टि से यह जान लिया था कि मनुष्य धन का दास बनने वाला है और वन से दास बनाने वाला है । इस रोग से समाज का निदान करने के लिए महावीर ने वर्गहीन अहिसक समाज का विधान दिया । समता तो उन्होने दो ही, साथ ही अपनी स्वल्प श्रावश्यकता से अधिक रखना भी पाप बतलाया । अपरिग्रह का उपदेश दिया । इसी प्रकार अणुव्रत-व्यवस्था की । भगवान् महावीर की महाव्रतो की व्यवस्था और जीवन-मुक्ति का उद्देश्य और प्रमाद के प्रति घृणा, प्रमाणित करते है कि वे अकर्म मे कर्म और कर्म अभाव में मुक्ति का उद्देश्य साकार करना चाहते थे । "" उन्होने भारतीय जीवन में ग्रहिसा की प्राण प्रतिष्ठा करते हुए Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक ४५ सकलात्मक हिसा त्यागने पर अधिक जोर दिया है । हिंसा जीवन मे होती है, पर हिला के कम से कम होने पर अहिसा की ओर उन्मुख रहना ही भ० महावीर ने श्रावक का आदर्ग उद्घोपित किया है । यदि मनुष्य इस प्रकार जीवन व्यतीत करता है तो उसका जीवन उज्ज्वल होता है, और कल्याण के निकट पहुचता है। भगवान महावीर ने भारत को अशुभ से शुभ की ओर व शुभ से शुद्ध की ओर प्रवृत्त होने का सदेश दिया है। उनका सदेव वाणी की अपेक्षा कर्म के रूप में अधिक था। कर्म के आधार पर दिया यह सन्देश समस्त चराचर के कल्याण-निमित्त था। वे अहिंसा से मंत्री, सत्य से विश्वास और अचौर्य से निष्कपट और ब्रह्मचर्य से तेज ग्रहण कर अपरिग्रह से मनुष्य को परम पुरुषार्थी बनाना चाहते थे। भारतीय इतिहास के उन चार महापुरुषो मे से, जिन्होने आज की, सभ्यता का निर्माण किया और आर्य सस्कृति की प्रतिष्ठा की उनमे, राम कृष्ण, बुद्ध और महावीर है। ____ उन्होने भोग पर त्याग को विजेता बनाया। मनुष्य कार्य करे, परन्तु उसका उद्देश्य पवित्र हो। सम्यक् ज्ञान के लिए दृष्टि शुद्ध रखकर देखे। संसार का अध्ययन करे। वृत्तियो को शुद्ध करे। जब तक मनुष्य अपना विवेक जगा समार पथ पर चलता रहेगा, तब तक उसके समस्त कर्म सुभाव वनते जाएगे। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति अहिसामय, पुरुपार्थमय और साहित्य जीवनमय, अथवा जीवन मुक्तिमय बन गया। लोक भाषा का प्रश्रय लोक जीवन पर इस अमृत वाणी का अपार प्रभाव पड़ा । समाज की उच्छृ खल अव्यवस्था का अन्त पाया और मनुष्य ने मनुष्य बनकर रहने का सकल्प किया । उसने अच्छा बनने का नत लिया। साहित्य के विविध क्षेत्रो मे मनुष्य-मन की सकाम प्रवृत्तियो को अपना बीज बोने का अवसर न मिला। इससे आध्यात्मिक साहित्य की उन्नति हुई, और जीवन सहज स्वतत्र हुअा और बुद्धि निरामय हुई । भगवान् लोकभापा मे ही लोक-साहित्य-निर्माण देखना चाहते थे। इसी हेतु उन्होने लोकभाषा का आश्रय लिया। वे चाहते थे कि साहित्य कलात्मक और सुन्दर बनाने वाला हो। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ जैन धर्म महावीर की परम्परा की रक्षा भगवान् महावीर ने वुराई और अविवेक के विरुद्ध जो प्राग मुलगाई थी उसे निरन्तर जलाए रखने वाले और उसकी चिनगारियो को नभालने वाले उन बुराइयो और अविवेक को नष्ट न कर सके अपितु अविवेक उन्हें नष्ट कर गया । जिस जड़वाट, जातिवाद और पूजीवाद के विरुद्ध महावीर उठे थे, वही जैनियो मे घर कर गया। अन्ती एव अप्रत्याख्यानी का जैनधर्म में स्थान नहीं था, न है, लेकिन वे ही व्रतभ्रष्ट जाति से जैन कहलाने लगे। आज महावीर-परम्परा की रक्षा करने की सर्वाधिक आवश्यकता उठ खड़ी हुई है। अहिंसा, त्याग, अपरिग्रह और प्रेम के मार्ग से जातीय जीवन विचलित हो गया है। उसे अपने मार्ग और अपनी गति पर लाना है। भगवान महावीर की परम्परा ही उसे जीवित रख सकती है। विश्व के नाम महावीर का संदेश भगवान् ने अहिसा को मुक्ति स्वरूपिणी माना है। प्रेम और अहिंसा का उनका दिव्य सन्देश पिछले २५०० वर्षों से विश्व की सत्रस्त मानवता को शाति देता रहा है, लेकिन आज जब देश और विदेश की सीमाए टूट गई। और मनुष्य ने समय और दूरी पर विजय प्राप्त कर ली है, उसकी समस्या और देश की सीमाए बहुत वृहद् रूप ले चुकी है। ससार प्रतिपल संकटापन्न स्थिति से घिरा रहता है, क्योकि भारत जैसे अहिंसक देशो की कमी है, और कतिपय देश युद्ध और हिसा मे ही मानव-जाति का कल्याण देख रहे है। लेकिन, महावीर का मार्ग अपना कर मानव जाति एक दिव्य गाति को प्राप्त करेगी जो अहिंसा का सम्बल बनेगी, और अहिंसा, सतप्त संसार को अपने शासन में लायेगी। यह शासन आत्मशासन होगा और ऐसे शासन में मनुष्य अपने लिए नहीं, दूसरो के लिए जिएगा। तव महावीर का सन्देश-~अन्तर्राष्ट्रीय समाज रचना का, विश्वपालिग्रामेंट का, विश्व-साकार का यंत्र, तंत्र और मत्र बनेगा। और वह दिन दूर नहीं है, क्योकि मनुष्यता अपनी विषमतायो और विडम्बनायो मे परित्राण पाने को बद्ध-परिकर हो, खडी है । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतीत की झलक ४७ शिष्य-परम्परा भगवान् महावीर के सर्वज्येष्ठ शिष्य यद्यपि गणधर इन्द्रभूति थे, मगर भगवान् के निर्वाण के साथ ही वे केवली हो चुके थे, अतएव सर्वप्रथम संघ के प्राचार्य की उपाधि प्राप्त करने का श्रेय पाचवे गणधर श्री सुधर्मा स्वामी को मिला। इन सुधर्मा स्वामी से ही श्रुत की परम्परा जारी हुई। सौ वर्ष की उम्र मे इन्हे भी निर्वाण प्राप्त हो गया। सुधर्मा स्वामी के पश्चात् जम्बू स्वामी दूसरे प्राचार्य हुए । यह अन्तिम केवली हुए । इनके बाद इस क्षेत्र में फिर किसी को मुक्ति प्राप्त नहीं हुई। जम्बू स्वामी के पश्चात् तीसरे प्राचार्य प्रभव स्वामी थे। पहले वह पाच सौ चोरो के सरदार थे। दूसरे दिन प्रभात में मुनि दीक्षा लेने को उद्यत जम्बू कुमार के घर चोरी करने गये। अकस्मात् जम्बू कुमार से साक्षात्कार हो गया और वह भी वैरागी बन कर दीक्षित हो गए। आखिर वही उनके उत्तराधिकारी हुए। जम्ब स्वामी तक दिगम्वर-श्वेताम्बर-परम्परा का एक रूप है। उनके पश्चात् दोनो परम्परामो मे भेद हो गया है । श्वेताम्बर परम्परा मे प्रभव, स्वयभव, यशोभद्र, सभूति विजय और भद्रबाहु का उल्लेख है, तो दिगम्बर परम्परा मे, विष्ण, नन्दी, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु के नाम मिलते है। प्रतीत होता है, कि जम्बू स्वामी के पश्चात् ही सघ की एकता शिथिल होने लगी थी, फिर भी मतभेद ने उग्र रूप धारण नही किया था। यही कारण है कि दोनो परम्पराए भद्रबाहु स्वामी को श्रुतकेवली स्वीकार करती है। भद्रवाहु स्वामी सम्राट् चन्द्रगुप्त मौर्य के गुरु थे। उन्होने वीरनिर्वाण स० १३६ के पश्चात् आचार्य यशोभद्र के पास दीक्षा अगीकार की। दीक्षा के समय उनकी उम्र ५३ वर्ष की थी। इस उम्र मे दीक्षित होकर भी उन्होने १४ पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया। १४ वर्ष तक अखण्ड वीरसघ के प्राचार्य रहे। ६६ वर्ष की उम्र में उनका देहावसान हो गया । उनके समय की प्रसिद्ध घटना द्वादशवीय दुर्भिक्ष है, जिसके कारण वे दक्षिण में चले गये। इस दुर्भिक्ष का सघ पर गहरा और स्थायी प्रभाव पड़ा। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म सघ छिन्न-भिन्न हो गया, श्रुति परम्परा से चलने वाले श्रुत का बहुत सा भाग विच्छिन्न हो गया । बड़े-बडे श्रुतधर, अनेक साधु, काल के गाल मे समा गये । ___ भद्रवाहु स्वामी ने दश आगमो पर निर्गुक्ति रची, ऐमा जैन परम्परा में प्रसिद्ध है। इसके पश्चात् कोई श्रुतकेवली अर्यान् सम्पूर्ण श्रुतधर नही हुआ, तथापि दोनो परम्परामो मे अनेक प्रभावशाली, अच्यात्मनिष्ठ, सिद्धान्त के मार्मिक जाता, संयम परायग और प्रभावक आचार्यों का क्रम चलता रहा है, जिसमे से कुछ का परिचय साहित्य के प्रकरण ने दिया जायगा। शेष आचार्यों के परिचय के लिए ऐतिहासिक ग्रथो का अवलोकन करना चाहिए। गुणेहि साहू अगुणेऽहि साहू, गिहाहि साहू गुगमञ्चसाहू । वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो राग दोसेहिं, समो स पुज्जो॥ गुणो से साधु होता है, और अगुणो से असाधु । सद्गुणो को ब्रहण करो, और दुर्गुणो को छोड़ो। जो अपनी आत्मा द्वारा अपनी आत्मा को जानकर राग और द्वेष मे समभाव रखता है, वह पूज्य है। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धं नगरं किच्चा , तव संवर मग्गलं । खंति निउण पागारं, तिगुत्तं दुप्पघंसयं ॥ धणु परक्कम किच्चा, जीवं चाईरियं सया। धिइंच केयणं किच्चा, सच्चेण परिमंथए । तव नाराय जुत्तेण, भित्तूणं कम्म कंचुयं । मणी विगय संगामो, भवाओ परिमुच्चए । --उत्तराध्ययन, अ० ९, गा० २०-२२ । ओ सापक ! श्रद्धा को नगर बनाकर, तप सवर रूप अर्गला, क्षमा रूप । कोट, मन वचन तथा काया के क्रमश. बुर्ज, खाई तथा शत नियों की सुरक्षापक्ति से अजेय दुर्ग बनाओ। और पराक्रम के घनग्य पर, इर्या समिति रूपी प्रत्यचा चढा कर, धृति रूपी मूठ से पकड़, सत्य रूपी चाप द्वारा खीच कर, तप रूपी बाण से, कर्म रूपी कचुक कवच को भेदन कर दो, जिससे संग्राम मे पूर्ण विजय प्राप्त कर, मुक्ति के परमधाम को प्राप्त करो। मुक्ति-मार्ग Page #68 --------------------------------------------------------------------------  Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति मार्ग "बुज्झिज्जति तिउट्टिज्जा, बंधणं परिजाणिया।" --सूयगडागसुत्त। जैनधर्म आध्यात्मिक ज्ञान की शक्ति पर पूर्ण विश्वास करता है, जिससे आत्मा अपने बन्धनो को सदा के लिए तोड देता है। और अपनी अनन्त असीम नैसर्गिक शक्तियो का परिपूर्ण विकास करके शाश्वत सिद्धि का लाभ करता है। महावीर कहते है-"गौतम ! जो जानता है, वही बन्धनो को तोडता है। ज्ञान की सार्थकता अन्धकार को दूर करके आलोक को प्राप्त करना है और चारित्र धर्म की आवश्यकता उस आलोक मे दृष्टिगोचर होने वाले दोषो को दूर कर आलोकित स्थान को स्वच्छ एवं पावन बनाना है।" ___ जैनधर्म के अनुसार, जिससे तत्व का यथार्थ बोध मिलता है, वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है, जिससे तत्वार्थ पर अडिग अडोल विश्वास प्राप्त होता .. है, उस दृढ प्रतीति को सम्यग्दर्शन कहा जाता है, और जिस प्राचारप्रणालिका के द्वारा अन्त करण की वृत्तियो को नियंत्रित किया जाता है, जीवन के अन्तरग और बहिरग को स्वस्थ एव सशुद्ध रक्खा जाता है, ऐसी दोषनिर्नाशिनी पद्धति और गुणविकासिनी पद्धति सम्यक् चारित्र कहलाती है। यही जैनधर्म की Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ जैन धर्म परमपावनी त्रिवेणी है। जिसमे स्नान करने वाला साधक निर्मल, निर्विकार और निष्कलुष बन जाता है। जीवन शोधन और मुक्ति लाभ के लक्ष्य की उपलब्धि के लिए अग्रसर होने वाले साधक के जीवन मे ज्ञान, आलोक, परमसत्य की श्रद्धा एवं इन दोनो से प्रेरित प्रवृत्ति, व्यवस्थित रूप से कार्य करती है, जो इस त्रिपुटी' का अवलम्बन लेता है, वही ससार मे सच्चा आध्यात्मिक यात्री है, मुमुक्षु है और वही अन्त में चरमसीमा का अात्मविकास प्राप्त कर सकता है। आर्यावर्त के सभी आस्तिक धर्मो का उद्देश्य अन्तत मुक्तिलाभ करना है, फिर चाहे उसे परमतत्व की उपलब्धि कहा जाय, चरमपुरुषार्थ की प्राप्ति कहा जाय, मुक्ति या सिद्धि कहा जाय अथवा ब्रह्मलाभ आदि कुछ और कहा जाय । जैनधर्म प्रत्येक आत्मा मे ईश्वरीय गुणो की सत्ता को दृढतापूर्वक स्वीकार करता है, और उन गुणो की स्वाभाविक अभिव्यजना को ही मुक्ति या सिद्धि मानता है। सिद्धिलाभ के लिए वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र की त्रिपुटी की अनिवार्यता स्वीकार करता है और स्पष्ट शब्दो मे घोषणा करता है कि ज्ञान विहीन: कोई भी कर्मकाण्ड क्रियाकलाप तप, जप, काम-क्लेश, देहदमन आदि जैसे उद्देश्य की सिद्धि नही हो सकती, उसी प्रकार क्रियाहीन ज्ञान से भी लक्ष्य की प्राप्ति नही हो सकती। परमात्मदशा प्राप्त करने का एकमात्र मार्ग तीनो का जीवन मे समन्वय होना ही है । वस्तुत ज्ञान और विश्वास का सार शुद्धाचार है। मानव-जीवन मे चारित्र का सर्वाधिक महत्व है। जीवन की ऊचाई उसके कोरे ज्ञान या विश्वास से नही आकी जा सकती। दिव्यता की ओर होने वाली यात्रा का मुख्य मापदण्ड चारित्र ही है। यही क्यो, दैनिक जीवन व्यवहार में भी हम देखते है कि विश्वास और जान जब तक मनुष्य के जीवन में साकार नही हो जाते तव तक मनुष्य किसी भी सांसारिक उद्देश्य में सफलता प्राप्त नही कर सकता। संसार एक अनन्त अविराम प्रवाह है, तो क्या जीव उसमे पाषाणखंड की भाँति बहता लुढकता और टक्करे खाता ही रहेगा? क्या मानव को इस १ तिविधै सम्मे पण्णत्ते, तंजहा, नाण सम्मे, दसण सम्मे चारित्तसम्मे। --स्थानांग, स्था० ३, उ० ४, सू० १९४ २ निब्बाण सेना जह सव्वधम्मा, --सूत्रकृताग, अ० ६, गा० ३ नाणेन विनान हुँतिचरण गुणा, -उत्तराध्ययन, अ० २८, गा० Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति मार्ग ससार मे चलना ही है ? उसकी गति का कही विराम नही है ? कोई आश्रयस्थल नही, कोई मंजिल नही ? अगर ऐसा हो और मनुष्य की गति की कही और कभी विश्रान्ति न हो, तो फिर मुमुक्षु की साधना का उद्देश्य ही कुछ न होगा। उसका सदाचार, विश्वास और तत्वज्ञान-सब व्यर्थ हो जायेगे। मगर नही । जैनधर्म का कथन है-"अवश्य आत्मा को कर्मों के बन्धनो से मुक्ति प्राप्त होगी। इस क्षणिक जीवन के बदले शाश्वत जीवन का लाभ होगा और ससार के निस्सार एवं दु.ख व सुख से ऊपर उठकर अवश्य आत्मा को अनन्त सुखमय मुक्ति का दर्शन होगा। प्रात्मदर्शन एव सहजस्वरूप की उपलब्धि ही सम्यक् चारित्र का वह शुभ फल है, जिसे मनुष्य अपने प्राप्य अन्तिम साध्य तथा लक्ष्य को सुनिश्चित रीति से प्राप्त कर लेता है। जैनतत्वज्ञान की यह एक सबसे बडी विशेषता है कि वह जीवन को बुझे दीपक की तरह शून्य में परिणत नहीं करता, किसी विराट् सत्ता में आत्मा का विलीनीकरण करके उसके स्वतन्त्र अस्तित्व को समाप्तहीन बनाकर पाषाण की भाँति जड नही बनाता । जैनधर्म के अनुसार आत्मा की अन्तिम स्थिति अनन्त सुख-सवेदन से परिपूर्ण और असीम ज्ञान के आलोक से सम्पन्न है। उस स्थिति में प्रात्मा की दिव्य शक्तियाँ निखर उठती है, और वह परम ज्योतिर्मय स्वरूप को प्राप्त करता है। उस परमसुखमय मुक्ति का जो राजपथ ' जैन धर्म ने निर्दिष्ट किया है, वह है सम्यग्जान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र का समन्वय । यह रत्नत्रय ही उस शाश्वत सगीत का प्रारोह बनता है, जो गायक को सदा के लिए मुक्ति में प्रतिष्ठित कर देता है। सम्यग्दर्शन जैनधर्म ज्ञान को साध्य रूप मे स्वीकार नहीं करता। जान का फल विज्ञान अर्थात् हेय-उपादेय का विवेक है, और विज्ञान का फल बुराई को छोडकर अच्छाई को स्वीकार करना है । ज्ञान का उपयोग श्रद्धा की स्वच्छता के लिए है, और श्रद्धा का अटूट बल जीवन गोधन के लिए है। अत ज्ञान की ययार्थता पर जितना बल दिया गया है, उतना ही उसकी सच्ची श्रद्धा पर भी दिया गया है। १ "जीवागच्छन्ति सौग्गई," -उत्तराध्ययन अ० २८, गा० १-३ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म आत्मा ' पर और साथ ही अन्य तथ्य भावो पर-वस्तुजगत पर सजीव श्रद्धा होना ही सम्यग्दर्शन है। जैनधर्म में सम्यग्दर्शन २ को बहुत महत्व दिया गया है। सम्यग्दर्शन के अभाव मे विपुल और सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान भी अजान ही रहता है और उग्र से उग्र अनुष्ठान भी मिथ्यानुष्ठान होता है ३ जानाभूति के पीछे यदि अटूट विश्वास, जीवित श्रद्धा या दृढ प्रतीति न हुई तो ज्ञान कदापि हितावह नहीं हो सकता। आत्मा की स्वरूपच्युति का प्रधान कारण सम्यग्दर्शन का अभाव है। श्रद्धा के विना न तो अपने स्वरूप पर, और न अपने स्वाधिकार की मर्यादा पर, दृढ़ प्रतीति होती है, और न ससार के अनन्त-अनन्त जड-चेतन द्रव्यो के स्वतन्त्र अस्तित्व पर ही विश्वास होता है। उस अविश्वासी और मिथ्यादर्शी प्रात्मा की यही भावना रहती है कि समूचा ससार मेरे इशारे पर नाचे, मेरी सत्ता स्वीकार करे और मेरे शासन का कोई भी उल्लघन न करे। इस विषाक्त दृष्टि से आत्मा को ही भ्रम मे नही डाल दिया है, वरन् विश्व की शान्ति का भी विध्वस किया है। दृष्टि की इस विमूढता का कारण तत्व को यथार्थ रूप मे न समझना और उस पर विश्वास न करना ही है। जगत् मे जो सत् है, उसका कभी विनाश नही होता है, और जो असत् है, उसकी उत्पत्ति नही होती। जितने भी मौलिक द्रव्य इस लोक मे विद्यमान है, बे सव अपने अपने मूल स्वरूप में स्थिर रहते है। एक द्रव्य दूसरा द्रव्य नही बनता, किन्तु प्रत्येक द्रव्य अपनी अनादिकालीन पर्याय-धारा में प्रवाहित हो रहा है, इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य का रूपान्तर होता है, मगर द्रव्यान्तर नहीं होता। ___ मूल द्रव्य छह है और तत्व नौ है । अनेकान्त दृष्टि ही इन द्रव्यो या तत्वो को समझने की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली है। १ उत्तराध्ययन-अ० २८, गा० १५ २ उत्तराध्ययन-अ० २८, गा० ३० ३ उत्तराध्ययन--अ० २८, गा०२८ ४ अनुयोगद्वार सूत्र १४१-१२४ । ५ स्थानाग सूत्र, स्था० ९ सूत्र । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति मार्ग वीतराग कथित आगम इन्हे समझने का अभ्रान्त साधन है । इस प्रकार के जीवन्त विश्वास को तत्वश्रद्धा कहते है। तत्वश्रद्धा ही सम्यग्दर्शन' है। सम्यग्दर्शन कभी-कभी आन्तरिक शुद्धि से स्वत प्राप्त हो जाता है, और कभी-कभी सत्सगति से, या परोपदेश से प्राप्त होता है। शास्त्र मे इनको क्रमश निसर्गज और अधिगमज सज्ञा प्रदान की गई है। सम्यग्दर्शन का विरोधी गुण मिथ्यात्व है। जो श्रद्धा विपरीत है, सत्यविरुद्ध है, वह मिथ्यात्व अथवा मिथ्यादर्शन है। देव, गुरु और धर्म के विषय मे भ्रमपूर्ण या विपरीत धारणा बनाने से मिथ्यात्व की उत्पत्ति होती है । मनुष्य अज्ञानवश यह समझने में असमर्थ हो जाता है कि आराध्य देव कैसा पावन, पवित्र, सम्पूर्ण ज्ञानमय और सर्वथा निर्विकार होना चाहिए? इस तथ्य को न समझने के कारण वह मिथ्यात्व के चक्कर मे फंस जाता है । शास्त्र के ठीक अभिप्राय को न समझने के कारण अथवा कुशास्त्र के स्वाध्याय से शास्त्रीय मिथ्यात्व आता है । यहाँ पर यह बात ध्यान में रखनी होगी कि बहुत कुछ पाठक की दृष्टि पर शास्त्र का सम्यक्-मिथ्यात्व निर्भर करता है। जिसकी दृष्टि निर्मल है, जो सम्यग्दर्शी है, वह मिथ्याश्रुत को भी अनेकान्त पद्धति से सगत बनाकर सम्यकश्रुत के रूप में परिणत कर लेता है। इसके विपरीत, भ्रान्त धारणामो से ग्रस्त मिथ्यादृष्टि सम्यक्त को भी विपरीत अभिप्राय ग्रहण कर मिथ्याश्रुत बना डालती है। असत् गरु के कारण भी ससार मे मिथ्यात्व फैलता है। मनुष्य गुरु के वास्तविक स्वरूप को समझे बिना ही वेष, चमत्कार, या वाक्कौशल को देखकर किसी को गुरु मान लेता है । इससे वह गुरु के विषय मे मिथ्यात्वी रह जाता है। मनुष्य धर्म के विषय मे यथार्थ को समझे बिना, परम्परागत धर्मविरुद्ध रूढियो को धर्म समझ लेता है । वह उसे कुलाचार, या ऐसा ही कुछ नाम देकर मानता है और मिथ्यात्व का शिकार बनता है । जैनधर्म का आदेश है कि मनुप्य को इस प्रकार विपर्यय से वचकर और दुराग्रह का परित्याग करके देव, गुरु और धर्म के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। १. तत्वार्थसूत्र अ० १, सूत्र २। २ नन्दी सूत्र ३. नन्दी सूत्र । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म जो आत्मा प्रकृष्ट साधना के द्वारा सर्वज्ञ, सर्वदर्गी, वीतराग, एवं अनन्तशक्तिशाली बन गया है, जिसने मिथ्यात्व, ग्रज्ञान, मोह ग्रादि अनेक प्रकार के विकारो पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त कर ली है, जो शुद्ध श्रात्मस्वरूप की उपलब्धि कर चुका है, वह सच्चा देव है । वही अर्हन्त परमात्मा कहलाता है । अर्हन्त को देव मानने की श्रद्धा, देव के प्रति सच्ची श्रद्धा कहलाती है । ५६ जिस महात्मा के जीवन मे ग्रहिसा की सुगध महकती है, जो अपने विशुद्ध आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है, जो पाच महाव्रतो द्वारा मुक्ति की अनवरत साधना करता है, और जो विश्व के समस्त जीवो का कल्याण चाहता है, वह सच्चा गुरु है । आत्मा को पूर्णता की ओर ले जाने वाला, तथा तत्व का यथार्थ ज्ञान कराने वाला वीतराग कथित श्रुत, एवं मुक्ति प्राप्त कराने वाला चारित्र, धर्म माना गया है ' । दयामय धर्म और अनेकान्तमय तत्व ही यथार्थ है । ग्रहिसा ही समग्र सदाचार की कसौटी है । इस प्रकार की दृढ प्रतीति सम्यग्दर्शन का मूल आधार है । सम्यग्दृष्टि पुरुष के विचार सुलझे हुए होते है । उसमे कदाग्रह तथा मताग्रह नही होता । वह सत्य को सर्वोपरि मानता है और सत्य की ही उपासना करता है । विनम्रभाव से वह सत्य के प्रति समर्पित है । सत्य पर उसकी ग्रविचल आस्था है । दानवी शक्ति भी उसे सत्य से, धर्म या अखण्ड आत्मविश्वास से विचलित नही कर सकती 1 सम्यग्दृष्टि को शुद्ध आत्मस्वरूप की झाकी मिल जाती है । वह अनन्त प्रात्मिक ग्रानन्द से परिचित हो जाता है । अतएव भौतिक सुख उसे रुचिकर प्रतीति नही होते । वह भोग भोगता हुआ भी उनमे लिप्त नही होता । सम्यग्दर्शन को निर्मल बनाये रखने के लिए पाच दोषो से वचना चाहिए. १. शंका, वीतराग के वचन पर अविश्वास । २. काक्षा, परधर्म को अगीकार करने की इच्छा । ३. धर्म के फल मे सदेह करना या सतो के प्रति ग्लानिभाव रखन १. ठाणांग सूत्र, ठाणा २, उ० १, सू० ७२ २. उपासक दशांग अ० १, Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति मार्ग ४ मिथ्यादृष्टियो की प्रशसा, और ५. मिथ्यादृष्टियो का घनिष्ठ परिचय । मुक्ति की साधना का मूल सम्यग्दर्शन है । सम्यग्दर्शन से ही आध्यात्मिक विकास प्रारभ होता है । यह स्वाभाविक है कि जब तक लक्ष्य शुद्ध न हो, और दृष्टि निर्दोष न बन जाय, तब तक मनुष्य की सारी जानकारी और उसके आधार पर किया जाने वाला प्रयास, सफल नहीं होता । इसी के कारण सम्यगदर्शन मुक्ति का प्रथम सोपान माना गया है। जब अन्तःकरण में सम्यग्दर्शन की ज्योति प्रकाशमान होती है तो अनादिकालीन अन्धकार सहसा विलीन हो जाता है, और समग्र तत्व अपने वास्तविक रूप मे उद्भासित होने लगते है। तभी आत्मा के प्रति प्रगाढ रुचि का आविर्भाव होता है, और सासारिक भोग नीरस प्रतीत होने लगते है। यह शुद्ध-दृष्टि के लिए मुक्ति का द्वार खोल देती है । सम्यग्दृष्टि जीवन मे प्रशम, सवेग, निर्वेद (विरक्ति), अनुकम्पा और आस्तिक्य की पचपुटी भावना आविर्भूत हो जाती है। वह सब प्रकार की मूढतानो से ऊपर उठ जाता है । और शुद्ध मुक्तिमार्ग को पहचान लेता है । सम्यग्दर्शन के आठ अंग जैसे शरीर अपने अगोपागो मे समाहित है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन भी अपने अगो मे समाहितहै । सम्यग्दर्शन के आठ अग है, और उनका स्वरूप समझने से सम्यग्दर्शन का स्वरूप समझ मे आ जाता है। उन अगो का सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है १ नि शकित' वीतराग और सर्वज परमात्मा के वचन कदापि मिथ्या नही हो सकते। कपाय अथवा अज्ञान के कारण ही मिथ्या भाषण होता है। जो निकषाय, वीतराग और सर्वज्ञ होने के कारण पूर्णजानी है, उनके वचन सत्य ही होते है । इस प्रकार वीतराग वचन पर दृढ श्रद्धा होना, नि शकित अंग है। २ नि काक्षित ----किसी प्रकार के प्रलोभन मे पडकर परमत की अथवा सासारिक सुखो की अभिलाषा करना, काक्षा है । काक्षा न होना, नि काक्षित धर्म है। १. "निस्संकोय" --उत्तराध्ययन, अ० २८, गा० ३१ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ जैन धर्म ३ निर्विचिकित्सा ---मनि जन देह मे स्थित होकर भी देह सम्बन्धी वासना से अतीत होते है । अतएव वे देह का सस्कार नहीं करते । उनके मलिन तन को देखकर ग्लानि न करना एव धर्म के फल मे सन्देह करना, निर्विचिकित्सा अग है। ४ अमूढदृष्टित्व -सम्यग्दृष्टि की प्रत्येक विचारणा और प्रवृत्ति विवेकपूर्ण होती है, उसने अपने जीवन का जो प्रशस्त लक्ष्य नियत कर लिया है, उसकी ओर आगे बढने मे सहायक विचार और व्यवहार को ही वह अपनाता है। किसी का अधानुकरण वह नहीं करता। सोच विचार कर प्रत्येक कार्य करता है। जिससे सघ को लाभ हो, आत्मा उज्ज्वल हो और दूसरो के समक्ष स्पृहणीय आदर्श खडा हो, ऐसी ही उसकी प्रवृत्ति होती है। इस प्रकार अपनी प्रजा को जागृत रखना और प्रमादग्रस्त न होने देना ही अमूढदृष्टित्व अग है ।। ५. उपवृ हण --जो गुणी जन है, विशिष्ट ज्ञानवान्, मंयमी, धर्मप्रभावक, समाजसेवक अथवा सम्यग्दर्शी है, उनकी समुचित सराहना करना, उनके उत्साह की वृद्धि करना, यथाशक्ति सहयोग देना, और उन्हे बढावा देकर अग्रसर करना उपवृ हण अग है। ६. स्थिरीकरण -सासारिक कप्टो मे पडकर, प्रलोभन के वशीभूत होकर, या किसी अन्य प्रकार से वाधित होकर जो सम्यग्दृष्टि अपने सम्यक्त्व से च्युत होने वाला है अथवा चारित्र से भ्रष्ट होने जा रहा है, उसका कष्ट निवारण करके या भ्रष्ट होने के निमित्त हटाकर, पुन. उसे स्थिर करना स्थिरीकरण अग है। ७ वात्सल्य ससार सम्बन्धी नातेदारियो मे साधर्मीपन की नातेदारी सर्वोच्च है। अन्यान्य रिश्ते मोह-वर्धक है, किन्तु साधर्मीपन का सम्बन्ध अप्रशस्त राग को दूर करने वाला और प्रकाश की ओर ले जाने वाला है । ऐसा समझ कर सहधर्मी के प्रति उसी प्रकार आन्तरिक स्नेह रखना, जैसे गाय अपने बछडे पर रखती है, वात्सल्य अग कहलाता है। ८ प्रभावना --जगत मे वीतराग के मार्ग का प्रभाव फैलाना, धर्म सम्बन्धी भ्रम को दूर करना, और धर्म की महत्ता स्थापित करना प्रभावना अग है। प्रत्येक व्यक्ति मे किसी न किसी प्रकार की विशिष्ट शक्ति विद्यमान रहती है। किमी में विद्यावल तो किसी मे चारित्रवल, किसी मे त्यागबल, Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति मार्ग ५ε तो किसी मे तपोबल, किसी मे वाक्ाक्ति, तो किसी मे लेखन शक्ति होती है । जिसमे जो शक्ति हो उसी के द्वारा धर्मशासन का प्रभाव बढाना सम्यग्दृष्टि अपना कर्त्तव्य मानता है । सम्यक्त्व के इन ग्राठ ग्रगो का भलीभाँति पालन करने वाला पुरुष ही सम्यग्दष्टि के पद का अधिकारी होता है । पुरिसा ! तुममेव तुमं- मित्तं कि बहिया मित्तमिच्छसो ? पुरिसा ! अभिनिगिज्झ एवं अत्ताणमेव पमोक्खसि । दुक्खा हे पुरुष } ही तेरा मित्र है | हे पुरुष अपनी आत्मा को वश मे कर । होगा । आ० ३।३. ११७-८ ? बाहर क्यो मित्र की खोज करता है ऐसा करने से तू सर्व दुखो से मुक्त Page #78 --------------------------------------------------------------------------  Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न चित्ता तायए भासा कुओ विज्जाणु सासणं । विसण्ण पाव कम्मेहि, बाला पंडियमाणिणो ॥ --उत्तराध्ययन, अ० ६, गा० ११ । पहावंतं निगिण्हामि सुयरस्सी समाहियं । न मे गच्छई उम्मग्गं मग्गं च पडिवज्जई ॥ -~~-उत्तराध्ययन, अ० २, गा० ५६ ।। हे साधक ! नाना प्रकार की भाषाम्रो का विज्ञान जीव को दुर्गत में पड़ने से नहीं रोक सकता। जो पाप कर्मो मे निमग्न हैं और अपने को पण्डित मानते है ऐसे मूर्ख मनुष्यो को भला विद्याओं का शिक्षण कहाँ तक सरक्षण दे सकेगा? हे साधक | सद्ज्ञान वह है जो भागते हुए मन रूपी घोड़े को ज्ञान रूपी लगाम द्वारा अच्छी प्रकार नियत्रित कर ले, इससे साधक तेरा अश्व उन्मार्ग मे नही जा सकेगा, और ठीक मार्ग को ग्रहण कर सकेगा। SA - - सम्यग्ज्ञान Page #80 --------------------------------------------------------------------------  Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. स्वरूप :-जैन दर्शन के अनुसार ज्ञान चैतन्यस्वरूप है। वह आत्मा का स्वाभाविक गुण है और इसलिए आत्मा से अभिन्न है । यद्यपि आत्मा और ज्ञान मे गुणी-गुण संबध है, तथापि गुणी और गुण मे जैन-दर्शन भेद नही मानता। अतएव प्रात्मा ज्ञानमय है । उस मे अनन्त ज्ञानशक्ति स्वभाव से ही विद्यमान है, किन्तु ज्ञानावरण कर्म से आच्छादित होने के कारण ज्ञान का पूर्ण प्रकाश नही होता । ज्यो-ज्यो आवरण हटता जाता है, ज्ञान प्रकाश बढता जाता है। जब आवरण पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है तो आत्मा का सर्वज्ञ रूप प्रकट हो जाता है। कोई भी ज्ञान नेत्र की भाति केवल परप्रकाशक नही होता, और न स्वप्रकाशक ही जैनधर्म ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेय की त्रिपुटी मे एकान्ततः पार्थक्य स्वीकार नहीं करता । प्रात्मा ज्ञाता तो है ही, अपने ज्ञान गुण से अभिन्न होने के कारण ज्ञान रूप भी है, और स्वय प्रतिभा सम्पन्न होने के कारण ज्ञेय भी है। इसी प्रकार ज्ञान वस्तु के बोध में कारण होने से ज्ञान है, और स्वप्रकाश्य होने से ज्ञेय भी है, और कर्तृत्व की विवक्षा से ज्ञान भी है। १ "स्व पर प्रकाशकं ज्ञानम्", (जैनन्याय तर्क संग्रह) Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान २. ज्ञान की यथार्थता और अयथार्यता:-यथार्य वोध सम्यग्जान और अयथार्थ बोध मिथ्याजान कहलाता है ' । ययार्थता और अयथार्थता से क्या अभिप्राय है ? इस प्रश्न का उत्तर दो प्रकार से दिया जा सकता है-लौकिक अर्थात् दार्गनिक दृष्टिकोण से, और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से। जिस जान मे सशय, विपर्यास अनध्यवसाय न हो, वह ज्ञान दार्शनिक दृष्टिकोण से यथार्थ माना जाता है २ । किन्तु आध्यात्मिक दृष्टिकोण से वही जान यथार्थ हो सकता है जिस के पीछे मिथ्यात्व न हो । मिथ्यात्व या मिथ्यादर्शन, ज्ञान को मिथ्या वना देता है। जिस आत्मा मे सम्यग्दर्शन की अभिव्यक्ति हो चुकी है, जिसकी दृष्टि शुद्ध हो चुकी है, उसका ज्ञान आध्यात्मिक दृष्टि से सम्यग्जान है। इसके विपरीत जो ज्ञान सशय आदि समारोपो से युक्त है, अर्थात् जो संशययुक्त है, सर्प को रस्सी समझने के समान विपरीत बोध रूप है या अनिर्णायक है, वह दार्शनिक दृष्टिकोण से अयथार्थ है, और जिस ज्ञान के पीछे मिथ्यात्व है, दुराग्रह है, दुरभिनिवेश है, आध्यात्मिक जागृति नही है, और लक्ष्य की पवित्रता नही, वह आध्यात्मिक दृष्टि से अयथार्थ है। ३. ज्ञान के भेद :--ज्ञान सामान्य रूप से एक है, फिर भी उसे विविध प्रकार से भेद-प्रभेद करके समझाने का प्रयत्न किया गया है । ज्ञान की तरतम अवस्थाओ, कारणो एवं विषय आदि के आधार पर यह भेद-प्रभेद किये गये है। मूलत ज्ञान पाच प्रकार का है --- १. मतिज्ञान २. श्रुतमान ३. अवधिज्ञान ४. मन पर्यवज्ञान ५ केवलज्ञान 3 ४. ज्ञान की प्रत्यक्ष परोक्षता -इन पाच ज्ञानो मे से पहले के दो अर्थात मतिनान और श्रुतजान परोक्ष है, और अन्तिम तीन ज्ञान प्रत्यक्ष है। इतर भारतीय दर्शन साधारणतया इन्द्रियो द्वारा होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष मानते है । १.-२. द्रव्य संग्रह। २. स्थानांग, सूत्र, स्थान २, उ० १, सूत्र ७१ । ३. नन्दी सत्र Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्यज्ञान नेत्रो मे रूप को देखना, नासिका से गध का ज्ञान होना, जिह्वा से रस का, त्वचा से गीतोष्ण आदि स्पर्गों का, और कान से शब्द का ज्ञान होना, उनके मन्तव्य के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान है। किन्तु जैनदर्शन इन्द्रिय-मनोजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं मानता। जैनदर्शन के अनुसार वास्तव में प्रत्यक्ष ज्ञान वह है, जो इन्द्रियो और मन की सहायता की अपेक्षा न रख कर साक्षात् आत्मा से ही होता है । हा, लोक व्यवहार के अनुरोध से इन्द्रियजन्य ज्ञान भी प्रत्यक्ष कहा जा सकता है, किन्तु वह साव्यवहारिक प्रत्यक्ष ही है, पारमार्थिक नहीं। ५ मतिज्ञान के भेद --मतिज्ञान कारणभेद से दो प्रकार का हैइन्द्रियजन्य और मनोजन्य ।' चक्षु आदि इन्द्रियो से होने वाला जान इन्द्रियजन्य कहलाता है और मन से होने वाला मनोजन्य । मन आन्तरिक कारण है और रूप आदि किसी एक ही विपय आदि को ग्रहण नहीं करता, इस कारण उसे अनिन्द्रिय कहते है । मतिजान सामान्यरूप से एक होने पर भी विषय-भेद से पांच प्रकार का माना गया है २ । १ मति, २ स्मृति, ३ सज्ञा, ४ चिन्ता, -५ अभिनिबोध । मति -वह ज्ञान है, जो इन्द्रिय और मन से उत्पन्न हो, तथा वर्तमानविषयक हो। स्मृति -पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण करना। पूर्वजन्मो का स्मरण इसी के अन्तर्गत है। संजा –पूर्वानुभूत और वर्तमान में अनुभव की जाने वाली वस्तु मे एकत्व या सादृश्य का अनुसधान करना। इसका दूसरा नाम प्रत्यभिज्ञान भी है। चिन्ता -भविष्य की विचारणा । अभिनिवोध -अनुमान। ६ ज्ञान का क्रम विकास ---चेतना जीव का ज्ञानरूप गुण है, और मल मे वह एक है। कही विपय के आधार पर और कही कारणो के प्राधार पर, अनेक भेद-प्रभेद करके उसकी मीमासा की गई है । ज्ञान उत्पन्न होता है तो पहले पहल इतना सामान्य होता है कि वह वस्तु के विशेष धर्मों को नही १ स्थानांगसूत्र स्थान २ उ० १, सू० ७१। २ नन्दी सूत्र, मतिज्ञान, गा० ८०, तत्त्वार्थमूत्र, १-१३ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म जान सकता । वह सत्ता मात्र का ग्राहक होता है, जिसकी सत्ता को वह ग्रहण करता है, उसके नाम, गुण, क्रिया, जाति आदि विशेप धर्मों के जानने मे असमर्थ होता है। उपयोग की यह प्राथमिक अवस्था दर्शन कहलाती है । दर्शन के पश्चात् उपयोग की धारा अग्रसर होती है। उस समय भी अनेक अवस्थाए होती है । उन सूक्ष्म अवस्थाओं का भी जैन-शास्त्रो में दिग्दर्शन कराया गया है। पर यहा अधिक विस्तार मे न जाकर चार स्थूल अवस्थामो का ही वर्णन कर देना पर्याप्त होगा वे चार अवस्थाएँ ये है .-- १. अवग्रह २. ईहा ३. अवाय और ४ धारणा २ दर्शन मे सत्ता नामक महासामान्य (परसामान्य) का बोध हो पाया था, 'कुछ है, इतनी-सी प्रतीति हुई थी। उसके अनन्तर जव उपयोग ने अपरसामान्य (मनुष्यत्व आदि अवान्तर सामान्य) को ग्रहण किया और 'यह मनुष्य है, ऐसी प्रतीति हुई तो वह उपयोग अवग्रह कहलाया। अपरसामान्य को जान लेने के बाद उपयोग का झुकाव विशेप की ओर होता है । वह झुकाव ईहा कहलाता है । ईहा विशेप की विचारणा है। इस विचारणा के पश्चात् जव ज्ञान विशेष का निश्चय करने में समर्थ हो जाता है तो वह अवाय या अपाय कहलाता है। अवाय के पश्चात् धारणाजान होता है। उसके तीन रूप है -अविच्युति, वासना और स्मृति । इनके उत्पन्न होने के पश्चात् अवाय ज्ञान जितने काल तक स्थिर रहता है, अर्थात् उपयोग पलटता नहीं है, वह अविच्युति कहलाता है। उपयोग पलट जाने पर पूर्ववर्ती ज्ञान संस्कार का रूप ग्रहण करता है तो वासना कहलाता है। कालान्तर मे कोई निमित्त पाकर वासना का पुन. जागृत हो जाना स्मृति है। ___इस प्रकार एक ही ज्ञान की धारा क्रम से विकसित होती हुई अनेक नामो से अभिहित होती है। विकास-क्रम के आधार पर ही उसके पूर्वोक्त चार भेद किये गये है। ये चारो जान पांच इन्द्रियो से तथा मन से होते है। इस प्रकार कारण १ द्रव्यसंग्रह, गा० ४३। २. नदीसूत्र २७, तत्त्वार्थसूत्र, १-१५ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान ६७ के आधार पर अवग्रह आदि चारो के छह-छह भेद होते है और सब मिलकर चौबीस भेद हो जाते है । यहां एक स्पप्टीकरण कर देना आवश्यक है। मन और पाच इन्द्रियाँ ये ज्ञान के छह साधन दो वर्गों में विभक्त है, पहले वर्ग मे चक्षु और मन को छोड कर शेप चार इन्द्रियाँ सम्मिलित है, जो अपने अपने विपय का स्पर्श करके उसे जानती है। दूसरे वर्ग मे मन और चक्षु-इन्द्रिय है, जो अपने विषय को स्पर्श किये विना, दूर से ही जानती है । इस भेद के कारण ज्ञान के क्रम मे भी भिन्नता होती है। उस क्रमभेद को मन्दक्रम और पटुक्रम कहते है । मन और नेत्र पटुक्रम वाले, और चार इन्द्रियां मन्दक्रम वाली है। स्पर्गेन्द्रिय के साथ जब तक वायु का स्पर्श न हो, वह वायु को नही जान सकता । जिह्वा के साथ पदार्थ का सयोग होने पर ही रस का ज्ञान होता है। इसी प्रकार गध के पुद्गलो का नासिका के साथ और भाषाद्रव्यो का कर्णेन्द्रिय के साथ स्पर्श होना अनिवार्य है। तभी उनका ज्ञान होता है। इन्द्रिय और विषय का यह सवध व्यंजन कहलाता है। अवग्रह ज्ञान का कारण होने से चार प्रकार का यह व्यजन भी अवग्रह ही कहलाता है। पूर्वोक्त चौवीस भेदो मे इन चार भेदो को सम्मिलित कर दिया जाय तो मतिज्ञान के अट्ठाईस भेद होते है। ७ श्रुत ज्ञान -सामान्यत श्रुत का अर्थ है-'सुना हुआ'। वक्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द को सुनकर श्रोता को वाच्य-वाचकभाव सवध की सहायता से जो शब्दबोध होता है, वह श्रुतज्ञान कहलाता है। इस परिभाषा से स्पष्ट है कि श्रुतज्ञान से पहले मतिज्ञान का होना अनिवार्य है। ज्ञान के द्वारा श्रोता को शब्दो का जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान है। तदनन्तर उस शब्द के द्वारा शब्द के वाक्य पदार्थ का ज्ञान होना श्रुतज्ञान है । . ८ मति-श्रुत का अन्तर -इस प्रकार मतिज्ञान और श्रुतमान मे कार्य-कारण का सवध है । मतिजान कारण और श्रुतज्ञान कार्य है। मतिज्ञान के अभाव मे श्रुतज्ञान उत्पन्न नहीं होता। यद्यपि दोनो ज्ञान साधी है, परोक्ष है, तथापि उनमे भिन्नता है। मतिज्ञान मूक और श्रुतज्ञान मुखर है । मतिज्ञान १. स्थानागसूत्र, स्थानांग ६, तत्त्वार्थसूत्र १११६ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ जैन धर्म प्राय वर्तमान विषय का ग्राहक है, जब कि श्रुतज्ञान त्रिकाल विषयक होता है। उदाहरण की भापा मे यह कहा जा सकता है कि मतिजान यदि दूध है, तो श्रुतज्ञान खीर है। मतिजान सण है तो, श्रुतजान उससे बनी रस्सी है । अभिप्राय यह है कि इन्द्रिय-मनोजन्य दीर्घकालीन जानधारा का प्राथमिक अपरिपक्व अश मतिजान है, और उत्तरकालीन परिपक्व अश श्रुत ज्ञान है । श्रुतजान अगर अपनी पूर्ण मात्रा मे प्राप्त हो जाता है तो मनुष्य श्रुतकेवली कहलाता है। श्रुत ज्ञान के मूल दो भेद है २ द्रव्यश्रुत और भाव श्रुत । भाव श्रुत जानात्मक है और द्रव्य श्रुत शब्दात्मक । द्रव्यश्रुत ही आगम कहलाता है। ९. श्रुत का प्रामाण्य -धर्म के क्षेत्र में आगम की सर्वाधिक महत्ता है । धर्म का धुरा आगम के इर्दगिर्द घूमा करता है। धार्मिक व्यक्ति की दृष्टि क्रिया, सभ्यता और संस्कृति आगम से अनुप्राणित होती है। अनेक भारतीय दर्शनो की भाति जैनधर्म भी आगम का प्रामाण्य अगीकार करता है; किन्तु उसके प्रामाण्य की उमने एक विगिप्ट कसौटी अगीकार की है। जैनधर्म आगम को अपौरुषेय, अनादिनिधन अथवा ईश्वर द्वारा प्रेषित मान कर छुट्टी नही पा लेता । उसका कथन है कि अपौरुषेय या अनादि आगम असभव है। अतएव वीतराग पुरुष द्वारा प्रणीत आगम ही विश्वसनीय एव प्रमाणभूत हो सकता है । जैनजगत् के दो महान दार्शनिक सिद्धसेन और समन्तभद्र ने स्वर मे स्वर मिला कर लिखा है-"जो प्राप्त द्वारा कथित हो, तर्क द्वारा उल्लघनीय न हो, जिसमे प्रत्यक्ष अथवा अनुमान से वाधा न पाती हो, वही सच्चा शास्त्र या आगम है ।"3 यहा पहले ही विगेपण द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि अपौरुषेय होने के कारण नहीं, वरन् प्राप्त पुरुप द्वारा प्रमाणित होने के कारण ही आगम को प्रामाणिक माना जाता है, कौन सा आगम प्राप्तप्रणीत है और कौन सा नही ? यह निर्णय करने के लिए शेप विशेषण प्रयुक्त किये गये है। __ जैनधर्म के अनुसार अनेकान्त दृष्टि के प्रवर्तक, अखण्ड सत्य के द्रप्टा, केवल ज्ञानी तीर्थङ्कर देव ने समस्त जगत के जीवो की करुणा के लिए प्रवचन १ "मई पुत्वं जेण सुअ न मई मुअ पुन्विआ", नन्दिसूत्र २४ । २ स्थानांन सूत्र, स्था० २ । ३ स्थानांग, स्था० २-७१ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान प्रसूनो की वृष्टि की है । तीर्थङ्कर के प्रधान शिष्य गणधर देव अपने बुद्धिपट में उन कुसुमो को झेलते है और प्रवचन-माला गूंथते है । यह प्रवचनमाला जैन परम्परा मे पागम-प्रमाण के रूप मे स्वीकार की गई है। जव तर्क थक जाता है, लक्ष्य अस्थिर होकर डगमगाने लगता है और चित्त मे चचलता उत्पन्न हो जाती है, तो आद्यप्रणीत आगम ही मुमुक्षु जनो का एकमात्र अाधार बनता है। यह पागम ही द्रव्यश्रुत कहलाता है और द्रव्यश्रुत के सहारे उत्पन्न होने वाला ज्ञान भावभुत कहलाता है । १०. भेद-कर्तृ भेद से पागम दो भागो मे विभाजित किया जा सकता है। अंगप्रविष्ट और अंगवाह्य । जिस श्रुत का साक्षात् तीर्थङ्कर भगवान् ने उपदेश दिया और जिसे अगाध मेधा एव बुद्धि के धारक गणधरो ने शब्द-वद्ध किया, वह अंगप्रविष्ट कहलाता है। अगप्रविष्ट का शब्दार्थ है-'अगो मे अन्तर्गत" अक्षर-पुरुष के बारह अग है, जिनके नाम ये है ~~ १ आचारांग २. सूत्रकृत ३ स्थान ४ समवाय ५ व्याख्याप्रज्ञप्ति ६. ज्ञातृधर्मकथा ७ उपासकदशा ८. अन्तकृदशा ९. अनत्तरौपपातिक १०. प्रश्नव्याकरण ११ विपाक १२ दृष्टिवाद ।' ___ यह बारह अग समस्त जैनवाड्मय के मूलाधार है। इन्हे 'गणिपिटक' कहा गया है । इन अगसूत्रो के आधार पर, इनसे अविरुद्ध विभिन्न स्थविरो एवं आचार्यों द्वारा रचित पागम अगवाह्य कहलाता है। अंगवाह्य आगमो की सख्या निर्धारित नही की जा सकती; मगर उनकी प्रामाणिकता का आधार अग शास्त्र ही है। जैनाचार्यों ने विपुल श्रुत की रचना की है। बारह उपागसूत्र, चार मूलसूत्र, चार छेदसूत्र, और आवश्यक सूत्र आदि आगम तो है ही, इनकी व्याख्या के रूप में भी चूणि, नियुक्ति और टीका आदि का प्रणयन किया गया है, जिसका बहुत वडा परिमाण है। इसके अतिरिक्त भी बहुसंख्यक जैनाचार्यो ने आध्यात्मिक, और दार्शनिक साहित्य का स्वतत्र ग्रथो के रूप मे निर्माण किया है और आगम प्ररूपित सक्षिप्त तत्त्व का हृदयग्राही तर्कसंगत और विशद विवेचन किया है । जैनाचार्यो १ नन्दीसूत्र ४४। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की बहुत-सी रचनाएँ न केवल भारतीय साहित्य, अपितु विश्व साहित्य के विशाल भंडार की अनमोल मणियाँ है । ११ जैनाचार्यों की साहित्य-सेवा ----प्रसगवश यह उल्लेख कर देना अनुचित न होगा कि जैनाचार्यों ने साहित्य के किसी भी तत्कालीन प्रचलित अग को अछ्ता नहीं छोडा है। अध्यात्म, नीति और दर्शन तो उनके प्रधान और प्रियं विण्य रहे ही है, व्याकरण, काव्य, कोप, अलकार, छद, वैद्यक, ज्योतिप, मंत्र, राजनीति, इतिहास प्रादि-आदि सभी विषयो पर उन्होने अपनी कलम चलाई, और भारतीय साहित्य को विपुलता, नूतनता एव दिव्यता प्रदान की। लोक-भापात्रो को साहित्यिक रूप में उपस्थित करने की मूल कल्पना जैनाचार्यो की ही देन है। दक्षिण मे भी कर्णाटक भापा के प्राचीन साहित्य मे से जैनाचार्यो की कृतिया पृथक कर दी जाए, तो उसमे कुछ शेप नहीं रह जाता। इस प्रकार भारत की प्राकृत, मस्कृत तथा विभिन्न प्रान्तीय भाषाप्रो की समृद्धि मे जैनो का बहुत बडा भाग है। अवधिज्ञान -अभी तक जिस मति और श्रुत-ज्ञान का निरूपण किया गया है. वह परोक्ष ज्ञान था, क्योकि उसकी उत्पत्ति इन्द्रियो और मन पर अवाम्बित थी, यह दोनो ज्ञान न्यूनाधिक मात्रा मे सभी ससारी जीवो को होते ही है । एकेन्द्रिय से लेकर पचेन्द्रिय तक कोई जीव ऐमा नहीं, जिसे यह प्राप्त न हो। यह बात दूगरी है कि सम्यग्दृष्टि के वह जान सम्यग्ज्ञान और मिथ्यादृष्टि के मिथ्यानान होते है, मगर सामान्य रूप से वह होते अवश्य है। अब जिन प्रत्यक्ष जानो का स्वरूप दिखलाना है, वे ऐसे नही । जहाँ तक मनग्यो और नीर्यकरो का सम्बन्ध है, उन्हे अवधिज्ञान साधना के द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। वह सावना मौजूदा जन्म की भी हो सकती है, और पूर्वजन्म की भी । अात्मा पुन पुन जन्म-मरण कर रहा है। वह जब नवीन जन्म लेता है, तो कोरा नही जन्मता, वरन् अपने पूर्वजन्मो के भले-बुरे सस्कारो से अनुप्राणित भी होता है। अतएव जिस यात्मा ने पूर्व जन्म मे साधना की है, वह उनले फलम्वन वर्तमान जन्म मे अवधिनान प्राप्त कर लेता है। अवधि का अर्थ है 'सीमा' या 'मर्यादा' । जब अात्मा इन्द्रिय और मन की महायता के बिना ही, गाक्षात् यात्मिक शक्ति के द्वारा रूपी पदार्थो को, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्झान ७१ मर्यादित रूप में जानने लगता है, तब उसका वह जान अवधिज्ञान कहलाता है। मानव जाति ईर्षा कर सकती है कि देवयोनि और नरकयोनि के जीवो को जन्म से ही अवधिज्ञान प्राप्त रहता है । मगर नरक योनि के जीवो के लिए वह अधिक दुख का ही कारण बनता है । मन पर्यायज्ञान --मन पर्याय ज्ञान विशिष्ट साधक को ही प्राप्त होता है २ । जिसने सयम की उत्कृष्टता प्राप्त की है, जिसका अन्त करण अत्यन्त निर्मल हो चुका है, वही उस ज्ञान का अधिकारी होता है । इस ज्ञान के द्वारा किसी भी समनस्क प्राणी की चित्तवृत्तियो को, मनोभावो को जाना जा सकता है। सयम की उत्कृष्ट साधना मनुष्य योनि मे ही होती है, अतएव यह नान मनुष्य को ही हो सकता है । अवविज्ञान और मन पर्यायजान-दोनो ही यद्यपि अपूर्ण है, तथापि वह असाधारण है, उनकी एक बडी विशेषता यही है कि उनकी उत्पत्ति न इन्द्रियो से होती है, न मन से। आत्मिक चैतन्यशक्ति ही उनके प्रादुर्भाव का कारण है। (आधुनिक वैज्ञानिक जिसे (Clairvoyance) कहते है, उसके साथ कथचित् अवधिज्ञान की तुलना की जा सकती है । मन पर्याय ज्ञान टैलीपैथी या (Mind Reading) से मिलता-जुलता है ।) __केवल ज्ञान 3-जैनधर्म जान की पराकाष्ठा को अनन्त और असीम मानता है। ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान वा केवलजान, ज्ञान की उसी पराकाष्ठा के बोधक है। __ जिस ज्ञान से त्रिलोकवर्ती और त्रिकालवर्ती समस्त वस्तुए एक साथ जानी जा सकती है, वह सर्वोत्तम ज्ञान, केवल ज्ञान कहलाता है । इस ज्ञान की प्राप्ति होने पर आत्मा सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और परम चिन्मय वन जाता है। मनुष्य की साधना का यह अन्तिम फल है । इस फल की प्राप्ति होने पर प्रात्मा जीवन-मुक्त हो जाता है, और पूर्ण सिद्ध के सन्निकट पहुँच जाता है। १ नन्दी सूत्र ७। २. स्थानांग सूत्र० स्था० २, उद्देशा० १, सू० ७१ । ३ स्थानांग सू० स्थान ५, उद्देशा ३, सू० ४६३ । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म विषय अथवा कारण के आधार पर अन्यान्य ज्ञानो के अनेक भेद-प्रभेद होते है, किन्तु केवलजान मे कोई भेद संभव नहीं, क्योकि यह परिपूर्ण ज्ञान है, और पूर्णता मे किसी प्रकार की भिन्नता नही होती । उक्त पाँच जानो मे से मतिजान, श्रुतजान और अवविज्ञान, मिथ्यात्व के ससर्ग से मिथ्याज्ञान भी हो सकते है । किन्तु मन पर्यव, और केवलजान मिथ्यादृष्टि को प्राप्त नही होते । अतएव वे सम्यग्जान ही होते है। विश्व का विश्लेषण द्रव्य व्यवस्था १ द्रव्य मीमांसा का उद्देश्य -द्रव्य अथवा तत्त्व का बोध जीवन की प्रक्रिया का मूलभूत अग है । श्रमण सस्कृति के तत्त्व निरूपण का उद्देश्य जिज्ञासापूर्ति नही, चारित्र-लाभ है । इस जानधारा का उपयोग, साधक आत्मविशुद्धि के लिए और प्रतिवन्धक तत्त्वो के उच्छेद के लिए करता है। जैन धर्म वैज्ञानिक धर्म है। उसका साहित्य निगूढ वैज्ञानिक मीमासा प्रस्तुत करता है । द्रव्य व्यवस्था जैन विज्ञान का विलक्षण आविष्कार है। आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान जैन विज्ञान के अकाट्य तथ्यो पर अपनी स्वीकृति की मुहर लगाता जा रहा है । जैन तत्वज्ञान और आधुनिक विज्ञान की समताएँ अनेक वार विद्वानो का विस्मय का विषय बन जाती है । भौतिक साधनो के सहारे तत्त्वअन्वेषण करने वाले वैज्ञानिको से आत्मज्ञानी महात्मा कहीं आगे भी वंढ़ गये, यही तो आत्म-साक्षात्कार करने वाले दिघ्य द्रष्टायो का चमत्कार है। किन्तु जहाँ दोनो के तत्त्वनिरूपण मे बहुत कुछ साम्य है, वही से दोनो के उद्देश्य में बहुत वडा वैपम्य भी है । जैन धर्म के अनुसार तत्त्वज्ञान मुक्तिलाभ का एक अनिवार्य साधन है, जब कि विज्ञान का लक्ष्य विज्ञान ही है । प्रत्येक विचार स्याद्वाद से परिमार्जित हो, और प्रत्येक प्राचार अहिसा से परिपूर्त हो तो साधक के मुक्तिलाम मे कुछ विलम्ब नही रहता, इसी कारण चारित्र से भी पूर्व तवत्नान को स्थान दिया गया है। २. द्रव्य क्या है ? १ 'द्रव्य', शब्द 'द्रव' धातु से निष्पन्न है। जिसका अर्थ १ गुणपर्यायवद् द्रव्यम्, तत्त्वार्थ सूत्र० अ० ५, सू ३८, उत्तराध्ययन, अ० २८, गा० ६॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान है कि द्रवित होना, प्रवाहित होना । ससार के समस्त पदार्थ उत्पन्न होते है, समय पाकर नष्ट होते है, फिर भी उनका प्रवाह सतत गति से चलता ही रहता है। इस प्रकार तत्त्व के तीन स्वरूप निश्चित होते है-उत्पन्न होना, नष्ट होना, ध्रुव बना रहना। कुम्भकार खेत मे से मिट्टी लाता है, और घडा बनाता है । तब घडे की उत्पत्ति होती है और मृत्तिका का नाश हो जाता है। मृत्तिका और घट, दोनो अवस्थानो में विद्यमान सामान्य तत्त्व ध्रौव्य है। तात्पर्य यह है कि प्रजनन और विनाश की अविरत गतिशील धारा मे भी पदार्थ का मूल स्थायी रहता है। इसी ज्ञान को भगवान महावीर ने मातृका त्रिपदी ' कहा है। इन तीन अशो का समन्वय होना ही सत् २ का लक्षण है । इस असीम और अनन्त विश्व का कण-कण तीनो अशो से समन्वित है, जिसमे यह तीनो अग नही, ऐसी किसी वस्तु की सत्ता सभव नही है। ३ विश्व का मूल -तात्त्विक एव मौलिक दृष्टि से विश्व का विश्लेपण किया जाय तो दो तत्त्व या द्रव्य उपलब्ध होते है ३, चेतन और जड़ । कतिपय दार्गनिक जगत् के मूल मे एक मात्र चैतन्यमय तत्त्व' की सत्ता अगीकार करते है तो दूसरे एक मात्र जड तत्त्व की । मगर जैनधर्म न अद्वैतवादी है, और न अनात्मवादी। अतएव वह दोनो तत्त्वो के स्वतन्त्र अस्तित्व को स्वीकार करता है। जड़ तत्त्व मे इतनी विविधता और व्यापकता है कि उसे समझने के लिए थोड़े पृथक्करण की आवश्यकता होती है । अतएव उसके पाच विभाग कर दिये गये है । जीव के साथ उन पाच प्रकार के अजीवो की गणना करने से सत् पदार्थों की सख्या छह स्थिर होती है । वे यह है : १. जीव, २ पुद्गल, ३ धर्मास्तिकाय, ४. अधर्मास्तिकाय, ५. आकाश, ६. काल । सत् का दूसरा नाम द्रव्य है । यह समन चराचर लोक इन्ही षद्रव्यो का प्रपच है। इनके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नही है। द्रव्य नित्य है, अतएव १ माउयाणयोगे, उपन्ने वा, विगये वाधुवे वा, स्थानाम, स्था० १०, २ सहव्वं वा, व्याख्याप्रज्ञप्ति, श० ८, उ० ९ । ३. नीवदव्या य, अजीव दवा य, अनुयोग, सू०, १४१ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ जैन धर्म लोक भी नित्य है। उसका किसी भी भौतिक लोकोत्तर शक्ति द्वारा निर्माण नही किया गया है । अनेक कारणो से समय-समय पर उसमें परिवर्तन हुआ करते है, परन्तु मूल द्रव्यो का न नाग होता है और न उत्पाद ही। इसी कारण जैनधर्म बनेक मुक्तात्मा (ईश्वरो) की सत्ता स्वीकार करता हुआ भी उन्हे सृष्टिकर्ता नही मानता। ___जीव, पुद्गल आदि को द्रव्य कहने का कारण, उनका विविध परिणामो से द्रवित होना है। परिणाम या पर्याय के विना द्रव्य नही रहता और विना द्रव्य के पदार्थ का अस्तित्व नहीं होता। ४ पृथक्करण-हम जिसे वस्तु कहते है, उसमे तीन अश विद्यमान होते है-द्रव्य, गुण और पर्याय ' । वस्तु का नित्य अग द्रव्य है, सहभावी अश गुण है, और क्रमभावी अश पर्याय है। एक उदाहरण द्वारा इन तीनो का स्वरूप समझे-जीव द्रव्य है, उसका सदा विद्यमान रहने वाला ज्ञान चैतन्य-गुण है और मनुष्य पशु, कीट, पतग आदि दशाये पर्याय है । यह तीनो अंग सदैव परस्पर अनुस्यूत रहते है, और वस्तु कहलाते है। नक्षेप में द्रव्य वह है जो गुण और पर्याय से मुक्त हो, अथवा जो उत्पाद और विनाग से युक्त होकर भी अपने मूल स्वभाव का त्याग न करने के कारण ध्रुव हो। वस्तुनो मे पाई जाने वाली भिन्नता दो प्रकार की होती है-'अन्यत्वरूप' और 'पृथक्त्व रूप'। दूध और दही की भिन्नता अन्यत्व रूप और कागज तथा कलम की भिन्नता पृथक्त्व रूप है। दूध और दही के पर्याय मे अन्तर है, मगर मृल च्य-प्रदेगो मे नही, जब कि कागज और कलम के प्रदेश मूलतः पृथक्पृथक् है । मनुष्य बालक है, युवा है, वृद्ध है । इन दगानो में अन्यत्व तो है, किन्तु पृथवन्ध नहीं, क्योकि इन तीन अवस्थानो मे मूलगत ननुप्य एक ही है। द्रव्य, गुण और पर्याय मे भी पृथक्त्व रूप भिन्नता नही है। द्रव्य को यह नादिनिधन गक्तियाँ, जो द्रव्य में व्याप्त होकर वर्तमान रहती है, गुण करताती है, और उत्पन्न-विनष्ट होने वाले विविध परिणाम 'पर्याय' कहलाते है । इन दोनो का समूह द्रव्य कहलाता है। १. उत्तराध्ययन, ३० २८, गा० । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान ७५ उक्त छह द्रव्यो में से काल के अतिरिक्त पाच द्रव्य अस्तिकाय? कहलाते है, क्योकि वे अनेक प्रदेगो के पिण्डरूप है । काल द्रव्य प्रदेश-प्रचय रूप न होने के कारण अस्तिकाय नही कहलाता। जीव द्रव्य चेतन और, शेष अचेतन है । पुद्गल द्रव्य मूर्त' रूप, रस, गध, स्पर्श वाला है और शेष पाच अमूर्त है । जीव और पुद्गल द्रव्य और सक्रियचार द्रव्य क्रियाहीन है । समस्त लोक मे व्याप्त होने के कारण उनमे गतिक्रिया सम्भव नही है। धर्मास्तिकाय, अवर्मास्तिकाय और आकाश एक-एक अखण्ड पिण्ड है, शेप द्रव्य ऐसे नहीं है। ५ जीवद्रव्य----जीव का असाधारण गुण, जिसके कारण वह अन्य द्रव्यों से पृथक् सिद्ध होता है, चेतना है। चेतनावान् जीव अनन्त है, प्रत्येक गरीर में पृथक-पृथक् जीव है, जीव का अपना कोई आकार नही तथापि वह जब जिस शरीर मे होता है उसी के आकार का और उसी के बराबर होकर रहता है । एक जीव के असंख्य प्रदेश-अविभक्त अश होते है, और वे प्रकाश की तरह सकोच-विस्तारगील है। हाथी मर कर चिऊटी के पदार्थ मे जन्म लेता है, तो प्रदेश स्वभावत सिकुड कर चिऊँटी के शरीर मे समा जाते है । ज्ञाता, द्रप्टा, उपयोगमय, प्रभु, कर्ता, भोक्ता, बद्ध और मुक्त यह सब जीव के विशेपण है । भगवान् महावीर कहते है --"हे गौतम ! ८ जीव इन्द्रियो के द्वारा नहीं जाना जा सकता, क्योकि वह अमूर्त है। अमूर्त होने से वह नित्य भी है।" ____ "हे गोतम | जीव' न लम्वा है, न छोटा, न गोल, न तिकोना, न १. नन्दी सूत्र, सूत्र ५८ । २ पोग्गलत्यिकाय, रूविकाय, व्याख्याप्रज्ञप्ति, श० ७, उ० १०, ३ अवट्ठिए निच्चे, नन्दी, सूत्र ५८ । ४ उत्तराध्ययन, अ० २८, गा० ८। ५. उवोगलक्खणे जीवे, भगवती श०२ उ०१० ६. प्रदेश सहार-विसर्गाभ्यां, प्रदीपवत्, तत्त्वार्थ सूत्र ५, १६ राजप्रश्नीय --सूत्र ७४, ७ उत्तराध्ययन अ० २८ गा० ११ ८ उत्तराध्ययन अ० १४, गा० १९, ९. आचारांग अ० १। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __७६ जैन धर्म चौकोर, न परिमण्डल, न काला, नीला, पीला, रक्त और न ग्वेत है । सुगंध और दुर्गन्ध उसका स्वरूप नही, खट्टा मीठा श्रादि कोई रस उसमे है नही । कोमल कठोर आदि सभी स्पर्श उससे दूर हैं । वह उत्पाद और विनाश से परे है, वह स्त्री नहीं, वह पुरुष नहीं, नपुसक नही, वह अरूपी सत्ता है। वह बुद्धि से नही, अनुभूति से ग्राह्य होता है। तर्कगम्य नही, स्वसवेदनगम्य है। उसका परिपूर्णस्वरूप प्रकट करने मे शब्द असमर्थ है।" "हे गौतम । जान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, सामर्थ्य-उल्लास, और उपयोग जीव के लक्षण है।" "अहम्' (मै) प्रत्यय से जीव को प्रत्यक्षत. प्रतीति होती है । जीव का अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए ग्रन्यान्य प्रमाण भी है। किन्तु 'अहम्' प्रत्यय सर्वोपरि प्रमाण है। पहले कहा जा चुका है कि लोक मे जीव अनन्त है । वे सव स्वभावतः समान गक्तियो के धारक है, किन्तु कर्मो एवं आवरणो ने उनमे अनेकरूपता उत्पन्न कर दी है। उसके आधार पर सर्वप्रथम जीव दो भागो मे बांटे जा सकते है-ससारी और मुक्त । समस्त आवरणो से रहित शुद्ध जीव मुक्त, और आवरणो के कारण अशुद्ध जीव ससारी कहलाता है। मुक्त जीव सभी प्रकार के वाह्य प्रभाव से रहित होने के कारण समान है, परन्तु समारी जीवो में मुख्यतया कर्मप्रभाव के कारण नाना प्रकार के दृष्टिगोचर होते है।। कर्मप्रभाव से जीव अर्थ भौतिक जैसा बन गया है । जानने देखने की अनन्त गक्ति होने पर भी प्राख के विना देख नही सकता, और कान के विना सुन नहीं सकता। ससारी • जीव दो कक्षामो मे विभक्त है-त्रस मोर स्थावर । जिन्हें सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय ही प्राप्त है, वे स्थावर जीव है । जिन्हे दो, तीन, चार या पाच इन्द्रियाँ प्राप्त है, वे त्रस कहलाते है । "वौद्ध दर्शन" में वाईस ("बौद्ध धर्म दर्शन" पृष्ठ ३२८, साख्यदर्शन, तत्त्वार्थसूत्र, अ० २, भगवती सूत्र, शतक ५, उ०२,) और साख्य आदि दर्शनो में १. स्थानांग, स्थान २, उद्देशा १, सू० ५७ । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान ७७ ग्यारह इद्रिया मानी गई है, मगर जैनदर्शन पाच इन्द्रियों स्वीकार करता है। इनके आधार पर नीव के पाच प्रकार होते है। जिन अभागे जीवो को सिर्फ एक स्पर्शन इन्द्रिय प्राप्त है, उनमे चैतन्य की मात्रा स्वल्पतम है, अतएव साधारण लोगों ने ही नहीं, अधिकाश तत्त्व-चिन्तकों ने भी उनके जीवत्व को नहीं समझ पाया। उनका जीव विज्ञान-अपूर्ण रह गया है । मगर जैनदर्शन की सर्वगामिनी दृष्टि ने उन्हे देखा है और उनका अच्छा खासा विवरण भी दिया है । जैनदर्शन के अनुसार तारतम्य होने पर भी एकेन्द्रियस्थावर- जीवो मे चेतना के सम्पूर्ण विकार उपलब्ध होते है। उनमें चैतन्य, सुखदु खानुभूति, जन्म, मरण, क्रोध, कषाय, सजा आदि विद्यमान है, जिनसे उनके जीवत्व का समर्थन होता है । ऐसे जीव पाँच' प्रकार के है। १ पृथ्वीकाय --२ मृत्तिका, धातु आदि पृथ्वी इनका शरीर है । जब तक पृथ्वी अपने मूल पिण्ड से पृथ्क नहीं होती, सजीव है। २. अप्काय --3 जल ही जिन जीवो का शरीर है, वे अप्काय के जीव है। स्मरण रखना चाहिए कि जल में रहने वाले चलते-फिरते असस्य जीव अप्काय नही है । अप्काय के जीव उनसे पृथक् है, जिनका शरीर जल ही है। ३. तेजस्काय ---४ अग्नि है । जैसे मनुष्य का शरीर आहार पाकर बढ़ता है और उसके अभाव मे क्षीण होता है, उसी प्रकार अग्नि भी आहार पाकर बढ़ती है और उसके अभाव मे क्षीण होती है। इससे उसके जीवत्त्व का अनुमान किया जा सकता है। ४. वायुकाय --५ वायुकाय हवा है। परप्रेरणा के बिना ही तिर्की गति करना जीव का स्वभाव है, और यह स्वभाव वायु मे पाया जाता है। ५. वनस्पतिकाय :--६ वृक्ष, पौधा और लता आदि भी सजीव हैं । जसे १. स्थानाग, स्थानांग ५, उद्देशा १, ० ३६४ । २. उत्तराध्ययन, अ० १०, गाथा २। ३ आचारांग अ० १ Pre Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ जन धम मनुष्य जन्म लेकर बाल, युवा और वृद्ध होता है, वैसे ही वनस्पनि भी । उमम मनुप्यो के ही समान शयन, जागरण, भय, लज्जा आदि विकार पाये जाते है । जैसे मनुष्य पथ्य आहार से पुष्ट, और अपथ्य पाहार से दुर्बल होता है, उमी प्रकार वनस्पति भी होती है । मनुष्य की तरह वनस्पति पर भी विप का प्रभाव होता है । अन्य प्राणियों की तरह वनस्पति भी नियत आयु के बल पर जीती है। प्रसिद्ध भारतीय वैज्ञानिक सर जगदीशचन्द्र बोस ने वनस्पति का सजीव होना सिद्ध किया है। खेद है कि यह कार्य प्रागे नहीं बढ़ा, किन्तु एक समय आएगा जव विज्ञान, पृथ्वीकाय, आदि की सजीवता पर भी अपनी स्वीकृति की मोहर लगाएगा । इस क्षेत्र में जैन दर्शन अब भी विज्ञान से आगे है। द्वीन्द्रिय जीव:--' जिन्हें स्पर्श और रसेन्द्रिय प्राप्त है-ऐसे द्वीन्द्रिय जीव, गख, सीप, कृमि आदि हैं। त्रीन्द्रियजीव :--' इन्हें एक घ्राणेन्द्रिय अधिक प्राप्त होती है । खटमल, चिऊँटी आदि इसी कोटि मे है। चतुरिन्द्रियजीव :--3 इन्हें नेत्र भी प्राप्त है । मच्छर, मक्खी आदि चार इन्द्रिय वाले है। पंचेन्द्रिय जीव --मनुष्य, पशु, पक्षी, देव, नारकी आदि पचेन्द्रिय है। इनको पूर्वोक्त चार इन्द्रियो के अतिरिक्त श्रवण-इन्द्रिय भी प्राप्त है। यह कई प्रकार के है-जलचर, स्थलचर, नभचर, उर परिसर्प, भुजफरिसर्प आदि। कोई गर्भज होते है, और कोई समूर्छिम । कोई समनस्क और कोई अमनस्क होते है । पाँचो एकेन्द्रिय जीवो मे वनस्पतिकाय के सिवाय शेष के सात-सात लाख अवान्तर भेद हैं। वनस्पतिकाय के चौवीस लाख भेद है। द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवो के दो-दो लाख प्रकार है । सव मिलाकर ८४ लाख जीव योनिया है५ इन सब जीवो का विशद वर्णन, आप विभिन्न जैनागमो में पायेगे। १. प्रज्ञापना प्रथम पद २ प्रज्ञापना प्रथम पद ३. प्रज्ञापना प्रथम पद ४ प्रज्ञापना प्रथम पद । ५. आधुनिक विज्ञान, धर्म द्रव्य को Ethor or Principle of motion कहते है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान ६. अजीवद्रव्य .--जीवद्रव्य के दिग्दर्शन के पश्चात् अजीवद्रव्य की ओर ध्यान दे । जिसमे जीव के गुण चेतना आदि नहीं है, फिर भी जो उत्पाद, व्यय और प्रौव्य लक्षण से सम्पन्न है और जिस मे गुणो और पर्यायो की विद्यमानता है, वह अजीव द्रव्य पाच प्रकार का है-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल । धर्मद्रव्य -- यहा धर्म शब्द केवल जैन परम्परा मे ही प्रचलित एक पारिभाषिक शब्द है। वह अमूर्त, अक्रिय, अखण्ड और लोकव्यापी द्रव्य है, फिर भी उसमें निरन्तर परिणमन होता रहता है। गतिक्रिया मे परिणत जीव और पुद्गल की गति मे सहायक होता है, जैसे पानी, मछली की गति मे, अथवा लोहे की पटरी, रेल की गति मे सहायक होती है, उसी प्रकार धर्मद्रव्य जीव और पुद्गल की गति में सहायक है । पानी मछली को, और पटरी रेल को चलने के लिए प्रेरित नही करते, फिर भी पानी के बिना मछली, और पटरी के अभाव में रेल चल नहीं सकती, इसी प्रकार धर्म द्रव्य किसी को गमन करने के लिए वाधित नही करता, फिर भी उसके अभाव में गति सभव नही है । अधर्मद्रव्य :-३ यह द्रव्य धर्म द्रव्य के समान ही है, परन्तु इसका काम जीव और पदगल की स्थिति में सहायक होना है। जैसे ताप के झुलसे हुए मनुष्य में, छाया देख कर विश्राम करने की रुचि स्वयमेव जागृत हो जाती है, अतएव छाया उसकी विश्रान्ति का निमित्त है, उसी प्रकार स्थिति परिणत जीव और पुद्गल की स्थिति मे अधर्मद्रव्य सहायक है। यद्यपि गति और स्थिति मे जीव और पुद्गल स्वतत्र है, किन्तु इनकी सहायता के बिना गति और स्थिति सभव नही है। ___ आकाशद्रव्य --५ सब द्रव्यो को स्थान देने वाला द्रव्य आकाश है। यह समस्त वस्तुओ का आधार है और आप ही अपने सहारे टिका है । उसका अाधार कोई अन्य द्रव्य नही है। यह भी अमूर्त, अक्रिय और अखण्ड है। सर्वव्यापी है। नित्य होने पर भी परिणमनशील है। (वैज्ञानिक आकाश को 'स्पेस' १. वैज्ञानिक इसे Principle of rest कहते है। २ आवश्यक सूत्र। ३. व्याख्या प्रज्ञप्ति श० १३, उद्देशा ४, सू० ४८१ । ४. व्याख्याप्रज्ञप्ति श० १३, उद्देशा ४, सू० ४८१ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म कहते है। काट और हेगेल आकाश को मानसिक व्यापार अथवा कल्पना मानते थे, किन्तु आइन्स्टीन ने सिद्ध किया है कि आकाश एक सत् पदार्थ है)। आकाग के जितने भाग मे धर्म और अधर्म द्रव्य व्याप्त है, वह भाग लोकाकाग या लोक कहलाता है। जो भाग उनमे शून्य है, वह अलोकाकाग है । धर्म-अधर्म द्रव्यो से गून्य होने के कारण अलोकाकाश में जीव और पुद्गल का गमन या अवस्थान भी नही होता । अतएव अलोकाकाग, मूना प्राकारा ही आकाय है । आकाश का लोक-खण्ड परिमित है, और अलोकखण्ड सभी ओर अपरिमित और असीम है। काल द्रव्य --१ कहा जा चुका है कि सभी द्रव्य मूल स्वभाव से नित्य होने पर भी परिणमनशील है । यद्यपि अपने-अपने परिणमन में सव द्रव्य आप ही उपादान है, तथापि निमित्त कारण के अभाव में कार्य नहीं होता। अतएव द्रव्यो के परिणाम मे भी कोई निमित्त चाहिए। वही निमित्त काल द्रव्य है । समस्त विश्व, काल की सत्ता के बल पर ही क्षण-क्षण में परिवर्तित हो रहा है । वस्तुए देखते-देखते नवीन से पुरातन और जीर्ण-शीर्ण हो जाती है। यह काल का ही प्रभाव है । (फ्रास के प्रसिद्ध वैज्ञानिक वर्गसन ने सिद्ध किया है कि काल एक Dynamic reality है। काल के प्रबल अस्तित्त्व को स्वीकार करना अनिवार्य है)। काल की सत्ता के अभाव मे हम किसी को ज्येष्ठ और किसी को कनिष्ठ किस आधार पर कह सकते है ? पुद्गल द्रव्य -३ दृश्यात्मक अखिल जगत् पुद्गलमय है । ग्राम, नगर, भवन, वस्त्र, भोजन, विविध प्रकार के प्राणी वर्ग के शरीर आदि-आदि जो भी हमारी दृष्टि मे आते है, सभी पुद्गल है । यद्यपि यह कहा नही जा सकता कि जो पुद्गल है, वह सब हमे दृष्टिगोचर होता है, परन्तु यह अवश्य कहा जा सकता है कि जो दृष्टिगोचर है, वह पुद्गल ही है। चय-अपचय होना और बनना-विगड़ना-सव पुद्गल के ही रूप हैं । षट्द्रव्यो में एक मात्र पुद्गल ही मर्न अर्थात् वर्ण, गंध, रस और स्पर्श से युक्त है । १. अनुयोगद्दार, द्रव्यगुणपर्यायनाम, सू० १२४, भगनती सू०, श० २५, उद्देशा ५, तू• ७४७ ॥ २. उत्तराध्ययन, अ० २८, गाथा १०।। ३. भगवती मू० १० १३ उद्देशा ४ सू• ४८१ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान वण पाच है कृष्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेत । गंध दो है सुगन्ध और दुर्गन्ध रस पाच है कटुक, कपाय, तिक्त, अम्ल, और मषुर । स्पर्ग पाठ है कठिन, मृदु, गुरु, लघु, गीत, उष्ण, सूक्ष्म और स्निग्ध । यह सब वीस पुद्गल के असाधारण गुण है, जो तारतम्य एव सम्मिश्रण के कारण सख्यात, असख्यात और अनन्त रूप ग्रहण करते है । शब्द, गंध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकृति, भेद, अधकार, छाया, चाँदनी और धूप पुद्गल के ही लक्षण है २ । पुद्गल के अवस्थाकृत चार भेद ३ है --स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु । सम्पूर्ण पुद्गल पिण्ड स्कन्ध कहलाता है। स्कन्ध का एक भाग देश कहलाता है । स्कन्ध और देश से जुडा हुआ अविभाज्य अश प्रदेश कहलाता है और वह प्रदेश जब स्कट या देश से पृथक् हो जाता है तब परमाणु कहलाता है। ___साधारणतया कोई स्कन्ध वादर, और कोई सूक्ष्म होते हैं। वादर स्कन्ध इन्द्रियगम्य, और सूक्ष्म इन्द्रिय अगम्य होते है । इन्हे छह भागो मे विभक्त किया गया है .-- १ बादर वादर स्कन्ध - जो टूट कर जुड न सके, लकड़ी पत्थर । २. वादर स्कन्ध - प्रवाही पुद्गल जो टूट कर जुड़ जाते है । ३ सूक्ष्म बादर - जो देखने मे स्थूल किन्तु अकाट्य हो, जैसे - धूप, प्रकाश आदि। ४. बादर सूक्ष्म - सूक्ष्म होने पर भी इन्द्रियगम्य हो, जैसे रस, गध, स्पर्श, आदि । ५ सूक्ष्म इन्द्रियो से अगोचर स्कध, यथा-कर्मवर्गणादि ६ सूक्ष्मसूक्ष्म - अत्यन्त सूक्ष्म स्कन्ध, यथा-कर्मवर्गणा से नीचे के द्वयणुक पर्यन्त पुद्गल । परमाणु, पुद्गल का वह सूक्ष्मतम भाग है, जो पुन विभक्त नही हो १. भगवती सू० श० १२ उद्देशा ४, स० ४५० । २ उत्तराध्ययन, अ० २८, गाथा १२ । ३ प्रज्ञापना परिणाम पट, १३ सू० १८५। ४ अनुयोगद्वार Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्जान नहीं, पा है कि परमाणु आप में सम्पूर्ण लोक को पा सकता । परमाणु मे यद्यपि प्रदेश भेद नहीं है, मगर गुणभेद अवश्य होता है । उसमें एक वर्ण, एक गध, एक रस, और दो स्पर्श होते है। श्राख का पलक गिराने मे जितना समय लगता है, उसके असख्यातवे अग को जैनशास्त्र 'समय'' की सजा देते है। जैसे पुद्गल का मूक्ष्मतम पर्याय परमाणु है, उसी प्रकार काल का सूक्ष्मतम भाग समय है। परमाणु मे अचिन्त्य वेग होता है, वह एक समय मे सम्पूर्ण लोक को पार कर लेता है । जैनशास्त्र बतलाते है कि परमाणु आग की भयानक लपटो मे से गुजर कर भी जलता नहीं, पानी से गलता नही, सड़ता नही, हवा का उस पर असर होता नही, वह अभेद्य, अछेद्य, अदाह्य है-अविनश्वर है। हा, किसी स्कन्ध मे जव मिल जाता है तो उसका परमाणु-पर्याय नही रहता, तथापि उसकी सत्ता बनी रहती है। स्कन्ध के पृथक् होने पर वह पुन परमाणु का रूप ग्रहण कर लेता है। _ जैन धर्म का परमाणु विज्ञान अत्यन्त विशद और गम्भीर है। जैन साहित्य में जितना चिन्तन एव विश्लेषण परमाणु के विषय में उपलब्ध है, उतना विश्वसाहित्य मे कही अन्यत्र नही। कहा जाता है कि आज का युग परमाणु-युग है, किन्तु जैन परमाणु विज्ञान को समझ लेने पर स्पष्ट हो जायेगा कि आज के अणु-वैज्ञानिक वास्तविक अणु तक अभी नहीं पहुंच सके है । उसे पाने के लिए अब भी गहरा गोता लगाने की आवश्यकता है । अणुभेद की जो बात आज कही जा रही है, वह वस्तुत स्कन्ध भेद-पिण्डभेद है । अणु तो अविभाज्य है। एक अणु का दूसरे अणु के साथ किस प्रकार सयोग अर्थात् वध होता है ? किन विशेपताओ के कारण परमाणु परस्पर बद्ध होते है, यह जानने के लिए जैनागमो का अभ्यास करने की आवश्यकता है। (देखिए-भगवती सूत्र, पन्नवणासूत्र, पचास्तिकाय, तत्त्वार्थसूत्र, आदि)। शब्द परमाणुजन्य नही, स्कन्धजन्य है, दो स्कन्धो के नघर्प से शब्द की उत्पत्ति होती है। कई भारतीय प्राचार्य शब्द को अमूर्त आकाश का गुण कहते हैं, मगर अमूर्त का गुण मूर्त नही हो सकता । शब्द मूर्त है, यह जैन मान्यता अाज विज्ञान द्वारा भी समर्थित हो चुकी है। शब्द का कूप आदि मे प्रतिध्वनित होना और ग्रामोफोन मे बद्ध होना उसके मूर्तत्व का प्रमाण है । पुद्गल का चमत्कार---उपर्युक्त छह द्रव्यो का विस्तार ही यह जगत् है। इसमे इनके अतिरिक्त कोई सातवा द्रव्य नहीं है। १, अनुयोगद्वार । २ स्थानांग स्थान, ३ उद्देशा० ३ सू० ८२ ३. उत्तराध्ययन, अ० २८, गा० ८ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति मार्ग तत्त्व-चर्चा पिछले प्रकरण मे द्रव्यो के सम्बन्ध मे जो कुछ कहा जा चुका है, वस्तुत उसी मे तत्त्व-चर्चा का समावेश हो जाता है, क्योकि जैसे मूलद्रव्य जीव और अजीव दो है, उसी प्रकार मूल तत्त्व भी यही दो है। फिर भी जैनशास्त्रो मे द्रव्यो से पृथक् तत्त्व का जो निरूपण किया गया है, उसका विशिष्ट प्रयोजन है। द्रव्यनिरूपण सृष्टि का यथार्थ बोध प्राप्त करने के लिए है, जब कि तत्त्वविवेचन की पृष्ठभूमि आध्यात्मिक है। साधक को इस विशाल विश्व की भौगोलिक स्थिति का और उसके अगभूत पदार्थों का ज्ञान न हो, तो भी वह तत्त्वज्ञान के सहारे मुक्तिसाधना के पथ पर अग्रसर हो सकता है, किन्तु तत्त्वज्ञान के अभाव मे कोरे द्रव्य ज्ञान से मुक्तिलाभ होना सभव नही है। हेय, उपादेय और ज्ञेय का विवेकतत्त्व विवेचन से ही सभव है। निग्गठ नायपुत्त महावीर का यह अमर घोष था कि साधक जब तक स्वरूप को पहचानने की क्षमता नही प्राप्त कर लेता, वह मुक्ति के पथ पर अग्रसर नहीं हो सकता। जैनधर्म ज्ञान के दो भेद कर देता है--प्रयोजनभूत ज्ञान, और अप्रयोजनभूत ज्ञान । ममा के लिए आत्मज्ञान ही 'प्रयोजनभूत जान' है, उसे अपनी मुक्ति के लिए यह जानना अनिवार्य नही, कि जगत कितना विशाल है, और इसके उपादान क्या है ? उसे तो यही जानना चाहिए कि आत्मा क्या है। सव आत्माएँ तत्त्वत समान है, तो उनमे वैषम्य क्यो दृष्टिगोचर होता है ? यदि बाह्य उपाधि के कारण वैषम्य पाया है, तो वह उपाधि क्या है ? किस प्रकार उसका आत्मा से सम्बन्ध होता है ? कैसे वह आत्मा को प्रभावित करती है ? कैसे उससे छुटकारा मिल सकता है ? छुटकारा मिलने के पश्चात् आत्मा किस स्थिति में रहती है ? इन्ही प्रश्नो के समाधान के लिए जैनागमो मे तत्त्व का निरूपण किया गया है। सक्षेप मे यह कि द्रव्यनिरूपण का उद्देश्य दार्शनिक एव लौकिक है, और तत्त्वनिरूपण का उद्देश्य प्राध्यात्मिक है। तत्त्व नौ' है --१ जीव २ अजीव ३ पुण्य ४ पाप ५ प्रास्त्रव ६. सवर ७ निर्जरा ८ बर ६. मोक्ष । यह जैन धर्म का प्राध्यात्मिक मन्थन तथा विकास के साधक और १ स्थानांग, स्था० ९, सूत्र, ६६५; उत्तराध्ययन सूत्र अ० २८, गा० १४ ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म बाधक तत्त्वो का अपना मौलिक प्रतिपादन है । जैनधर्म इत्ही तत्वो के आधार पर जीव के उत्थान, पतन, सुख, दुख और जन्म-मृत्यु आदि की समस्याएं हल करता है। इन तत्त्वो का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है। १ जीव-जीव के सम्बन्ध मे पहले कहा जा चुका है। जीव कहिए या आत्मा, स्वभाव से अमूर्त होने पर भी कर्मवन्ध के कारण मूर्त-सा हो रहा है। प्रत्येक संसारी जीव कर्म से प्रभावित है। कर्मवन्ध आत्मा को पराधीन और दुखी बनाता है। प्रात्मा कर्म उपार्जन करने मे स्वतन्त्र, किन्तु भोगने में परतन्त्र है । आत्मा स्वय ही अपने उत्यान-पतन का निर्माता है । अपने भाग्य का विधाता है। वह न कूटस्थ नित्य है, और न एकान्त क्षणिक ही है, किन्तु अन्य द्रव्यो की भाति परिणामी नित्य है।। २. अजीव-अजीव का वर्णन पहले आ गया है। कहा जा चुका है कि जीव कर्मबन्ध के कारण ही अपने वास्तविक स्वरूप से वचित है। कर्म . एक प्रकार के पुद्गल है। देखना चाहिए कि जीव का कर्म पुद्गलों के साथ क्यो और कैसे सम्बन्ध होता है। ___३. पुण्य-२"पुनाति, पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यम् ।" "जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की ओर ले जाता है, वह पुण्य है ।" पुण्य एक प्रकार के शुभ पुद्गल है, जिनके फलस्वरूप आत्मा को लौकिक सुख प्राप्त होता है और आध्यात्मिक साधना मे सहायता प्राप्त होती है। धर्म की प्राप्ति सम्यक् श्रद्धा, सामर्थ्य, सयम और मनुष्यता का विकास भी पुण्य से ही होता है। तीर्थकर नामकर्म भी पुण्य का फल है । पुण्य, मोक्षार्थियो की नौका के लिए अनुकूल वायु है, जो नौका को भवसागर से शीव्रतम पार कर देती है। आरोग्य, सम्पत्ति आदि सुखद पदार्थों की प्राप्ति पुण्य कर्म के प्रभाव से ही होती है। (आचार्य हेमचन्द्र ने कर्मों के लाघव को भी पुण्य माना है) "पुण्यत - कर्मलाघवलक्षणात् शुभ कर्मोदयलमणाच्च।"--योगशास्त्र-प्र० ४, श्लो० १०७ । जिन प्रकारो से पुण्योपार्जन होता है, उन्हे नौ' भागो में विभक्त किया है. १. अप्पा कत्ता विकत्ता य, उत्तरा०, अ० २० गा० ३७ । २ स्थानांग, अभयदेव टीका, प्रथम स्थान २. नवपुण्णे, ठाणांग, गणा ९. Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान १. अन्नपुण्य भोजन का दान देना। २. पान पुण्य पानी का दान देना। ३. लयनपुण्य निवास के लिए स्थान-दान करना। ४. गयनपुण्य शय्या, सस्तारक-बिछौना आदि देना । ५. वस्त्रपुण्य वस्त्र का दान देना। ६. मन पुण्य मन के शुभ एवं हितकर विचार । ७. वचनपुण्य प्रशस्त वाणी का प्रयोग । . . ८. कायपुण्य शरीर से सेवा प्रादि शुभ प्रवृत्ति करना। . -- ६. नमस्कारपुण्य - गुरुजनो एवं गुणी जनो के समक्ष नम्रभाव -- धारण करना, और प्रकट करना । पुण्य के भी दो भेद है .--१. द्रव्य पुण्य और २. भाव पुण्य । अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ-वृत्तियो से पुण्य का उपार्जन' होता है। विश्व, राष्ट्र, समाज, जाति तथा दुखी प्राणियो के दुखनिवारण करने की भावना, तथा तुदनुकूल प्रवृत्ति करने से पुण्य का वन्ध होता है । और इन्ही सगुणो को सम्यक्दृष्टिपूर्वक सम्पादन किया जाय, तो यह धर्म तथा निर्जरा के भी कारण बन जाते है। पाप---जिस विचार, उच्चार एव आचार से अपना और पर का अहित हो और जिसका फल अनिष्ट-प्राप्ति हो, वह पाप कहलाता है । पाप-कर्म आत्मा को मलीन और दुखमय बनाते है । निम्नलिखित अठारह अशुभ आचरणो मे सभी पापो का समावेश हो जाता है। १ प्राणातिपात-हिंसा। २. मृषावाद-असत्य भापण । ३. अदत्तादान-चौर्यकर्म। ४. मैथुन-काम-विकार, लैगिक प्रवृत्ति। . ५. परिग्रह-ममत्व, मूर्छा, तृष्णा, ६. क्रोध-गुस्सा । संचय । ७ मान-अहकार, अभिमान । ८. माया-कपट, छल, षडयन्त्र, कूटनीति । ६. लोभ-सचय के सरक्षण की १०. राग-पासक्ति । वृत्ति। ११ द्वेप-घृणा, तिरस्कार, ईर्ष्या १२. क्लेश-सघर्ष, कलह, लडाई, झगड़ा आदि । ___ आदि । १ ‘भगवती, श० ७, उ० ६, सूत्र २८६ । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ লৰ ঘৰ १३. अम्याख्यान-दोषारोपण १४. पिशुनता-चुगली १५. परपरिवाद-परनिदा। १६. रति-अरति-हर्प और शोक । १७ मायामृषा-कपट सहित झूठ। १८ मिथ्यादर्शनशल्य-अयथार्थ श्रद्धा । आस्रव ----१ आत्मा मे कर्मों का आना और उनके आने का कारण आस्रव कहलाता है । मन, वचन, और काय की वह सब वृत्तिया, जिनसे कर्म आत्मा की ओर आकृष्ट होते है, आस्रव है । प्रास्रव कर्मवन्ध का कारण है। आत्मा के लोक मे प्रास्रव ही कर्मों का प्रवेशद्वार है । मुमुक्षु-जीव को यह जान लेना अनिवार्य है कि वह कौन-सी वृत्तियाँ या प्रवृत्तिया है, जिनके कारण कर्मो का आगमन होता है ? उन्हे जाने बिना निरुद्ध नहीं किया जा सकता, और मुक्तिलाभ भी नही लिया जा सकता। आस्रवजनक वृत्तियो और प्रवृित्तयो की ठीक तरह गणना नहीं हो सकती, तथापि वर्गीकरण करके जैनशास्त्रो मे अनेक प्रकार से उनका दिग्दर्शन कराया गया है । मूल में उनकी संख्या पाच है ...१. मिथ्यात्व विपरीत श्रद्धा। २. अविरति अहिंसा, असत्य आदि। ३. प्रमाद कुशल अनुष्ठान मे अनादर । ४. कषाय क्रोध, मान, माया, लोभ । ५, योग मन, वचन और काया का व्यापार । संवर- मुमुक्षु जीव कर्मों के प्रास्रव के कारणो को पहचान कर जब उनसे विरुद्ध वृत्तियो का अवलम्बन लेता है तो आस्रव रुक जाता है । आस्रव का रुक जाना ही संवर है । उदाहरणार्थ-यथार्थ श्रद्धानिष्ठ बनने पर मिथ्यात्वजन्य आस्रव रुक जाता है, अहिंसा सत्य आदि व्रतो का आचरण करने से अविरति-जन्य प्रास्रव नही होता, अप्रमत्त अवस्था मे प्रमादजन्य आस्रव नहीं होता, वीतरागदशा प्राप्त कर लेने पर कषाय-जन्य प्रास्रव रुक जाता है, और पूर्ण आत्मनिष्ठा प्राप्त कर लेने पर योग-जन्य आस्रव रुक जाता है। कर्मास्रव का निरोध मन, वचन, काय के अप्रशस्त व्यापार को रोकने १. समवायांग, समवाय ५ । २. उत्तराध्ययन, अ० २९, सूत्र ११ । ३ तत्त्वार्थ सूत्र, अ० ९, सूत्र २, स्थानांगवृत्ति, स्था० १। Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान ८७ से, विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करने से, क्षमा आदि धर्मों का आचरण करने से, अन्त.. करण में विरक्ति जगाने से, कप्ट-सहिष्णुता और सम्यक् चारित्र का अनुष्ठान करने से होता है। कोई भी साधक योग-क्रिया को सर्वथा निरुद्ध नहीं कर सकता। उठना, बैठना, खाना-पीना, सभाषण करना आदि जीवन के लिए अनिवार्य है। जैनशास्त्र इन प्रवृत्तियो की मनाही नही करता, परन्तु इन पर अंकुश अवश्य लगाता है, और वह अंकुश है विवेक का। साधक जो भी प्रवृत्ति करे, वह विवेकपूर्ण होनी चाहिए, उसमें विवेक की आत्मा बोलनी चाहिए, वह समस्त क्रियाएं प्रास्रव है जिनके पीछे अविवेक काम करता है, इसके विपरीत विवेकपूर्ण की जाने वाली क्रियाये धर्म और संवरमय है। निर्जराः--' संवर नवीन पाने वाले कर्मों का निरोध है, परन्तु अकेला संवर मुक्ति के लिए पर्याप्त नही। नौका मे छिद्रो द्वारा पानी पाना आस्रव है। छिद्र बन्द करके पानी रोक देना सवर समझिए। मगर जो पानी प्रा चुका है, उसका क्या हो ? उसे धीरे-धीरे उलीचना पडेगा । बस, यही निर्जरा है। निर्जरा का अर्थ है-~-जर्जरित कर देना, झाड देना । पूर्वबद्ध कर्मों को झाड देना, पृथक् कर देना निर्जरा तत्त्व है। कर्मनिर्जरा के दो प्रकार है-- पोपक्रमिक और अनौपक्रमिक । परिपाक होने से पूर्व ही तप प्रयोग आदि किसी विशिष्ट साधना से, बलात्कर्मों को उदय मे लाकर झाड देना औपक्रमिक निर्जरा है। अपनी नियमअवधि पूर्ण होने पर स्वतः कर्मों का उदय मे आना और फल देकर हट जाना अनौपक्रमिक निर्जरा है। इसका दूसरा नाम सविपाक निर्जरा है। यह प्रत्येक प्राणी को प्रतिक्षण होती रहती है । बन्ध और निर्जरा का प्रवाह अविराम गति से बढ रहा है। किन्तु साधक सवर द्वारा नवीन आस्रव को निरुद्ध कर, तपस्या द्वारा पुरातन कर्मों को क्षीण करता चलता है । वह अन्त मे पूर्णरूप से निष्कर्म बन जाता है। मगर यह साधना सरल नही है। इसके लिए सभी पर पदार्थो मे १. स्थानाग, स्था० ५, उ० १, सूत्र ४०९।। २ जहा महातलागस्स, उत्तराध्ययन, अ० ३०, गा० ५। ३ उत्तराध्ययन, अ० १३, गा० १६ । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म अनासक्ति और साथ ही श्रात्मनिष्ठा अपेक्षित है । ऐसा साधक अपने विराट् चैतन्यम्वरूप को प्राप्त करना ही अपना एकमात्र व्येय मानता है । जैनशास्त्र साधक - जीवन की अनासक्ति को यो प्रकट करते है. - 'अवि अप्पणो विदेहमि, नायरति समाइय ।' ससार के अन्य पदार्थों की बात तो दूर रही, साधक का अपने शरीर पर भी ममभाव नही रहता । वह ग्रन्त स्थ होकर स्वरूपरमण मे ही लीन रहता है । इसी कारण सयमी साधक को ग्रविपाक निर्जरा का अमूल्य तत्त्व प्राप्त होता है, जिसके बल पर वह कोटि-कोटि कर्मों को क्षण भर मे फल भोगे बिना ही भस्म कर देता है । ग्रडोल ग्रकम्प सावक जगत् में रहता हुआ भी, जगत् से और देह मे रहता हुआ भी देह से ऐसा ग्रलिप्त रहता है जैसे कीचड़, पानी, और आग मे पडा हुआ सोना अपने स्वरूप मे शुद्ध बना रहता है । अलिप्त भाव से किया हुआ तपश्चरण कर्मसघात पर ऐसा प्रहार करता है कि वह जर्जरित होकर ग्रात्मा से पृथक् हो जाते है । जैन परिभाषा में इसे 'सकाम' निर्जरा कहते हैं | ८८ विवश होकर, हाय-हाय करते हुए भी कर्म भोगे जाते हैं, और फल देने के बाद वे निर्जीव हो जाते है । वह ग्रकाम निर्जरा है । साधारण ससारी प्राणी प्रकामनिर्जरा द्वारा ही कर्मों को जीर्ण करते है, परन्तु ऐसा करते-करते वे और अधिक नवीन कर्म उपार्जन कर लेते है, जिससे उन्हें मुक्ति नही मिल पाती | अभिप्राय यह है कि इच्छापूर्वक समभाव से कष्ट सहना, सकाम निर्जरा, और ग्रनिच्छापूर्वक व्याकुल एव अशान्तभाव से कष्ट भोगना, अकामनिर्जरा है । बन्ध - ग्रात्मा के साथ, दूध-पानी की भाँति, कर्मो का मिल जाना, वन्ध कहलाता है । किन वृत्तियो एवं प्रवृत्तियो से कर्मो का ग्राव होता है, यह हम देख चुके है, मगर प्रश्न यह है कि आत्मा के साथ कर्मो का वन्ध होता कैसे है ' ग्रात्मा रूपी और कर्म पुद्गल रूपी हैं । ग्ररूपी के साथ रूपी का वन्ध किस प्रकार सभव ·9 ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यद्यपि आत्मा अपने स्वरूप से अरूपी है; तथापि ग्रनादि काल से कर्मबद्ध होने के कारण रूपी भी है । मोहग्रस्त १. स्यानांग, स्थान २, उद्देशा २, प्रज्ञापना पट २३, सू० ५ । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान ससारी प्राणी ने अब तक कभी अपना अमूर्त स्वभाव प्राप्त नहीं किया है, और जब वह उसे प्राप्त कर लेता है तो फिर कभी कर्मबद्ध नहीं होता। खनिज स्वर्ण का मिट्टी के साथ कव सयोग हुआ, नही कहा जा सकता। इसी प्रकार प्रात्मा के साथ पहले-पहल कव कर्मों का बन्ध हुआ, यह भी नही कहा जा सकता। इस सम्बन्ध मे जो कुछ कहा जा सकता है, वह यही कि इनका सम्बन्ध अनादिकालीन है। जैसे चिकने पदार्थ पर रजकण आकर चिपक जाते ह, उसी प्रकार राग-द्वेष की चिकनाहट के कारण कर्म आत्मा से बद्ध हो जाते है । राग-द्वेष, मोह आदि जो विकृत भाव कर्मपुद्गलो के बन्ध मे कारण है, वे भाव बन्ध है, और कर्म पुद्गलो का आत्मप्रदेशो के साथ एकमेक होना द्रव्य बन्ध है। पुद्गल की अनेक जातियो मे एक 'कार्मण' जाति है । इस जाति के पुद्गल सूक्ष्मतर रज के रूप मे सम्पूर्ण लोक मे व्याप्त है। जब आत्मा मे रागादि विभाव का आविर्भाव होता है, वह पुद्गल वही के आत्मप्रदेशो से बद्ध हो जाते है, जहाँ वे पहले से मौजूद थे। यही बन्ध का स्वरूप है। बन्ध के समय उन कर्मो मे चार बाते नियत होती है, जिनके कारण वन्ध के भी चार प्रकार' कहे जाते है। गाय घास खाती है, और अपनी औदर्य यन्त्रप्रणाली द्वारा उसे दूध के रूप मे परिणत कर देती है। उस दूध मे चार बाते होती है - १ दूध की प्रकृति (मधुरता) २ कालमर्यादा-दूध के विकृत न होने की एक अवधि। ३ मधुरता की तरमता, जैसे भैस के दूध की अपेक्षा कम, और वकरी के दूध की अपेक्षा अधिक मधुरता होना आदि। ४ दूध का परिमाण सेर, दो सेर आदि । - इसी प्रकार कर्म मे एक विशेष प्रकार का स्वभाव उत्पन्न हो जाना प्रकृतिबन्ध है। कर्म के स्वभाव असख्य है, फिर भी उन्हे पाठ भागो मे विभक्त किया गया है, जिनका स्पप्टीकरण पृथक् परिच्छेद मे दिया गया है। स्वभाव-निर्माण के साथ ही उसके बद्ध रहने की काल अवधि भी निश्चित हो जाती है, जिसे स्थिति बन्ध कहते है । फल (रस) देने की तीव्रता अथवा १ समवायांग, समवाय ४। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म मन्दता 'अनुभागबन्ध' या 'रस बन्ध' है, और कर्मप्रदेशों का समूह 'प्रदेश वन्व" कहलाता है । ९० इन चार बन्धो में से प्रकृतिवन्ध और प्रदेशवन्ध योगो की चचलता पर निर्भर होते हैं, अर्थात् कितने कर्मदल बन्ध, और उनमे किस प्रकार स्वभाव उत्पन्न हो, वह बात मानसिक, वाचिक और कायिक स्पन्दन के तारतम्य के अनुसार निश्चित होती है । कर्म कितने समय तक आत्मा के साथ वद्ध रहे, और कितना मन्द, मध्यम या उग्र फल प्रदान करे, यह नियति कषाय की तीव्रता - मन्दता पर ग्रवलम्वित है । मोक्ष - संवर द्वारा नवीन कर्मों का श्रागमन रुक जाने और निर्जरा द्वारा पूर्ववद्ध समस्त कर्मों के क्षीण हो जाने के फलस्वरूप आत्मा को पूर्ण निष्कर्म दशा प्राप्त हो जाती है । जब कर्म नही रहते तो कर्मजनित उपावियाँ भी नही रहती, और जीव अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । यही जैनधर्म-सम्मत मोक्ष है । मुक्त दशा में आत्मा ग्रशरीर, ग्रनिन्द्रिय, अनन्त चैतन्यघन, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और अनन्त आत्मिक वीर्य से सम्पन्न हो जाता है । वह सब प्रकार की क्षुद्रताओं से प्रतीत विराट् स्वरूप की उपलब्धि है । विकार ही विकार को उत्पन्न करते हैं, जो आत्मा सर्वथा निर्विकार हो जाता है वह फिर कभी विकारमय नही होता । वह श्रास्रव और बन्ध केकारणो से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । इसी कारण मुक्त दशा शाश्वतिकहै । मुक्तात्मा फिर कभी ससार मे अवतीर्ण नही होते वह जन्म-मरण से श्रात्यन्तिक निवृत्त है । 3 ग्रात्मा स्वभावत. ऊर्ध्वगतिशील है । जिस प्रकार मृत्तिका से लिप्ततूवा जल में छोड देने पर नीचे की ओर चला जाता है, और ठेठ पैदे पर जा टिकता है, किन्तु लेप गल जाने पर हल्का होकर पानी की सतह पर ना जाता है, और जैसे ग्रग्निशिखा स्वभावत. ऊर्ध्वगति करती है, उसी प्रकार आत्मा कर्मलेप से मुक्त होते ही स्वभावतः ऊर्ध्वगमन करती है । १ उत्तराध्ययन, अ० २९, सूत्र ७२ । २. उत्तराध्ययन, अ० ३६, गा० ६७ । ३ दशाश्रुतस्कघ, अ० ५, गा० १३ । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान मगर लोकाकाश से आगे गति सहायक धर्मद्रव्य नहीं है। अतएव वहाँ उसकी गति का निरोव हो जाता है, और मुक्तात्मा लोकान भाग' में ही प्रतिष्ठित हो जाती है। इस प्रकार समस्त औपाधिक भावो से छुटकारा पा लेना, चैतन्यानुभूति की पूर्ण विशुद्धि हो जाना, या आत्मा का परम-आत्मा वन जाना ही मोक्ष है। यही ईश्वरत्व की प्राप्ति है। संसार-दशा मे, प्रात्मा मे ज्ञान और प्रानन्द के जो विकृत अश अनुभव में आते है, वे प्रात्मा के स्वाभाविक ज्ञान और आनन्द नामक गुण के विकार है। मुक्त-दगा में वह अपने शुद्ध स्वरूप में प्रकट हो जाते है, अतएव मुक्तात्मा पूर्ण ज्ञान, और पूर्ण एव अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव करते है। __ मोक्ष-लाभ ही मानव-जीवन का नरम और परम पुरुषार्थ है । यही समस्त साधनामो का सार है। प्रमाण-मीमांसा जैनशास्त्रो मे ज्ञान की मीमासा के दो प्रकार उपलब्ध होते है-आगमिक पद्धति से और तार्किक पद्धति से। आगमिक पद्धति, और तार्किक पद्धति मे वस्तुतः कोई मौलिक भेद नहीं है, तथापि दोनो का वर्गीकरण जुदा-जुदा है। प्रागमिक पद्धति के वर्गीकरण के अनुसार ज्ञान के पाच भेद है-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्यायज्ञान, और केवल ज्ञान । इनका दिग्दर्शन हम आगे करेगे । तार्किक पद्धति के अनुसार सशय, विपर्यास और अनध्यवसाय से रहित सम्यग्ज्ञान, प्रमाण कहलाता है। प्रमाण ज्ञान को चार भागो मे विभक्त किया गया है। १. प्रत्यक्ष २. अनुमान ३. आगम और ४. उपमान । इनका सक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है - १ प्रत्यक्ष :-३ विशद ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञान मे वस्तुगत विशेषताए प्रचुरता से प्रतीत होती है, वह प्रत्यक्ष है। पूर्वोक्त पाच ज्ञानो मे से मति ज्ञान १ उत्तराध्ययन, अ० ३६, गा० ५७ । २. पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे, अनुयोगद्वार । प्रमाणद्वारम् । ३. से किं तं पच्चक्खे ? अनुयोगद्वार-प्रमाणद्वारम् । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ जैन धर्म और श्रुत ज्ञान परोक्ष है और ग्रन्तिम तीन अवधि, मन पर्याय, और केवल ज्ञान- प्रत्यक्ष' है । प्रत्यक्ष में भी प्रवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान विकल या आशिक प्रत्यक्ष है, और केवल ज्ञान परिपूर्ण होने के कारण सकल प्रत्यक्ष कहलाता है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान वस्तुत परोक्ष है, किन्तु लोक-प्रतीति के अनुसार वह साव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहलाते हैं । २. अनुमान अनुमान तर्कशास्त्र का प्राण है । यद्यपि श्रनुमान प्रत्यक्षमूलक होता है, तो भी उसका अपना विशिष्ट स्थान है । अनुमान के द्वारा ही हम ससार का अधिकतम व्यवहार चला रहे है । अनुमान के ग्रावार पर ही तर्कशास्त्र का विशाल भवन खडा हुया है । a ४ कार्य-कारण के सिद्धान्त से अनुमान प्रमाण का प्रादुर्भाव होता है । अग्नि से ही धूम्र की उत्पत्ति होती है, और अग्नि के प्रभाव में धूम्र उत्पन्न नही हो सकता, इस प्रकार का कार्यकारण भाव व्याप्ति या अविनाभाव सम्वन्ध कहलाता है । इसका निश्चय तर्क प्रमाण से होता है । श्रविनाभाव निश्चित हो जाने पर कारण को देखने से कार्य का बोध हो जाता है । वही बोध अनुमान कहलाता है । किसी जगह धूम से उठते हुए गुब्बारे को देखकर प्रदृष्ट अग्नि की कल्पना स्वत होती है" यही अनुमान ज्ञान है । कहीं कोई शब्द सुनाई देता है, तो श्रोता उसी समय निश्चित कर लेता है कि यह शब्द मनुष्य का है अथवा पशु का है । मनुष्यों में भी अमुक मनुष्य का है, और पशुओ मे भी ग्रमुक पशुजाति का है । इस प्रकार केवल स्वर से स्वर वाले को जान लेना अनुमान का फल है । अनुमान के दो भेद है . -- स्वार्थानुमान और परार्थानुमान । अनुमानकर्त्ता जव ग्रपनी अनुभूति से स्वयं ही किसी तथ्य (ज्ञेय - साध्य ) का हेतु १. परोक्खे णाणे दुविहे, स्थानांग सूत्र, स्था० २ । २. तिविहे पण्णते, अनुयोगद्वार प्रमाणद्वारम् । ३. से कि तं अणुमाणे, अनुयोगद्वार० प्रमाणद्वारम् । ४. अनुयोगद्वार, प्रमाणद्वारम्, मल्लघारीया टीका । ५ अग्गि घूमेणं ६ सखं सद्देणं Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान (साधन) द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह स्वार्थानुमान कहलाता है। और जब वह वचनप्रयोग द्वारा किसी अन्य को वही तथ्य समझाता है, तो उसका वह वचन-प्रयोग परार्थानुमान कहलाता है । स्वार्थानुमान ज्ञानात्मक है, और परार्थानुमान वचनात्मक है। परार्थानुमान का शाब्दिक रूप क्या होना चाहिए ? इस विषय को लेकर भारतीय न्यायशास्त्रियो ने बहुत विचार किया है। न्यायदर्शन मे परार्यानुमान के पाच अवयव स्वीकार किये गये है, जो इस प्रकार है - १. पर्वत मे अग्नि है (प्रतिज्ञा)। २. क्योकि वहा धूम्र है (हेतु) । ३. जहा-जहा धूम्र होता है, वहां-वहा अग्नि होती है (व्याप्ति) जैसे रसोई घर (उदाहरण)। ४. पर्वत मे भी धूम्र है (उपनय) । ५. अतएव अग्नि है (निगमन) जैन तार्किक समझदारो के लिए इनमे से प्रथम के दो अवयवो का प्रयोग ही पर्याप्त मानते है । अलवत्ता किमी अवोध व्यक्ति को समझाने के लिए अधिक अवयवों का प्रयोग करना आवश्यक हो तो उनके प्रयोग मे कोई हानि नही समझते । मगर पांचो अवयवो के प्रयोग को वे अनिवार्य नहीं समझते। ३. आगम प्रमाण --' श्रुतज्ञान के विवेचन मे आगम प्रमाण का वर्णन किया जायेगा। ४. उपमान प्रमाण -3 प्रसिद्ध पदार्थ के सादृश्य से अप्रसिद्ध पदार्थ का सम्यक् बोध होना उपमा या उपमान प्रमाण कहलाता है। 'गवय गौ के समान होता है' यह वाक्य जिसने सुन रक्खा है, वह व्यक्ति जब अचानक गौ के सदृश पशु को देखता है, तो पहले सुने हुए उस वाक्य का स्मरण करके झट समझ जाता है, कि यह गवय है। इस प्रकार दर्शन और स्मरण दोनो के निमित्त से होने वाला सदृशता का ज्ञान ही उपमान है। १ पंचेविह पण्णतं । २. से किं तं आगमे, अनुयोगद्वार, प्रमाणद्वारम् । ३ से कि त ओवम्मे, अनुयोगद्वार, प्रमाणद्वारम । Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म प्रमाणो का यह वर्गीकरण तर्कानुसारी होने पर भी ग्रागमिक है । पञ्चावती तार्किक आचार्यों ने प्रमाण का वर्गीकरण दूसरे प्रकार से किया है। उनके अनुसार प्रमाण दो प्रकार के है, प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष प्रमाण के भी दो भेद है ---साव्यवहारिक प्रत्यक्ष, और पारमार्थिक प्रत्यक्ष' । परोक्ष प्रमाण पाच प्रकार का है - १. स्मृति, २ प्रत्यभिज्ञान, ३. तर्क४ अनुमान और ५ अागम । स्मरण रखना चाहिए कि इस वर्गीकरण मे भी पूर्वोक्त वर्गीकरण से कोई मौलिक या वस्तुगत पार्थक्य नही है। इसमे उपमान प्रमाण को पृथक स्थान नही देकर, प्रत्यभिज्ञान में सम्मिलित कर लिया गया है। स्मरण, प्रत्यभिज्ञान और तर्क उस वर्गीकरण के अनुसार साव्यवहारिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत है। नयवाद १. नय स्वरूप --विश्व के समस्त दर्शनशास्त्र वस्तुतत्त्व की कसौटी के रूप मे प्रमाण को अगीकार करते है। किन्तु जैनदर्शन इस सम्बन्ध मे एक नयी सूझ देता है। उसकी मान्यता है कि प्रमाण अकेला वस्तुतत्त्व को परखने के लिए पर्याप्त नहीं है । वस्तु की ययार्थता का निर्णय प्रमाण और नय के द्वारा ही हो सकता है। जैनेतर दर्शन नय को स्वीकार न करने के कारण ही एकान्तवाद के समर्थक वन गये है, जब कि जैनदर्शन नयवाद को अंगीकार करने से अनेकान्तवादी है। प्रमाण वस्तु की समग्रता को, उसके अखण्ड एक रूप को विषय करता है । नय उसी वस्तु के अशो को, उसके खंड-खड रूपो को जानता है। किसी भी वस्तु का पूरा और सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसका । विश्लेपण करना अनिवार्य है । विश्लेषण के बिना उसका परिपूर्ण रूप नही जाना जा सकता। तत्त्व का विश्लेषण करना और विश्लिप्ट स्वरूप को समझना नय की उपयोगिता है। १. जैन न्याय तर्क सग्रह (यशोविजय) प्रमाण खण्ड । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान नयवाद के द्वारा परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले विचारों के अविरोध का मूल खोजा जाता है, और उनका समन्वय किया जाता है । नय विचारो की मीमासा है। वह एक पोर विचारो के परिणाम, और कारण का अन्वेषण करते है, और दूसरी ओर परस्पर विरोधी विचारो मे अविरोध का वीज खोज कर समन्वय स्थापित करते है। क्या आत्मा-परमात्मा और क्या जड़ पदार्थ, सभी विषयो मे परस्पर विरोधी मन्तव्य उपलब्ध होते है। एक जगह विधान है कि आत्मा एक है, तो दूसरी जगह कहा गया है कि आत्माए अनन्त-अनन्त है । ऐसे विरुद्ध दिखाई देने वाले मन्तव्यो के विषय मे नयवाद अपेक्षा की नीति अपनाता है। वह विचार करता है कि किस दृष्टिकोण से आत्माए अनेक है ? इस प्रकार के दृष्टिकोणो का अन्वेषण करके उन विचारो की सचाई का आधार खोज निकालना ही नय का काम है, अतएव नय विविध विचारो के समन्वय की पीठिका तैयार करता है । इसलिए नयवाद अपेक्षावाद भी कहलाता है। जगत के विचारो के आदान-प्रदान का साधन नय है । प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्म-स्वभाव गुण विद्यमान है । उनके विषय मे अनन्त अभिप्रायो को विषय करने वाले नय भी अनन्त होते है । अभिप्राय यह है कि अनन्त धर्मात्मक वस्तु को अखण्ड रूप में जानने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है, तो उसी वस्तु के किसी एक धर्म को जानने वाला ज्ञान नय कहलाता है। प्रमाण अनेकाश ग्राही है, तो नय एक अश का ग्राहक है। २. नय की सत्यता--कहा जा सकता है कि अनेक अशो में से सिर्फ एक अश को ग्रहण करने वाला नय मिथ्याजान है। नय यदि मिथ्याज्ञान है तो वह वस्तुतत्त्व के निर्णय का आधार कैसे बन सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर यही दिया जा सकता है कि किसी भी नय की यथार्थता इस बात पर अवलम्बित है, कि वह दूसरे नय का विरोधी न हो। उदाहरण के लिए आत्मा को लीजिए। एक नय से आत्मा नित्य है और दूसरे नय से आत्मा अनित्य है । आत्मा का प्रात्मव शाश्वत है, उसका कभी विनाश सभव नही है, इस दृष्टिकोण से आत्मा नित्य है। किन्तु आत्मा शाश्वत होता हुआ भी अनेक रूपो में परिवर्तित होता रहता है। कभी मनुष्य के पर्याय मे उत्पन्न होता है, कभी पशु-पक्षी की योनि मे Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ जैन धर्म जन्म लेता है, तो कभी नरक का कीड़ा बन जाता है। इस दृष्टिकोण से आत्मा अनित्य भी है। यहां नित्यताग्राही नय अगर अनित्यताग्राही नय का विरोध न करे, उसके प्रति उपेक्षा रखे और सिर्फ अपने दृष्टिकोण के प्रतिपादन तक ही सीमित रहे तो वह सम्यक्नय कहा जाएगा। इसके विपरीत, जब एक नय अपन दृष्टिकोण के प्रतिपादन के साथ दूसरे नयो के दृष्टिकोण का विरोध करता है तो ऐसा करनेवाला नय मिथ्यानय बन जाता है। सरल शब्दो मे कहना चाहिए-कोई नय तभी तक सच्चा है, जब तक वह दूसरे को झूठा नही कहता । जब उसने दूसरे को झूठा कहा तो वह स्वयं झूठा हो गया। ३. नयभेदः--कहा जा चुका है कि एक वस्तु मे अनन्त-अनन्त धर्म है और उसमे एक एक धर्म को ग्रहण करने वाला अभिप्राय नय कहलाता है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जब धर्म अनन्त है तो नय भी अनन्त होने चाहिएं। वास्तव मे ऐसा ही है। जगत् मे प्रचलित अभिप्राय या वचन-प्रयोग गणना म नही पा सकते तो उनको ग्रहण करने वाले नयो की गणना भी सम्भव नही । इसीलिए जैनदर्शन कहता है : 'जावइया वयणपहा, तावइया चेव हुंति नयवाया।' अर्थात्-जितने वचन के पथ है, या वस्तु सम्बन्धी अभिप्राय है, उतने ही नय के प्रकार है। फिर भी वर्गीकरण के सिद्धान्त का उपयोग किया जाय तो उन समस्त नयो को दो भागो मे वाटा जा सकता है। १ द्रव्याथिकनय और २ पर्यायाथिक नय।। मूल पदार्थ द्रव्य कहलाता है और उसकी विभिन्न और देशो और कालो में होने वाली नाना अवस्थाए पर्याय कहलाती है। समस्त विचारो की प्रवृत्ति या तो द्रव्य के द्वारा या पर्याय के द्वारा होती है, अतएव मूलभूत दो ही है । द्रच नित्य है, अतएव नित्यता को ग्रहण करनेवाला नय द्रव्यार्थिक नय कहताता है। १. से कि तं गए ? ततमूलणया पणत्ता अनुयोगद्वार नयद्वारम, Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान १७ मध्यम रीति से इन दोनो नयो के सात भेद किये गये है :-१ १. नंगम २ सग्रह ३. व्यवहार ४ ऋजुसूत्र ५. शन्द ६. समभिरूढ और ७. एवंभूत । इनका मक्षिप्त परिचय इस प्रकार है : १. नंगम :-- निगम अर्थात् लोकरूढि या लौकिक सस्कार से उत्पन्म हुई कल्पना को नैगम नय कहते है। जैसे चैत्रशुक्ला त्रयोदशी आने पर कहनाअाज महावीर भगवान् का जन्म दिन है। वास्तव में भगवान महावीर का जन्म अढाई हजार वर्ष पूर्व हुआ था, फिर भी लोकरूढि के अनुसार ऐसा कहा जा मकता है । यद्यपि रास्ता कही आता-जाता नही, फिर भी लोग कहते है -यह गस्ता दिल्ली जाता है। फूटे घड़े में पानी चूता है, मगर दुनिया कहती है, घड़ा चता है । जिस दृष्टिकोण से ऐसे कथन सही समझे जाते है, वह दृष्टिकोण नैगम नय कहलाता है। २. संग्रहनय--२ सग्रहनय का अर्थ है अभेद दृष्टि । जड और चेतन तत्त्वो की जो धारा समान रूप से प्रवाहित हो रही है, उसी सामान्य तत्त्व को मुख्य करके सत्ताधर्म की प्रधानता को लक्ष्य मे रखकर सब को एक रूप मानने वाला अभिप्राय सग्रहनय कहलाता है। जड़ और चेतन एक है, क्योकि दोनो मे एक ही सत्ता समान रूप से व्याप्त है। सब आत्मा एक है, क्योकि उनकी स्वाभाविक चेतना में कोई विलक्षणता नहीं है । मनुष्य मात्र एक है, क्योकि मनुष्यत्व जाति एक है । इस प्रकार समान धर्म के आधार पर एकत्व की स्थापना करना सग्रहनय है। स्मरण रखना चाहिए कि जिन वस्तुओ में किसी समान धर्म के आधार पर एकता की कल्पना की गई है, उनमे बहुत से विशिष्ट धर्म भी होते है, जिनके आधार पर उन्हें एक दूसरे से पृथक किया जा सकता है। मगर सग्रह नय उन्हे स्वीकार नहीं करता। १. से कि तं णए ? सत्तमूलणया पण्णता, स्थानांगसूत्र स्था० ७, सूत्र ५५२ । २ अनुयोगद्वार, नयद्वार, गा० १३७ । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म ____३. व्यवहार नय ---' पदार्थो मे रहे हुए विशेष अर्थात् भेदकारी धर्मों को प्रधान करके उनमे भेद स्वीकार करने का दृष्टिकोण व्यवहार नय है। संग्रह नय अभेद की प्रधानता पर चलता है, मगर अभेद से लोक-व्यवहार नही चल सकता। जड़ और चेतन सत्ता की समानता के कारण भले ही एक हो, मगर जड मे चेतना नही है, और चेतन जीव मे चेतना है । इस कारण दोनो की भिन्नता भी वास्तविक है। मनुष्यत्व के लिहाज से मनुष्य मात्र एक है सही, फिर भी मनुष्य-मनुष्य मे प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला अन्तर भी वास्तविक है। इस प्रकार पृथक्करण वादी दृष्टिकोण व्यवहारनय है । लोक-व्यवहार अभेद से नही, भेद से चलता है। सग्रहनय की दृष्टि मे साडी और पगड़ी एक है, मगर साड़ी की जगह पगड़ी, और पगड़ी की जगह साडी से काम नही चलता, दोनो में भेद है और उस भेद को स्वीकार करना ही व्यवहार नय है। यह तीन नय साधारणतया द्रव्य को ही प्रधान रूप से ग्रहण करते है, अतएव इन्हे द्रव्याथिकनय कहा गया है । ४. ऋजुसूत्रनय ---२ कभी कभी मानवीय बुद्धि भूत और भविष्यत् के स्वप्नो को ठुकरा कर तात्कालिक लाभालाभ को ही लाभालाभ स्वीकार करती है । भूतकालीन वस्तु विनष्ट हो जाने के कारण असत् है, और भविष्यत्कालीन उत्पन्न न होने के कारण असत् है। उनकी कोई उपयोगिता नही । वर्तमानकालीन समृद्धि ही वास्तव मे समृद्धि है। जो धन नष्ट हो गया, और भविष्य मे मिलेगा, वह कोरा स्वप्न है । आज उसकी कोई सत्ता नही। इस प्रकार बुद्धि जव वर्तमान को ही सर्वस्व मानकर चलती है, तो वह वर्तमान विषयक विचार ऋजुसूत्रनय कहलाता है। ५. शब्दनय --3 पूर्वोक्त चार नय वस्तु को प्रधान रख कर विचार करते है । अतएव इन्हे अर्थनय कहते है। शब्दनय और इससे आगे के समभिरूढ तथा एवभूतनय शब्द सम्बन्धी विचार प्रस्तुत करते है। अत यह तीनो १. अनुयोगद्वार, नय द्वार, गा० १३७ । २. " " " " १३८ । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान शब्दनय कहलाते है। गन्दनय पर्यायवाची शब्दो को एकार्थ स्वीकार करता है, मगर उनमे यदि काल, लिंग, कारक, वचन या उपसर्ग की भिन्नता हो तो उन्हे एकार्थक नही मानता। लेखक लिखता है-'अयोध्या नगरी थी।' यद्यपि अयोध्या नगरी लेखक के समय में भी है, फिर भी वह 'है' न लिखकर 'थी' क्यो लिखता है ? इस प्रश्न का उत्तर शब्दनय यह देता है कि कालभेद से अयोध्या नगरी मे भी भेद हो जाता है । अतएव लेखक के समय को अयोध्या और है तथा जिस समय की घटना वह लिखता है, उस समय की अयोध्या और थी। इसीलिए लेखक 'अयोध्या थी,' ऐसा लिखता है, 'अयोध्या है' नही लिखता है। यह कालभेद से अर्थभेद का उदाहरण है। इसी प्रकार लिंगभेद से भी अर्थभेद हो जाता है यथा, नर और नारी । उपसर्ग का भेद भी अर्थ मे भेद उत्पन्न कर देता है। जैसे प्रस्थानगमन, सस्थान-ग्राकार । अथवा आहार, विहार, प्रसार, परिहार, सहार, नीहार आदि। इन उदाहरणो के आधार पर कारक और वचन आदि के भेद से वस्तुभेद हो जाने की कल्पना की जा सकती है। ६ समभिरूढ़ नय--१ यह नय शब्दनय से भी एक कदम आगे बढकर सूक्ष्म शाब्दिक चिन्तन करता है। कहता है-अगर काल और लिंग आदि की भिन्नता अर्थभेद उत्पन्न कर सकती है तो व्युत्पत्ति (शब्दो की बनावट) के भेद से भी वस्तुभेद क्यो न माना जाय ? अत समभिरूढनय विभिन्न पर्यायवाची शब्दो को एकार्थक नही मानता। इसके मतानुसार सभी कोष मिथ्या ह, क्योकि एकार्थ बोधक अनेक गब्दो का प्रतिपादन करते है । कोष 'राजा' 'नृप' और 'भूप' को एकार्थक बतलाता है, किन्तु इनकी बनावट पर ध्यान दिया जाय तो उनका अर्थभेद स्पष्ट है। राजदण्ड को धारण करने वाला: 'राजा ।' मनुष्य का पालन करने वाला 'नृप।' पृथ्वी का रक्षण करने वाला, 'भूप' कहलाता है। अगर 'नृप' और 'भूप' शब्दो का एक ही अर्थ माना जाय तो मनुष्य और पृथ्वी का अर्थ भी एक हो जाना चाहिए। वैयाकरणो मे 'शब्दभेदात् अर्थभेद -अर्थभेदात् शब्दभेद' अर्थात् १ अनुयोगद्वार, नयद्वारम्, गाथा १३९ । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन धर्म शब्द के भेद से अर्थ में और अर्थ के भेद से शब्द मे भेद हो जाता है, यह प्रचलित सिद्धान्त इसी दृष्टिकोण पर अवलम्बित है । ७ एवंभूतनय--' यह नय सूक्ष्मतम गाब्दिक विचार हमारे सामने प्रस्तुत करता है। इसका कथन यह है-यदि व्युत्पत्ति के भेद से अर्थ मे भेद हो जाता है तो जब व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ किसी वस्तु मे घटित हो, तभी उस शब्द का प्रयोग करना चाहिए और जव वह अर्थ घटित न हो तब उस शब्द का प्रयोग नही करना चाहिए। एवंभूतनय समस्त शब्दो को क्रियावाचक ही मानता है। संज्ञावाचक गुणवाचक, भाववाचक अथवा अव्यय आदि के नाम से प्रसिद्ध सभी शब्द क्रियावाची ही है। प्रत्येक शब्द से किसी न किसी क्रिया का ही बोध होता है। अतएव जव पदार्थ, जैसी क्रिया कर रहा हो, तब उसी क्रिया के वाचक शब्द से उसे अभिहित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ-"अध्यापक" का अर्थ है, पढाने की क्रिया करन वाला तो जब कोई व्यक्ति यह क्रिया कर रहा है, तो तभी उसे अध्यापक कहा जा सकता है । जव वह खाता, सोता या चलता है, तब अध्यापन-क्रिया नही करता और इस कारण उसे अध्यापक भी नही कहा जा सकता। अध्यापन क्रिया न करने पर भी यदि उसे अध्यापक कह दिया जाय तो फिर दुकानदारी या रसोईया को भी अध्यापक कहने मे क्या हर्ज है ? इस प्रकार एवभूतनय क्रिया को ही शब्दप्रयोग का नियामक मानता है। सात नयो के विवेचन से स्पष्ट हो जायेगा कि नयवाद मे अनन्त धर्मो के अखण्ड पिण्ड रूप वस्तु के किसी एक धर्म को प्रधानता देकर कथन किया जाता है। उस समय वस्तु मे गेप धर्म विद्यमान तो रहते है, मगर वे गौण हो जाते है । इस प्रकार सत्य के एक अश को ग्रहण करने वाला ज्ञान ही नय है। नयो द्वारा प्रदर्शित सत्याश और प्रमाण द्वारा प्रदर्शित अखण्ड सत्य मिलकर ही वस्तु के वास्तविक और सम्पूर्ण स्वरूप के वोधक होते है । जैनागमो मे नय सिद्धान्त निरूपण बहुत विस्तार से किया गया है। अनेक अथ केवल इसी विषय को समझाने के लिए लिखे गये है। १. अनुयोगद्वार, नयद्वारम्, गाथा १३९ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान अनेकान्त १०१ सन्त संस्कृति के प्राणप्रतिष्ठापक और समन्वय सिद्धान्त के प्रणेता श्रमण भगवान् महावीर ने तत्व विचार की एक मौलिक और अतिशय दिव्य पद्धति जगत् को प्रदान की। यही नहीं, उन्होने वस्तु के सर्वाङ्गीण स्वरूप को समझाने की एक सापेक्ष भाषा-पद्धति भी दी। उन्होने बतलाया - " विचार अनेक हैं, और वहुत बार वे परस्पर विरुद्ध प्रतीत होते हैं, परन्तु उनमे भी एक सामजस्य है, अविरोध है, और उसे जो भलीभाँति देख सकता है, वही वास्तव मे तत्वदर्शी है ।" ? परस्पर विरोधी विचारो मे अविरोध का आधार वस्तु का अनेकधर्मात्मक होना है । एक मनुष्य जिस रूप मे वस्तु को देख रहा है, उसका स्वरूप उतना ही नही है । मनुष्य की दृष्टि सीमित है, पर वस्तु का स्वरूप सीम है । प्रत्येक वस्तु विराट् है, और अनन्त अनन्त ग्रो, धर्मो गुणो और शक्तियो का पिण्ड है । यह ग्रनन्त ग्रश उसमे सत् रूप से विद्यमान है । यह वस्तु के सहभावी धर्म कहलाते है । इसके अतिरिक्त प्रत्येक वस्तु द्रव्यशक्ति से नित्य होने पर भी पर्याय शक्ति से क्षण क्षण में परिवर्तनशील है । यह परिवर्तन (पर्याय) एक दो नही, हजार लाख भी नही, अनन्त है, और वे भी वस्त केही भिन्न है । यह ग्रश क्रमभावी धर्म कहलाते है । इस प्रकार अनन्त सहभावी धर्मो और अनन्त क्रमभावी पर्यायो का समूह एक वस्तु है । मगर वस्तु का वस्तुत्व इतने में भी समाप्त नही होता, वह इससे भी विशाल है | जैसे सिक्के के दो वाजू होते है, और दोनो वाजू मिलकर ही पूरा सिक्का वनता है, उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ सत्ता और सत्ता दोनो शो के समुदाय से बना है । अभी जिन धर्मों और पर्यायो का उल्लेख किया गया है, वे सब तो सिर्फ सत्ता - है । ग्रसत्ता प्रश इससे भी विराट् है और वह भी वस्तु का ग्रग ही है । किसी भी पदार्थ मे इतर पदार्थो की अभाव रूप से पाई जाने वाली वृत्ति, वस्तु का सत्ता प्रश है । १ स्याद्वादमंजरी, कारिका, ५ । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ जैन धर्म स्पष्टता के लिए एक उदाहरण लीजिए। घट आपके सामने है। प्राप आखो से घट का रूप और प्राकार ही देख पाते है। मगर घट सिर्फ रूप और आकार मात्र नहीं। ___ आप घट को ऊचा उठाएगे तो आपको उसके कुछ अधिक धर्म प्रतीत होगे, उसका गुरुत्व मालूम होगा, चिकनापन प्रतीत होगा, और भी कुछ मालूम हो सकता है । मगर घट का यह स्वरूप पूरा नही होगा। घट का पूरा स्वरूप समझने के लिए आप किसी तत्व-ज्ञानी की गरण लीजिए। वह आपको बतलाएगा कि घट मे जैसे, रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि स्थूल इन्द्रियो से प्रतीत होने वाले गुण है, उसी प्रकार इन्द्रियो से प्रतीत न होने वाले गुण भी है, और ऐसे गुण अनन्त है । ____ अब आपने समझ लिया कि घट मे अनन्त गुण विद्यमान है । फिर भी क्या एक घट का स्वरूप पूरा हो गया ? तत्वज्ञानी कहेगा-"जी नही, अभी तो घट का प्राधा स्वरूप भी आपने नही समझा ।" घट इससे भी कही विराट् है । यहा तक तो घट मे सदैव रहने वाले (सहभावी) गुणो की ही बात हुई। मगर घट मे अनन्त धर्म ऐसे भी है, जो सदैव विद्यमान नहीं रहते, जो उत्पन्न होते और नष्ट हो जाते हैं। ऐसे धर्म क्रमभावी धर्म कहलाते है। उन्हे पर्याय भी कहते है। अच्छा घट, अनन्त सहभावी धर्मो और अनन्त क्रमभावी धर्मों का पिण्ड है। यह जान लेने पर तो घट का पूरा स्वरूप जान लिया, कहा जा सकता है। तत्वज्ञानी कहेगा-"नहीं, यह तो घट की एक ही बाजू है । इसे सत्ता की वाजू समझिए, अभी दूसरी असत्ता की बाजू तो अछूती ही रह गई है।" वह असत्ता की बाजू क्या है ? घट घट है, यह सत्ता की वाजू है, और घट पट नही, मुकुट नही, शकट नही, लकुट नही, कट नही, घट के सिवाय और कुछ भी नही, यह असत्ता की वाजू है। तात्पर्य यह है कि घट में घट से भिन्न जगत के समस्त पदार्थों की असत्ता रूप से जो वृत्ति है, वह भी घट का ही असत्ता रूप स्वभाव है । घटेतर पदार्थ अनन्त है, अतएव घट के असत्ता-धर्म भी अनन्त है। इन सद्भाव और अभाव रूप धर्मों को जान लेना ही घट को पूरी तरह ‘जान लेना कहलाता है। यह अनन्त धर्म ज्ञान के बिना नही जाने जा सकते । अतएव शास्त्र कहता है "जे एग जाणइ से सव्व जाणइ, जे सव्व जाणइ से एगं जाणइ।" जो एक पदार्थ को जानता है, वह सब को जान लेता है, और जो सव को जानता है, वही एक को जान सकता है । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान यद्यपि जगत् मे मूलभूत तत्व दो ही है । जीव-चेतनात्मक और अजीवअचेतनात्मक, किन्तु दोनों ही अपने अपने स्वभाव मे, गुणो मे और पर्यायो मे अनन्तता से सम्पन्न है। बात कठिन-सी मालूम होती है, मगर सत्य की आत्मा को पूरी तरह समझ लेना सरल नही है । फिर भी मनुष्य की दृष्टि सम्पन्न हो, तो दैनिक व्यवहार मे आने वाली वस्तुप्रो से भी वह बहुत कुछ सीख सकता है। ___ मिट्टी के एक कण को लीजिए। एक-एक कण मे अनन्त-अनन्त स्वभावोंका सम्मिश्रण है। उसका एक स्वरूप नही, एक आस्वाद नहीं, एक रग-रूप नही । एक फुट वर्गाकार भूखड मे किसान कभी कडवी तीखी और चरपरी मिर्च बोता है, कभी मधुर ईख बोता है, और कभी संतरे या नीबू का पेड लगाता है । यह सभी चीजे मिट्टी के उन कणों में से ही अपना-अपना पोषण, . स्वाद, रूप, रग, सब कुछ प्राप्त करती है । मिट्टी एक है । खाने मे चाहे मिट्टी का स्वाद मिट्टी जैसा है, किन्तु भिन्न बीजो की शक्ति, उसी मिट्टी मे से, अपनी अपनी शक्ति के अनुसार अपने स्वभावानुकूल अभीष्ट तत्व को खीच लेती है । ऐसी स्थिति मे अगर कोई कहता है कि मिट्टी कटुक ही है, तो उसका ऐसा कहना असत् व्याख्यान होगा, और यदि कोई यही गाठ बाप कर बैठ जाय कि मिट्टी में एक ही स्वाद होता है, और एक ही रग-रूप होता है, तो यह होगी अाग्रह की जडता। यद्यपि यह कथन तत्व के नाते सापेक्ष सत्या हो सकता है, तथापि गुण और पर्याय के नाते वह मिथ्या ही रहेगा। यह हुई जड पदार्थ की वात । अब एक चेतन पुरुष के विपय मे भी विचार कर लीजिए, एक ही पुरुष के कितने नाते होते है ? वह किसी का पिता, किसी का पुत्र, किसी का भाई, किसी का पति, श्वसुर, देवर, जेठ, मामा, भागिनेय, दादा और पोता होता है । न जाने कितने सम्बन्धो का अम्बार उस पर लदा है ? परिवार के बाहर वह दुकानदार है, ग्राहक है, साहूकार है, देनदार है, गुरु है, शिष्य है, किसी सस्था का मत्री, कोषाध्यक्ष और सभापति है । न जाने क्या-क्या है ? इस प्रकार एक पुरुष अनेक रूपो मे हमारे समक्ष आता है। यद्यपि पितृत्व और पुत्रत्व आदि धर्म परस्पर विरोधी जान पड़ते है। मगर अपेक्षा भेद उस विरोध का मथन कर देता है। अनेकान्त की खूबी ही यह है कि प्रतीत होने वाले विरोध का वह निवारण कर दे । तो जिस प्रकार एक पुरुष मे परस्पर विरुद्ध से प्रतीत होने वाले Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ जैन धर्म पितृत्व और पुत्रत्व आदि धर्म विभिन्न अपेक्षाग्रो से सुसंगत होते है, उसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ मे सत्ता-असत्ता, नित्यता-अनित्यता, एकता-अनेकता आदि धर्म भी विभिन्न अपेक्षाग्रो से सुसगत है, और उनमे कुछ भी विरोध नहीं है। इस तथ्य को समझ लेना ही अनेकान्तवाद को समझ लेना है। ___ तत्व की विचारणा और सत्य की गवेषणा में सर्वत्र अनेकान्त दृष्टि अपनाई जाय तो धार्मिक सघर्प, दार्शनिक विवाद, पंथों की चौकावंदी और सम्प्रदायो का कलह, मानव सस्कृति की आत्मा को आघात नही पहुचा सकता। इससे समत्वदर्शन की परम पूत प्रेरणा को बल मिलता है, और मनुष्य-दृष्टि उदार, विशाल और सत्योन्मुखी बनती है। समाज, नीति, कला और व्यापार के क्षेत्र मे और साथ ही घरेलू सम्बन्धो मे तो अनेकान्त को स्वीकार करती है। वह एक ऐसी अनिवार्य तत्व व्यवस्था है उसे स्वीकार किये बिना एक डग भी नही चला जा सकता । फिर भी विस्मय की बात है कि दार्शनिक जगत् उसे सर्वमान्य नहीं कर सका। दार्शनिको की इससे वडी दूसरी कोई दुर्बलता, और असफलता शायद नही हो सकती। __ कौन है जो पदार्थों का उपयोग करता हुअा, मिट्टी के नानात्व को स्वीकार न करता हो, एक ही मिट्टी घट, ईट, प्याला आदि नाना रूपो मे हमारे व्यवहारो मे आती है । अाम अपने जीवन काल में अनेक रूप पलटता रहता है। कभी कच्चा, कभी पक्का, कभी हरा और कभी पीला, कभी कठोर और कभी नरम, कभी खट्टा और कभी मीठा होता है। यह उसकी स्थूल अवस्थाएँ है । एक अवस्था नष्ट होकर दूसरी अवस्था की उत्पत्ति मे दीर्घ काल की अपेक्षा होती है । मगर उस बीच के दीर्घ काल मे क्या वह आम ज्यो का त्यो बना रहता है । और सहसा हरे से पीला तथा खट्टे से मीठा हो जाता है ? नही, ग्राम प्रतिक्षण अपनी अवस्थाए पलटता रहता है । मगर वे क्षण-क्षण पलटने वाली अवस्थाएं इतने सूक्ष्म अन्तर को लिए हुए होती है कि हमारी बुद्धि मे नही आती। जब वह अन्तर स्थूल हो जाता है तभी बुद्धि-ग्राह्य बनता है। इस प्रकार असख्य क्षणो में असख्य अवस्था-भेदो को धारण करने वाला आम आखिर तक आम ही बना रहता है। इस तथ्य को जैनदर्शन यो व्यक्त करता है कि-पदार्थ की मूल सत्ता ही, जो एक होने पर भी अनेक रूप धारण करती है, पदार्थ का मूल रूप हैद्रव्य है, और उसके क्षण-क्षण पलटने वाले रूप पर्याय है। उसका निष्कर्ष यह Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान १०५ निकला कि प्रत्येक पदार्थ के दो रूप है :- अन्तरग और बहिरंग । अन्तरग द्रव्य, और बहिरंग रूप पर्याय कहलाता है । पदार्थ का अन्तरंग रूप एक है, नित्य है, परिवर्तनशील है, और बहिरंग रूप अनेक, प्रनित्य और परिवर्तनशील है । द्रव्य परस्पर विरुद्ध श्रनन्त धर्मों का समन्वित पिण्ड है। चाहे वह जड हो या चेतन, सुक्ष्म हो या स्थूल, उसमें विरोधी धर्मों का अद्भुत सामंजस्य है । इसी सामजस्य पर पदार्थ की सत्ता टिकी है । ऐसी स्थिति मे वस्तु के किसी एक ही धर्म को अगीकार करके और दूसरे धर्मो का परित्याग करके वास्तविक वस्तु स्वरूप को ग्रांकने का प्रयत्न करना उपहासास्पद है, और अपूर्णता मे पूर्णता मानकर सन्तोष कर लेना प्रवचनामात्र है । अनेकान्तवादी का दृढ विश्वास है कि सत् का कभी नाग नही होता, और सत् की कभी उत्पत्ति नही होती । मिट्टी का मूल द्रव्य नवीन बनाया जा सकता है । हा, उसका रुपान्तर स्वतः भी और दूसरो के प्रयोग से भी होता रहता है । बस यही द्विविधात्मक पदार्थ की स्थिति है, जिसे ऐकान्तिक आग्रह से नही समझा जा सकता । अनन्त धर्मात्मक वस्तु के विचार मे उठे हुए अनेकविध दृष्टिकोणो को समुचित रूप से समन्वित करने की श्रावश्यकता होती है । उसी आवश्यकता ने नयवाद की विचार सरणि को प्रस्तुत किया है । स्याद्वाद पिछले प्रकरण मे ग्रनेकान्तवाद के विषय मे विचार किया गया है । पृथक्-पृथक् दृष्टिकोणो से वस्तु को समझना और एक ही वस्तु मे, विभिन्न दृष्टिकोणो से सगत होने वाले किन्तु परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनेक धर्मो को प्रामाणिक रूप से स्वीकार करना ग्रनेकान्तवाद है । साधारण तौर पर अनेकान्त सिद्धान्त ही स्याद्वाद कहलाता है, किन्तु वास्तव मे अनेकान्तसिद्धान्त को व्यक्त करने वाली सापेक्ष भाषापद्धति ही स्याद्वाद है । जब हम मान लेते है कि प्रत्येक वस्तु मे अनन्त धर्म विद्यमान है और उन समस्त धर्मों का अभिन्न समुदाय ही वस्तु है, तो उसे व्यक्त करने के लिए भाषा की भी आवश्यकता होती है । यह अनेकान्त की भाषा ही स्याद्वाद है । ' १ स्याद् इत्यव्ययम् अनेकान्त - द्योतकं, तत स्याद वाद अनेकान्तवादः । -- स्याद्वाद मञ्जरी, मल्लिषेणसूरि । met m Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन पर्म भापा शब्दों से बनती है, और शब्द धातुओ से बनते है । एक धातु भले ही मोटे तौर पर अनेकार्थक मानी जाती हो, परन्तु एक कात मे, और एक ही प्रसग मे, वह अनेक अर्थों का द्योतन नही कर सकती, अतएव उनसे बना एक शब्द भी एक ही धर्म का बोध कराता है। हमारे पास कोई एक गब्द नही, जो एक साथ अनेक धर्मो का प्रतिपादन कर सके । अतएव यह आवश्यक है कि वस्तु के अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मों का सापेक्षात्मक भापा से कथन किया जाय । 'घट है' कह कर हम घट के परिपूर्ण स्वरूप को व्यक्त नहीं कर सकत, क्योकि इस वाक्य द्वारा घट के केवल अस्तित्व धर्म का ही बोध होता है। घट मे अस्तित्व की तरह नास्तित्व आदि जो असख्य धर्म है, उनका इससे वोध नहीं होता । अतएव यह वाक्य घट की अधूरी जानकारी देता है । यही नही, घट मे जो अस्तित्व है, वह भी सर्वथा सत्य नही, किन्तु एक दृष्टिकोण से ही है । यह बात भी इस वाक्य से ध्वनित नही होती। प्रश्न होता है कि एक ही शब्द एक धर्म का बोधक होता है, किन्तु वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। उसका किसी भी एक शब्द द्वारा कथन नही किया जा सकता। ऐसी स्थिति मे दो ही बाते हो सकती है-या तो एक वस्तु को पूरी तरह कहने के लिए अनन्त शब्दो का प्रयोग किया जाय, अथवा मौन साधकर बैठा जाय । अनन्त शब्दो का प्रयोग करना सभव नहीं है, और मौन साध लेने से जगत् के सब व्यवहार ठप्प हो जाते है। फिर अपने अभिप्राय को प्रकट करने का मार्ग क्या है? __जैन दार्शनिको ने बहुत विस्तार से इस प्रश्न का उत्तर दिया है। यहाँ सक्षेप मे यही कहा जा सकता है कि-स्यादादी जव वस्तु का अस्तित्व प्रकट करता है तो वह केवल 'अस्ति' (है) न कह कर 'स्यादस्ति' कहता है । 'अस्ति' के साथ 'स्यात्' जोड देने से वस्तु मे रहे हुए नास्तित्व आदि का निपेध भी नही होता और अस्तित्व का विधान भी हो जाता है। 'स्याद्वाद' शब्द स्यात्' और 'वाद' इन दोनो शब्दो के मेल से बना है। 'स्यात्' एक अव्यय है, जिसका अर्थ है-"कथचित्"-किसी अपेक्षा, अथवा अमुक दृष्टिकोण से। कुछ लोगो को भ्रम है कि 'स्यात्' का अर्थ 'शायद' है और इस कारण स्याद्वाद सशयवाद है। मगर यह उनका भ्रम है। 'स्याद्वाद' मे जो कुछ है, 'निश्चित' है । "यह पिता है अथवा पुत्र है" इस प्रकार अनिर्णीत ज्ञान सशय कहलाता है, मगर “यह व्यक्ति अपने पिता कर्मचन्द की अपेक्षा से Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान १०७ पुत्र है, और अपने पुत्र देवदास की अपेक्षा से पिता है" इस प्रकार सापेक्ष कथन म सराय के लिए कोई अवकाश नही है। प्रत्येक वस्तु में अपने निज के स्वरूप से सत्ता है तो पर के रूप से असत्ता भी है । "घट घट है', यह जितना सत्य है उतना ही सत्य यह भी है कि 'घट पट नहीं है।' यहां जैसे घटविषयक अस्तित्व घट का ही स्वरूप है, उसी प्रकार पट विषयक नास्तित्व भी घट का ही स्वरूप है अतएव प्रत्येक पदार्थ सत्-असत् रूप है। जी प्रकार घट न एकान्त रूप से नित्य है, और न एकान्त रूप से अनित्य है। द्रव्य के लिहाज से नित्य है, तो पर्याय के लिहाज से अनित्य है।' इस प्रकार वस्तु मे जितने भी धर्म है, सव सापेक्ष है । जिस अपेक्षा से जिस धर्म का विधान किया जाता है, उसी अपेक्षा को सूचित करने के लिए 'स्यात्' गब्द का प्रयोग किया जाता है। इम छोटे-से "स्यात्" अव्यय मे अद्भुत चमत्कार भरा है। यह समस्त विरोधियो को नष्ट कर देता है, और हमें सम्पूर्ण सत्य की झाकी दिलाता है। तात्पर्य यह है कि अनेकान्तात्मक वस्तु के अनेकान्त स्वरूप को प्रकट करने के लिए "स्यात्" शब्द प्रयुक्त किया जाता है। जब हम वस्तु को नित्य कहते है तो हमे किसी ऐसे शब्द का प्रयोग करना चाहिए, जिससे उसमे रही हुई अनित्यता का निषेध न हो जाय । इसी प्रकार जब “अनित्य'' कहते है तब भी ऐसे शब्द का प्रयोग करना उचित है जिससे नित्यता का विरोध न हो जाय । यही बात अन्य धर्मो-सत्ता, असत्ता, एकत्व, अनेकत्व आदि-का कथन करते समय भी समझनी चाहिए । सस्कृत भाषा में ऐसा शब्द "स्यात्" है । "कथचित्" शब्द का भी उसके स्थान पर प्रयोग होता है। किसी भी प्रश्न का उत्तर "हा" या "ना" मे दिया जाता है । इन्ही दोनो के आधार पर सप्तभंगी योजना हुई है । वह सात भग यह है -- १ अस्ति-(है) १ नत्यि जीवा अजीवा वा, णेव सन्नं निवेसए । अस्थि जीवा अजीवा वा, एवं सन्न निवेसए । --सूत्रकृताग, अ० २, ५, १२, १३ । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ जैन धर्म २. नास्ति-(नही है) ३. अस्तिनास्ति-(है, नही है) ४. अवक्तव्य-(नही कहा जा सकता) ५ अस्ति अवक्तव्य-(है, नही कहा जा सकता) ६. नास्ति अवक्तव्य-(-नही है, नही कहा जा सकता) ७. अस्ति, नास्ति अवक्तव्य-(-नही है, अवक्तव्य है) १. स्यादस्ति --प्रत्येक वस्तु अपने द्रव्य, अपने क्षेत्र, अपने काल, और अपने भाव से है। २. स्यान्नास्ति-प्रत्येक वस्तु पर द्रव्य, परक्षेत्र, परकाल और परभाव से नहीं है। इन दोनो भगो का आशय यह है कि घट (और समस्त पदार्थ) है तो, अवश्य, परन्तु वह घट मिट्टी द्रव्य की अपेक्षा से है, जिस जगह है उसी जगह है, जिस काल मे है, उसी काल की अपेक्षा से है और अपने स्वरूप से है । वह घट परद्रव्य से नही है' अर्थात् वह सुवर्ण द्रव्य की अपेक्षा नहीं है—सोने का नही है, जहा है उसके सिवाय दूसरी जगह नही है, जिस काल मे है, उससे भिन्न काल में नही है, और जिस रूप में है, उससे भिन्न रूप मे नही है। यह दो भग ही अगले पाचो भगो के आधार है। इन्ही के सम्मिश्रण से उनका निर्माण हुआ है। ३ स्यात्, अस्तिनास्ति ---इस भग के द्वारा वस्तु का उभयमुखी कथन किया जाता है, अर्थात् यह प्रकट किया जाता है कि वस्तु क्या है, और क्या नही है ? प्रथम भग केवल अस्तित्व का और दूसरा भग केवल नास्तित्व का विवान करता है, जब कि यह भग दोनो का विधान करता है। ४ स्यात्, अवक्तव्य --प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक होने से सदा अवक्तव्य है । उसका परिपूर्ण स्वरूप किसी भी गव्द द्वारा व्यक्त नही किया जा सकता। किसी शब्द मे सामर्थ्य नही जो अनन्त धर्मो का कथन कर सके। १ अप्पणो आदिठे आया, परस्स आदिठे णो आया । भगवती, श० १२, उ० १०, पा० १०॥ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्याज्ञान १०९ यही नहीं, पहले और दूसरे भंग मे जिन अस्तित्व और नास्तित्व का विधान किया है, उनका भी एक साथ कयन नही हो सकता। यही बतलाने के लिए चौथा भंग है। ५. अस्ति, अवक्तव्य --स्वरूप से सत् होने पर भी वस्तु समग्र रूप से अवक्तव्य है। ६ नास्ति अवक्तव्य-पर रूप ने असत् होते हुए भी वस्तु समग्र रूप में प्रवक्तव्य है। ७ अस्तिनास्ति, अवक्तव्य ---स्वरूप से सत् और पररूप से असत् होने पर भी वस्तु समग्र रूप में अवक्तव्य है। इस विषय को व्यावहारिक पद्धति से समझने के लिए एक स्थूल उदाहरण दिया जाता है। आप किसी रोगी की हालत पूछने के लिए गए। आपने पूछा "रोगी का क्या हाल है ?" इस प्रश्न का उत्तर सात विकल्पो (भंगो) मे यो दिया जा सकता है :-- १ स्वास्थ्य ठीक है (अस्ति)। २. अभी अवस्था ठीक नहीं (नास्ति)। ३. कल से अव ठीक है, तो भी भय से मुक्त नही (अस्तिनास्ति)। ४. कुछ कहा नही जा सकता कि हालत ठीक है, या नही (अवक्तव्य)। ५. हालत कुछ ठीक है; परन्तु कहा नही जा सकता कि आखिर क्या होगा? (अस्ति अवक्तव्य)। ६ हालत ठीक नही, नही कहा जा सकता कि आखिर क्या होगा (नास्ति अवक्तव्य) । ७ हालत कल से ठीक है, फिर भी ठीक नही कही जा सकती। नही कह सकते आखिर क्या होगा ? (अस्तिनास्ति अवक्तव्य)। इस प्रकार वस्तु मे रहे हुए प्रत्येक धर्म का सात प्रकार से कथन हो सकता है । जैसे अस्तित्व धर्म के सात भग ऊपर वतलाए गए है, उसी प्रकार नित्यत्व, एकत्व आदि धर्मों को लेकर भी होते है। पूर्वोक्त रीति से उन्हे समझा जा सकता है। विश्व की विचारधाराए एकान्त के कीचड मे फसी है । कोई वस्तु को एकान्त नित्य मानकर चल पड़ा है तो दूसरा एकान्त अनित्यता का समर्थन Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० जैन धर्म कर रहा है। कोई इससे आगे बढा भी तो उसने वस्तु के नित्यानित्य स्वरूप को गडवड़झाला समझ कर अव्याकृत या अवक्तव्य कह कर पिण्ड छुडा लिया फिर भी इन सब ने अपने मन्तव्य की पूर्ण सत्यता पर बल दिया, यही संघर्ष का कारण बना। जैन दर्शन अनेकान्त के रूप मे तत्वज्ञान की यथार्थ दृष्टि प्रदान कर एक ओर सत्य का दिग्दर्शन करता है, तो दूसरी ओर दार्शनिक जगत् मे समन्वय के लिए सुन्दर आधार तैयार करता है। स्याद्वाद जैन दर्शन का प्राण है और उसके प्रत्येक विधान मे स्याद्वाद का पुट रहता है' सूत्रकृताग सूत्र मे निर्देश किया गया है कि साधु को विभज्यवाद का प्रयोग करना चाहिए, अर्थात् स्याद्वाद पद्धति का अवलम्बन लेना चाहिए । भगवान् महावीर ने चौदह प्रग्नो के उत्तर, जिन्हे बुद्ध "अव्याकृत” कहते थे, और उपनिषदो के रहस्यपूर्ण गूढप्रश्नो के उत्तर, स्याद्वाद पद्धति का अवलम्बन करके दिये है। भाषा नीति-निक्षेप विधान जगत् के व्यवहार और ज्ञान के आदान-प्रदान का मुख्य साधन भाषा है। भाषा के विना मनुष्यो का व्यवहार नहीं चल सकता और न विचारों का आदान-प्रदान हो सकता है। मनुप्य के पास अगर व्यक्त भाषा का साधन न होता तो उसे आज जो सभ्यता, संस्कृति और तत्वज्ञान की अमूल्य निधि प्राप्त हुई है, उसकी कल्पना करना भी अशक्य होता व मनुष्य और पशु मे अधिक अन्तर न रह जाता। भाषा केवल बोलने का ही साधन नही, अपितु विचार करने का भी माध्यम है । जन्मगत परिपुष्ट भाषा, जो हमारे अन्त करण मे सुदृढता से स्थित हो जाती है, उसी मे हम चिन्तन-मनन करते है । भापा का शरीर वाक्यो से निर्मित होता है और वाक्य शब्दो से । प्रत्येक गब्द के अनेक अर्थ हो सकते है। प्रत्येक स्थान पर प्रयुक्त हुआ शब्द, प्रसंग, आगय, विषय, स्थान, अवसर और वातावरण के अनुसार कितने ही प्रकार के अभिप्रायो को अभिव्यक्त करता है। अतएव शब्द के मूल और उचित अर्थ १. स्याद्वाद मंजरी, कारिका, ५। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान को जानने के ढंग जैनागमों में निश्चित किये गये है । शब्दो की मार्मिकता, लामणिकता, प्रांजलता और अभिव्यजनागक्ति का विस्तृत विवेचन व्याकरण और साहित्य विषयक ग्रन्यो में उपलब्ध होता है। गन्द द्वारा प्रतिपाद्य अर्य का ठीक तरह कैसे ज्ञान किया जाय, इसके लिए जैनधर्म में निक्षेप का विधान किया गया है। निक्षेप का सामान्य अर्थ है-निक्षेपण करना, या रखना। भगवान् महावीर कहते है कि शब्द के विवक्षित अर्य को जानने के लिए अनेको प्रकार के निक्षेपो का विधान हो सकता है, किन्तु कम-से-कम चार निक्षेपो से काम चल सकता है, क्योकि, प्रत्येक गन्द कम-ने-कम चार अर्थों मे तो प्रयुक्त होता ही है । वक्ता या लेखक, शब्द को प्रायः चार प्रकार के अर्थो के लिए प्रयुक्त करता है-नाम, स्थापना, द्रव्य अथवा भाव' । इन चार अर्थों मे से गब्द को वक्ता द्वारा विवक्षित अर्यों मे निक्षेपण करना ही निक्षेप कहलाता है । भाषा के प्रत्येक शब्द पर उन्हे घटित किया जा सकता है यहा "राजा" शब्द को ही लीजिए। १. नामनिक्षेपः-माता-पिता ने अपने पुत्र का नाम "राजा" रख दिया । वास्तव में वह राज्य का उपभोग नहीं करता, यहा तक कि राजतत्र का विरोधी है, उसमे राजा के योग्य गुण भी नही है, फिर भी वह राजा कहलाता है। ऐसे व्यक्ति को जब राजा कहा जाता है तो वह नाम निक्षेप से राजा कहलाता है। नामनिक्षेप मे वस्तु के गुण-धर्म का विचार नही किया जाता, केवल लोकव्यवहार की सुविधा के लिए गब्द रूढ कर लिया जाता है। इस कारण "राजा" नाम वाला पुरुष राजा शब्द के पर्यायवाचक नृपति, भूपति, नरेश आदि शब्दो द्वारा अभिहित नहीं किया जाता । नाम-गब्द तीन प्रकार के होते है -- १ यथार्थ नाम, जैसे जल मे उत्पन्न होने के कारण 'जलज' चैतन्यवान होने के कारण 'चेतन' आदि नाम । २ अयथार्थ-जैसे अन्धे का नाम नयन सुख अथवा हीराचन्द, मोतीचन्द आदि। १. अनुयोगद्वार सूत्र, सूत्र ८, तत्वार्थसूत्र अ० १, ५, Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म ३ अर्य शून्य नाम, जैसे वाद्यध्वनि, खासी, छोक आदि । २. स्थापनानिक्षेप - - किसी वस्तु म ग्रन्य वस्तु का प्रारोप करना स्थापनानिक्षेप है । जैसे—- राजा की मूर्ति या उसका चित्र भी राजा कहलाता है । यद्यपि उम मूर्ति या चित्र मे राजा का कोई गुण नही है, तथापि उसमे राजा का आरोप किया जाता है जब कोई राजा की मूर्ति को राजा कहता है तो समझना चाहिए कि वह स्थापना निक्षेप है । ११२ स्थापनानिक्षेप के लिए प्राचीन युग मे काष्ठ, मृत्तिका, वस्त्र, प्रस्तर पत्र आदि पर चित्र बना कर ग्रथवा अन्य प्रकार से किसी एक वस्तु मे दूसरी वस्तु का आरोप किया जाता था । ग्राज भी मूर्ति या स्टैचू आदि वनाये जाते है । ३ द्रव्यनिक्षेपः -- जो पहले राजा था, अथवा भविष्य मे राजा वनने वाला है, वर्तमान मे नही है, उसे भी राजा गव्द से व्यवहृत किया जाता है । इस प्रकार भूतकालीन या भविष्यत्कालीन पर्याय का वर्तमान मे आरोप करना द्रव्यनिक्षेप कहलाता है । ४ भावनिक्षेपः -- जो मनुष्य राज्य कर रहा है, वह भी राजा कहलाता है | इस प्रकार वर्तमान पर्याय को लक्ष्य में रखकर जव शब्द का प्रयोग किया जाता है, तो उसे भावनिक्षेप कहते हैं । जब व्युत्पत्तिनिमित्त अथवा प्रवृत्तिनिमित्त से वर्तमान में पूरा अर्थ घटित होता है, तभी वह भावनिक्षेप कहा जा सकता है । प्रकृत प्रस्तुत और अविवक्षित अर्थ का निराकरण करके प्रकृत प्रस्तुत, और विवक्षित अर्थ का विधान करना निक्षेपविधि का प्रयोजन है । जहा कही, “महावीर” शब्द ग्राया कि श्राप भगवान् महावीर को ही समझ ले तो बहुत बार अनर्थ होने की सम्भावना है । इस अनर्थ से बचने के लिए अगर ग्राप निक्षेपविधि से " महावीर" शब्द का विश्लेषण कर डालें, और समझ लें कि वक्ता का नाम - महावीर, स्थापना - महावीर, द्रव्य महावीर, और भाव महावीर मे से किस महावीर से अभिप्राय है, तो श्राप सही अभिप्राय समझ सकेगे, और अनर्थ से वच जाएगे। इसी उद्देश्य से जैन शास्त्रो मे निक्षेपों का विधान किया गया है । स्मरण रहे कि चारो निक्षेपो मे से भावनिक्षेप को ही महत्वपूर्ण एवं सार्थक स्वीकार किया गया है । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ....००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००००० एगप्प अजिए सत्तू कसाया इन्दियाणि य । ते जिणित्ता जहा नायं, विहरामि अहं सुणी ।। मनो साहस्सिओ भीमो, दुस्सो परिधावई । तं सम्मं तु निगिण्हामि धम्म सिक्खाइ कन्यगं ।। --उत्तराध्ययन अ० २३, गा० ३८-५८ । .०००००००००००००००००००००००००...........................००००००००००० हे महा मुने ! मन एक दुर्जय शत्रु है, क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कपाय तथा श्रोत, चक्षु, प्राण, रस और स्पर्श ये पाञ्चो इन्द्रिया मिलकर दस शत्रु बनते है । इन्हे मैने ठीक रूप से जीत लिया है अत. आनन्द मे विचरता हूँ। ००००००...०००००००००००.....००००००००.००.............००.००००००००.... हे साधक | मन बहुत ही साहसिक, रौद्र और दुष्ट अव है, जो चारो ओर दौड़ता है। मै इस अश्व को धर्म शिक्षा द्वारा अन्छी तरह काबू करता हूँ। ....000000०.००००००००००००००००००००....००००............०००००००० मनोविज्ञान Page #132 --------------------------------------------------------------------------  Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविज्ञान इन्द्रियां प्राणी काम और भोग का आयतन है । काम मूर्त और ग्ररूपी है, किन्तु भोग, रूपी और ग्ररूपी दोनो प्रकार का होता है । काम, कामना और स्पृहा का अस्तित्व जीव में ही उपलब्ध होता है । जड से जीव की भिन्नता काम से भी पाई जाती है, क्योकि काम का अस्तित्व जीव में ही है, अजीव मे नही होता । जीव ही कामी और भोगी बन सकता है, अजीव नही । काम के दो रूप हैं, रूप और शब्द । मनोज रूप और मधुर शब्दो की लालसा ही काम है । यद्यपि रूप श्रौर शब्द दोनो ही पौद्गलिक परिवर्तित पर्याय है, और भोग तीन प्रकार का होता है । १ गध, २ रस, ३ स्पर्श । काम और भोग मे सबसे बडा अन्तर यह है कि भोग सयोग की अपेक्षा रखता है । गध, रस और स्पर्श के सयोग हुए बिना भोग का कारण नही बन सकते, किन्तु रूप और शब्द मे सयोग की अधिक अपेक्षा नही रहती । यद्यपि शास्त्रकारो ने शब्द को भी भोग के अन्दर ही गिना है, क्योकि शब्दो का सयोग कर्णेन्द्रिय के साथ हुए बिना शब्द का आनन्द नही लिया जा सकता, किन्तु सूक्ष्मता के कारण उसे काम मे भी गिन लिया जाता है । हा, पाचो इन्द्रियो मे से नेत्र इन्द्रिय को कुछ भिन्न प्रकार का माना गया है, क्योकि नेत्र वस्तु के ससर्ग Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ जैन धर्म की अपेक्षा प्रकाश तया रग के सहारे ही वस्तु-दर्शन की ज्ञानानुभूति कर । लेती है। काम भोग केवल पाँच ही प्रकार का है, अतः इन्ह ही पॉच इन्द्रिया कहा जाता है । यद्यपि वैदिक साहित्य मे पाँच ज्ञानेन्द्रिय और पाँच कर्मेन्द्रिय रूप से इन्द्रियो के दश भेद माने गए है, और वौद्ध साहित्य मे इन्द्रियों के २२ भेद गिनाए गए है, किन्तु जैन धर्म इन सभी प्रकार के इन्द्रिय भेदो का पाँचों इन्द्रियो मे समावेश कर देता है। जैसे कि पाँचो कर्मेन्द्रियो को, (वाक्, पाणि, पाद पायु और उपस्थ) स्पर्शेन्द्रिय का ही अवान्तर भेद मान लिया गया है, क्योकि इन का मूलाधार त्वम् इन्द्रिय माना गया है। त्वचा ज्ञान तन्तु अर्थात् छोटे-छोटे छिद्र स्पर्श का सवेदन करते है, और छिद्रो तथा रोम कूपो के द्वारा त्वचा के ज्ञान तन्तु वस्तु के स्पर्श का अनुभव कर लेते ह । अत. वाक-पाणि आदि शरीर के अवयवो को पृथक् इन्द्रिय मानने की आवश्यकता नहीं रहती। इन्द्रियो का द्रव्यरूप मूर्त है, और आत्मा सर्वथा अमूर्त । अमूर्त होने के कारण हमे आत्मा की साक्षात् उपलब्धि नहीं होती। फिर भी जिन साधनो से हम प्रात्ना को जानते है, वही साधन 'इन्द्रियाँ' है। 'एक गरीर को देखते ही हम पहचान लेते है कि यह निर्जीव है, और दूसरे पर दृष्टि पडते ही हमे जान हो जाता है कि यह सजीव है । निर्जीव कलेवर मे भी इन्द्रियाँ बनी होती है, मगर वे अपना कार्य नही करती, जब कि सजीव शरीर मे सव इन्द्रियाँ अपना-अपना कार्य करती रहती है। कान सुनते है, आँख देखती है, नाक सूंघती है, हाथ-पैर हिलते है। इन्द्रियो का यह व्यापार आत्मा के अस्तित्व का परिचायक है। इन्द्रियाँ आत्मा के अस्तित्व की परिचायक नही, आत्मा के द्वारा होने वाले मवेदन का साधन भी है। यद्यपि आत्मा स्वभावत अनन्त ज्ञान दर्शनपुज है, तयापि यावरणो के कारण इतना निर्बल बन गया है कि उसे इन्द्रियो का अवलम्बन लेना पड़ता है। अतएव आत्मा की रूपादिविषयक उपलब्धि का साधन भी इन्द्रियाँ ही है। 'इन्द्रियाँ पॉत्र ह-(१) श्रोत्र, (२) चक्षु, (३) घ्राण, (४) रमना और (५) स्पर्शन । - - - - १. नन्दिसूत्र, सूत्र ३०, स्थानांग सूत्र, स्था० ५। Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविज्ञान ११७ जैन तर्कशास्त्र मे इन्द्रियो की न्यूनाधिक संख्या का निरसन किया गया है, और भली-भाँति सिद्ध किया गया है कि यह पाँचो इन्द्रियाँ परस्पर कथचित् भिन्न-भिन्न है, और आत्मा के साथ भी इनका कथचिन् भेद और अभेद ही है ।। पाचो इन्द्रिया दो-दो प्रकार की है '-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय । इन्द्रियो का बाह्य पौद्गलिक रूप द्रव्येन्द्रिय कहलाता है, और आन्तरिक चिन्मय रूप भावेन्द्रिय। द्रव्येन्द्रिय के भी दो भाग है २ 'निवृत्ति' अर्थात् इन्द्रियो की विविध आकार की रचना, और 'उपकरण' अर्थात् संवेदन मे सहायक स्वच्छ पुद्गलो की शक्ति । यो तो जैनाचार्यों ने इन्द्रियो के सम्बन्ध मे भी काफी गहन विचार प्रदर्शित किए है और निवृत्ति-इन्द्रिय का भी बाह्य निवृत्ति और प्रान्तरिक निवृत्ति के रूप में विश्लेपण किया है, परन्तु हम यहाँ उस गहराई में नहीं उतरना चाहते। आत्मा की संवेदनात्मक शक्ति और सवेदना का व्यापार भावेन्द्रिय हैं, जिसे क्रमशः लब्धि और उपयोग का नाम दिया गया है। आवरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाली शक्ति लव्धि भावेन्द्रिय है, और उस शक्ति का व्यापृत होना उपयोगभावेन्द्रिय है। नेत्र इन्द्रिय अन्य इन्द्रियो से कुछ भिन्न प्रकार की है। चार इन्द्रियाँ वाह्य पदार्थों के अर्थात् अपने-अपने विषय के ससर्ग से उत्तेजित होकर अपने ग्राह्य विषय को ग्रहण करती है, किन्तु नेत्र को ससर्ग की अावश्यकता नही होती। वह प्रकाश एव रग के आधार से ही सवेदन करती है । इस प्रकार चार इन्द्रियाँ 'प्राप्यकारी' और चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी है । इन्द्रियो के विषय--"श्रोत्रेन्द्रिय का विषय शब्द है। शब्द तीन प्रकार का माना गया है--जीव का गब्द, अजीव का शब्द और मिश्रशब्द । शब्द एक प्रकार के पुद्गल परमाणुप्रो का कार्य है। वह परमाणु १. प्रज्ञापनासूत्र इन्द्रियपद १५वा । २ प्रज्ञापना, इन्द्रियपद १५वा । ३ प्रज्ञापना सूत्र, इन्द्रियपद, १५वा । ४ तत्वार्थ सूत्र, १११९ । ५ प्रज्ञापना सूत्र, इन्द्रियपद १११९ । ६ प्रज्ञापना सूत्र भाषापद १११९ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जैन धर्म सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। जव वक्ता बोलता है, तो वे पुद्गल शव्द रूप मे परिणत हो जाते है और एक ही समय मे लोक अन्तिम छोर तक पहुँच जाते है। उसकी गति का वेग हमारी कल्पना से भी बाहर है। जमीन पर वनी पगडडियो की तरह आकाश मे भी श्रेणिया है, जो पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा ऊपर और नीचे की ओर फैली है। वक्ता द्वारा प्रयुक्त गब्द इन श्रेणी रूप मागों से फैलता है। श्रोता यदि समश्रेणी मे स्थित हो तो भी वह कोरे वक्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द नही सुनता, बल्कि वक्ता द्वारा प्रयुक्त शब्द-द्रव्यो तथा उन शब्दद्रव्यो से वासित हुए बीच के गब्द द्रव्यो के संघर्ष से उत्पन्न मिश्रशब्दो को सुनता है । भिन्न श्रेणी मे स्थित श्रोता मिश्र शब्द भी नही सुन पाता । वह उच्चारित मूल गब्दो द्वारा वासित गब्द ही सुन सकता है। वक्ता द्वारा उच्चारित या भेरी अादि से उत्पन्न शब्दो के संघर्ष से बीच मे स्थित भापावर्गणा के पुद्गल गव्द रूप में परिणत हो जाते है । वे वासित गब्द कहलाते है। विश्रेणी में दूसरे-तीसरे समय मे ही शब्द सुनाई देता है पर जैन मान्यता के अनुसार बोला हुया गन्द दूसरे समय मे सुनने योग्य नहीं रह जाता । इससे अनुमान होता है कि विश्रेणी मे सुनाई देने वाले शब्द वक्ता द्वारा उच्चारित मूल गब्द नहीं है, वरन् उस गव्द द्वारा वे शब्द रूप में परिणत किए हुए दूसरे ही शब्द है। जल मे पत्थर डालने से एक लहर उत्पन्न होती है। वह लहर अन्य लहरो को उत्पन्न करती हुई जलागय के अन्त तक जा पहुँचती है। इसी प्रकार वक्ता द्वारा प्रयुक्त भापाद्रव्य अग्रसर होता हुआ आकाश मे स्थित अन्यान्य भापायोग्य पुद्गलो को भापा के रूप में परिणत करता हुआ लोकान्त तक चला जाता है। लोकान्त में पहुंचते ही उसकी श्राव्य-शक्ति समाप्त हो जाती है। परन्तु अन्यान्य भापाद्रव्यो को शब्द रूप में परिणत कर देता है और वे नवीन उत्पन्न हुए शब्द, मूल तथा मिश्र गब्दो की प्रेरणा से गतिमान् होकर विश्रेणियों की पोर अग्रसर होते है । इस प्रकार सिर्फ चार समयो मे सम्पूर्ण नोकाकाग उन गब्दो में व्याप्त हो जाता है। (विशेप जानकारी के लिए दैनिए-प्रजापना मूत्र, भापापद) । ता इन्द्रिय का विषय रूप है। रूप काला, नीला, पीला, लाल और स्नेत--पान मार है। शेष नव रूप इन्ही के मम्मिश्रण के परिणाम है । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविज्ञान गधमवेदन का अनुभव नासिका द्वारा प्राप्त होता है। जब वायु के माय रासायनिक गंध कण नासिका में प्रविष्ट होते है तो वह घ्राण के रोम कृपो को उत्तेजित करते है। उनकी उत्तेजना से प्रात्मा को प्राण अनुभव होता है । यदि नासिका के दोनो पुट बद कर दिये जाए, तो गव की अनुभूति नही होती, इससे साफ जाहिर है कि आत्मा को गध सवेदन घाण द्वारा ही होता है । यद्यपि गवसंवेदन अनेक प्रकार के होते है तथापि उन सब का समावेश सुगध और दुर्गध में ही हो जाता है। रस का सवेदन रसना से होता है। रसना या जीभ तरल पदार्थ अथवा लार-मिश्रित पदार्थ के सम्पक से जव उत्तेजित हो उठती है, तभी वह अपने ज्ञानतनुप्रो द्वारा रस-सवेदना उत्पन्न करती है। रस पाच प्रकार का है । अम्ल, मधुर, कटुक, कषायला और तीक्ष्ण । अतएव रस-मवेदन भी पाच ही प्रकार का माना गया है । स्पर्शानुभूति मे स्पर्शन इन्द्रिय निमित्त होती है स्पर्शेन्द्रिय का द्रव्यरूप समग्र त्वचा है । आठ प्रकार के स्पर्ग ही इस इन्द्रिय के विषय है, जो इस प्रकार है--उष्ण, रूक्ष गीत, चिक्कण, हल्का, भारी, कर्कश और कोमल । मन मानव जीवन मे मन का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आत्मा के उत्थान और पतन का भी वह प्रधान कारण है। इसीलिए विभिन्न आध्यात्मिक परम्पराए भी एक स्वर से मनोविजय की अनिवार्य आवश्यकता उद्घोषित करती है, और साथ ही मनोविजय को दुश्शक्य कार्य स्वीकार करती है । गीता में श्रीकृष्ण स्वीकार करते है कि मन बडा वलशाली है, और जैसे हवा पर काबू पाना सरल नही, उसी प्रकार मन पर काबू पाना भी हसी-खेल नही । उत्तराध्ययन, अध्याय २३, गाथा ५८ मे इन्द्रभूति गौतम जैसे महाश्रमण भी मन को साहसी, भयानक और दुष्ट अश्व के समान बतलाकर वही बात कहते है । वास्तव में मन बडा जबर्दस्त है । वह बडे-बडे योगियो को भी ऐसा नाच नचाता है, जैसे मदारी बन्दर को। कितने ही साधक मन पर नियत्रण पाने के लिए अरण्यवास अगीकार करते है, परन्तु मन क्षण भर मे उन्हे विलासमय राजप्रासाद मे लाकर खडा कर देता है, और अरण्य मे साधक का सिर्फ कलेवर ही रह जाता है । कोई-कोई साधक उसे जीतने के लिए कटकशय्या अगीकार करते है, परन्तु मन उन्हे सुखद और सुकोमल सेज पर पौढा देता है । कटक Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैन धर्म शय्या पर उनकी लाश ही धरी रहती है। साधक चाहता है कि मै साम्यभाव के सरोवर मे अवगाहन करू, मगर मन उसे राग-द्वेप के कीचड मे फसा देता है । __ मन मे अद्भुत मोहिनी शक्ति है। जो उसे नियत्रित करना चाहता है, उसी को वह अपने नियत्रण मे ले लेता है, और उस पर मनचाहा शासन करता है। इस प्रकार मन अपरिमित बलशाली है। फिर भी गौतम स्वामी कहते है-'मन दुर्जय होने पर भी अजेय नही। वह धर्मशिक्षामो के प्रयोग द्वारा जीता जा सकता है। शास्त्र मे वैराग्य और अभ्यास के द्वारा उसके विजय की शक्यता स्वीकार की है। प्रश्न होता है-'जिसके सामने बड़े-बड़े पहुचे हुए योगी भी नतमस्तक हो जाते है, और हार मान बैठते है, परन्तु जिस पर विजय प्राप्त किये विना साधक की गाड़ी-अगाड़ी नही बढ सकती, वह मन क्या है ?' इन्द्रियो की भाति मन भी आत्मा के सवेदन का एक साधन है। पर वह इन्द्रिय नही, अनिन्द्रिय अथवा नोइन्द्रिय कहलाता है। इन्द्रिया अपने-अपने नियत विषय को गोचर करती है, जैसे श्रोत्र शब्द सुनता है, आख रूप को ही और नाक गध को ही ग्रहण करती है, परन्तु मन सर्वार्थग्राहक है । वह रूप, रस, गध, स्पर्श, शब्द आदि सभी विषयो में और साथ ही अमूर्त पदार्थों मे भी प्रवृत्ति करता है। इन्द्रियो द्वारा सीमित क्षेत्र में ही विषय की उपलब्धि हो सकती है, परन्तु मन के लिए क्षेत्र की कोई मर्यादा नियत नहीं है। वह क्षण भर मे स्वर्ग, नरक आदि अखिल विश्व का चक्कर काट आता है। भगवान् महावीर ने कहा-'हे मौतम ! मन जड़ भी है और चेतन भी है। मन के दो रूप है-पौद्गलिक और चैतन्यमय । पौद्गलिक मन द्रव्यमन कहलाता है, और चैतन्यमय मन भावमन । द्रव्य मन विचार करने में सहायक होने वाले विशेष प्रकार के पुद्गल परमाणुओ की रचना-विशेष है, और उन परमाणुओ मे प्रवाहित होने वाली आत्मा की चैतन्यधारा भाव मन कहलाती है। अर्थात् मनोवर्गणा के पुद्गलो से बना हुआ तत्वविशेष द्रव्य मन है, और आत्मा की चिन्तन-मनन रूप शक्ति भावमन है। द्रव्यमन और भावमन दोनो मिलकर ही अपना चिन्तन कार्य सम्पन्न कर सकते है । विचार करना, स्मरण करना, सोचना, योजना करना, इच्छा करना, स्नेह करना, घृणा करना, मनन-चिन्तन और विश्लेषण आदि करना, ये सब मानसिक व्यापार है, और उभयात्मक मन की सहायता से ही यह सम्पन्न होते है । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविज्ञान १२१ जैनागमों में मन के आधार पर भी प्राणियों का अमनस्क (असज्ञी) और समनस्क (संजी) के रूप मे वर्गीकरण किया गया है।' ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेपणा, चिन्ता और विमर्श करने की योग्यता जिसमे होती है उसे शास्त्रकार संजी कहते है, और इनके अभाव मे जीव को असंज्ञी कहा जाता है। एक इन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय वाले सभी जीव अमनस्क होते हैं । पचेन्द्रिय जीवो मे कोई-कोई समनस्क, और कोई-कोई अमनस्क होते है । यहा यह स्मरणीय है कि भावमन अात्मा की ही एक गक्ति होने के कारण सभी प्राणियों को प्राप्त रहता है, मगर द्रव्यमन के अभाव मे उसका उपयोग नहीं हो सकता। भावमन को अगर विद्युत् मान लिया जाय, तो द्रव्यमन को विजली का लटू माना जा सकता है। विद्युत् का संचार होनेपर भी जैसे लटू के अभाव मे प्रकाश नहीं होता, उमी प्रकार भावमन की विद्यमानता मे भी द्रव्यमन के अभाव मे चिन्तन प्रादि मनोव्यापार नही होते । शरीर का राजा, और आत्मा का मत्री होने के कारण मन कभी-कभी आत्मा को मोह मे फमा लेता है, और इधर-उधर भटकाता है, मगर वही मन जब वशीभूत हो जाता है, तो एकाग्रता के लाभ में सहायक बनता है तथा मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का कारण बन जाता है। जैसा कि उत्तराध्ययन में कहा है, 'मन को वशीभूत करने लिए धर्मशिक्षा की आवश्यकता है।' गीता कथित 'अभ्यास और वैराग्य' भी इसी के अन्तर्गत है। 'मन का निग्रह करने से क्या लाभ होता है ?' गौतम स्वामी के इस प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् महावीर ने कहा था----मनोनिग्रह से पाचो इन्द्रिया वशीभूत हो जाती है, विषय वासना का उन्मूलन हो जाता है, और चंचलता नष्ट हो जाती है । मनोविजेता मुमुक्षु को एकान्तसमाधि अथवा एकाग्रता का अपूर्व लाभ होता है। लेश्या भारतीय तत्त्वगवेपकों ने मनोविज्ञान का--मानसिक विचारो, परिणामो, वृत्तियो और चचलतापो का बहुत ऊचे धरातल पर सर्वाङ्गीण विश्लेषण किया १ नन्दि सूत्र, सूत्र ४० । २. उत्तराध्ययन अ० २३, गा० ३६ । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ जैन धर्म है । जैनतत्त्व चिन्तको की उस विवेचन एवं विश्लेषण मे महत्त्वपूर्ण देन है । जैनशास्त्रो में लेश्या का जो विवेचन है, वह पुरातन कालीन मनोविज्ञान का एक महत्त्वपूर्ण और मौलिक अध्याय है, जो आज के मानस-शास्त्रियो के लिए बड़ा रुचिकर और बोधप्रद है । लेश्या का यह विवेचन हजारो वर्ष पहले तव लिपिवद्ध हो चुका है, जब आज के मनोविज्ञान का जन्म ही नही हुआ था। लेश्या-विचार मे यह देखा जाता है कि मानसिक वृत्तियो का कैसा वर्ण होता है ? मनोविचारो को कितने वर्गो मे वाटा जा सकता है । मनोविचारो का उद्गमस्थल क्या है ? उनमे वर्ण आता कहा से है ? आदि-आदि । __ मन के विचारो मे किसी-न-किसी प्रकार का वर्ण होता है, क्योकि मानसिक चचल लहरिया पुद्गलो से सम्मिश्रित होती है और पुद्गल मूर्त है । वैचारिक समूह का द्रव्य रूप पुदगलमय होता है । जैसे विचार वैसा वर्ण और जैसा-जैसा विचार वैसे-वैसे पुद्गल का आकर्षण । प्रतिक्षण परिवर्तित होने वाले मन के अध्यवसाय असख्य है। कभी वह शुद्ध शुभ्र श्वेत होते है, तो कभी एकदम काले और कभी मिश्रित होते है । जैनधर्म की परिभापा वे वह मानसिक, वाचिक और कायिक परिणमन 'लेश्या' कहलाते है । (ग्रावश्यक चूर्णी) स्फटिक स्वरूपत. उज्ज्वल होता है, परन्तु उसके निकट जिस वर्ण के पुष्प रख दिए जाते है, स्फटिक उसी वर्ण का प्रतिभासित होने लगता है । आत्मा भी स्फटिक के समान ही उज्ज्वल और निर्मल है। मगर आत्मा के पास जिस वर्ण के परिणाम होगे, वह उसी वर्णवाली प्रतिभाति होने लगेगी। यद्यपि साधारण तौर पर लेश्या का अर्थ मनोवृत्ति, विचार या तरंग हो सकता है, किन्तु आचार्यों ने कश्लेिष के कारण भूत शुभाशुभ परिणामों को ही लेश्या कहा है। कोई-कोई आचार्य उसे योग के अन्तर्गत स्वतत्र द्रव्य मानते है । मगर यह असदिग्ध है कि द्रव्य लेश्या पौद्गलिक है । लेश्याओ के वर्ण मन मे उठने वाले शुभाशुभ परिणामो के द्योतक है। यद्यपि परिणाम असंख्य है, अतएव उनके सूक्ष्म तारतम्य के आधार पर लेश्यानो के भी असख्य विकल्प हो सकते है, किन्तु उन्हे मोटे तौर पर छ. भागो मे विभक्त कर दिया गया है । इन छ. भागों की तरतमता दिखलाने के लिए एक जैनागम-प्रसिद्ध उदाहरण लीजिए : छह पुरुप जामुन खाने चले । फलो से लदे जामुन वृक्ष को देखकर Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविज्ञान १२३ उनमें से एक ने कहा-'लो भाई, यह रहा जामुन का पेड़ । बस, इसे धराशायी कर दे और मनचाहे फल खाए।' दूसरे ने कहा---'वृक्ष को काटने से क्या लाभ हे ? इसकी मोटी-मोटी शाखाए ही काट लो।' तीसरा--'शाखाप्रो को काटने की भी क्या आवश्यकता है ? टहनिया काट लेना ही काफी होगा।' चौथा-'अरे भाई, फलो के गुच्छे ही तोड लो न ।' पांचवा---'हमे तो पके जामुन चाहिए । वही क्यो न तोडे ।' छठा---'मुझे तुम लोगो की एक भी वात नही जची । जब हमे पके फल ही चाहिए तो फिर नीचे गिरे हुए ही वीन-बीन कर क्यो नही खा लेते । व्यर्थ वृक्ष को, डालियो, टहनियो या गृच्छो को काटने-तोडने की क्या आवश्यकता है?' विचारो के शुभत्व-अशुभत्व का तारतम्य इस उदाहरण से समझा जा सकता है। इसी तारतम्य के आधार पर लेश्याओ का छह प्रकारो मे वर्गीकरण किया गया है। छह लेश्याए यह है :१. कृष्णलेश्या, २ नील लेश्या, ३. कापोत लेश्या, ४ तेजो लेश्या, ५ पद्मलेश्या, ६ शुक्ल लेश्या। लेश्या के संबंध में प्रश्न करने पर भगवान् महावीर ने गौतम से कहा १ कृष्ण लेश्या --'हे गोयमा | कृष्ण लेश्या मनोवृत्ति का निकृष्टतम रूप है । कृष्ण लेश्या वाले के विचार अत्यन्त क्षुद्र, क्रूर, कठोर, और नृशस होते है। वह अहिंसा आदि व्रतो से घृणा करता है। तीनभाव से पापाचरण करता है, अविचारी, अविवेकी, भोग-विलासरत, इह लोक-परलोक की परवाह न करने वाला, अतीव स्वार्थी और अपने क्षुद्र आनन्द के लिए जगत् मे प्रलय ला देने वाला होता है। २ नील लेश्या--३'हे गोयमा । कृष्ण लेश्या वाले की अपेक्षा नील लेश्या वाले की मनोवृत्ति कुछ अच्छी होती है, किन्तु वह ईर्ष्यालु, असहिष्णु, मायावी, निर्लज्ज, पापाचारी, लोलुप, अपने सुख का गवेषक, विपयी, हिमाकर्मी १ उत्तराध्ययन अ०३४, गा० २१, २२, २ " आ० ३४, गा० २३, २४ । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ और क्षुद्र होता है । मगर अपने स्वार्थ के लिए दूसरो के संरक्षण का गुण उसमें । होता है ।' ३. कापोत लेश्या -- ''इस लेश्या वाला हे गौतम ! मन वाणी श्रीर कार्य से वक्र होता है । मिथ्यादृष्टि, अपने दोपो को ढाकने वाला और परुषभाषी होता है, मगर अपने स्वार्थ के लिए पशुओ का भी संरक्षण करता है ।' ४ तेजोलेश्या -- गोतम ! इस लेश्या वाला पुरुष पवित्र, नम्र, अचपल, दयालु, विनीत, इन्द्रिय जयी, पाप-भीरु और आत्मसावना की आकाक्षा रखने वाला होता है । वह अपने सुख की ही अपेक्षा नही रखता, किन्तु दूसरों के प्रति भी उदार होता है ।' ५. पद्मलेश्या -- ' गौतम । पद्म लेश्या वाले की मनोवृत्ति धर्मध्यान और शुक्लध्यान मे विचरण करती है । वह पुरुष कमल के समान अपनी मुवास से दूसरो को आनन्दित करता है । सयम का उत्कृष्ट सावक, कषायो के अधिकाश पर विजय पाने वाला, मितभाषी, जितेन्द्रिय श्रीर सोम्य होता है ।' ६ शुक्ल लेश्या -- ४ ' हे गीतम । यह मनोवृत्ति अत्यन्त विशुद्ध होती है । शुक्ल लेश्या वाला पुरुष समदर्शी, निर्विकल्प ध्यानी, प्रशान्त ग्रन्त करण वाला, समिति गुप्ति से युक्त अर्थात् प्रत्येक प्रवृत्ति में सावधान और अशुभ प्रवृत्ति से दूर, सम्पूर्ण प्राणी सृष्टि पर प्रेमामृत बरसाने वाला, और वीतराग होता है । ' लेश्याओ द्वारा विचारो का शुभ-अशुभभाव बताकर प्रारम्भ की तीन लेश्याओ को त्याज्य और अन्तिम तीन लेश्याओ को उपादेय कहा है । " पहली तीन, पाप-लेश्याए या अधर्म - लेश्याए है । अन्त की तीन, शुभ या धर्मलेश्याए कहलाती हैं । अन्तिम शुक्ल लेश्या आत्मविकास की अनिवार्य गर्त है । अगर मनुष्य की विचारधारा, क्षुद्र, शुभ्रतर और शुभ्रतम की ओर चल पड़े तो मनुष्य अपनी आत्मा का शीघ्र ही कल्याण कर सकता है और विश्वशान्ति के लिए बहुत कुछ कर सकता है। १ उत्तराध्ययन, अ० ३४, गा० २५, २६, 17 11 33 12 २. २७, २८, २९, ३०, ३१, ३२, ५६, ५७ mo ३ ४ जन धम شو 11 19 12 " 133 11 33 33 11 19 " 23 Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविज्ञान १२५ जैन धर्म मे कपाय और लेश्या का अत्यन्त सूक्ष्म विवेचन किया गया है, द्रव्य और भाव रूप से लेश्या और कपाय के वर्णन मे पास्परिक सामञ्जस्य इस प्रकार हो गया कि दोनो को पृथक् करना दुप्कर बन गया है। फिर भी उदाहरण के द्वारा जैनाचार्यों ने उसे इस प्रकार समझाया है कि जैसे पित्त के प्रकोप से कोष भडक उठता है उसी प्रकार लेश्या के द्रव्य, कषायो को उत्तेजित करते है । परिणामो, विचारो तथा मानसिक उद्वेगो को लेश्या द्वारा रग, गध, रम नया स्पर्श आदि सभी कुछ प्राप्त होता है। जैसे कृष्ण लेश्या में काजल जैमा रग होता है, नील लेण्या मे मोर की गर्दन जैसा नीला रग रहता है, कापोन लेश्या मे कबूतर जैमा, तेजोलेग्या मे मनुप्य रक्त जैसा, पद्म लेश्या मे चम्पा के फल जैसा, तथा शुक्ल लेश्या में चन्द्रमा जैसा रग रहता है । इसी प्रकार रसास्वाद मे भी अन्तर होता है। कृष्ण लेश्या वाले पुरुष को कडवी तूम्बी जैमा, नील वाले को मिर्च, कपोत वाले को दाडिम, तेजो वाले को पके हुए ग्राम, पद्म वाले को इक्षु रस, और शुक्ल लेण्या वाले को मिश्री जैसा आस्वाद अनुभव होता है। उसी प्रकार लेश्यानो में सुगध और दुर्गन्ध का भी सहभाव पाया जाता है। लेश्या के पुद्गलो का स्पर्श अप्रशस्त तीन का कर्कश, और प्रशस्त तीन का नवनीत जैसा कोमल होता है। जैनाचार्यों ने लेश्या और कषाय द्वारा मनोमय वैचारिक जगत् का विलक्षण वर्णन किया है, आधुनिक विज्ञान मे जो रग विज्ञान के द्वारा मानसिक रुचि का परिज्ञान किया जाता है, किन्तु भगवान् महावीर ने तो लेश्यानो के सूक्ष्म विश्लेषण द्वारा हमारे अन्तर्जगत् का स्पष्ट चित्र खैच कर हमारे सामने रख दिया है। लेश्याप्रो के ज्ञान से जगत् अशुभ से शुभ की ओर प्रयाण करे यही सम्यग्ज्ञान का प्रयोजन है। कषाय कषाय का अर्थ-कषाय जैनधर्म का एक पारिभाषिक शब्द है। यह 'कष' और 'पाय' इन दो शब्दो के मेल से बना है। कष का अर्थ है 'कर्म' अथवा 'जन्म-मरण' । जिससे कर्मो का आय या बन्धन होता है, अथवा जिससे जीव को पुन पुन जन्म-मरण के चक्र मे पड़ना पडता है, वह कषाय कहलाता है जो मनोवृत्तिया आत्मा को कलुषित करने वाली है, जिनके प्रभाव से Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ जन धम आत्मा अपने स्वरूप से भ्रष्ट हो जाता है, मनोविज्ञान की भाषा में वह कषाय है । प्रवेश और लालसा की वृत्तिया कषाय को जन्म देती है । वह वृत्तियां भी अनेक प्रकार की है । मगर जैनधर्म में उन्हें चार भागो में बांटा गया है । भगवान् महावीर ने गौतम स्वामी से कहा - " हे गौतम! कपाय चार है १ क्रोध, २ मान, ३ माया, ४. लोभ । जैनागमो मे इन कषायो का वैज्ञानिक पद्धति से विवेचन मिलता है । १ क्रोध -- क्रोध एक मानसिक किन्तु उत्तेजक सवेग है । उत्तेजित होते ही व्यक्ति भावाविष्ट हो जाता है, जिससे उसकी विचार क्षमता और तर्क शक्ति बहुत कुछ शिथिल हो जाती है । भावात्मक स्थिति में बढ़े हुए प्रवेश की वृत्ति युयुत्सा को जन्म देती है । युयुत्सा श्रमर्ष को और अमर्प श्राक्रमण को उत्पन्न करता है । क्रोध और भय मे यही प्रधान अन्तर है कि कोव के प्रवेश में आक्रमण का, और भय के प्रवेश मे ग्रात्म रक्षा का प्रयत्न होता है । क्रोध का प्रवेश होते ही शारीरिक स्थिति परिवर्तित हो जाती है । श्रामाशय की मयन क्रिया, रक्तचाप, हृदय की गति, औौर मस्तिष्क के ज्ञानतन्तुसव अव्यवस्थित हो जाते है, और भय के वढने पर ग्रामाशय काम करना ही वद कर देता है । मगर क्रोध में रक्त का वढना, हृदय का धड़कना और ज्ञानतन्तु का शन्य होना विशेष क्रियाए है । ग्रत भगवान् महावीर फरमाते है'क्रोध - चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होने वाला, उचित अनुचित का विवेक नष्ट कर देने वाला, प्रज्वलनरूप ग्रात्मा का परिणाम क्रोध कहलाता है ।' क्रोध के नाना रूप होते हैं । उन्हें प्रदर्शित करने के लिए शास्त्र मे क्रोध के दस नाम गिनाये गए है - जो मोटे तौर पर समानार्थक होने पर भी क्रोध के भिन्न-भिन्न रूपो के निदर्शक है । वे यह है १. क्रोध - सवेग की उत्तेजनात्मक अवस्था । २ कोप- क्रोध से उत्पन्न स्वभाव की चचलता । ३. रोप- क्रोध का परिस्फुट रूप । ४ दोप- स्वय पर या पर पर दोप थोपना । ५ ग्रक्षमा-प्रपराध को क्षमा न करना - उग्रता । ६. सज्वलन - वार-बार जलना, तिलमिलाना । ७. कलह-जोर-जोर से बोल कर अनुचित भाषण करना । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोविज्ञान ८. चाण्डिक्य- रौद्र रूप धारण करना । ६. भंडन - पीटने - मारने पर उतारू हो जाना | १०. विवाद - ग्राक्षेपात्मक भाषण करना । यह क्रोध की विभिन्न अवस्थाए है जो उत्तेजन एव प्रवेश के कारण उत्पन्न होकर भयकरता उत्पन्न करती है । ( भगवती सूत्र, शतक १२, उ० ५, पा० २ 1 ) २. अभिमान - कुल, बल, ऐश्वर्य, बुद्धि, जाति, ज्ञान आदि किसी विशेषता का घमंड करना मान है । मनुष्य मे स्वाभिमान की मूल प्रवृत्ति है ही, परन्तु जब उसमे उचित से अधिक शासित करने की भूख जागृत होती है, और जब अपने गुणो एव योग्यतात्रो को परखने में वह भूल कर जाता है, तब उसके अन्तःकरण मे मान की वृत्ति का प्रादुर्भाव होता है । १२७ अभिमान में भी उत्तेजन और ग्रावेग होता है, किन्तु अभिमानी मनुष्य अपनी अहंवृत्ति का पोषण करता है । उसे ग्रुपने से बढकर या अपनी बराबरी का गुणी कोर्ड दीखता नही । भगवान् महावीर ने मान के बारह नाम बतलाये है१. मान - अपने किसी गुण पर झूठी ग्रहवृत्ति | २. भद-ग्रहभाव में तन्मयता । ३. दर्प-उत्तेजनापूर्ण ग्रहभाव । ४. स्तम्भ - प्रविनम्रता । ५. गर्व-अहकार । ६ प्रत्युत्कोश - अपने को दूसरो से श्रेष्ठ कहना । ७ परपरिवाद - परनिन्दा | ८. उत्कर्ष - ग्रपना ऐश्वर्य प्रकट करना । ९. ग्रपकर्ष - दूसरो की हीनता प्रकट करना । १० उन्नत - दूसरो को तुच्छ समझना । ११ उन्नतनाम - गुणी के सामने भी न झुकना | १२. दुर्नाम - यथोचित रूप से न झुकना । यह सब मान की विभिन्न अवस्थाए हैं । - भगवती, ग० १२, उ०५, पाठ ३ । ३ माया -- कपटाचार माया कषाय है। शास्त्र में इसके पन्द्रह नाम गिनाये है, जो इस प्रकार है- १. माया - कपटाचार | Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ जैन धर्म २ उपाधि-उगे जाने योग्य व्यक्ति के समीप जाने का विचार। ३. निकृति-छलने के अभिप्राय से अधिक सम्मान करना । ४ वलय-वक्रतापूर्ण वचन। ५. गहन-ठगने के विचार से अत्यन्त गूढ भाषण करना। ६ नूम-उगाई के उद्देश्य से निकृष्टतम कार्य करना। ७ कल्क-दूसरे को हिंसा के लिए उभारना । ८. कुरूप-निन्दित व्यवहार । ६. जिह्मता-ठगाई के लिए कार्य मन्द करना। १०. किल्विषिक-मॉडों की भाति कुचेष्टा करना। ११. आदरणता-अनिच्छित कार्य भी अपनाना । १२. गहनता-अपनी करतूत को छिपाने का प्रयल करना। १३. वचकता-ठगी। १४. प्रतिकुचनता-किसी के मरल रूप से कहे गये वचनो का खडन करना। १५ सातियोग-उत्तम वस्तु मे हीन वस्तु मिश्रित करना । यह सव माया की ही विभिन्न अवस्थाए है। --भगवती, श० १२, अ० ५, पा० ४। ४ लोभ--मोहनीय कर्म के उदय से चित्त मे उत्पन्न होने वाली तृष्णा या लालसा लोभ कहलाती है। लोभ की सोलह अवस्थाएं होती हैं १. लोभ-संग्रह करने की वृत्ति । २. इच्छा-अभिलाषा। ३. मूर्छा-तीव्रतम सग्रहवृत्ति । ४. काक्षा-प्राप्त करने की आशा। ५. गृद्धि-प्राप्त वस्तु मे आसक्ति होना। ६. तृष्णा-जोडने की इच्छा, वितरण की विरोधी वृत्ति । ७. मिथ्या-विषयो का ध्यान । ८. अभिध्या-निश्चय से डिग जाना। ६. आशसना-इष्टप्राप्ति की इच्छा करना। १०. प्रार्थना-अर्थ आदि की याचना। ११ लालपनता-चाटुकारिता। १२. कामागा-काम की इच्छा। १३. भोगाशा- भोग्य पदार्थों की इच्छा । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान वण पात्र है कृप्ण, नील, पीत, रक्त और श्वेत । गध दो है सुगन्ध और दुर्गन्ध रस पाच है कटक, कपाय, तिक्त, अम्ल, और मपुर । स्पर्ग आठ है कठिन, मृदु, गुरु, लघु, गीत, उष्ण, सूक्ष्म और स्निग्ध । यह सब बीस पद्गल के असाधारण गुण है, जो तारतम्य एव सम्मिश्रण के कारण सख्यात, असल्यात पोर अनन्त रूप ग्रहण करते है। गव्द, गध, सूक्ष्मता, स्थूलता, आकृति, भेद, अधकार, छाया, चाँदनी और धूप पुद्गल के ही लक्षण है २ । पदगल के अवस्थाकृत चार भेद ३ है --स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु । सम्पूर्ण पुद्गल पिण्ड स्कन्ध कहलाता है। स्कन्ध का एक भाग देश कहलाता है । स्कन्ध और देश से जुड़ा हुया अविभाज्य अंग प्रदेव कहलाता है पीर वह प्रदेश जब स्कध या देश से पृथक हो जाता है तब परमाणु कहलाता है। साधारणतया कोई स्कन्ध बादर, और कोई सूक्ष्म होते है। वादर स्कन्ध इन्द्रियगम्य, और सूक्ष्म इन्द्रिय अगम्य होते है । इन्हे छह भागो मे विभक्त किया गया है ~~ १. बादर बादर स्कन्ध - जो टूट कर जुड न सके, लकडी पत्थर । २. बादर स्कन्ध - प्रवाही पुद्गल जो टूट कर जुड जाते है । ३ सूक्ष्म बादर - जो देखने मे स्थूल किन्तु अकाट्य हो, जैसे - धूप, प्रकाश आदि। ४. बादर सूक्ष्म सूक्ष्म होने पर भी इन्द्रियगम्य हो, जैसे रस, गध, स्पर्ग, आदि । ५ सूक्ष्म इन्द्रियो से अगोचर स्कध, यथा-कर्मवर्गणादि ६ सूक्ष्ममूक्ष्म अत्यन्त सूक्ष्म स्कन्ध, यथा-कर्मवर्गणा से नीचे के द्वयणुक पर्यन्त पुद्गल । परमाणु, पुद्गल का वह सूक्ष्मतम भाग है, जो पुन विभक्त नही हो १ भगवती सू० श० १२ उद्देशा ४, स० ४५० ।। २ उत्तराध्ययन, अ० २८, गाथा १२ । ३. प्रज्ञापना परिणाम पद, १३ सू० १८५ । ४ अनुयोगद्वार Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ गम्यग्ज्ञान नहीं है, मगर देता है। और दीये है। नाम है, " की है। फ परमाणु हैं, उसी प्रकार का सूक्ष्म भाग है। परमा में प्रि वेग होता है, वह एक समय में सम्पूर्ण लोकमार बतलाते हैं कि परमाणु पाव की भयानकनपटी में गुर भी नही, पानी मे गलना नहीं, नटना नहीं श्रभेद्य, प्रछेद्य, वास है-यविनम्र है । हो, किनी तो उनका परमाणु-पर्याय नहीं रहता, गाणी के पृथक् होने पर वह पन परमाणु का रूप जैन धर्म का परमाणु विज्ञान साहित्य में जितना चिन्तन एवं उतना विश्वसाहित्य ने कही सत्य नहीं । परमाणु-युग है, किन्तु जैन परमाणु विज्ञान की जायेगा कि आज के ऋण-वैज्ञानिक वास्तविक है । उसे पाने के लिए अब भी गहरा गोता लगाने की आवश्यकता है । अणुनेद की जो बात आज कही जा रही है, वह वस्तुतस्तन्यमेव पिण्डभेद है । ऋणु तो अविभाज्य है । नही पहुंच सके प्रवेश सकता । परमाण में उसमें एक वर्ण, एक गथ, एक रस आम का पलक गिराने में श्रण को जैनमास्त्र 3 होना नहीं यह में जब जाता है बनती है। है। और गम्भीर है। न विषय में है, धान का भुग परराष्ट हो एक श्रृणु का दूसरे अणु के साथ किस प्रकार योग प्रर्थात् बंध होता है ? किन विशेषतायो के कारण परमाणु परस्पर वह होते है, यह जानने के लिए जैनागमो का अभ्यास करने की आवश्यकता है । (देसिए - भगवती सूत्र, पन्नवणासूत्र, पंचास्तिकाय तत्त्वार्थमूत्र, श्रादि) । शब्द परमाणुजन्य नही, स्वन्वजन्य है, दो स्कन्धों के संघर्ष से शब्द की उत्पत्ति होती है । कई भारतीय ग्राचार्य शब्द को अमूर्त आकान का गुण कहते हैं, मगर मूर्त का गुण मूर्त्त नही हो सकता । शब्द मूर्त है, यह जैन मान्यता आज विज्ञान द्वारा भी समर्थित हो चुकी है। शब्द का कूप आदि मे प्रतिध्वनित होना और ग्रामोफोन में बद्ध होना उसके मूर्त्तत्व वा प्रमाण है । पुद्गल का चमत्कार -- उपर्युक्त छह द्रव्यो का विस्तार ही यह जगत् है | इसमें इनके अतिरिक्त कोई सातवा द्रव्य नही है । १, अनुयोगद्वार । २ स्थानांग स्थान, ३ उद्देशा ० ३ सू० ८२ ३ उत्तराध्ययन, अ० २८, मा० ८ । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्ति मार्ग तत्त्व-चर्चा _ पिछले प्रकरण मे द्रव्यो के सम्बन्ध मे जो कुछ कहा जा चुका है, वस्तुत' उसी मे तत्त्व-चर्चा का समावेश हो जाता है, क्योकि जैसे मूलद्रव्य जीव और अजीव दो है, उसी प्रकार मूल तत्त्व भी यही दो है। फिर भी जनशास्त्रो मे द्रव्यो मे पृथक् तत्त्व का जो निरूपण किया गया है, उसका विशिष्ट प्रयोजन है। द्रव्यनिरूपण सृष्टि का यथार्थ बोध प्राप्त करने के लिए है, जबकि तत्त्वविवेचन की पृष्ठभूमि आध्यात्मिक है । साधक को इस विशाल निश्व की भौगोलिक स्थिति का और उसके अगभूत पदार्थों का ज्ञान न हो, तो भी वह तत्त्वज्ञान के सहारे मुक्तिसाधना के पथ पर अग्रसर हो सकता है, किन्तु तत्त्वज्ञान के अभाव में कोरे द्रव्य ज्ञान से मुक्तिलाभ होना नभव नही है। हेय, उपादेय और ज्ञेय का विवेकतत्त्व विवेचन से ही संभव है । निन्गठ नायपुत्त महावीर का यह अमर घोष था कि साधक जव तक स्वरूप को पहचानने की क्षमता नहीं प्राप्त कर लेता, वह मुक्ति के पथ पर अग्रसर नही हो सकता । जैनधर्म ज्ञान के दो भेद कर देता है--प्रयोजनभूत ज्ञान, और अप्रयोजनभूत ज्ञान । मुमुक्षु के लिए प्रात्मज्ञान ही 'प्रयोजनभूत ज्ञान' है, उसे अपनी मुक्ति के लिए यह जानना अनिवार्य नही, कि जगत् कितना विशाल है, और इसके उपादान क्या है ? उसे तो यही जानना चाहिए कि आत्मा क्या है। सव आत्माएँ तत्त्वत समान है, तो उनमे वैषम्य क्यो दृष्टिगोचर होता है ? यदि बाह्य उपाधि के कारण वैषम्य आया है, तो वह उपाधि क्या है ? किस प्रकार उसका आत्मा से सम्वन्ध होता है ? कैसे वह आत्मा को प्रभावित करती है ? कैसे उससे छुटकारा मिल सकता है ? छुटकारा मिलने के पश्चात् आत्मा किस स्थिति में रहती है ? इन्ही प्रश्नो के समाधान के लिए जैनागमो मे तत्त्व का निरूपण किया गया है। सक्षेप मे यह कि द्रव्यनिरूपण का उद्देश्य दार्शनिक एव लौकिक है, और तत्त्वनिरूपण का उद्देश्य आध्यात्मिक है । तत्त्व नौ' है --१ जीव २ अजीव ३ पुण्य ४ पाप ५. प्रास्रव ६. सवर ७ निर्जरा ८. वध ६. मोक्ष । यह जैन धर्म का प्राध्यात्मिक मन्थन तथा विकास के साधक और १ स्थानाग, स्था० ९, सूत्र, ६६५; उत्तराध्ययन सूत्र भ० २८, गा० १४ । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म बाधक तत्त्वो का अपना मौलिक प्रतिपादन है । जैनधर्म इन्ही तत्वों के आधार पर जीव के उत्थान, पतन, सुख, दुख और जन्म - मृत्यु आदि की समस्याएँ हुन करता है । इन तत्त्वो का सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है । १ जीव - जीव के सम्बन्ध में पहले कहा जा चुका है । जीव कहिए था ग्रात्मा, स्वभाव से अमूर्त होने पर भी कर्मबन्ध के कारण मूर्त-सा हो रहा है । प्रत्येक संसारी जीव कर्म से प्रभावित है । कर्मवन् ग्रात्मा को पराधीन और दुखी बनाता है । ग्रात्मा कर्म उपार्जन करने मे स्वतन्त्र, किन्तु भोगने में परतन्त्र है । आत्मा स्वय ही अपने उत्थान - पतन का निर्माता है । अपने भाग्य का विधाता है । वह न कूटस्थ नित्य है, और न एकान्त क्षणिक ही है, किन्तु अन्य द्रव्यो की भाति परिणामी नित्य है । ८४ २ अजीव -- जीव का वर्णन पहले आ गया है। कहा जा चुका है कि जीव कर्मवन्ध के कारण ही अपने वास्तविक स्वरूप से वचित है । कर्म एक प्रकार के पुद्गल है । देखना चाहिए कि जीव का कर्म पुद्गलों के साथ क्यो और कैसे सम्बन्ध होता है । R ३. पुण्य -- “ पुनाति, पवित्रीकरोत्यात्मानमिति पुण्यम् ।" "जो आत्मा को पवित्र करता है अथवा पवित्रता की घोर ले जाता है, वह पुण्य है ।" पुण्य एक प्रकार के शुभ पुद्गल है, जिनके फलस्वरूप श्रात्मा को लौकिक सुख प्राप्त होता है और प्राध्यात्मिक साधना मे सहायता प्राप्त होती है । धर्म की प्राप्ति सम्यक् श्रद्धा, सामर्थ्य, संयम और मनुष्यता का विकास भी पुण्य से ही होता है । तीर्थंकर नामकर्म भी पुण्य का फल है । पुण्य, मोक्षार्थियों की नौका के लिए अनुकूल घायु है, जो नौका को भवसागर से शीघ्रतम पार कर देती है | आरोग्य, सम्पत्ति यादि सुखद पदार्थो की प्राप्ति पुण्य कर्म के प्रभाव से ही होती है । ( आचार्य हेमचन्द्र ने कर्मो के लाघव को भी पुण्य माना है ) "पुण्यत. - कर्मलाघवलक्षणात् शुभकर्मोदयलक्षणाच्च ।" -- योगशास्त्र - प्र० ४, श्लो० १०७ । जिन प्रकारो से पुण्योपार्जन होता है, उन्हें नौ भागो मे विभक्त किया है - १. अप्पा कत्ता विकत्ता य, उत्तरा०, अ० २० गा० ३७ २. स्थानांग, अभयदेव टीका, प्रथम स्थान २. नवपुणे, ठाणांग, ठाणा ९ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान - १. अन्नपुण्य भोजन का दान देना। २ पान पुण्य पानी का दान देना। ३ लयनपुण्य निवास के लिए स्थान-दान करना। ४. गयनपुण्य शय्या, सस्तारक-विछौना आदि देना। ५. वस्त्रपुण्य वस्त्र का दान देना। ६ मन पुण्य मन के शुभ एव हितकर विचार । ७. वचनपुण्य प्रशस्त वाणी का प्रयोग। ८. कायपुण्य शरीर से सेवा ग्रादि शुभ प्रवृत्ति करना। ६. ननस्कारपुण्य - गुरुजनो एव गुणी जनो के समक्ष नम्रभाव धारण करना, और प्रकट करना। पुण्य के भी दो भेद है --१. द्रव्य पुण्य और २ भाव पुण्य । अनुकम्पा, सेवा, परोपकार आदि शुभ-वृत्तियो से पुण्य का उपार्जन' होता है । विश्व, राष्ट्र, समाज, जाति तथा दुखी प्राणियो के दुखनिवारण करने की भावना, तथा तदनुकूल प्रवृत्ति करने से पुण्य का बन्ध होता है। और इन्हीं मद्गुणो को सम्यक्दृष्टिपूर्वक सम्पादन किया जाय, तो यह धर्म तथा निर्जरा के भी कारण बन जाते है। पाप-जिस विचार, उच्चार एव प्राचार से अपना और पर का अहित हो और जिसका फल अनिष्ट-प्राप्ति हो, वह पाप कहलाता है । पाप-कर्म प्रात्मा को मलीन और दुखमय बनाते है । निम्नलिखित अठारह अशुभ प्राचरणो मे सभी पापो का समावेश हो जाता है । १. प्राणातिपात-हिसा। २. मृषावाद-असत्य भाषण । ३. अदत्तादान-चौर्यकर्म। ४. मैथुन-काम-विकार, लैगिक प्रवृत्ति। ५ परिग्रह-ममत्व, मूर्छा, तृष्णा, ६. क्रोध-गुस्सा। संचय। ७ मान-ग्रहकार, अभिमान। ८. माया-कपट, छल, षड़यन्त्र, कूटनीति । ६. लोभ-सचय के सरक्षण की १०. राग-प्रासक्ति । वृत्ति । ११ द्वेष-घृणा, तिरस्कार, ईर्ष्या १२ क्लेश-सघर्ष, कलह, लड़ाई, झगड़ा आदि। आदि। १ भगवती, श० ७, उ० ६, सूत्र २८६ । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म १३. अम्याख्यान-दोपारोपण १४. पिशुनता-चुगली १५. परपरिवाद-परनिदा। १६. रति-अरति-हर्प और शोक। १७ मायामृपा-कपट सहित झूठ। १८ मिथ्यादर्शनशत्य-अयथार्थ श्रद्धा । आस्तव --' आत्मा मे कर्मों का आना और उनके पाने का कारण आस्रव कहलाता है । मन, वचन, और काय की वह सब वृत्तियां, जिनसे कर्म आत्मा की ओर आकृष्ट होते है, यात्रव है । पालव कर्मवन्ध का कारण है। ___आत्मा के लोक में आस्रव ही कर्मों का प्रवेशद्वार है । मुमुक्षु-जीव को यह जान लेना अनिवार्य है कि वह कौन-सी बृत्तियों या प्रवृत्तिया है, जिनके कारण कर्मों का आगमन होता है ? उन्हे जाने विना निरुद्ध नहीं किया जा सकता, और मुक्तिलाभ भी नही लिया जा सकता । प्रास्रवजनक वृत्तियो और प्रवृित्तयो की ठीक तरह गणना नहीं हो सकती, तथापि वर्गीकरण करके जैनशास्त्रो मे अनेक प्रकार से उनका दिग्दर्शन कराया गया है । मूल मे उनकी मल्या पाच है .१. मिथ्यात्व विपरीत श्रद्धा। २. अविरति अहिंसा, असत्य आदि। ३. प्रमाद कुगल अनुष्ठान मे अनादर । ४. कषाय क्रोध, मान, माया, लोभ । ५, योग मन, वचन और काया का व्यापार। संवर-२ मुमुक्षु जीव कर्मों के प्रास्रव के कारणो को पहचान कर जब उनसे विरुद्ध वृत्तियो का अवलम्बन लेता है तो प्रास्रव रुक जाता है । प्रास्त्रव का रुक जाना ही सवर है। उदाहरणार्थ-यथार्थ श्रद्धानिष्ठ बनने पर मिथ्यात्वजन्य आस्रव रुक जाता है, अहिंसा सत्य आदि व्रतो का आचरण करने से अविरति-जन्य प्रास्रव नही होता, अप्रमत्त अवस्था मे प्रमादजन्य आस्रव नहीं होता, वीतरागदशा प्राप्त कर लेने पर कषाय-जन्य आस्रव रुक जाता है, और पूर्ण आत्मनिष्ठा प्राप्त कर लेने पर योग-जन्य आस्रव रुक जाता है। कर्मास्रव का निरोव मन, वचन, काय के अप्रशस्त व्यापार को रोकने १. समवायांग, समवाय ५ । २. उत्तराध्ययन, अ० २९, सूत्र ११ । ३. तत्त्वार्थ सूत्र, अ० ९, सूत्र २, स्थानांगवृत्ति, स्था० १ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान ८७ से, विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करने से, क्षया आदि धर्मो का आचरण करने से, अन्त.करण मे विरक्ति जगाने से, कष्ट-सहिष्णुता और सम्यक् चारित्र का अनुष्ठान करने से होता है। कोई भी साधक योग-क्रिया को सर्वथा निरुद्ध नही कर सकता। उठना, वैठना, खाना-पीना, सभाषण करना आदि जीवन के लिए अनिवार्य है। जैनगास्त्र इन प्रवृत्तियों की मनाही नही करता, परन्तु इन पर अकुश अवश्य लगाता है, और वह अकुग है विवेक का। साधक जो भी प्रवृत्ति करे, वह विवेकपूर्ण होनी चाहिए, उसमे विवेक की आत्मा बोलनी चाहिए, वह समस्त क्रियाए प्रास्रव है जिनके पीछे अविवेक काम करता है, इसके विपरीत विवेकपूर्ण की जाने वाली क्रियाये धर्म और संवरमय है । निर्जरा:-१ सवर नवीन पाने वाले कर्मों का निरोध है, परन्तु अकेला संवर मुक्ति के लिए पर्याप्त नही। नौका मे छिद्रो द्वारा पानी पाना आस्रव है। छिद्र वन्द करके पानी रोक देना संवर समझिए। मगर जो पानी या चुका है, उसका क्या हो? उसे धीरे-धीरे उलीचना पडेगा । बस, यही निर्जरा है। निर्जरा का अर्थ है-जर्जरित कर देना, झाड देना । पूर्वबद्ध कर्मों को झाड़ देना, पृथक् कर देना निर्जरा तत्त्व है। कर्मनिर्जरा के दो प्रकार है-- प्रौपक्रमिक और अनौपक्रमिक । परिपाक होने से पूर्व ही तप प्रयोग आदि किसी विशिष्ट साधना से, बलात्कर्मो को उदय मे लाकर झाड देना औपक्रमिक निर्जरा है। अपनी नियमअवधि पूर्ण होने पर स्वतः कर्मों का उदय मे पाना और फल देकर हट जाना अनौपक्रमिक निर्जरा है। इसका दूसरा नाम सविपाक निर्जरा है। यह प्रत्येक प्राणी को प्रतिक्षण होती रहती है । बन्ध और निर्जरा का प्रवाह अविराम गति से बढ़ रहा है, किन्तु साधक सवर द्वारा नवीन प्रास्रव को निरुद्ध कर, तपस्या द्वारा पुरातन कर्मो को क्षीण करता चलता है। वह अन्त मे पूर्णरूप से निष्कर्म बन जाता है। मगर यह साधना सरल नही है। इसके लिए सभी पर पदार्थो मे १. स्थानांग, स्था० ५, उ० १, सूत्र ४०९ । २. जहा महातलागस्स, उत्तराध्ययन, अ० ३०, गा० ५। ३ उत्तराध्ययन, अ० १३, गा० १६ । . Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जैन धर्म अनासक्ति और साथ ही आत्मनिष्ठा अपेक्षित है । ऐसा साधक अपने विगट चैतन्यम्वरूप को प्राप्त करना ही अपना एकमात्र ध्येय मानता है । जैनशास्त्र साधक-जीवन की अनासक्ति को यो प्रकट करते है.--- 'अवि अप्पणो वि देहमि, नायरति ममाइय।' ससार के अन्य पदार्थों की बात तो दूर रही, साधक का अपने शरीर पर भी ममभाव नही रहता। वह अन्त स्थ होकर स्वरूपरमण मे ही लीन रहता है। इसी कारण सयमी साधक को अविपाक निर्जरा का अमूल्य' तत्व प्राप्त होता है, जिसके वल पर वह कोटि-कोटि कर्मों को क्षण भर मे फल भोगे विना ही भस्म कर देता है। अडोल अकम्प साधक जगत् मे रहता हुया भी, जगत् से और देह मे रहता हुआ भी देह से ऐसा अलिप्त रहता है जैसे कीचड़, पानी, और आग मे पड़ा हुआ सोना अपने स्वरूप मे शुद्ध बना रहता है। अलिप्त भाव से किया हुआ तपश्चरण कर्मसघात पर ऐसा प्रहार करता है कि वह जर्जरित होकर प्रात्मा से पृथक् हो जाते है । जैन परिभाषा मे इसे 'सकाम' निर्जरा कहते है। विवश होकर, हाय-हाय करते हुए भी कर्म भोगे जाते है, और फल देने के बाद वे निर्जीव हो जाते है । वह अकाम निर्जरा है। साधारण ससारी प्राणी अकामनिर्जरा द्वारा ही कर्मो को जीर्ण करते है, परन्तु ऐसा करते-करते वे और अधिक नवीन कर्म उपार्जन कर लेते है, जिससे उन्हे मुक्ति नही मिल पाती। अभिप्राय यह है कि इच्छापूर्वक समभाव से कप्ट सहना, सकाम निर्जरा, और अनिच्छापूर्वक व्याकुल एवं अशान्तभाव से कष्ट भोगना, अकामनिर्जरा है। बन्ध -आत्मा के साथ, दूध-पानी की भाँति, कर्मों का मिल जाना, वन्ध कहलाता है। किन वृत्तियो एव प्रवृत्तियो से कर्मों का आस्रव होता है यह हम देख चुके है, मगर प्रश्न यह है कि आत्मा के साथ कर्मो का बन्ध होता कैसे है ? आत्मा अरूपी और कर्म पुद्गल रूपी है । अरूपी के साथ रूपी का वन्ध किस प्रकार सभव है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यद्यपि आत्मा अपने स्वरूप से अरूपी है; तथापि अनादि काल से कर्मवद्ध होने के कारण रूपी भी है। मोहग्रस्त १. स्थानांग, स्थान २, उद्देशा २, प्रजापना पद २३, सू० ५ । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्ज्ञान ८२ संमारी प्राणी ने अब तक कागी अपना अमूर्त स्वभाव प्राप्त नहीं किया है और जब वह उसे प्राप्त कर लेता है तो फिर कभी कर्मवद्ध नहीं होता। खनिन स्वर्ण का गिट्टी के साय कब नयोग हुआ, नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार मात्मा के नाथ पहले-पहा कब कर्मों का बन्ध हुआ, यह भी नही कहा जा सकता। इस सम्बन्ध में जो कुछ कहा जा सकता है, वह यही कि इनका सम्बन्ध अनादिकालीन है। जैसे चिकने पदार्थ पर रजकण पाकर चिपक जाते है, उसी प्रकार राग-द्वेप की चिकनाट के कारण कर्म प्रात्मा से वद्ध हो जाते है । राग-द्वेप, मोह आदि जो विकृत भाव कर्मपुद्गलो के बन्ध मे कारण है, वे भाव वन्ध है, और कर्म पुद्गलो का आत्मप्रदेशो के साथ एकमेक होना न्य बन्ध है। पुद्गल की अनेक जातियो में एक 'कार्मण' जाति है । इस जानि के पुद्गल सूक्ष्मतर रज के रूप मे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। जब प्रात्मा मे रागादि विभाव का आविर्भाव होता है, वह पुद्गल वही के आत्मप्रदेशो से बद्ध हो जाते है, जहाँ वे पहले से मौजूद थे। यही नन्ध का स्वरूप है। बन्ध के समय उन कर्मों में चार बाते नियत होती है, जिनके कारण बन्ध के भी चार प्रकार' कहे जाते है। गाय घाम खाती है, और अपनी प्रौदर्य यन्त्रप्रणाली द्वारा उसे दूध के रूप में परिणत कर देती है। उस दूध मे चार वाते होती है - १ दूध की प्रकृति (मधुरता) २ कालमर्यादा--दूध के विकृत न होने की एक अवधि। ३ मधुरता की तरमता, जैसे भैस के दूध की अपेक्षा कम, और बकरी के दूध की अपेक्षा अधिक मधुरता होना आदि। ४ दूध का परिमाण सेर, दो सेर आदि । इसी प्रकार कर्म में एक विशेष प्रकार का स्वभाव उत्पन्न हो जाना प्रकृतिवन्ध है। कर्म के स्वभाव असरय है, फिर भी उन्हे आठ भागो मे विभक्त किया गया है, जिनका स्पष्टीकरण पृथक् परिच्छेद मे दिया गया है। स्वभाव-निर्माण के साथ ही उसके बद्ध रहने की काल अवधि भी निश्चित हो जाती है, जिसे स्थिति बन्व कहते है । फल (रस) देने की तीव्रता अथवा १. समवायाग, समवाय ४॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म मन्दता 'अनुभागवन्ध' या 'रस बन्ध' है, और कर्मप्रदेशो का समूह 'प्रदेश वन्ध' कहलाता है । ९० इन चार बन्धो में से प्रकृतिवन्ध और प्रदेशबन्ध योगो की चंचलता पर निर्भर होते है, अर्थात् कितने कर्मदल बन्ध, और उनमे किस प्रकार स्वभाव उत्पन्न हो, वह बात मानसिक, वाचिक और कायिक स्पन्दन के तारतम्य के अनुसार निश्चित होती है । कर्म कितने समय तक श्रात्मा के साथ बद्ध रहे, और कितना मन्द, मध्यम या उग्र फल प्रदान करे, यह नियति कषाय की तीव्रता - मन्दता पर अवलम्बित है । मोक्ष 9 सवर द्वारा नवीन कर्मों का आगमन रुक जाने और निर्जरा द्वारा पूर्ववद्ध समस्त कर्मों के क्षीण हो जाने के फलस्वरूप आत्मा को पूर्ण निष्कर्म दगा प्राप्त हो जाती है । जब कर्म नही रहते तो कर्मजनित उपाधियाँ भी नही रहती, और जीव अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । यही जैनधर्म-सम्मत मोक्ष है । -- मुक्त दशा में आत्मा ग्रशरीर, श्रनिन्द्रिय, ग्रनन्त चैतन्यघन, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और अनन्त ग्रात्मिक वीर्य से सम्पन्न हो जाता है । वह सब प्रकार की क्षुद्रता से प्रतीत, विराट् स्वरूप की उपलब्धि है । विकार ही विकार को उत्पन्न करते है, जो आत्मा सर्वथा निर्विकार हो जाता है वह फिर कभी विकारमय नही होता । वह आस्रव और वन्ध के कारणों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है । इसी कारण मुक्त दशा शाश्वतिक है । मुक्तात्मा फिर कभी ससार मे श्रवतीर्ण नही होते वह जन्म-मरण से श्रात्यन्तिक निवृत्त है । 3 आत्मा स्वभावत. ऊर्ध्वगतिशील है । जिस प्रकार मृत्तिका से लिप्त तूबा जल में छोड देने पर नीचे की ओर चला जाता है, और ठेठ पैदे पर जा टिकता है, किन्तु लेप गल जाने पर हल्का होकर पानी की सतह पर प्रा जाता है, और जैसे अग्निशिखा स्वभावत. ऊर्ध्वगति करती है, उसी प्रकार प्रात्मा कर्मलेप से मुक्त होते ही स्वभावत. ऊर्ध्वगमन करती है । १ उत्तराध्ययन, अ० २९, सूत्र ७२ । २ उत्तराध्ययन, अ० ३६, गा० ६७ ॥ ३. दशाश्रुतस्कघ, अ० ५, गा० १३ । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१ 9 मगर लोकाकाश से आगे गति सहायक धर्मद्रव्य नही है । अतएव वहाँ उसकी गति का निरोध हो जाता है, और मुक्तात्मा लोकाग्र भाग में ही प्रतिष्ठित हो जाती है । इस प्रकार समस्त औपाधिक भावो से छुटकारा पा लेना, चैतन्यानभूति की पूर्ण विशुद्धि हो जाना, या श्रात्मा का परम आत्मा बन जाना ही मोल है । यही ईश्वरत्व की प्राप्ति है । सम्यग्ज्ञान ससार-दशा में, श्रात्मा मे ज्ञान और प्रानन्द के जो विकृत ग्रग अनुभव मे श्राते है, वे श्रात्मा के स्वाभाविक जान और श्रानन्द नामक गुण के विकार है। मुक्त - दगा मे वह अपने शुद्ध स्वरूप में प्रकट हो जाते है, अतएव मुक्तात्मा पूर्ण ज्ञान, और पूर्ण एवं ग्रनिर्वचनीय श्रानन्द का अनुभव करते हैं । मोक्ष-लाभ ही मानव-जीवन का चरम और परम पुरुषार्थ है । यही समस्त साघनामो का सार है । प्रमाण-मीमांसा जैनशास्त्रो मे ज्ञान की मीमासा के दो प्रकार उपलब्ध होते है - प्रागमिक पद्धति से और तार्किक पद्धति से । श्रागमिक पद्धति, और तार्किक पद्धति मे वस्तुत. कोई मौलिक भेद नही है, तथापि दोनो का वर्गीकरण जुदा-जुदा है । ग्रागमिक पद्धति के वर्गीकरण के अनुसार ज्ञान के पाच भेद है— मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, ग्रवविज्ञान, मन पर्यायज्ञान, और केवल ज्ञान । इनका दिग्दर्शन हम आगे करेगे । तार्किक पद्धति के अनुसार सगय, विपर्यास और ग्रनध्यवसाय से रहित सम्यग्ज्ञान, प्रमाण कहलाता है । प्रमाण ज्ञान को चार भागो मे विभक्त किया गया है । 1 १. प्रत्यक्ष २. श्रनुमान ३ श्रागम और ४. उपमान । इनका सक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है - १ प्रत्यक्ष :- ३ विशद ज्ञान अर्थात् जिस ज्ञान में वस्तुगत विशेषताए प्रचुरता से प्रतीत होती है, वह प्रत्यक्ष है । पूर्वोक्त पाच ज्ञानो मे से मति ज्ञान १ उत्तराध्ययन, अ० ३६, गा० ५७ । २. पच्चक्खे, अणुमाणे, ओवम्मे, आगमे, अनुयोगद्वार । प्रमाणद्वारम् । ३. से किं तं पच्चक्खे ? अनुयोगद्वार प्रमाणद्वारम् । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२ जैन नर्म और श्रुत ज्ञान परोक्ष' है और अन्तिम तीन प्रवधि, मन पर्याय, और केवल ज्ञान- प्रत्यक्ष' है । प्रत्यक्ष मे भो श्रवविज्ञान और मन पर्यायज्ञान विकल या यागिक प्रत्यक्ष है, और केवल ज्ञान परिपूर्ण होने के कारण सकल प्रत्यक्ष कहलाता है । मतिज्ञान और श्रुतज्ञान वस्तुत परोक्ष है, किन्तु लोक-प्रतीति के अनुसार वह साव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहलाते हैं । २. अनुमान – ३ – ४ अनुमान तर्कशास्त्र का प्राण है । यद्यपि अनुमान प्रत्यक्षमूलक होता है, तो भी उसका अपना विशिष्ट स्थान है । अनुमान के द्वारा ही हम संसार का अधिकतम व्यवहार चला रहे है। अनुमान के आधार पर ही तर्कशास्त्र का विशाल भवन खडा हुआ है । कार्य-कारण के सिद्धान्त से अनुमान प्रमाण का प्रादुर्भाव होता है । ग्रग्नि से ही धूम्र की उत्पत्ति होती है, और अग्नि के अभाव में धूम्र उत्पन्न नही हो सकता, इस प्रकार का कार्य-कारण भाव व्याप्ति या अविनाभाव सम्बन्ध कहलाता है । इसका निश्चय तर्क प्रमाण से होता है । अविनाभाव निश्चित हो जाने पर कारण को देखने से कार्य का बोध हो जाता है । वही बोध अनुमान कहलाता हे | किसी जगह धूम से उठते हुए गुब्बारे को देखकर अदृष्ट अग्नि की कल्पना स्वत होती है" यही अनुमान ज्ञान है । कही कोई शब्द सुनाई देता है, तो श्रोता उसी समय निश्चित कर लेता है कि यह शब्द मनुष्य का है अथवा पशु का है । मनुष्यो मे भी अमुक मनुष्य का है, और पशुओ मे भी ग्रमुक पशुजाति का है । इस प्रकार केवल स्वर से स्वर वाले को जान लेना अनुमान का फल है । अनुमान के दो भेद है - स्वार्थानुमान और परार्थानुमान । अनुमानकर्त्ता जब अपनी अनुभूति से स्वयं ही किसी तथ्य (ज्ञेय - साध्य ) का हेतु १. परोक्खे गाणे दुविहे, स्थानांग सूत्र, स्था० २ । २. तिविहे पण्णते, अनुयोगद्वार प्रमाणद्वारम् । ३ से कि तं अणुमाणे, अनुयोगद्वार० प्रमाणद्वारम् । ४. अनुयोगद्वार, प्रमाणद्वारम्, मल्लघारीया टीका । ५ अग्गिं धूसेणं ६. सखं सद्देणं Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्याज्ञान (साधन) द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है, तो वह स्वार्थानुमान कहलाता है। और जब वह वचनप्रयोग द्वारा किसी अन्य को वही तथ्य समझाता है, तो उसका वह वचन-प्रगेग परार्थानुमान कहलाता है। स्वार्थानुमान ज्ञानात्मक है, और परानुमान वचनात्मक है। परार्थानुमान का शाब्दिक रूप क्या होना चाहिए ? इस विषय को लेकर भारतीय न्यायशास्त्रियो ने बहुत विचार किया है । न्यायदर्शन मे परार्थानुमान के पात्र अवयव स्वीकार किये गये है, जो इस प्रकार है : १. पर्वत मे अग्नि है (प्रतिज्ञा) । २. क्योकि वहां धूम्र है (हेतु) । ३. जहां-जहा धूम्र होता है, वहा-वहा अग्नि होती है (व्याप्ति) जैसे रसोई घर (उदाहरण)। ४ पर्वत मे भी धूम्र है (उपनय) । ५. अतएव अग्नि है (निगमन) जैन तार्किक समझदारो के लिए इनमे से प्रथम के दो अवयत्रो का प्रयोग ही पर्याप्त मानते है । अलवत्ता किनी अवोध व्यक्ति को समझाने के लिए अविक अवयवो का प्रयोग करना आवश्यक हो तो उनके प्रयोग मे कोई हानि नहीं समझते । मगर पांचो अवयवो के प्रयोग को वे अनिवार्य नही समझते । ३. आगम प्रमाण --' श्रुतज्ञान के विवेचन मे पागम प्रमाण का वर्णन किया जायेगा। ४ उपमान प्रमाण -3 प्रसिद्ध पदार्थ के सादृश्य से अप्रसिद्ध पदार्थ का सम्यक् वोध होना उपमा या उपमान प्रमाण कहलाता है। 'गवय गौ के समान होता है' यह वाक्य जिसने सुन रक्खा है, वह व्यक्ति जब अचानक गौ के सदृश पशु को देखता है, तो पहले सुने हुए उस वाक्य का स्मरण करके झट समझ जाता है, कि यह गवय है । इस प्रकार दर्शन और स्मरण दोनो के निमित्त से होने वाला सदृशता का ज्ञान ही उपमान है। १ पंचेविह पण्णतं । २. से कि तं आगमे, अनुयोगद्वार, प्रमाणद्वारम् । ३ से कि त ओवम्मे, अनुयोगद्वार, प्रमाणद्वारम् । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म प्रमाणो का यह वर्गीकरण तर्कानुसारी होने पर भी प्रागमिक है । पश्चाद्वर्ती तार्किक प्राचार्यों ने प्रमाण का वर्गीकरण दूसरे प्रकार से किया है। उनके अनुसार प्रमाण दो प्रकार के है, प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष प्रमाण के भी दो भेद है --साव्यवहारिक प्रत्यक्ष, और पारमार्थिक प्रत्यक्ष' । परोक्ष प्रमाण पाच प्रकार का है - १. स्मृति, २ प्रत्यभिज्ञान, ३. तर्क'४ अनुमान और ५ आगम । स्मरण रखना चाहिए कि इस वर्गीकरण मे भी पूर्वोक्त वर्गीकरण से कोई मौलिक या वस्तुगत पार्थक्य नही है। इसमे उपमान प्रमाण को पृथक स्थान नहीं देकर, प्रत्यभिज्ञान मे सम्मिलित कर लिया गया है । स्मरण, प्रत्यभिज्ञान और तर्क उस वर्गीकरण के अनुसार साव्यवहारिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत है। नयवाद १. नय स्वरूप --विश्व के समस्त दर्शनशास्त्र वस्तुतत्त्व की कसौटी के रूप मे प्रमाण को अगीकार करते है । किन्तु जैनदर्शन इस सम्बन्ध मे एक नयी सूझ देता है। उसकी मान्यता है कि प्रमाण अकेला वस्तुतत्त्व को परखने के लिए पर्याप्त नही है। वस्तु की ययार्थता का निर्णय प्रमाण और नय के द्वारा ही हो सकता है। जैनेतर दर्शन नय को स्वीकार न करने के कारण ही एकान्तवाद के समर्थक बन गये है, जव कि जैनदर्शन नयवाद को अगीकार करने से अनेकान्तवादी है। प्रमाण वस्तु की समग्रता को, उसके अखण्ड एक रूप को विषय करता है । नय उसी वस्तु के अगो को, उसके खड-खड रूपो को जानता है । किसी भी वस्तु का पूरा और सम्यक् ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसका विश्लेषण करना अनिवार्य है। विश्लेपण के बिना उसका परिपूर्ण रूप नहा जाना जा सकता । तत्त्व का विश्लेषण करना और विश्लिप्ट स्वरूप को समझना नय की उपयोगिता है। १. जैन न्याय तर्क सग्रह (यनोविजय) प्रमाण मन्ड । णमन्त। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्जान नयवाद के द्वारा परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले विचारो के अविरोध का मूल खोजा जाता है, और उनका समन्वय किया जाता है । नय विचारो की मीमासा है। वह एक ओर विचारो के परिणाम, और कारण का अन्वेषण करते हैं, और दूसरी ओर परस्पर विरोधी विचारो मे अविरोध का वीज ग्बोज कर समन्वय स्थापित करते है। क्या आत्मा-परमात्मा और क्या जड पदार्थ, सभी विषयो मे परस्पर विरोधी मन्तव्य उपलब्ध होते है। एक जगह विधान है कि आत्मा एक है, तो दूसरी जगह कहा गया है कि आत्माए अनन्त-अनन्त है । ऐसे विरुद्ध दिवाई देने वाले मन्तव्यों के विषय में नयवाद अपेक्षा की नीति अपनाता है। वह विचार करता है कि किम दृष्टिकोण से आत्माए अनेक है ? इस प्रकार के दृष्टिकोणो का अन्वेपण करके उन विचारो की सचाई का आधार खोज निकालना ही नय का काम है, अतएव नय विविध विचारो के समन्वय की पीठिका तैयार करता है। इसलिए नयवाद अपेक्षावाद भी कहलाता है। जगत के विचारो के आदान-प्रदान का साधन नय है । प्रत्येक वस्तु मे अनन्त धर्म-स्वभाव गुण विद्यमान है । उनके विषय मे अनन्त अभिप्रायो को विषय करने वाले नय भी अनन्त होते है। अभिप्राय यह है कि अनन्त धर्मात्मक वस्तु को अखण्ड रूप में जानने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है, तो उसी वस्तु के किसी एक धर्म को जानने वाला ज्ञान नय कहलाता है। प्रमाण अनेकाश ग्राही है, तो नय एक अश का ग्राहक है। २. नय की सत्यता-कहा जा सकता है कि अनेक अशो में से सिर्फ एक अश को ग्रहण करने वाला नय मिथ्याजान है। नय यदि मिथ्याज्ञान है तो वह वस्तुतत्त्व के निर्णय का आधार कैसे बन सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर यही दिया जा सकता है कि किसी भी नय की यथार्थता इस बात पर अवलम्बित है, कि वह दूसरे नय का विरोवी न हो। उदाहरण के लिए आत्मा को लीजिए। एक नय से आत्मा नित्य है और दूसरे नय से आत्मा अनित्य है । आत्मा का यात्मत्व शाश्वत है, उसका कभी विनाश सभव नही है, इस दृष्टिकोण से आत्मा नित्य है। किन्तु आत्मा शाश्वत होता हुआ भी अनेक रूपो में परिवर्तित होता रहता है । कभी मनुष्य के पर्याय में उत्पन्न होता है, कभी पशु-पक्षी की योनि मे Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म जन्म लेता है, तो कभी नरक का कीडा बन जाता है। इस दृष्टिकोण से आत्मा अनित्य भी है। यहा नित्यताग्राही नय अगर अनिन्यताग्राही नय का विरोध न करे, उसके प्रति उपेक्षा रखे और सिर्फ अपने दृष्टिकोण के प्रतिपादन तक ही सीमित रहे तो वह सम्यकनय कहा जाएगा। इसके विपरीत, जब एक नय अपन दृष्टिकोग के प्रतिपादन के साथ दूसरे नयो के दृष्टिकोण का विरोध करता है तो ऐसा करनेवाला नय गिथ्यानय बन जाता है। सरल शब्दो मे कहना चाहिए-कोई नय तभी तक सच्चा है, जब तक वह दूसरे को झूठा नही कहता । जव उसने दूसरे को जूठा कहा तो वह स्वय झूठा हो गया। ३. नयभेदः--कहा जा चुका है कि एक वस्तु मे अनन्त-अनन्त धर्म है और उसमे एक एक धर्म को ग्रहण करने वाला अभिप्राय नय कहलाता है । इससे स्पष्ट हो जाता है कि जब धर्न अनन्न है तो नव भी अनन्त होने चाहिए। वास्तव मे ऐसा ही है। जगत् मे प्रचलित अभिप्राय या वचन-प्रयोग गणना म नही जा सकते तो उनको गहण करने वाले नयो की गगना भी सम्भव नही । इसीलिए जैनदर्शन कहता है - 'जावइया वयणपहा, तावइया चेव हुंति नयवाया।' अर्थात्-जितने वचन के पथ है, या वस्तु सम्बन्धी अभिप्राय है, उतने ही नय के प्रकार है। फिर भी वर्गीकरण के सिद्धान्त का उपयोग किया जाय तो उन समस्त नयो को दो भागो मे वाटा जा सकता है । १ व्याथिकनय और २ पर्यायाथिक नय । मूल पदार्थ द्रव्य कहलाता है और उसकी विभिन्न और देशो और कालो मे होने वाली नाना अवस्थाए पर्याय कहलाती है। समस्त विचारो की प्रवृत्ति या तो द्रव्य के द्वारा या पर्याय के द्वारा होती है, अतएव मूलभूत दो ही है। द्रव्य नित्य है, अतएव नित्यता को ग्रहण करनेवाला नय द्रव्याथिक नय कहलाता है। - १ से कि तं गए ? सत्तमूलणया पण्णता अनुयोगहार नयद्वारम्, Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . ............०००० .......................... उल्लो सुक्खोव दो छूडा, गोलया मट्टियामया। दो वि आवडिया कुड्डे, जो उल्लो सोत्थ लग्गई ॥ एवं लग्गन्ति दुम्मेहा, जे नरा काम लालसा । विरत्ता उ न लग्गन्ति, जहा से सुक्क गोलए । -उत्तराध्ययन, अ० २५, गा० ४२-४३ । हे गावक जिस प्रकार एक सूखी मिट्टी का और एक गीली मिट्टी का गोला दीवार मे फेका जाय, तो गीला गोला दीवार से चिपक जाता है, सूखा नही चिपकता, उसी प्रकार जो काम-लालसा मे आसक्त, और दुप्ट-बुद्धि वाले मनुष्य होते है उन्ही को संसार का वधन होता है और जो काम-भोग से विरत होते है, उन को बंधन नहीं होता।' .........०००००००००००..............०००००.. .... प्राध्यात्मिक उत्कान्ति Page #164 --------------------------------------------------------------------------  Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक उत्क्रान्ति चौदह गुणस्थान आत्मा की क्रमिक उत्क्रान्ति-जैनधर्म का मन्तव्य है कि विश्व में अनन्तअनन्त आत्माएं है और उनकी अपनी स्वतन्त्र सत्ता है, वे किसी एक विराट् सत्ता का अश नहीं है, हाँ, सभी आत्माओ का मूल स्वभाव समान है, उसमे कोई विलक्षणता नही, भेद नही, फिर भी उनका अस्तित्त्व पृथक्-पृथक् ही है। प्रत्येक प्रात्मा का मौलिक स्वरूप एक होने पर भी ससार की आत्माओ में जो विभिन्नता दृष्टिगोचर होती है, वह औपाधिक है । कमों के प्रावरण की तरतमता के कारण ही आत्मा-पात्मा मे भेद दिखाई देता है । आवरण की तरतमता अनन्त प्रकार की है, अतएव आत्मा के स्वाभाविक गुणो के विकास और ह्रास की दशाएँ भी अनन्त है। फिर भी ज्ञानियो ने उन दशानो का वर्गीकरण किया है और वह भी अनेक प्रकार से--- ___ एक वर्गीकरण के अनुसार विकास-दशा की दृष्टि से प्रात्माएँ तीन प्रकार की होती है--- १. वहिरात्मा (मिथ्यादी) २. अन्तरात्मा (सम्यग्दर्शी) ३ परमात्मा (सर्वदर्शी) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ जैन धर्म जैनशास्त्रो मे इन तीन प्रकार की आत्मानो की भी चादह भूमिकाएँ वतलाई गई हैं, जिन्हे गुणस्थान कहते है । पहली ने तीमरी भूमिका तक का जीव वहिरात्मा कहलाता है। सामान्यतया चौयी से बारहवी भूमिका वाला, अन्तरात्मा कहलाता है और तेरहवी तथा चौदह्वी वाला परमात्मा। ____गुणस्थान जैनधर्म को मौलिक देन है । चौदह गुणस्थान में प्रात्मा की समस्त विकास-ह्रास की अवस्थाओ के चित्र दिखलाये गए हैं। इनमे समार की सब आत्मानो का समावेश हो जाता है। किसी भी प्रात्मा की कोई भी अवस्था क्यो न हो, उसका अन्तर्भाव किसी-न-किसी गुणस्थान मे हो ही जाता है । यहाँ गुण का अर्थ है-'पात्मा की विशेषता' । आत्मा की विशेपताएँ पाँच प्रकार की है, जिन्हे जीव का भाव भी कहते है। १. कर्मों के उदय से उत्पन्न होने वाला भाव 'औदयिक', २. कर्म के भय से उत्पन्न होने वाला भाव क्षायिक', ३. कपाय के गमन से उत्पन्न होने वाला भाव 'योपगमिक', ४. क्षयोपशम से होने वाला भाव 'क्षयोपशमिक' तथा ५. जो कर्मों के उदय आदि से उत्पन्न न होकर स्वाभाविक हो, वह 'पारिणामिक' भाव कहलाता है। यह पाँच प्रकार के जीव के भाव, यहाँ गुण कहे गए है। इन गुणो के स्थानो, अर्थात् भूमिकामो को गुणस्थान समझना चाहिए । ___ आत्मा के विकास-प्रवाह को कोई विभक्त नही कर सकता, तो भी सुगमता के लिए उसका विभाजन किया गया है। उसी विभाजन के अनुसार चौदह गुणस्थान इस प्रकार है १. मिथ्यात्त्वगुणस्थान मिथ्यादृष्टि। २. सास्वादन गुणस्थान - मासादनसम्यग्दृष्टि । ३ मिश्रगुणस्थान मम्यग-मिथ्यादृष्टि ४. अविरतसम्यग्दृष्टि असयत सम्यग्दृष्टि । ५. देशविरति मयतासंयत। ६. सर्वविरति गुणस्थान प्रमतसयत । ७. अप्रमत गुणस्थान अप्रमतसयत ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण गुणस्थान - १०. सूक्ष्मसम्पराय दरसाम्पराय । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक उत्क्रान्ति १४९ ११ उपशान्तमोह गणस्थान - उपशान्तकपाय वीतराग छद्मस्थ । १२ क्षीणमोह क्षीणकपाय वीतराग छद्मस्थ । १६ सयोगिकेवली सशरीरमुक्त (जीवन्मुक्त) १४. अयोगिकेवली अशरीरीसिद्ध (पूर्णमुक्त) १ मिथ्यात्वगुणस्थान--जब आत्मा में यथार्थ विश्वास और यथार्थ वोध के स्थान पर अयथार्थ अाग्रह से एकान्तता का अभिनिवेश, पभान्धता आदि दुर्गुणो का समावेश होता है, उस समय की जीव की स्थिति मिथ्यात्त्वगुणस्थान है। मिथ्यात्री सत्य को अमत्, धर्म को अधर्म और कल्याण को अकल्याण मानता है। वह यात्मिक साधना के विषय मे कर्तव्य-अकर्त्तव्य के विवेक से शून्य होता है । जीव की यह मूढ दशा अथवा विकारो की विपरीत दशा मिथ्यात्त्व है। समार की अधिकाश आत्माएँ इसी गुणस्थान मे है। यद्यपि आत्मा के क्रमिक विकास मे मिथ्यात्त्व को गुणस्थान का पद नही मिलना चाहिए, मगर 'गुण' शब्द साधारण है और उसमे लौकिक व अलौकिक सभी का समावेश होता है, इस कारण उसे भी गुणस्थान ही कहा है। यही आत्मसाधना की प्राथमिक भूमिका है । यही से आत्मा मिथ्यात्त्व का क्षय, उपशम या क्षयोपशम करके चतुर्थ गुणस्थान पर पहुंचती है। क्षय का अर्थ है 'नष्ट करना' और उपशम का अर्थ है 'शान्त करना' 'दवा देना' । यह ध्यान रखना चाहिए कि मिथ्यात्त्व का क्षय करके सम्यक्त्व की ओर आगे बढ़ने वाली आत्मा का फिर सम्यक्त्व से पतन नही होता, मगर उपशम करके आगे बढ़ने वाली आत्मा का पतन अवश्यभावी है। २. सास्वादन-गुणस्थान--जिस आत्मा ने मिथ्यात्त्व का क्षय-विनाश नही किया था, किन्तु मिथ्यात्त्व को शान्त करके सम्यक्त्व की भूमिका प्राप्त की थी, उसका दवाया हुआ मिथ्यात्त्व थोड़ी-सी देर में फिर उभर पाता है और वह आत्मा सम्यक्त्व से पतित हो जाती है, जब वह सम्यक्त्व' से गिर जाती है परन्तु मिथ्यात्व की भूमिका पर नहीं पहुँच पाती, पतन के पथ पर बढ रही है, फिर भी सम्यक्त्व का किंचित् रसास्वादन कर रही है, उस समय की आत्मा की दशा सास्वादन गुणस्थान है । यह स्थिति बहुत थोडी देर तक ही रहती है। ३. मिश्र गुणस्थान--किसी-किसी आत्मा मे ऐसे अर्धसत्य-मिश्रित अध्यवसाय उत्पन्न होते है, जिनमे सत्य और असत्य दोनो का ही मिश्रण होता है। वह दोलायमान अवस्था मिश्र गुणस्थान कहलाती है । यह गुणस्थान मिथ्यात्व से ऊँचा है, किन्तु पूर्ण विवेक के अभाव में सत्य के प्रति दृढ प्रतीत नही होने से इसमे स्थिति डावाडोल रहती है। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० जैन धर्म ४. अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान-सम्यग्दर्शन विघातक मोहनीय कर्म का क्षय, उपशम अथवा क्षयोपशम करके जिस आत्मा ने सम्यग्दर्शन-शुद्ध श्रद्धा की प्राप्ति कर ली है, किन्तु चारित्र विघातक-मोहनीय कर्म का क्षय न कर सकने के कारण जो व्रत अंगीकार नही कर सकती, उस आत्मा की अवस्था अविरतसम्यग्दृष्टि गुणस्थान कहलाती है। __सम्यग्दर्शन क्या है ? यह अन्यत्र बतलाया जा चुका है । मुक्ति के तीन कारणो मे यह अनन्यतम है। यहाँ से मुक्ति की साधना आरम्भ होती है। अविरतसम्यग्दृष्टि जीव भले संयम का आचरण नही कर सकता, फिर भी उसे आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है, वह आत्मा-अनात्मा एव हित-अहित के विवेक से सम्पन्न होता है। भोगो से पिण्ड नही छुडा पाता, फिर भी उनमें अलिप्त रहता है। वह अपने विचारो पर पूर्ण नियन्त्रण रखता है । आर्त जीवो की पीड़ा देखकर उसके हृदय से करुणा का विमल स्रोत प्रवाहित होने लगता है । उसका लक्ष्य और बोध गुद्ध हो जाता है और वह सयम के पथ पर चलने को उत्कंठित रहता है। ५ देशविरति गुणस्थान--वही सम्यग्दृष्टि जीव जब अहिंसा, सत्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि व्रतो का आशिक रूप से पालन करने में समर्थ हो जाता है-गृहस्थधर्म का आचरण करने लगता है, सूक्ष्म पाप का त्याग न कर सकने पर भी स्थूल पाप का त्याग कर देता है, तब वह इस गुणस्थान मे पहुँचता है। इस गुणस्थान वाले के चारित्र का स्वरूप चारित्र के प्रकरण में विस्तार से बतलाया गया है। ६. प्रमत्तगुणस्थान--आत्मा को अपनी हीनता पर विजय पाने का विश्वास हो जाता है, तब वह अपनी अपूर्णताओ को समाप्त करके सर्वत महाव्रती वन जाता है, सूक्ष्म पापो का भी परित्याग कर देता है । उस समय वह प्रमतगुणस्थान मे होता है। साधक इस गुणस्थान मे साधु तो बन जाता है, किन्तु प्रमाद के वल को समाप्त नही कर पाता। प्रमाद पाँच प्रकार का है जैसे कि . आलस्य, कषाय, निद्रा, विकथा, इन्द्रिय-भोगो के कारण कर्त्तव्य के प्रति मन मे अनादर का भाव उत्पन्न होना प्रमाद है। अर्थात् १ मद्य - मादकता-सम्बन्धी। २. विपय - मोह और कामुकता के जनक रूप, रस आदि । ३. कपाय - क्रोध, मान, कपट, लोभ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक उत्क्रान्ति ४. निद्रा - आलस्य । ५. नी, भोजन यादि के विषय मे निष्प्रयोजन बातें करना। गन्यावृष्टि पोर नती होने पर भी प्रमाद का अस्तित्त्व होने से इसे मनागचान नहते है। ७. अप्रमत्तगुणरयान-~-पारमार्थी साधक की परम पवित्र भावना के बल पर कभी-कभी ऐगी अवस्था प्राप्त होती है कि अन्त.करण मे उठने वाले विचार नितान्त शुद्ध और उज्ज्वल हो जाते है और प्रमाद नष्ट हो जाता है। पर गमचिन्नन में मावधान रहता है। उस समय की स्थिति अप्रमतगुणस्थान है । यह दो प्रकार के होते है १. दम्यान अप्रमत्त, २. सातिशय अप्रमत्त। वस्थान अप्रमत माधक छठे गुणस्थान में सातवें में बार-बार चढना और फिर छठे में उतरता है। जब अात्मिक तल्लीनता की स्थिति मे पहुचता है नो नानवे गुणस्थान पर चढ जाता है और जब वह तल्लीनता नहीं रहती और गमनागमन, भाषण, भोजन आदि गहर की किसी क्रिया में व्याप्त होता है तो छो गणस्थान में उतर पाता है । किन्तु भावो का रूप अत्यन्त शुद्ध बन जाता है मो नाकमातिगय प्रमत होकर अस्मलित गति मे ऊपर चढता है । उस समय का मानिशय अप्रमत्त कहलाता है। नातिगय अप्रमत्त माधु के ऊपर चढने के भी दो प्रकार है-जिन्हें प्रागम की परिभापा में उपगम श्रेणी और क्षपक श्रेणी कहते है। जो माधक चारित्रमोहनीय कर्म का उपशम करता हुआ और ऊपर चढता है, वह आठवे, नौवे, दसवे और ग्यारहवें गुणस्थान तक जा पहुचता है, किन्तु वहाँ उसकी प्रगति रुक जाती है और वह नीचे गिरता है, शान्त हुए कर्म फिर जागृत हो जाते है, अत. उमे नीचे आना ही पड़ता है, किन्तु जो साधक मोहनीय कर्म का क्षय करता हुआ ऊपर चढता है, वह दसवें गुणस्थान से सीधा बारहवे गुणस्थान में पहुचकर तेरहवें गुणस्थान मे जा पहुचता है और परमात्मदशा प्राप्त कर लेता है। ८. अपूर्वकरण---यहाँ करण का अभिप्राय अध्यवसाय, परिणाम या विचार है, अभूतपूर्व अध्यवसायो का उत्पन्न होना अपूर्वकरण गुणस्थान है। इस गणस्यान में चारित्र मोहनीय कर्म का विशिष्ट क्षय या उपशम करने से साधक को विशिष्ट भावोत्कर्ष प्राप्त होता है । इस गुणस्थान मे विभिन्न समयवर्ती जीवो Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन धर्म के परिणामो मे विसदशता अथवा एक समयवर्ती जीवो मे विसदृशता और कभी सदृशता भी पाई जाती है। ९. अनिवृत्तिकरण--सातवे गुणस्थान मे जब सातिगय अप्रमत अवस्था आती है तो साधक के परिणाम उत्कृष्ट हो जाते है, किन्तु इस स्थान मे उत्पन्न हुए भावोत्कर्ष की निर्मल विचारधारा और भी तीन हो जाती है। इस गुणस्थान मे विचारो की तरतमता नष्ट हो जाती है। विचारो की सामान्यगामिनी वृत्ति केन्द्रित और सम समान हो जाती है। यहाँ साधक की सूक्ष्मतर और अव्यक्ततर काम-सम्बन्धी वासना, जिसे वेद भी कहते है, समूल विनष्ट हो जाती है। १०. सूक्ष्मसम्पराय--मोहनीय कर्म का क्षय या उपशम करके आत्मार्थी साधक जब समस्त कषाय को नष्ट कर देता है, केवल लोभ का अतिशय सूक्ष्म अश ही शेष रह जाता है । उसी प्रात्मोत्कर्ष की ऊँची अवस्था का नाम सूक्ष्म सम्पराय गुणस्थान है। ११ उपशान्तमोह गुणस्थान--कोई योद्धा शत्रु-सेना को नष्ट करके किसी प्रयोग से थोडी देर के लिए वेहोश करता हुआ उसके व्यूह मे प्रवेश करता है । उसकी क्या स्थिति होती है ? शत्रु-सेना थोडी देर मे होश मे आकर उसे घेर लेती है और उसका फल है उस योद्धा का अन्त होना । इसी प्रकार जो साधक मोहनीय कर्म को नष्ट (क्षीण)न करके, सिर्फ उपशान्त करके आगे बढता है, उसका भी अवश्य पतन हो जाता है, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ऐसा सावक थोडी-सी देर इस ग्यारहवे गुणस्थान मे रहकर और समस्त मोह को पूर्ण रूप से उपशान्त करके भी नीचे गिर जाता है। १२ क्षीणमोह गुणस्थान--मोहकर्म क्षय करता हुआ अात्मा, दसवे गुणस्थान मे अवशिष्ट लोभाग का भी जब क्षय कर देता है और पूर्ण वीतरागता के उच्च शिखर पर ग्रासीन हो जाता है, तो इस गुणस्थान की प्राप्ति होती है। मोहकर्म समस्त कर्मों मे प्रधान है, और वही समस्त कर्मों को आश्रय दिया करता है, बारहवे गुणस्थान में उसके क्षीण होने पर थोडी-सी देर मे ही में जानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक तीन कर्म भी नष्ट हो जाते है। १३ सयोगी केवलो गुणस्थान--ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि के क्षय हो जाने से इस गुणस्थान मे आत्मा सर्वज, सर्वदर्शी और अनन्त आध्यात्मिक वीर्य से सम्पन्न हो जाता है । यह जीवनमुक्त की दशा है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक उत्क्रान्ति १५३ इस गुणस्थान मे सयोग गब्द जोडने का अभिप्राय यह है कि मन, वचन और काय का यहाँ व्यापार-स्पन्दन होता रहता है । १४. अयोगीकेवली गुणस्थान--इस गुणस्थान का काल अत्यन्त थोडा है। न, इ उ, . ल, इन पांच ह्रस्व-स्वरो का मध्यम वेग से उच्चारण करने मे जितना समय लगता है, बन उतना ही इस गुणस्थान का समय है । इस गुणस्थान में काय और वचन का व्यापार तो निरुद्ध हो ही जाता है, पर मानमिक वृत्तियाँ भी पूरी तरह नष्ट हो जाती है । आत्मा अपने मूल स्वरूप मे स्थिर हो जाता है। नसार-दगा का अन्त हो जाता है। शेष चारो नाम, गोत्र, अन्तराय और प्रायुप्य आदि अघातिक कर्म भी नष्ट हो जाते है। गुणस्थान का अन्त होना ही जन्म-मरण का अन्त होना है। प्रात्मा विदेह अवस्था प्राप्त कर शाश्वत मुक्ति प्राप्त कर लेती है। गुणस्थानो के सम्बन्ध में विचार करने से प्रात्मा के उत्क्रान्ति क्रम की कल्पना पा सकेगी। प्रत्येक प्रात्मा पहले-पहल प्राथमिक भूमिका में होता है । तत्पश्चात् यात्मवल प्रकट होने पर उभर पाता है। चतुर्थ भूमिका में आने पर उसकी दृष्टि यथार्थ हो जाती है । दृष्टि सिद्ध होने के पश्चात् वह क्रियात्मक रूप से मुक्तिपथ पर चलना प्रारम्भ करता है और वारहवे गुणस्थान में निरावरण होकर तेरहवे गुणस्थान में सशरीर परमात्मा बन जाता है । चौदहवे गुणस्थान के अन्त में मुक्तिधाम प्राप्त कर लेता है। उत्क्रान्ति के इस क्रम से यह भी स्पष्ट होगा कि जैनधर्म ने किसी एक को अनादि सिद्ध परमात्मा स्वीकार नहीं किया है। प्रत्येक प्राणी अपने पुरुषार्थ द्वारा परमात्मपद पाने का अधिकारी है। Page #172 --------------------------------------------------------------------------  Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ...................................०००....००००००००.००० .........०००००००००००००००००० ..........००००.० ० 'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाणय सुहाणय । अप्पा मित्तममित्तं च, दुपठ्ठिये, सुपओि !' आत्मा ही सुख और दु.ख को उत्पन्न करने, और न करने वाला है। आत्मा ही सदाचार से मित्र और दुराचार से अमित्र (गत्रु) है। --उत्तराध्ययन २०, ३७। मानव अपने भाग्य का स्वयं विधाता है । अदृष्ट अथवा किसी अन्य प्रकार की रहस्यात्मक सत्ता की पराधीनता को जैनधर्म स्वय एक मानसिक दासता समझता है। शुभ-कर्म और अशुभ-कर्म फल देने की शक्ति स्वय रखते है। जैसे परमाणु और परमाणुगों के परिवर्तन की शक्ति परमाणु से भिन्न किसी सत्ता के पास मे नही होती है । परिवर्तित होना, यह तो परमागु का ही स्वयं का गुण है। ठीक इसी प्रकार ईश्वर, देव आदि किसी के माध्यम और किसी के अनुग्रह पर हमारा भाग्य अवलम्बित नहीं है और अपने भाग्य का विधान हमने स्वय निर्माण किया है। हमारी क्रिया, हमारे यौगिकस्पन्दन, काषायिक सस्पर्ग तथा हमारा वातावरण और भावना की मंदता या तीव्रता, कर्म के परमाणो का हमारी आत्मा के साथ मे बन्धन जोडते है, जो अवसर प्राप्त होते ही हमारे अन्तर्मन को फल की ओर प्रेरित कर देते है। यह निश्चित है कि जैनधर्म आत्मा को कम करने मे स्वतत्र मानता है, कितु भोगने मे आत्मा कर्मो के आधीन हो जाती है। 'शुभ करो, शुभ होगा'--'अशुभ करो, अशुभ होगा' यही कर्मवाद का सिद्धान्त है। .००००००००००००००००००००............००००००००००००० .......................०००००००००००००००००००००० कर्मवाद Page #174 --------------------------------------------------------------------------  Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद सभी आस्तिक दर्शनो ने एक ऐसी सत्ता अंगीकार की है जो जीवतत्त्व को प्रभावित करती है। उसे स्वीकार किये बिना जीवो मे प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होने वाली विषमता की, तथा एक ही जीव में विभिन्न कालो मे होने वाली विरूप अवस्थानो की सगति किसी भी प्रकार सभव नही है । सव जीव स्वभावत समान है तो एक मनुष्य और दूसरा कीट के रूप मे क्यो है ? अगर जीव नित्य है तो मृत्यु उसे क्यो अपना शिकार बना लेती है ? अगर विराट चैतन्य उसका स्वरूप है तो जडता और अज्ञान के गहन अधकार मे जीव क्यो ठोकरे खा रहा है ? अमूर्त है तो शरीर के कारागार मे क्यो बद्ध है ? इस प्रकार की प्रश्नमाला जीवविरोधी दूसरी सत्ता को स्वीकार किये विना समाधान नहीं पाती। वह सत्ता वेदान्त मे माया या अविद्या, साख्य मे प्रकृति और वैशेषिक दर्शन मे अदृष्ट नाम से अंगीकार की गई है । जैनदर्शन उसे 'कर्म' कहता है । प्रत्येक दर्शन मे उस सत्ता का स्वरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का है। किन्तु जैनदर्शन में कर्म का जैसा सागोपाग और तर्क-सगत विवेचन है, वह अन्यत्र कही नहीं देखा जाता। जैनाचार्यों ने कर्म-सिद्धान्त पर विपुल साहित्य-सृजन किया है। पुद्गल द्रव्य की अनेक जातियाँ है, जिन्हे जैनपरिभाषा मे वर्गणाए कहते है । उनमे एक कार्मण-वर्गणा भी है और वही कर्म-द्रव्य है । कर्मद्रव्य सम्पूर्ण लोक Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ जैन धर्म में मूक्ष्म रज के रूप में व्याप्त है। वही कर्मद्रव्य योग के द्वारा आकृष्ट होकर जीव के साथ बद्ध हो जाते है और 'कर्म' कहलाने लगते है। कर्म विजातीय द्रव्य होने के कारण आत्मा मे विकृति उत्पन्न करते हैं, और उसे पराधीन बनाते है । प्रात्मा-पर पदार्थों का उपभोग करता हुआ-रागद्वेष के कारण किसी को सुखरूप और किसी को दुखरूप मानता है। सुख-दुख की वह अनुभूति तो तत्काल ही समाप्त हो जाती है, किन्तु अवशिष्ट रहे हुए सस्कार समय आने पर अपना प्रभाव दिखलाते है । ससार के प्राणियो की प्रत्येक प्रवृत्ति के पीछे राग-द्वेष की वृत्ति काम करती है । वही प्रवृत्ति अपना एक सस्कार छोड़ जाती है । उस संस्कार से पुनः प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्ति से पुनः संस्कार का निर्माण होता है। इस प्रकार वीज और वृक्ष की तरह यह सिलसिला सनातन काल से चला आ रहा है। कर्म सिद्धान्त की भाषा मे यही बात यों कही जाती है-कर्म दो प्रकार के है' १ द्रव्यकर्म (कर्मवर्गणाएं) और भावकर्म अर्थात् राग-द्वेष आदि विषय भाव । दोनो मे द्विमुख कार्य-कारण भाव है । द्रव्यकर्म से भाव कर्म और भाव कर्म से द्रव्यकर्म की उत्पत्ति होती है । आशय यह है कि पूर्ववद्ध द्रव्यकर्म जब अपना विपाक देते है तो जीव मे भावकर्म-रोषादि विभाव-उत्पन्न होते है और उन भाव-कर्मों से पुनः द्रव्यकर्म उत्पन्न हो जाते है। यह क्रम अनादि है, परन्तु उसका अन्त हो सकता है। कर्मबद्ध आत्मा, विश्व की समस्त वस्तुओ को अनुकूल और प्रतिकूल मानकर दो भागो मे बाट लेता है। वह कभी नही सोचता कि मै संसार के जीवो के लिए अनुकूल हूँ या प्रतिकूल हूँ; किन्तु ससार के पदार्थजात को और प्राणीजाति को अवश्य दो भागो में विभक्त कर लेता है। उसकी विचार लहरियों की परिसमाप्ति यही नहीं हो जाती, अपितु वह अनुकूल समझे हुए पर राग करता है, और प्रतिकूल समझे हुए को संसार से मिटा देना चाहता है । यही रागद्वेप वृत्तियों का उद्गमस्थल है। इन्ही वृत्तियो से कर्मद्रव्यो का आकर्षण होता है और अनन्त-अनन्त दुःखों की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार जब तक आत्मा मे राग-द्वेप की सत्ता है तब तक प्रत्येक क्रिया कर्म का रूप धारण कर आत्मा के लिए वन्धनकारक वनती ही जाएगी। १. द्रव्य-संग्रह, गा० ३१-३२॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाह १५९ फल देने के लिए कर्मों को किसी अन्य शक्ति की अपेक्षा नही है, और न ही किसी की आज्ञा की आवश्यकता है। कोई मनुष्य मद्यपान करता है, तो उन्माद उत्पन्न करने के लिए मदिरा को किसी की सहायता नहीं चाहिए। उसके सेवन से ही मनुष्य मे उन्मत्तता आ जाती है, दुग्धसेवन से पोषण मिलता है, भोजन से क्षुधानिवृत्ति होती है और पानी से तृषा शान्ति होती है । इन सब जड पदार्थों को अपना फल देने के लिए किसी अन्य सहारे की तलाश नही करनी पडती । इसी प्रकार जड़ होने पर भी कर्म स्वय ही अपना फल प्रदान करते है। कर्म करने की स्वतन्त्रता जीव को प्राप्त है, किन्तु फल देने की सत्ता कर्म अपने पास सुरक्षित रखता है। आयुर्वेद का सिद्धान्त है कि भोजन करते समय किसी प्रकार का अवांछनीय काषायिक आवेग, क्रोध आदि नही होना चाहिए और मानसिक सन्ताप के होने पर भोजन विष बन जाता है। भोजन के समय मन शान्त, प्रशस्त एव मध्यस्थ हो तो भोजन अमृत बन जाता है । यही बात कर्म के सम्बन्ध मे भी समझी जा सकती है । अन्त करण मे जैसे-जैसे शुभ या अशुभ, प्रशस्त या अप्रशस्त भाव होते हैं, उसी प्रकार का कर्म-रस बनता है, तो जैसे हमारे मनोवेग भोजन के रस को शुभ या अशुभ बना देते है, उसी प्रकार वे कर्मो को भी शुभ या अशुभ, रूप में परिणत कर देते है । कर्मवन्ध का प्रधान कारण मन है, और उसके सहायक वचन तथा काय है । मन, वचन और काय की अनन्त-अनन्त वृत्तियाँ शुभ भी होती है और अशुभ भी होती है।' हिंसा, चोरी, मैथुन आदि काय के अशुभ व्यापार है दया, सेवा, ब्रह्मचर्य कषाय के शुभ व्यापार है (असत्य और कटु भाषण) वाणी का अशुभ व्यापार है और निरवद्य, सत्य एव मधुर भाषण वाणी का शुभ व्यापार है। किसी के वध, बन्धन आदि का विचार करना मानसिक अशुभ व्यापार है और भलाई सोचना तथा पर का उत्कर्ष देखकर प्रसन्न होना आदि शुभ व्यापार है। शुभ व्यापारो से पुण्य कर्म का और अशुभ व्यापार से पापकर्म का वन्ध होता है। परन्तु यह नही भूल जाना है कि शुभ अशुभ कर्म के बन्ध का मुख्य आधार मनोवृत्तियाँ ही है। एक डाक्टर किसी को पीड़ा पहुचाने के लिए उसका व्रण चीरता है। उससे चाहे रोगी को लाभ ही हो जाए, परन्तु डाक्टर तो पाप कर्म के बन्ध का ही १. द्रव्यसंग्रह, गा० ३८॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० जैन धर्म भागी होगा। उसके विपरीत, वही डाक्टर अगर करुणा से प्रेरित होकर वण चीरता है और कदाचित् उससे रोगी की मृत्यु हो जाती है, तो भी डाक्टर अपनी शुभ भावना के कारण पुण्य का बन्ध करता है। कर्मवन्ध के मुख्य दो कारण है--कषाय और योग। दूसरे सव कारण इन्ही दो मे अन्तर्भूत हो जाते है । दसवे गुणस्थान तक इन दोनो कारणो की सत्ता रहती है । आगे के गुण स्थानो मे सिर्फ योग ही कारण होता है । अतएव जो कर्माणु कषायो और योग से बंधते है, वे साम्परायिक कर्म कहलाते है, और जो कपाय के अभाव मे सिर्फ गमनागमन आदि क्रियानो के कारण वधते है, वे ईर्यापथिक कर्म कहलाते है। उच्चकोटि के साधक की स्थिति कपायो की सीमा लाघकर समभावी भी हो जाती है और उस समय उसकी क्रिया भिन्न ही प्रकार की होती है। इस नथ्य को समझने के लिए जैनशास्त्रो मे एक उदाहरण प्रसिद्ध है आत्मा को स्वच्छ दीवार, कपायों को गोद और योग को वायु मान लिया जाय तो बन्ध की व्यवस्था सरलता से समझ मे आ जायगी । आत्मा-रूपी दीवार पर जब कपायो का गोद लगा रहता है तो योग की आँधी से उड़कर आई हूई कर्म-रूपी धूल चिपक जाती है । वह चिपक जितनी सबल या निर्बल होगी, बन्ध भी उतना ही प्रगाढ़ या शिथिल होगा और धूल श्वेत या काली जैसी भी होगी, वैसी चिपकेगी । हाँ, कपाय का गोद यदि हट जाय और दीवार सूखी रह जाय तो धूल का आना-जाना तो नही रुकेगा, किन्तु चिपकना वन्द हो जाएगा। बस, यही अन्तर है साम्परायिक और ईर्यापथ कर्मो मे । कर्म परमाणुओ का आना योगगक्ति के बलावल पर निर्भर है। किन्तु बन्धन की तीव्रता-मन्दता या चिपकन कषायो के भावाभाव पर निर्भर है। वन्धतत्त्व के विवेचन मे बतलाया जा चुका है कि स्थितिवन्ध और रसवन्ध कपाय से होता है । जव कषायो की सत्ता नही रहती फिर न तो कर्म आत्मा मे ठहरते है और न उनका अनुभव ही होता है, योग के विद्यमान रहने से कम आते तो है, मगर ठहर नही पाते है। वास्तव मे जन्म-मरण का मुख्य कारण कषाय है। कपाय के अभाव में २. जोग बंधे, कषाय बंधे। Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद योग लंगडे से हो जाते है । कपायो का अन्त होते ही आत्मा की पूर्णता प्राप्त हो जाती है और घातिक कर्मों का विध्वस हो जाता है । घातिक और अघातिक शन्नो से कर्मों की अाक्रमण-शक्ति और वर्वरता को तथा मन्दता को सूचित किया गया है । जीव की अनन्त ज्ञान दर्शन अादि शक्तियो का घात करने वाले कर्म घातिक कहलाते है। उनमें कुछ सर्वघाती होते हैं और कुछ देशघाती। कुछ कर्म ऐसे हल्के होते है जो जीव के गुण विकास मे बाधक नहीं होते अथवा व्याघात नही पहुचाते । वे अघातिक कहलाते हैं। उनकी विद्यमानता से सम्पूर्ण मुक्ति नही हो पाती, तथापि वे सहन ही नष्ट हो जाते है । वे जीवन्मुक्ति मे वाधक नही होते है। कर्मों का वर्गीकरण-कर्म मूलत एक ही प्रकार के होने पर भी जीव के अध्यवसायो और मनोविकारो की तरतमता के कारण अनेक प्रकार के हो जाते है । अध्यवसाय और मनोविकार एक ही प्राणी के पल-पल मे पलटते रहते है, अतएव उनकी कोई सस्या निर्धारित नही की जा सकती है, फिर जगत् के जीव अनन्त है। क्योकि कर्मों का स्वभाव, स्थितिकाल परिमाण और प्रभाव अध्यवसायो के अनुरूप ही निश्चित होता है । तथापि सुगमता से समझने के उद्देश्य से स्वभाव के आधार पर कर्म के आठ विभाग किये गए है ' -- १ ज्ञानावरण, २ दर्शनावरण, ३ वेदनीय, ४ मोहनीय, ५ आयुष्य, ६. नाम, ७ गोत्र, ८ अन्तराय । कर्मों का स्वभाव-- १. ज्ञानावरण--बादलो का ववडर जैसे सूर्य को आच्छादित कर लेतां है, उसी प्रकार जो कर्म पुद्गल हमारे ज्ञानतन्तुओ को सुप्त और चेतना को मूच्छित बना देते है, वे ज्ञानावरण स्वभाव वाले कहलाते है । ज्ञान पाँच प्रकार के है, अतएव उसे आवृत करने वाला ज्ञानावरण कर्म भी पॉच प्रकार का है: १ मतिज्ञानावरण, २ श्रुतज्ञानावरण, ३. अवधिज्ञानावरण, ४ मनः पर्यायज्ञानावरण, ५ - केवलज्ञानावरण । २ दर्शनावरण--राजा के दरवार मे जाते हुए पुरुष को जैसे द्वारपाल १. प्रज्ञापनासूत्र, पद २१, उ० १, सू० २९९ २ उत्तराध्ययन, सूत्र अ० ३३, गा० २-३ । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ जैन धर्म रोक देता है और राजा के दर्शन मे बाधक होता है, उसी प्रकार जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण का वाधक हो, वह दर्शनावरण कहलाता है। जान से पहले होने वाला वस्तु का निर्विशेष बोध, जिसमे सत्ता के अतिरिक्त किसी विशेष धर्म की प्राप्ति नहीं होती, दर्शन कहलाता है । दर्शनावरण कर्म से आवृत करता है । यह नौ प्रकार का है '--- १. चक्षुदर्शनावरण-नेत्रशक्ति को अवरुद्ध करमे वाला। २ अचक्षुदर्शनावरण-नेत्र के अतिरिक्त शेष इन्द्रियो की सामान्य अनु भवशक्ति का अवरोध करने वाला। ३. अवधिदर्शनावरण-सीमित अतीन्द्रिय दर्शन को रोकने वाला । ४ केवलदर्शनावरण-परिपूर्ण दर्शन को आवृत करने वाला । ५. निद्रा-सामान्य नीद। ६. निद्रा-निद्रा गहरी नीद। ७. प्रचला-बैठे-बैठे आ जाने वाली निद्रा। ८. प्रचलाप्रचला-चलते-फिरते भी आ जाने वाली निद्रा। ६ स्त्यानगृद्धि-जिस निद्रा मे प्राणी वडे-बडे वलसाध्य कार्य कर डालता है, जागृतिदशा की अपेक्षा अनेक गुणा अधिक बलवान् हो जाता है । यह पाच प्रकार की निद्राए, दर्शनावरण कर्म के उदय का फल है । ३ वेदनीय-तलवार की धार पर लगे शहद के समान सांसारिक सुख की और दुःख की वेदना इसी कारण होती है। इसके दो भेद है-साता-वेदनीय और असातावेदनीय । सुख-रूप सवेदना का कारण सातावेदनीय और दुख रूप सवेदना का कारण असाता-वेदनीय कर्म कहलाता है। ४ मोहनीय-~-मोह एक उन्मादजनक विलक्षण मदिरा है, जो प्राणीमात्र को विवेक विकल बना देता है । यह दो प्रकार का है दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय: सम्यग्दर्शन का प्रादुर्भाव न होने देना अथवा उसमे विकृति उत्पन्न करना, दर्शनमोहनीय कर्म का काम है। यह तीन प्रकार का है।" १. उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३३, स्थानांग सूत्र, स्थान ९ ९१८। २ उत्तराध्ययन, सूत्र, अ०३३ प्रज्ञापना, सत्र, पद २९, उ०२, सू० २९३ । ३ उत्तराध्ययन, सूत्र, अ० ३३, प्रज्ञापना, सूत्र, पद २९, उ०२, सू० २९३ । ४ उत्तराध्ययन, सूत्र, अ० ३३,प्रज्ञापना, सूत्र, पद २९, उ० २, सू० २९३ । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद १ मिथ्यात्व मोहनीय -सत्य में असत्य एव अतत्त्व मे तत्त्व की प्रतीति करना। २. सम्यक्-मिथ्यात्व मोहनीय-सत्य और असत्य मे मिश्रित श्रद्धा रखना। ३ सम्यक्त्व मोहनीय -सम्यग्दर्शन मे अशुद्धता पैदा करने वाला। चारित्रमोहनीय कर्म भी दो प्रकार का है-कषाय-चारित्रमोहनीय और नौ कपाय चारित्रमोहनीय-क्रोध, मान, माया और लोभ, यह चार कषाय है । इन चारो के भी चार-चार प्रकार है, जिनका वर्णन कपाय प्रकरण में किया जाएगा। इस प्रकार ४४४ = १६ कपायो का जनक कषाय मोहनीयकर्म भी सोलह प्रकार का है।' कषाय को भडकाने वाली नी मनोवृत्तियाँ है । जिन्हे नौ कषाय कहा गया है। वे ये है :१ हास्य जिससे हँसी आवे । २. रति अनुरक्ति-स्नेह राग। ३ अरति जिससे अरुचि, द्वेष उत्पन्न हो। ४. शोक जिसके कारण शोक का भाव उत्पन्न हो। ५. भय जिसके कारण भीति उत्पन्न हो। ६. जुगुप्सा जिसके कारण घृणा उत्पन्न हो । ७ स्त्रीवेद जिसके कारण पुरुष से सहवास करने की इच्छा हो। ८ पुरुषवेद जिसके कारण स्त्री से सहवास करने की इच्छा हो। ६ नपुसकवेद - जिसके कारण स्त्री-पुरुष दोनो के सहवास की कामना उत्पन्न हो। यह सब मिलकर मोहनीय कर्म के अट्ठाईस भेद है । यह कर्म प्राणी की वास्तविक श्रद्धा-विवेक को जागृत नहीं होने देता और साथ ही विविध प्रकार के मनोविकारो को उत्पन्न करके सम्यक् चारित्र को नही पनपने देता। मोहकर्म इतर कर्मों का जनक और वडा प्रवल है। १ प्रज्ञापना सूत्र, पद २३, तत्त्वार्थ सूत्र, अ० ८, ९ । २ प्रज्ञापना सूत्र, पद २३ तत्वार्थ सूत्र, अ० २ । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म ५ आयुकर्म-लोहे की बेडी के समान है, जिसके खुले बिना स्वाधीनता के सुख का अनुभव नही हो सकता। यह कर्म जीव को मनुष्य, तिर्यञ्च, देव और नारकी के शरीर मे नियत अवधि तक कैद रखता है। हमारी यह जीवित दगा इसी कर्म का फल है। ६ नामकर्म-चित्रकार विभिन्न रग सजो-संजो कर अपनी तूलिका की सहायता से नाना प्रकार के चित्र बनाता है, उसी प्रकार नामकर्म जगत् के प्राणियों के नाना आकार प्रकार वाले शरीरो की रचना करता है। प्राणी सृष्टि मे जो आश्चर्यजनक वैचित्र्य हमे दिखाई देता है, उसका कारण यही कर्म है । जैनागमो से इसके अनेक प्रकार से भेद-प्रभेद दिखलाये गये है। उन सवका उल्लेख न करके यहाँ ४२ भेदो को ही बतला देना पर्याप्त होगा। १. गति नाम कर्म-जिसके प्रभाव से जीव मनुष्य, तिर्यञ्च, देव या नारकी चार गतियो मे से एक गति पाता है । २ जाति नाम कर्म-जिसके कारण जीव एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय अादि पर्याय प्राप्त करता है। ३. गरीर नाम कर्म-जिससे जीव के पांच प्रकार के शरीरो मे से गति के अनुरूप शरीर प्राप्त होते है। ४. अंगोपाग नाम कर्म-इस कर्म के प्रभाव से शरीर के अगो और उपागो का निर्माण होता है । ५. बन्धन नाम कर्म-यह वह कर्म है जिसके कारण पूर्व-गृहीत पुद्गलो के साथ नवीन ग्रहण किये जाने वाले पुद्गलो का सम्बन्ध होता है। ६. सघात नाम कर्म- जिस कर्म के उदय से शरीर के पुद्गल व्यवस्थित रूप से स्थापित हो जाए। .. ७. संहनन नाम कर्म-इससे शरीर के अस्थिपजर की दृढ या शिथिल रचना होती है। ८. सस्थान नाम कर्म-इससे शरीर की नाना प्रकार की प्राकृतियाँ वनती है। १. उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३३, प्रज्ञापना सत्र, २३ । २. प्रज्ञापना सूत्र सं० २९३ । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद ६. वर्ण नाम कर्म-इस कर्म से शरीर मे गोरा-काला आदि रग उत्पन्न होता है। १०. गध नाम कर्म-इस कर्म से शरीर मे विशिष्ट गन्ध उत्पन्न होती है। ११. रस नाम कर्म-यह शरीर मे रस उत्पन्न होने के कारण है। १२ स्पर्श नामकर्म-इससे शरीर मे किसी विशेष प्रकार का स्पर्ग उत्पन्न होता है। ___ १३ आनुपूर्वी नाम कर्म-नया शरीर धारण करने के लिए जीव को किसी नियत स्थान पर पहुचाने वाला। १४ विहायोगति नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से जीव की चाल अच्छी या बरी हो। यह चौदह भेद पिण्ड प्रकृतियो के नाम से प्रसिद्ध है, क्योकि इनमें से प्रत्येक के अनेक भेदोपभेद होते है । १५. अगुरुलघु नाम कर्म-हमारा शरीर शीशे (धातु) की तरह एकदम भारी और आक की रूई की तरह एकदम हल्का नहीं है, यह इस कर्म का फल है। १६ उपघात नाम कर्म-अगुली मे छठी अगुली की तरह "अपना ही अग अपने को पीडा कारक होना", इस कर्म का फल है। १७. पराधान नाम कर्म-जिसके फल स्वरूप शरीर के अवयव पर पीडाकारी न बने। १८ प्रातपनाम कर्म-उप्ण प्रकाश रूप शरीर बनाने वाला। १६ शीतल प्रकाशमय-गरीर के निर्माण का कारण । २० उच्छ्वास नाम कर्म-हम जो श्वासोच्छ्वास लेते है, वह इसी कर्म का अनुभव है। २१ निर्माण नाम कर्म-जिससे अग सुघड एव यथायोग्य बनते है । २२. तीर्थकर नाम कर्म-वह कर्म, जिसके प्रभाव से जीव तीर्थकर बनकर त्रिलोकपूज्य होता है । इनमे त्रसदशक और स्थावरदशक नाम से प्रसिद्ध बीस प्रकृतियाँ जोड देने से ४२ भेद होते है । वे प्रकृतिया ये है-- १ त्रस नाम कर्म-जिससे त्रस पर्याय प्राप्त हो । २ बादर-जिससे अपेक्षाकृत स्थूल शरीर बने । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जैन धर्म ३. पर्याप्त-जिस कर्म के प्रभाव से पुनर्जन्म के समय नवीन शरीर, इन्द्रिय, मन, श्वासोच्छ्वास आदि के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करके गरीर आदि की छ. प्रकार से पूर्णता प्राप्त की जाय । ४. प्रत्येक-जिससे एक शरीर का स्वामी एक ही जीव हो । ५. स्थिर-यह कर्म अगोपागो को अपने-अपने स्थान पर स्थिर बनाये रखता है। ६ शुभ-जिससे गुभ की प्राप्ति हो। ७ सुभग सौन्दर्य प्राप्त कराने वाला । ८. सुस्वर-जिससे मधुर स्वर मिले । ६. प्रादेय-जिसके प्रभाव से दूसरो पर हमारी बात का असर हो । १० यश. कीर्ति-जिससे यग कोर्ति का प्रसार हो। स्थावर-दशक-१. स्थावर, २ सूक्ष्म, ३ अपर्याप्त, ४ साधारण, ५. अस्थिर, ६. अशुभ, ७ दुभंग, ८. दुस्वर, ६ अनादेय, १०. अयग अकीर्ति । नाम से ही स्पष्ट है कि यह दश कर्म पूर्वोक्त दशों से ठीक विपरीत है। यह सब मिलकर नाम कर्म के बयालीस भेद है । वास्तव मे नाम कर्म का कार्य गरीर की रचना करना, उसकी विभिन्न आकृतियाँ बनाना जीव को नवीन जन्म लेने के स्थान पर पहुंचाना, बस या स्थावर रूप देना, गरीर मे किसी भी प्रकार का रग-रूप आदि उत्पन्न करना, सुन्दर-असुन्दर स्वर बनाना, आदि-आदि है। यद्यपि रग-रूप एव स्वर आदि मे बाहर के भी कारण अपेक्षित है, मगर अन्तरग का कारण नाम कर्म ही है। इस कर्म का कार्यक्षेत्र बहुत व्यापक है, अतएव इसकी प्रकृतियो की संख्या भी अन्य कर्मों से अधिक है। ७. गोत्रकर्म--जैसे कुम्हार छोटे बड़े वर्तन बनाता है, उसी प्रकार जिस कर्म के प्रभाव से जीव प्रतिष्ठित अथवा अप्रतिष्ठित कुल मे जन्म लेता है, वह गोत्रकर्म है । यह दो प्रकार का है १ उच्च गोत्र, २ और नीच गोत्र ।' १. प्रज्ञापना मूत्र, पद २३-९, २९४ । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद १६७ ८ अन्तराय कर्म--यह अभीष्ट की प्राप्ति में अडगा लगा देने वाला कर्म है । यह पाँच प्रकार का है।' १ दानान्तराय जिसके कारण दान देने की इच्छा होने पर भी दान न दिया जा सके । २ लाभान्तराय लाभ मे बाधा डालने वाला। ३ भोगान्तराय भोग-प्राप्ति मे बाधक। ४ उपभोगान्तराय उपभोग (पुन पुन काम मे आने वाली वस्त्रादि वस्तु) की प्राप्ति मे बाधक। ५. वीर्यान्तराय - वीर्य-सामर्थ्य के विकास में वाधक । उन आठ कर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्म घातिक कहलाते हैं और शेप चार अघातिक है। आठ कर्मों के इस दिग्दर्शन से पाठक समझ सकेगे कि कर्म का कार्यक्षेत्र अत्यन्त व्यापक है । जीव की सभी आन्तरिक वृत्तियाँ और साथ ही वाह्य आकृतियाँ कर्म का ही प्रताप है। जैन सिद्धान्त मे कर्मों का वर्णन इतना व्यवस्थित है कि उसमे कही क्षति या न्यूनता नजर नहीं आती । कर्म-व्यवस्था के अन्तर्गत उनकी विभिन्न दशाओ को भी समझ लेना आवश्यक है । वे मुख्य रूप से दश है ।२ १ वन्य कमों का आत्मा के साथ बद्ध होना और उनमे पहले कही हुई चार बाते-स्वभाव, काल, मर्यादा, प्रभाव और परिमाण उत्पन्न हो जाना। २. उत्कर्षण बद्ध हुए कर्मो की कालमर्यादा और फल-वृद्धि हो जाना। ३ अपकर्पण काल-मर्यादा और फल मे न्यनता हो जाना। १. उत्तराध्ययन सूत्र, अ० ३३ तत्त्वार्थ सूत्र, अ० ८-१३ । २. 'व्य-संग्रह टीका, गा० ३३ । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म कभी-कभी ऐसा होता है कि प्राणी अशुभ कर्म का बन्ध करके शुभ विचार कार्य में प्रवृत्त हो जाता है । उसके बाद के इस विचार और व्यवहार का असर पहले के अशुभ कर्मों पर पड़ता है और वह यह कि उनकी लम्बी काल मर्यादा और विपाक शक्ति मे कमी हो जाती है। इसे अपकर्पण कहते है । कभी-कभी इससे विपरीत स्थिति में जीव कालमर्यादा और विपाक शक्ति मे वृद्धि भी कर लेता है वही उत्कर्षण कहलाता है । १६८ ४. सत्ता -- कर्म बन्वते ही अपना असर नही प्रकट करने लगते । जैसे मादक वस्तु का सेवन करते ही नशा नही आ जाता, धीरे-धीरे आता है, उसी प्रकार कर्मवन्ध के पश्चात् बीच का नियत समय, जिसे श्रवावाकाल कहते हैं, समाप्त होने पर ही कर्म का फल होता है । बन्ध होने के और फलोदय पर ही कर्म का फल होता है । बन्ध होने और फलोदय होने के वीज कर्म ग्रात्मा में विद्यमान रहते हैं । जैनशास्त्रो मे वह ग्रवस्था 'सत्ता' के नाम से प्रसिद्ध है । ५. उदय-कर्म का फलदान उदय कहलाता है । अगर कर्म अपना फल देकर निर्जीर्ण हो तो वह फलोदय, और फल दिये विना ही नष्ट हो जाए तो वह प्रदेशोदय कहलाता है । ६ उदीरणा -- महीना - बीस दिन मे वृक्ष पर पकने वाले फल को लोक कृत्रिम गर्मी पहुंचाकर एक ही दिन में पका लेते है, इसी प्रकार बन्ध के समय नियत हुई कालमर्यादा में कमी करके कर्म को जल्दी उदय मे ले ग्राना उदीरणा है । अपकर्षण के द्वारा स्थिति घट जाती है और नियत समय आने से पहले ही जब ग्रायु पूरी भोग ली जाती है, तो उसे लोक व्यवहार मे कालमृत्यु और शास्त्रीय परिभाषा में प्रयुकर्म की उदीरणा कहते हैं । ७. संक्रमण --एक कर्म के अनेक अवान्तर भेद है । एक कम अपने नजानीय दूसरे भेट मे बदल सकता है। यह अदल-बदल मे सक्रमण कहलाता है । स्मरण रखना चाहिए कि मूल ग्राठ कर्मो से एक कर्म पलट कर दूसरा कर्म नहीं बन सकता । पर एक ही कर्म की अवान्तर प्रकृति पलट सकती है। हाँ, इनमें दो अपवाद है । प्रथम यह कि प्रायुकर्म के ग्रवान्तर भेदो का सक्रमण नही होता, मनुष्यायु अगर बन्ध चुकी है तो पलट कर वह देवायु, अन्य कोई ग्रायु नही हो सकती। दूसरा अपवाद यह है कि दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय के रूप में नही पलटता, और चारित्रमोहनीय, दर्शनमोहनीय नहीं बनता । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमवाद १६९ ८. उपशम--कर्मों को विद्यमान रहते भी उदय मे आने के लिए अक्षम बना देना उपशम है । जैसे अगार को राख से ऐमा दवा देना कि वह अपना काय न कर सके। ९. निधत्ति--कर्मों का सक्रमण और उदय न हो सकना निधत्ति है। १०. निकाचना--कर्मों का ऐसे प्रगाढ रूप मे बन्धना कि उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण आदि न हो सके (इसमे भी विरल अपवाद हो सकता है)। कर्मक्षय से लाभ-जो कर्म आत्मा की जिस शक्ति को नष्ट करता, न्यून करता या विकृत करता है, उसके क्षय से वही शक्ति प्रकट होती, पूर्ण होती या शुद्ध होती है । सुगमता के लिए उसका निर्देश कर देना अनुचित न होगा। १ ज्ञानावरण के हटने से अनन्त ज्ञानशक्ति प्रकट होती है। २. दर्शनावरण के हटने से अनन्त दर्शनशक्ति जागृत होती है। ३. वेदनीय का क्षय अनन्त सुख प्रकट करता है । ! ४. मोहनीय के क्षय से परिपूर्ण सम्यक्त्व और चारित्र का आविर्भाव होता है। ५. आयुकर्म के क्षय से अजर-अमरता की अनन्तकालीन स्थिति प्राप्त होती है। ६. नामकर्म के क्षय से अमूर्तत्व गुण प्रकट होता है। जिसे अनन्त मुक्तात्मा एक ही जगह अवगाहन कर सकते हैं। ७. गोत्र कर्म से अगुरुलघुत्व गुण प्राप्त होता है। ८ अन्तराय के क्षय से अनन्त गक्ति व विपुल लाभ प्राप्त होती है। ६ कर्म-बन्ध और कर्म-क्षय की प्रक्रिया का वर्णन तत्वचर्चा में किया जा चुका है। पुनर्जन्म की प्रक्रिया आत्मा एक शाश्वत द्रव्य है। वह उत्पाद और विनाश से रहित होने पर भी परिणामी है। बाह्य और आन्तरिक कारणो से उसमे अनेक पर्याय उत्पन्न होते और नष्ट होते रहते है । ऐसा न होता तो पुनर्जन्म भी सम्भव न होता और पुण्य-पाप के फलस्वरूप होने वाले सुख-दुख का भोग भी मगत न होता। यो तो परिणाम की धारा अविराम गति से प्रवाहित हो रही है, कोई क्षण नही जिसमे मूल अवस्था का सूक्ष्म परिवर्तन न होता हो, फिर भी सब से Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० जैन धर्म स्थूल परिवर्तन पुनर्जन्म का है । प्रात्मा अपने वर्तमान शरीर का परित्याग करके नूतन शरीर ग्रहण करती है । यही पुनर्जन्म है । पुनर्जन्म के सम्बन्ध मे एक विचारक ने लिखा है कि-' मनुष्य इकाई नही है, परन्तु अनेकता का पुञ्ज है, वह सुषुप्त है, वह स्वयं चालित है। वह भीतर से असतुलित है, उसे जागना चाहिए। एक होना चाहिए, अपने आप संश्लिप्ट और मुक्त होना चाहिए । मनुष्य की कल्पना एक बीज से की जाती है, जो कि वीज के नाते मर जायेगा, और पौध के रूप मे पुनर्जीवित होगा । गेहूँ की दो ही सम्भावनाए है, या तो वह पिस कर आटा बन जाए, और रोटी का रूप ले ले, या उसे फिर वो दिया जाए, जिससे अकुरित होकर वह फिर पौधा वन जाय । मनुष्य, सम्पूर्ण और अन्तिम सत्ता नही है, वह ऐसी सत्ता है जो अपने आप को बदल सकती है, जो पुनर्जन्म ले सकती है। यह परिवर्तन घटित करके पुनः-पुन जन्म लेने के लिए, जागरित होने के लिए, यत्न करना सभी धर्मो का ध्येय है।" जैनधर्म के अनुसार जीव आयुकर्म के उदय से जीवित रहता है। अपने जीवन-काल मे जीव क्षण-क्षण मे पूर्ववद्ध आयुकर्म के दलिको (पुद्गलो) को भोग रहा है ।२ युक्त दलिक पृथक् होते जाते है और जब आयुकर्म के समस्त दलिक भोग लिए जाते है तव जीव को वर्तमान शरीर त्याग कर नया शरीर धारण करना पड़ता है। यह एक अटल प्राकृतिक नियम है कि मत्यु से पूर्व ही जीव अगले जन्म के लिए आयु वाध लेता है । पहले की आयु समाप्त होते ही वह उस शरीर का त्याग कर देता है और उसी समय नवीन आयुकर्म का उदय हो जाता है। इसी स्थिति में जीव अगली योनि के लिए आता है। श्रायुकर्म के दलिको का भोग दो प्रकार से होता है, जिसे हम प्राकृतिक और प्रायोगिक कह सकते है । स्वाभाविक क्रम से जो दलिक, जब उदय होने लगता है, उसी उसका समय भोग उदय मे आता है, यही प्रथम प्रकार है। मगर कभी-कभी पायुदलिक नियत समय से पहले ही उदय मे आ जाते है इसे अकाल-मृत्यु या साकस्मिकमरण भी कहते हैं, इसके सात कारण है-- १. "बौद्ध-धर्म के २५०० वर्ष" में सर्वपल्लि राधाकृष्णन् । २ आवीचिकमरण, भगवती, शतक १३, उ०७, पा० १९ । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मवाद १७१ अज्झवसाणनिमित्ते, आहारे, वेयणाअपराघाते। फासे आणापाणू, सत्तविहं झिज्जए आऊ ॥ ठाणाग सूत्र, ठाणा ७ । अर्थात्--१ अत्यन्त तीव्र हर्प-शोक आदि, २ विप-शस्त्र आदि का प्रयोग, ३ आहार की अत्यधिकता या सर्वथा अप्राप्ति, ४. व्याधिजनित वेदना, ५ अाघात, ६ सर्प आदि का दशन और ७ श्वासनिरोध, इन सात कारणो से आयु का क्षय होता है, तात्पर्य यह है कि जो आयु धीरे-धीरे भोगी जाने वाली थी, वह इन में से किसी भी एक कारण के उपस्थित होने पर शीघ्र भोग ली जाती है। आयु भोग लेने के पश्चात् आत्मा के प्रदेश कभी-कभी बन्दूक से गोली की भाति शरीर से बाहर एकदम निकल जाते है, और कभी धीरे-धीरे निकलते है । एकदम निकल जाना "समोहिया-मरण" कहलाता है, और धीरे-धीरे निकलना "असमोहिया-मरण" कहलाता है। मरण के पश्चात् गति नामकर्म के उदय के अनुसार जीव को अगली गति मे जाना पडता है। उसे नवीन जन्म के योग्य स्थान मे पहुचा देना आनुपूर्वी नाम कर्म का काम है । आनुपूर्वी नामकर्म उसे नियत उत्पत्ति-क्षेत्र मे पहुचा देता है। पुरातन शरीर त्याग कर नूतन शरीर ग्रहण करने के लिए जीव की जो गति होती है, वह विग्रहगति कहलाती है। विग्रह अर्थात् इस शरीर से नये शरीर मे जाने के लिये आत्मा की गति को विग्रहगति कहते है। अन्यत्र कहा जा चुका है कि जैसे पृथ्वीतल पर बने हुए मार्गों से मनुष्यो का आवागमन होता है, उसी प्रकार गगनतल मे बनी हुई श्रेणियो के अनुसार ही जीव की गति होती है । पुनर्जन्म के लिए जाने वाले जीव को यदि सीधी श्रेणी मिल जाए तो, उसे इस महायात्रा में सिर्फ एक समय लगता है । सीधी श्रेणी न हो, और एक बार मुड़ना पड़े, तो दो समय और दो मोड खाने पडे, तो तीन समय लगते है । साधारणतया तीन समय में ही जीव अपने उत्पत्ति क्षेत्र मे पहुचता है, विरला अवसर ऐसा होता है कि जब चार समय लग जाते है । विग्रहगति के समय यद्यपि स्थूल शरीर नही रहता, तथापि कार्मण और तेजस नामक दो सूक्ष्म शरीर विद्यमान रहते है। कार्मण शरीर के द्वारा ही उस समय जीव का व्यापार होता है, और वह उत्पत्ति स्थान पर पहुचता है। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैन धर्म उत्पत्ति स्थान पर पहुचते ही जीव को अपने योग्य नई सृष्टि रचनी पड़ती है। नागनो मे छः पर्याप्तियाँ मानी गई है। पर्याप्ति का अर्थ है 'पूर्णता'। वे ये है-- १. आहारपर्याप्ति, २ गरीर-पर्याप्ति, ३. इन्द्रियपर्याप्ति । ४. श्वासोच्छ्वास-पर्याप्ति, ५ भाषा-पर्याप्ति और ६ मन -पर्याप्ति । १. आहार पर्याप्ति - अपनी गति के अनुसार शरीर-निर्माण के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करने की गक्ति की पूर्णता। २. गरीर-पर्याप्ति गरीर-निर्माण की शक्ति की पूर्णता । ३. इन्द्रियपर्याप्ति इन्द्रियो के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करने और उन्हे इन्द्रियो के रूप मे परिणत करने की शक्ति की परि पूर्णता । ४. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति - श्वासोच्छ्वास के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने, उन्हे श्वासोच्छ्वास रूप में परिणत करने और फिर छोड़ने की गक्ति की पूर्णता । ५ भाषा-पर्याप्ति भाषावर्गणा के योग्य पुद्गलो को ग्रहण करके, भाषा-रूप में परिणत करके, बोलने की गक्ति की पूर्णता। ६. मन -पर्णप्ति मनोवर्गणा के पुद्गलो को ग्रहण करके, उन्हें मन के रूप में परिणत करके, और उनकी सहायता से मनन करने की शक्ति की पूर्णता। उत्पत्तिस्थान में जीव सर्वप्रथम इन गक्तियो को प्राप्त करता है। इन में से एकेन्द्रिय जीवो को चार, हीन्द्रिय से लेकर अमनस्क पचेन्द्रिय तक के जीवो को पाच और नमनस्क पचेन्द्रिय जीवो को छहो शक्तियाँ प्राप्त होती है । इन शक्तियों के द्वारा जीव अपने गरीर, इन्द्रिय आदि का निर्माण करता हा निर्माण करने की यह गक्तियों से लगभग पौन घटे में प्राप्त हो जाती है, Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मबाट १७३ फिर धीरे-धीरे निर्माण कार्य चलता रहता है। पर देवो और नारको के जन्म की प्रक्रिया कुछ भिन्न प्रकार की है जो अन्य ग्रन्थो से जानी जा सकती है। जैनशास्त्रो के अनुसार जन्म तीन प्रकार के है-- १ गर्भ २ सम्मूछिम ३. उपपात । माता-पिता के रज-वीर्य के सम्मिश्रण के फलस्वरूप होने वाला जन्म गर्भजन्म है। इधर-उधर के पुद्गलो के सम्मिश्रण के फलस्वरूप होने वाला जन्म सम्मूछिम-जन्म कहलाता है। देव और नारक जीवो का जन्म उपपात जन्म कहलाता है। जरायुज, अर्थात् पतली-सी झिल्ली मे लिपटे हुए जन्म लेने वाले मनुष्य आदि । अण्डे से जन्म लेने वाले पक्षी आदि, और पोतज अर्थात् जन्म लेने के पश्चात् जल्दी ही दीड-भाग कर सकने वाले हरिण आदि गर्भज होते है। नाना प्रकार के कीड़े-मकौडे आदि जीवो का जो गर्भज नही है, सम्मूछिमज होते है । देव और नारक औपपातिक कहलाते है । सुष्टि के समस्त प्राणी इन तीनो में से किसी एक प्रकार से जन्म धारण करते है । हाँ, जो महाभाग नवीन आयु का वन्ध नहीं करते, और कार्मण शरीर का भी अन्त कर देते है, वे अजन्मा हो जाते है । वे जन्म-मरण से मुक्त सिद्ध परमात्मा कहलाते है। Page #192 --------------------------------------------------------------------------  Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०००००००००००००००००००००००.....०००००.. धम्मज्जियं च ववहारे, बुद्धेहायरियं सया। तमायरतो ववहारं, गरहं नाभि गच्छई ॥ -उत्तराध्ययन, अ० १, गा० ४२ । धर्महीन नीति जगत् के लिए अभिशाप है, और नीतिहीन धर्म कोरी वैयक्तिक साधना है, अत महावीर कहते है कि हे साधक, जो व्यवहार धर्म से उत्पन्न है और ज्ञानी पुरुषो ने जिनका सदा आचरण किया उन व्यवहारो का आचरण करने वाला पुरुष कभी निन्दा को प्राप्त नहीं होता। 1000000०००००००००००...०००००००००००० 000000000000000000000000001 चारित्र और नीतिशास्त्र Page #194 --------------------------------------------------------------------------  Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र योर नीतिशास्त्र द्विविध धर्म १ चारित्र का महत्त्व -- ज्ञान, दर्शन और चारित्र की त्रिवेणी धारा सीधी मुक्ति की ओर वही जा रही है किन्तु मानव अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार उसकी गहराई में प्रवेश करता है । उद्देश्य सिद्धि के सही पथ को पहचान लेना, ज्ञान की बात रही, और उस पर विश्वास प्रकट करना श्रद्धा की वात, किन्तु चलना तो अपनी-अपनी शक्ति पर ही निर्भर है । कोई मन्दगति से चल पाता है, किन्तु कोई तीव्रगति से चलने में समर्थ होता है | तीव्र चलने वाले को अपनी तमाम मनोवृत्तियो को केन्द्रित, इन्द्रियों को नियन्त्रित, तथा उपाधि को स्वल्प - स्वल्पतर करके भागना पडता है। यदि भागना सम्भव नही हो तो मन्द मन्द चलना सुविधानुसार भी हो सकता है । भगवान् महावीर ने यही तथ्य यो व्यक्त किया है- धम्मे दुविहे पण्णत्ते, तजहा - अगारवम्मे चेव, अणगार - धम्मे चैव । ठाणागसुत, स्था० २ | १. तत्वार्थ सूत्र, अ० १, सू० १ । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ जैनधर्म हा धर्म अर्थात् मुक्तिमार्ग पर चलने के प्रकार दो है-- १. अगार धर्म और २. अनगारधर्म । गृहस्थी मे रहते हुए और पारिवारिक, सामाजिक एवं राष्ट्रीय उत्तरदायित्वो को निभाते हुए मुक्तिमार्ग की साधना करना अगारधर्म है । जिसे श्रावकवर्म या गृहस्थधर्म भी कहते है। जो विशिष्ट साधक गृह-त्याग कर साधु जीवन अगीकार करते है, पूर्ण अहिंसा और सत्य की आराधना के लिए अस्तेय, ब्रह्मचर्य को, अपरिग्रह को अगीकार करते है उनका प्राचार अनगारधर्म कहलाता है। ___ यद्यपि श्रावक और साधु, मुक्ति की साधना के लिए जिन दतो का पालन करते हैं, वे मूलत एक ही है, परन्तु दोनो की परिस्थितिया भिन्न होती है । अत. उनके व्रतपालन की मर्यादा मे भी भिन्नता होती है। समस्त लौकिक उत्तरदायित्वों का परित्याग कर, सयम और त्याग मे ही रमण करने वाला साधु जिन अहिंसा आदि व्रतो को पूर्ण रूप से पालता है, श्रावक उन्हे आंशिक रूप मे पाल सकता है। इस प्रकार योग्यता-भेद के कारण ही अगारधर्म और अनगारधर्म का भेद किया गया है । तात्पर्य यह है कि अहिंसा आदि व्रतो को पूर्ण रूप से पालने वाला साधक, साधु या महाव्रती कहलाता है, और आशिक रूप मे पालन करने वाला साधक श्रावक कहलाता है । व्रतविचार व्रत की परिभाषा--जीवन को सुघड बनाने वाली, आलोक की ओर ले जाने वाली मर्यादाए नियम कहलाती है। अथवा जो मर्यादाए सार्वभौम है, जो प्राणी मात्र के लिए हितावह है, और जिनसे स्वपर का हित-साधन होता है, उन्हे नियम या व्रत कहा जा सकता है। अपने जीवन मे अथवा अनुभव मे आने वाले दोषो को त्यागने का जब दृढ सकल्प उत्पन्न होता है, तभी व्रत की उत्पत्ति होती है। व्रत की आवश्यकता--सरिता के सतत गतिशील प्रवाह को नियन्त्रित रखने के लिए दो किनारे आवश्यक होते है। इसी प्रकार जीवन को नियन्त्रित, मर्यादित और प्रगतिशील बनाये रखने के लिए व्रतो की आवश्यकता है । जैसे १. निश्शल्यो व्रती, तत्वार्थ सूत्र, अ० ७, मूत्र, १८, आवश्यक चतु० आ० सूत्र ७। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र १७९ किनारो के अभाव मे प्रवाह छिन्न-भिन्न हो जाता है, उसी प्रकार व्रतविहीन मनुप्य की जीवन-शक्ति भी छिन्न-भिन्न हो जाती है। अतएव जीवन-शक्ति को केन्द्रित करने और योग्य दिशा मे ही उसका उपयोग करने के लिए नतो की अत्यन्त आवश्यकता है। आकाग मे ऊँचा उडने वाला पतग सोचता है-"कि मुझे डोर के वन्धन की क्या आवश्यकता है ? यह बन्धन न हो तो मै स्वच्छन्द भाव से गगनविहार कर सकता हू"; किन्तु हम जानते है कि डोर टूट जाने पर पतग की क्या हालत होती है । डोर टूटते ही पतग के उन्मुक्त व्योमविहार का स्वप्न भग हो जाता है, और उसे धूल मे मिलना पडता है । इसी प्रकार जीवन-पतग को उन्नत रखने के लिए व्रतो की डोर के साथ बन्धे रहने की आवश्यकता है। मूलभूत दोष--प्रत्येक व्यक्ति मे भिन्न-भिन्न प्रकार के दोप पाये जाते है। उनकी गणना करना सभव नही। तथापि उन सव दोपो के मूल की यदि खोज की जाए तो विदित होगा कि मूलभूत दोष पाँच है । जो शेष समस्त दोषो के जनक है और जो व्यक्ति के जीवन मे पनप कर उसे नाना प्रकार की बुराइयो का पात्र बना देते है । वे यह है'.--- १. अहिंसा, २. असत्य, ३ अदत्तादान, ४. मैथुन और, ५ परिग्रह । इन पाच दोपो के कारण ही मानवता सत्रस्त होती और कुचली जाती है । इन्ही के प्रभाव से मानव दानव, राक्षस, चोर, लुटेरा, अनाचारी, लोभी, स्वार्थी, प्रपची, मिथ्याभावी और न जाने किन-किन वुराइयो का घर वन जाता है। यही दोप है जो आत्मा के उत्थान के मार्ग मे चट्टान की भाति प्राडे आते है, और जब मनुष्य इन पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त कर लेता है तो उसे महात्मा एव परमात्मा बनने मे क्षण भर का विलम्ब नही लगता। यह दोप मानव तथा अन्यान्य जीवधारियो मे भी जन्म-जन्मान्तर के कुसस्कारो के कारण प्रश्रय पा रहे है । वस्तुत यही आत्मा के वास्तविक शत्रु है। राग और द्वेष इनके जन्मदाता है। पूर्वोक्त पॉच दोषो मे भी हिंसा सबसे बडा दोष है, सब से बडा पाप . है और वही अन्य समस्त पापो का जनक है। साधारणतया प्राणघात को हिंसा कहते है, परन्तु हिंसा और अहिंसा १ तत्वार्थ सूत्र, अ० ७, सू० १, । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० जैन धर्म का स्वरूप गम्भीर और सूक्ष्म चिन्तन की अपेक्षा रखता है । हिंसा, प्रमाद मे । और अहिसा विवेक मे छिपी हुई है । मनोभावना ही हिंसा-अहिंसा की निर्णायक कसौटी है। किसी के प्राणो का वध हो जाना ही हिंसा नहीं है, किन्तु प्रमादवग अर्थात् राग-द्वेष के वशीभूत होकर प्राणो का जो वध किया जाता है वही हिंसा है । प्रश्न हो सकता है कि-"किसी प्राणी की रक्षा करते हुए अगर उसके प्राणो की हानि हो जाए, अथवा अपनी ओर से सावधान रहने पर भी अकस्मात् कोई जीव किसी के निमित्त से मर जाए तो क्या उसे हिंसा का दोष लगेगा ?" इस प्रश्न का उत्तर है-"नही। रक्षा करते हुए अगर प्राणहानि हुई है, और तुम्हारा विवेक पूर्ण रूप ने जागृत रहा है, तो तुम हिसा के फल के भागी नहीं होओगे। अलवत्ता अगर तुमने असावधानी की है, प्रमाद को आश्रय दिया है, या तुम्हारे चित्त मे कषाय उत्पन्न हुआ है तो अवश्य तुम्हे हिंसा का भागी होना पड़ेगा।" प्राणवध स्थूल क्रिया है और प्रमाद योग सूक्ष्म क्रिया है। प्राणवध द्रव्य हिंसा कहलाता है और प्रमाद योग भाव हिमा । भाव हिसा एकान्त हिंसा है, जब कि द्रव्य हिसा एकान्त हिसा नही । भाव हिमा की मौजूदगी मे होने वाली द्रव्य हिंसा ही हिंसा है। जैसे चिकित्सक करुणाभाव से सावधानी के साथ रोगी का आपरेशन करता है, किन्तु रोगी किसी कारण मर जाता है, तो वह द्रव्यहिंसा चिकित्सक के हिसा जनित पापवन्ध का कारण नहीं होगी। इसके विपरीत लोभ-लालच अथवा किसी अन्य कारण से चिकित्सक रोगी को विषमिश्रित औषध देता है और आयु लम्बी होने के कारण रोगी मृत्यु से बच जाता है तब भी चिकित्सक हिंसा के पाप का भागी हो जाता है। इस प्रकार जैनधर्म हिसा को क्रिया पर नही वरन् मुख्यतः भावना पर आश्रित मानता है । भावना ही हिसा और अहिसा की अचूक कसोटी है । असत्य-असत् भाषण करना दूसरा दोष है । असत् का अर्थ है 'अयथार्थ' १ तत्वार्य सूत्र, अ० ७, सूत्र ३ । २ प्रमत्तयोगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसा, तत्वार्थ सूत्र, अ० ७, सू० १३ ।। ३. भगवती सूत्र, श० १, उ० १, सू० ४८ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र' १८१ और अप्रशस्त । जो वस्तु या घटना जैसी है उसे वैसी न कहकर अन्यथा कहना अयथार्थ असत्य है। जिसे साधारण जन भी असत्य मानते है, परन्तु जो वजन दूसरो को पीडा पहुचान के लिए बोला जाता है, जिसके पीछे दुर्भावना काम कर रही होती है, वह भी असत्य होता है अत उसे अप्रशस्त असत्य कहते है। किसी निर्धन को कगाल कहना, चक्षुहीन को चिढाने या चोट पहुचाने के लिए अन्धा कहना, किसी दुर्बल को दुखी कहने के लिए मरियल आदि कहना, अथवा हिंसाजनक या हिसोत्तेजक भाषा का प्रयोग करना, यह सब असत्य मे परिगणित है, फिर भले ही वह तथ्य या यथार्थ ही क्यो न हो। अदत्तादान--स्वामी की इच्छा या आज्ञा के बिना किसी वस्तु को ग्रहण करना अपने अधिकार में करना अदत्तादान है। किसी की वस्तु मार्ग मे गिर पडी है या कोई अपनी वस्तु कही रखकर भूल गया है, उसे हड़प जाना या दवा लेना भी अदत्तादान मे ही सम्मिलित है । जव मनुष्य लालच-वृत्ति को स्वच्छन्द छोड देता है, तब अनधिकृत वस्तु पर भी अधिकार करने का प्रयत्न करता है । नीति-अनीति के विवेक को तिलाजलि दे देता है और जैसे-तैसे भी अपनी लोलुपता की पूर्ति करता है । इसी भावना से अदत्तादान-चोरी के पाप का प्रादुर्भाव होता है। मैथुन--स्त्री और पुरुष के कामोद्वेगजनित पारस्परिक सम्बन्ध की लालसा एव क्रिया मैथुन कहलाती है। मैथुन को अब्रह्म कहा है और उसे अब्रह्म कह कर यह सूचित किया गया है कि काम-दोष आत्मा के सद्गुणो का नाश करने वाला है। यो तो प्रत्येक पाप आत्माको कलुषित करने वाला ही है, किन्तु मैथुन के पाप मे एक बड़ी बात यह है कि कई बार उसकी परम्परा दीर्घ काल के लिए चल पडती है । इस पाप के चक्कर मे पड कर व्यक्ति अन्यान्य पापो का प्राय शिकार बनता है। यह पाप आत्मा के सदगुणो का घात करता है। शरीर को नि सत्व बनाता है । समाज की नैतिक मर्यादाओ का उल्लघन करता है और अभ्युदय मे विकट बाधाए उपस्थित करता है । अतएव यह भयानक पाप है । परिग्रह-किसी भी परपदार्थ को ममत्व भाव से ग्रहण करना, परिग्रह . १ प्रश्न व्याकरणांग, आश्रव-द्वार २। २ प्रश्न व्याकरणाग, आश्रव-द्वार ३ । ३ प्रश्न व्याकरणाग, आश्रव-द्वार ४॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ जैन धर्म कहलाता है। ममत्व, मूर्छा या लोलुपता ही वास्तव म परिग्रह है । " उमी से संसार के अधिकाश दुख उत्पन्न होते है । भौतिक पदार्थों पर आसक्ति रखने से विवेक नष्ट हो जाता है । आत्मा अपने स्वरूप से विमुख होकर और राग-द्वेप के वीभूत होकर अनेक दोषो का सेवन करता हुग्रा लक्ष्य भ्रप्ट हो जाता है । यह पाच महान् दोप हैं, जिनसे ससार के समस्त दोपों की उत्पत्ति होती है । इतिहास साक्षी है कि इन्ही टोपो के कारण मनुष्य अपना और ससार का अहित करता आया है । मगर दोषो का शमन हो जाए तो गान्ति और स्थायी एव सच्चे सुख की प्राप्ति में विलम्ब न लगे । आत्मा को इन दोपो से मुक्त करना ही जैनधर्म की साधना का मुख्य लक्ष्य है । जब यह सावना अपनी पूर्णता पर पहुच जाती है, तव श्रात्मा, परमात्मा पढ का अधिकारी बन जाता है । पात्रों की योग्यता एव क्षमता का विचार करके जैनधर्म मे यह सावना दो भागो में वांट दी गई है, जिसे हम पहले अगारधर्म (गृहस्थ धर्म) और दूसरा धनगर ( साधु- धर्म) के नाम से कह चुके है । " २ • गृहस्थधर्म की पूर्व भूमिका संघ का विभाजन - भगवान् महावीर ते जब धर्मशासन की स्थापना की तो स्वाभाविक ही था कि उसे स्थायी और व्यापक रूप देने के लिए वे संघ की भी स्थापना करते । क्योकि संघ के विना धर्म ठहर नही सकता | जैन सघ चार श्रेणियों में विभक्त है । १. साबु, २. साध्वी, ३. श्रावक, ४. श्राविका । इनमें साधु र साध्वी का श्राचार लगभग एक-सा और श्रावक-श्राविका का ग्राचार एक-सा है । जैन सब में श्रावक और श्राविका का महत्त्वपूर्ण स्थान है | श्रावक का श्राचार मुनि धर्म के लिए नीव के समान है । उसी के ऊपर मुनि के आचार का भव्य प्रासाद निर्मित हुआ है । धर्म संघ की स्थापना एक महत्त्वपूर्ण वात थी और उसमे भी गृहस्थो को समुचित स्थान मिलना, श्रमण भगवान् की विशालता और उदारता का १. दार्वकालिक, अ० ६, गाया २१ । २ ठाणांग सूत्र, स्था० २, उ० १ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ चारित्र और नीतिशास्त्र परिचायक है । कुछ लोग समझते है कि जैनधर्म निवृत्तिमय धर्म, और त्यागियोवैरागियो के ही काम की ही चीज है, किन्तु उनका यह भ्रम जैनो की संघ व्यवस्था का विचार करने से ही हट सकता है। श्रावक पद का अधिकार-जैनधर्म मे जैसे मुनियो के लिए आवश्यक प्राचार प्रणालिका निर्दिष्ट की गई है, और उस आचार का पालन करने वाला साधक हो मुनि कहलाता है, उसी प्रकार श्रावक होने के लिए भी कुछ आवश्यक शर्त है । प्रत्येक गृहस्थ श्रावक नही कहला सकता, बल्कि विशिष्ट व्रतो को अगीकार करने वाला गृहस्थ ही श्रावक कहलाने का अधिकारी है। जैन परम्परा के अनुसार श्रावक बनने की योग्यता प्राप्त करने के लिए सात दुर्लसनो का त्याग करना आवश्यक है-वे दुर्व्यसन ये है १ जुआ खेलना, २. मासाहार, ३ मदिरापान, ४ वेश्यागमन, ५ गिकार, ६ चोरी और ७. परस्त्रीगमन । यह सातो ही कुव्यसन जीवन को अध पतन की ओर ले जाते है । इनमे से किसी भी एक व्यसन में फंसा हुआ अभागा मनुष्य, प्रायः सभी व्यसनो का शिकार बन जाता है। इन सात कुव्यसनो मे से नियमपूर्वक किसी भी व्यसन का सेवन न करने वाला ही श्रावक बनने का पात्र होता है। श्रावक बनने के लिए--इन सात दुर्व्यसनो के त्याग के अतिरिक्त गृहस्थ में अन्य गुण भी होने चाहिएं । जैन परिभाषा मे उन्हे मार्गानुसारी के गुण कहते है । क्योकि जिन मार्ग का अनुसरण करने के लिए इन गुणो का होना आवश्यक है । उनमे कुछ ये है नीतिपूर्वक धनोपार्जन करे, शिप्टाचार का प्रशसक हो, गुणवान् पुरुषो का आदर करे, मधुरभापी हो, लज्जाशील हो, गीलवान् हो, माता-पिता का भक्त एवं सेवक हो, धर्मविरुद्ध, देशविरुद्ध, एवं कुलविरुद्ध, कार्य न करने वाला, पाय से अधिक व्यय न करनेवाला, प्रतिदिन धर्मोपदेश सुनने वाला, नियत समय पर परिमित सात्विक भोजन करने वाला, परस्पर विरोध-रहित धर्म अर्थ एव काम रूप त्रिवर्ग का सेवन करने वाला, अतिथि, दोन-हीन जनो एव साधु-सन्तो का सत्कार करने वाला। गुणो का पक्षपाती, अपने आश्रित जनो का पालन-पोषण करनेवाला, आगा-पीछा मोचने वाला, सौम्य, परोपकार-परायण, काम-क्रोध आदि Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ जैन धर्म आन्तरिक शत्रुनो को नष्ट करने मे उद्यत, और इन्द्रियो पर काबू रखने वाला हो । इत्यादि गुणो से युक्त गृहस्थ ही श्रावक धर्म का अधिकारी होता है। जैनशास्त्रो मे प्रकारान्तर से श्रावक की २१ विशेषतायो (गुणो) का भी उस्लेख है। यथा १ श्रावक का किसी को कष्ट देने का स्वभाव नही होना चाहिए । २ तेजस्वी और सशक्त स्वभाव वाला हो, अन्तर का सौम्यभाव उसके चेहरे पर प्रतिविम्बित हो। __३ शान्त, दान्त, क्षमाशील, मिलनसार, विश्वास-पात्र और शीतल चित्त हो। ४. अपने व्यवहार से लोकप्रिय हो। ५. क्रूरता से रहित हो। ६ लोकापवाद से डरे, इह-परलोक के विरुद्ध कार्य न करे। ७ गठ, धूर्त एवं अविवेकी न हो। ८ दक्ष हो-व्यवहार कुशल हो और एक नजर मे ही आदमी को परख ले। ६ लज्जागील हो। १० दयावान हो। ११ मध्यस्थभावी हो-भली-बुरी बात सुनकर, या वस्तु को देखकर, राग-द्वेप न करे, आसक्तिशील न हो। १२ सुदृष्टिमान्-अन्तःकरण मे मलीनता न हो, आंखो से अमृत झरे, और सम्यग्दृष्टि हो। १३ गुणानुरागी हो। १४ न्याय युक्त पक्ष ग्रहण करे, अन्याय का साथ न दे । १५ दीर्घदृष्टि हो-भविष्य का विचार करके व्यवहार करे। १६ विशेषज्ञ हो-अर्थात् सत्-असत्, हित, अहित एव गुण अवगुण को परीक्षा करने मे कुशल हों। १७ वृद्धानुगामी हो, अर्थात् अनुभवी व्यक्तियो के अनुभव का लाभ लेता हुअा प्रवृत्ति करे। १८. विनयवान् हो। १६ रग-रग मे कृतज्ञता भरी हो। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र १८५ २० “परोपकाराय सता विभूतय' अर्थात् सत्पुरुपो का सर्वस्व परहित के लिए ही होता है, ऐसी उनकी जीवन नीति हो । २१ लब्धलक्ष्य हो, अर्थात् अपने जीवन के प्रशस्त लक्ष्य को प्राप्त करने वाला हो। __ जिस गृहस्थ के जीवन मे उल्लिखित विशेषताए आ जाती है, उसका जीवन आदर्श गृहस्थ-जीवन हो जाता है। तभी वह श्रावधा-धर्म को अगीकार करने और उसका समचित रूप से पालन करने में समर्थ होता है। गहस्थधर्म जैन शास्त्र का विधान है--"चारित्त धम्मो।" अर्थात "चारित्र ही धर्म है।" चारित्र क्या है ? इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहा गया है ___ "असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं" अर्थात् “अशुभ कर्मो से निवृत्त होना और शुभ कर्मो मे प्रवृत्त होना, चारित्र कहलाता है । वस्तुत. सम्यक्-चारित्र या सदाचार ही मनुष्य की विशेषता है। सदाचारहीन जीवन गन्धहीन पुष्प के समान है। चारित्र धर्म के नियम गृहस्थ वर्ग और त्यागी के लिए पृथक्-पृथक् वतलाये गए है । गृहस्थ-वर्ग के लिए बतलाए गए व्रतो का अर्थात् श्रावक धर्म का, यहा मक्षिप्त स्वरूप प्रस्तुत किया जाता है। अणुव्रत अणुव्रत का अर्थ है छोटा व्रत १ अहिंसाणुव्रत-पहला व्रत स्थूल प्राणातिपात विरमण अर्थात् जीवो की हिंसा से विरत होना है। संसार म दो प्रकार के जीव है, स्थावर और त्रस । जो जीव अपनी इच्छा अनुसार स्थान बदलने में असमर्थ है, वे स्थावर कहलाते है । पृथ्वीकाय, अप्काय (पानी), अग्निकाय, वायुकाय और वनस्पतिकाय, यह पाच प्रकार के स्थावर जीव है । इन जीवो की सिर्फ स्पर्गेन्द्रिय ही होती है। अतएव इन्हे एकेन्द्रिय जीव भी कहते है। सुख-दुख के प्रसग पर जो जीव अपनी इच्छा के अनुसार एक जगह से दूसरी जगह पाते है, जो चलते-फिरते और बोलते है, वे त्रस जीव है । इन त्रस जी वो मे दो इन्द्रियो वाले, कोई तीन इन्द्रियो वाले, कोई चार इन्द्रियो वाले, कोई Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ जैन धर्म पाच इन्द्रियो वाले होते है। नमार के समस्त जीव स और स्थावर विभागों में सम्मिलित हो जाते है। मुनि दोनो प्रकार के जीवो की हिंसा का पूर्ण रूप से त्याग करते हैं। परन्तु गृहस्थ ऐसा नहीं कर सकते, अतएव उनके लिए स्थूल हिंसा के त्याग का विधान किया गया है । निरपराध त्रस जीव की संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा को ही गृहस्थ त्यागता है। जैनगास्त्रो मे हिंसा चार प्रकार की वतलाई गई है। १ प्रारम्भी हिंसा, २ उद्योगी हिंसा, ३ विरोधी हिना और ४ संकली हिंसा। १. जीवन निर्वाह के लिए, आवश्यक भोजन-पान के लिए, और परिवार के पालन-पोषण के लिए अनिवार्य रूप से होने वाली हिसा प्रारम्भी हिसा है । २. गृहस्थ अपनी आजीविका चलाने के लिए, कृपि, गोपालन, व्यापार आदि उद्योग करता है और उन उद्योगो में हिसा की भावना त होने पर भी जो हिसा होती है, वह उद्यमी या उद्योगी हिसा कहलाली है। ३. अपने प्राणो की रक्षा के लिए, कुटम्ब-परिवार की रक्षा के लिए अथवा अाक्रमणकारी शत्रुनो से देश की रक्षा करने के लिए की जाने वाली हिसा विरोधी हिंसा है। ४. किसी निरपराध प्राणी की, जान-बूझ कर, मारने की भावना स हिसा करना संकल्पी हिसा है । चार प्रकार की इस हिसा मे गृहस्थ पहले व्रत मे सकल्पी हिंसा का त्याग करता है और शेष तीन प्रकार की हिसा मे यथाशक्ति त्याग करके अहिंसा व्रत का पालन करता है। अहिसा व्रत का शुद्ध रूप से पालन करने के लिए पाच दोपो से बचते रहना चाहिए। १. किसी जीव को मारना, पीटना, त्रास देना, २. किसी का अगभग करना, अपग बनाना, विरूप करना। ३ किसी को वन्वन मे डालना, यथा-तोते के पीजरे मे वन्द करना, कुत्तो १. प्रश्न व्याकरण आश्रव द्वार, २. उपासक दशांग अ० १। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र १८७ को रस्सी से वाधे रखना, मान को पिटारे मे बन्द कर देना, एसा करने से उन प्राणिको की स्वाधीनता नष्ट हो जाती है और उन्हे व्यथा पहुचती है। ४ घोडे, बैल, खच्चर, गधे आदि जानवरो पर सामर्थ्य से अधिक बोझ लादना, नौकरो से अधिक काम लेना । ५ अपने आश्रित प्राणियो को समय पर भोजन-पानी न देना तथा रात्रि भोजन आदि नमस्त दोषो का त्याग अहिसाणुव्रत की भावना मे आवश्यक है । २ सत्याणुव्रत-स्थूल असत्य बोलने का सर्वथा त्याग करना और सूक्ष्म असत्य के प्रति नावधान रहना द्वितीय व्रत है। यद्यपि स्यूल और सूक्ष्म असत्य की कोई निश्चित परिभाषा देना कठिन है, तथापि जिस असत्य को दुनिया असत्य मानती है, जिस असत्य भाषण से मनुष्य झूठा कहलाता है, जो लोकनिन्दनीय और राजदण्डनीय है, वह असत्य स्थूल असत्य कहलाता है । श्रावक ऐसे स्थूल असत्य-भाषण का त्याग करता है। झूठी साक्षी देना, झूठा दस्तावेज या लेख लिखना, किसी की गुप्त वात प्रकट करना, चुगली करना, सच्ची-झूठी कह कर किसी को गलत रास्ते पर ले जाना, यात्मप्रगसा और परनिन्दा करना आदि स्थूल मृषावाद मे सम्मिलित है । इस व्रत का भलीभाति पालन करने के लिए इन पाचो बातो से वचना चाहिए।' जैसे कि - १. दूसरे पर मिथ्या दोषारोपण करना । २. किसी की गुप्त वात प्रकट करना। ३ पत्नी आदि के साथ विश्वास घात करना । ४ दूसरे को गलत मलाह देना। ५ जालसाज़ी करना, झूठे दस्तावेज आदि लिखना । ३.अचौर्याणवत-मन, वाणी और शरीर से किसी की सम्पत्ति को बिना अाज्ञा न लेना अचौर्याणुव्रत कहते है । चोरी भी दो प्रकार की है स्थल चोरी, और मूक्ष्म चोरी। जिस चोरी के कारण मनुष्य चोर कहलाता है, न्यायालय से दण्डित होता है, और जो चोरी लोक में चोरी के नाम से विख्यात है, वह स्थूल चोरी है। रास्ते मे चलते-चलते तिनका या ककर उठा लेना या इसी प्रकार की कोई दूसरी वस्तु उसके स्वामी से आना प्राप्त किए विना ग्रहण कर लेना सूक्ष्म १. उपासक दशांग, अ० १ । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ जैनधर्म चोरी है। गृहस्थ के लिए सम्पूर्ण चोरी का त्याग करना कठिन है, तथापि स्थूल चोरी का त्याग करना ही चाहिए। सेध लगाना, जेब काटना, डाका डालना, सूद के बहाने किसी को लूट लेना, आदि स्थूल चोरी के अन्तर्गत है। अचौर्याणुव्रती को इन पाच वातो से वचना चहिए --- १. चोरी का माल खरीदना । २. चोर को चोरी करने में सहायता देना । ३. राज्य-राष्ट्र के विरुद्ध कार्य करना, जैसे उचित 'कर' न देना आदि। ४. न्यूनाधिक नाप-तोल करना। ५. मिलावट करके अशुद्ध वस्तु वेचना। ४. ब्रह्मचर्याणुव्रत-कामभोग एक प्रकार का मानसिक रोग है । उसका प्रतिकार भोग से नहीं हो सकता। यह समझ कर मानसिक बल शारीरिक स्वस्थता और पात्मिक प्रकाश की रक्षा के लिए संभोग से सर्वथा बचना पूर्ण ब्रह्मर्यव्रत है। जो पूर्ण ब्रह्मचर्य की आराधना नही कर सकता, उसे कम-से-कम पर स्त्रीगमन का त्याग तो करना ही चाहिए। इस प्रकार परस्त्रीत्याग और स्वस्त्री सन्तोष करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है। सभोग की प्रतिक्रिया मे असंख्य सूक्ष्म जीवों का वध होता है। इससे राग, द्वेष और मोह की वृद्धि होती है । वह समस्त पापो का मूल है । अतएव जो गृहस्थ उसे अपनी पत्नी तक सीमित कर लेता है और पत्नी में भी अत्यासक्ति नहीं रखता, वह अन्त मे काम वासना पर पूर्ण रूप से विजय प्राप्त कर सकता है। ब्रह्मचर्याणुव्रती को निम्नलिखित पाच वातो से बचना चाहिए ----- १ किसी रखेल आदि के साथ कसम्बन्ध स्थापित करना । २. कुमारी या वेश्या आदि के साथ गमन करना । ३ अप्राकृतिक रूप से मैथुन सेवन करना। २. अपना दूसरा विवाह करना तथा दूसरों के विवाह सम्बन्ध स्यापित करते फिरना। ५ कामभोग की तीव्र अभिलाषा रखना। ५. परिग्रह परिमाण अणुवत--परिग्रह ससार का बडे से बड़ा पाप है। १. उपासक दशांग, अ० १। २ उपासक दशांग अ०१। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र १८९ आज ससार के समक्ष जो जटिल समस्याएं उपस्थित है, सर्वव्यापी वर्ग सघर्ष की जो दावाग्नि प्रज्वलित हो रही है, वह सव परिग्रह - मूर्छा की देन है । जब तक मनुष्य के जीवन मे अमर्यादित लोभ, लालच, तृष्णा, ममता या गृद्धि विद्यमान है, तब तक वह शान्तिलाभ नही कर सकता । अतएव परिग्रह की सीमा कर लेना आवश्यक है । यही परिग्रहपरिमाण अणुव्रत कहलाता है । इस अणुव्रत का अगर व्यापक रूप से पालन किया जाय तो भूमंडल को स्वर्गधाम बनने में पल भर देर न लगे । सर्वत्र मुख और शान्ति कासाम्राज्य स्थापित हो जाय । इस अणुव्रत का पालन करने के लिए निम्नलिखित पाच दोपो से वचना श्रावश्यक है -- १. मकानो, दुकानो तथा खेतो की मर्यादा को किसी भी बहाने से वदाना । २. इसी प्रकार सोने-चादी ग्रादि के परिमाण को भग करना । ३. द्विरद ( नौकर ) तथा चतुप्पद (गाय, घोडा आदि) के परिमाण का उल्लघन करना । ४ मुद्रा. जवाहरात प्रादि की मर्यादा को भग करना । ५. दैनिक व्यवहार मे ग्राने वाली वस्त्र, पात्र, ग्रासन ग्रादि वस्तु के लिए परिमाण को उल्लघन करना । गुणव्रत और शिक्षा व्रत -- पूर्वोक्त पाच प्रणुव्रत गृहस्थ के मूल व्रत है । उनका भली भाति श्राचरण करने के लिए कुछ और व्रतो की भी आवश्यकता होती है । जिनसे मूल व्रतो की सपुष्टि, श्रीर वृद्धि और रक्षा होती है। उन्हे उत्तर व्रत कहते है, उन्हें भी दो भागो मे विभक्त किया गया है । गुणव्रत और शिक्षा व्रत । गुणव्रत तीन, और शिक्षा व्रत चार है ।" यह सब मिलकर श्रावक के बारह व्रत कहलाते है । उनका सक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है १ दिग्व्रत २ -- मनुष्य की अभिलाषा ग्राकाश की भाति असीम और अग्नि की तरह वह समग्र भूमण्डल पर अपना एकच्छत्र साम्राज्य स्थापित करने का मधुर स्वप्न ही नही देखती, वरन् उस स्वप्न को साकार करने के लिए विजय- अभिमान भी करती है । ग्रर्थ लोलुपी मानव तृष्णा के वश होकर विभिन्न देशो मे परिभ्रमण करता है। विदेशो में व्यापार-सस्थान स्थापित करता है और इधर-उधर मारा-मारा फिरता है । मनुष्य की इस निरकुश तृष्णा को नियन्त्रित १ औपपातिक सूत्र, वीरदेशना । २ उपासक दशाग अ० १ । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० जैन धर्म करने के लिए दिग्वत का विधान किया गया है । इस व्रत का धारक श्रावक समस्त दिनायो में गमनागमन की मर्यादा करता है, और उसमे वाहर सव प्रकार के व्यापारो का त्याग कर देता है । २. उपभोग-परिभोग परिमाण--एक बार भोगने योग्य आहार आदि उपभोग कहलाते है। जिन्हें पुन. पुनः भोगा जा सके, ऐसे वस्त्रपात्र, आदि को परिभोग कहते है। इन पदार्थों को काम में लाने की मर्यादा वाव लेना उपभोगपरिभोग परिमाण व्रत है । यह व्रत भोजन और कर्म (व्यवसाय) से दो भागो में विभक्त किया गया है । भोजन पदार्थो की मर्यादा करने से लोलुपता पर विजय प्राप्त होती है। व्यापार सम्बन्धी मर्यादा कर लेने से पापपूर्ण व्यापारो का त्याग हो जाता है। ३. अनर्थ दण्ड त्याग-विना प्रयोजन हिसा करना अनर्थदण्ड कहलाता है। विवेकशून्य मनुष्यों की मनोवृत्ति चार प्रकार से व्यर्थ ही पाप का उपार्जन करती है१. अपध्यान दूसरो का बुरा विचारना। २. प्रमादाचरित जाति - कुल आदि का मद करना तथा विकथा, निन्दा आदि करना। ३ हिसाप्रदान हिसा के साधन-तलवार, वन्दूक, वम आदि का निर्माण करके दूसरो को देना, सहारक शस्त्रो का आविष्कार करना। ४ पापोपदेश - पाप-जनक कार्यों का उपदेश देना। इस व्रत को अंगीकार करने वाला साधक कामवासना वर्द्धक वार्तालाप नही करता, कामोत्तेजक कुचेष्टाए नहीं करता। असभ्य-फूहड वचनो का प्रयोग नहीं करता, हिंसाजनक शस्त्रो के आविष्कार, निर्माण या विक्रय मे भाग नहीं लेता, और भोगोपभोग के योग्य पदार्थो मे अधिक आसक्त नही होता। ४ सामायिकवत--२ मन की राग-द्वेषमय परिणति विषमभाव है। इस विपमभाव को दूर करके जगत् के समस्त पदार्थों मे तटस्थभाव समभाव स्थापित करना ही जैन साधना का उद्देश्य है । क्योकि समभाव के अभाव म मच्ची शान्ति का लाभ नही हो सकता। इसी कारण आईती साधना चरम उद्देश्य समता को केन्द्र मानकर मुक्ति की ओर गया है। १. उपासक दशांग अ०१। २. उपासक दशांग अ०१। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र १९१ समभाव को प्राप्त करने, विकसित करने और स्थायी बनाने के लिए जिस व्रत का अनुष्ठान किया जाता है, वह सामायिक व्रत है । इस व्रत की आगवना का काल ४८ मिनिट निर्दिष्ट किया गया है । इस काल में गृहस्थ श्रावक को समस्त पापमय व्यापारो का त्याग करके आत्मचिन्तन करना चाहिए। सामायिक के समय मे प्राप्त हुई समभाव की प्रेरणा को जीवनव्यापी बनाने का यरन करना चाहिए । ५ देशावकाशिकव्रत --- दिग्व्रत में जीवन पर्यन्त के लिए किये गए दियाओ के परिमाण को एक दिन या न्यूनाधिक समय के लिए कम करना, और उस परिमाण से बाहर समस्त पाप कार्यो का त्याग करना देशावकाशिक वत है | २ ६. पौषवव्रत --- जिमसे प्रात्मिक गुणो या धर्म भाव का पोषण होता है, वह पौषघव्रत कहलाता है । इस व्रत का श्राचरण प्राय अष्टमी, चतुर्दशी मादि विशिष्ट तिथियो में किया जाता है। एक रात-दिन उपवास करना, अखड ब्रह्मचर्य का पालन करना, तत्वचिन्तन, ध्यान, स्वाध्याय एव ग्रात्मरमण करना और सब प्रकार की सासारिक उपाधियों से छुटकारा लेकर साधु सरीखी वृत्ति वारण कर लेना, इस व्रत की चर्या है । ७. अतिथिसंविभाग -- 3 जिनके ग्राने का समय नियत नही है, उन्हें ग्रतिथि कहते है । निर्ग्रन्थ श्रमण पहले सूचना दिए बिना आते है । उन्हे सयमोपयोगी आहार आदि का दान करना श्रतिथि- सविभाग व्रत है । मग्रहपरायण मनोवृत्ति को कृश करने, तथा त्यागभावना को जागृत एव विकसित करने के लिए इस व्रत की व्यवस्था की गई है । अतिथि शब्द से मुख्यत साधु का अर्थ ध्वनित होता है, किन्तु श्रावक का हृदय इतना उदार, सदय और दानशील होता है कि साधु के सिवाय अन्य दीन-दुखी भी उसके द्वार से निराश होकर नही लोटता । इन वारह व्रतो का पालन करने से श्राध्यात्मिक उन्नति, साजाजिक न्याय तथा क्ष्व पर सुख की प्राप्ति होती है। प्रत्येक गृहस्थ यदि बारह व्रतो की १ उपासक दशांग अ० १ ३ उपासक दशाग अ० १ । २ उपासक दशाग अ० १ । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ जैन धर्म मर्यादाओ का पालन करे तो संसार स्वर्ग बन सकता है, और प्रत्येक प्राणी के साथ बन्धुभाव स्थापित होने से पूर्व शान्ति का वायुमण्डन निर्मित हो सकता है । श्रावक के तीन प्रकार व्रतों का प्रणु प्राशिक रूप से पालन करना कहलाता है। किन्तु प्रत्येक गृहस्य की गुरूप साधना भी समान कोटि की नहीं हो सकती । आमिर अपनी क्षमता के अनुसार ही गृहस्थ इन व्रतो का पालन करनाता है, अतएव उसकी साधना में अनेक कोटिया हो जाना स्वाभाविक है । उन कोटि भेद के श्रावार पर श्रावक तीन प्रकार के होते है १. पाक्षिक, २ नैष्ठिक ३. साधक । जो एक देश से ( अंशत ) हिंसा का त्याग करके श्रावक धर्म ग्रगीकार करता है, वह पाक्षिक श्रावक कहलाता है। जब वह निर्दोष निरतिचार रूप से व्रत का पालन करने लगता है, तब नैष्ठिक कहलाता है । वही श्रावक जब पूर्ण रूप से देशचारित्र का पालन करता है और श्रात्मा की स्वरूपपरिस्थिति में लीन हो जाता है, तव सावक श्रावक कहलाता है । जीवन-नीति श्रावक और साधु दोनो ही मुमुक्षु होते है । दोनो आत्माशुद्धि के पथ के पथिक होते है । दोनो का उद्देश्य मुक्तिलाभ करना है। दोनो सयम की साधना में निरत रहते है और पाप से बचने का प्रयत्न करते है । फिर भी दोनो की परिस्थितियो मे अन्तर है । साबु सर्वथा अपरिग्रही और अनारभी समस्त पापकृत्यो के त्यागी होते हैं, किन्तु श्रावक गृहस्थ अवस्था में रहने के कारण ऐसा नही हो सकता । क्योकि उसका परिग्रह और आरम्भ अमर्यादित नही होता । जैनशास्त्रो मे महापरिग्रह और उसके लिए किया जाने वाला महारभ नरक गति का कारण बतलाया गया है । अतएव श्रावक की जीवन नीति ऐसी सरल और सादी होनी चाहिए कि वह ग्रत्पारभी और अल्पपरिग्रही रहकर ही अपना और अपने परिवार का निर्वाह कर ले | श्रावक का दर्जा पाने के लिए यह एक अनिवार्य शर्त है । श्रावक परिग्रह की एक मर्यादा वाघ लेता है, जिससे वह तृष्णा पर अकुश लगा सके । उस मर्यादा को निभाने के लिए वह भोगोपभोग की वस्तुओ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र की मर्यादा कर लेता है, और निरर्थक सग्रह का भी त्याग कर देता है। इस प्रकार श्रावक का जीवन अत्यन्त सादा बन जाता है। आजीविका के निमित्त उने कोई बड़ा पाप नही करना पड़ता। जिस आजीविका या व्यवसाय से विशेष हिसा होती है, जिससे व्यक्ति में प्रतिकता वटती है, और समाज अयवा राष्ट्र को क्षति पहुचती है, श्रावक उसने दूर रहता है। जैन-परिभाषा मे ऐसा व्यवसाय कर्मादान कहलाता है । प्रादर्ग श्रावक कर्मादान का त्यागी होता है। वृक्षो को काट-काट कर कोयला बनाना, ठेका लेकर जगल को उजाडना, हाथी दात आदि का व्यापार करना, मदिरा जैसी मादक वस्तुप्रो का विक्रय करना। प्राणघातक विष वेचना, मनुष्यो मे बेकारी वढाने वाले यन्त्रो से धधा करना, और दुराचारिणी स्त्रियो से दुराचार करवा कर द्रव्योपार्जन करना, आदि निद्य कर्मों से श्रावक दूर रहता है। उपासक दशाग सूत्र में आदर्श श्रावको के चरित्र वतलाये गये है । उन श्रावको के पास जितनी भूमि, गाये और पूजी मौजूद थी, उतनी ही उन्होने परिग्रह की मर्यादा की थी। प्रानन्द श्रावक के यहा लाखो गाये थी। पाच सौ हलो से खेती होती थी। वह बडा व्यापार करता था फिर भी वह मर्यादा से ज्यादा परिग्रह नहीं होने देता था। इससे जान पडता है कि वह वाणिज्य कृषि और गोपालन करके, अपने सामाजिक कर्तव्य का पालन करता हुआ भी उससे कोई मुनाफा नही उठाता था, या अपने मुनाफे का सर्वसाधारण मे वितरण कर देता था। कहा जा सकता है कि जिसे मुनाफा नहीं कमाना, उसे व्यापार करने की आवश्यकता ही क्या है ? इसका उत्तर यह है कि व्यापार का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वार्थसाधना नही, वरन् समाज सेवा करना है। प्रजा के अभावो की पूर्ति के लिए व्यापार होना चाहिए। सव जगह सभी वस्तुएं सुलभ नहीं होती। कोई वस्तु कही इतने अधिक परिमाण में पैदा होती है कि अन्यत्र न भेजी जाय, तो वृथा पडी-पडी सडती रहे । दूसरी जगह उसके अभाव मे लोग कष्ट पाते है। इस परिस्थिति में व्यापारी सामने आता है, और वह जरूरत वाली जगह पर उस चीज को ले जाकर प्रजा के अभाव को दूर करता है। व्यापारी न हो तो प्रजा अभावग्रस्त होकर परेशान हो जाय, क्योकि प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी आवश्यकतानो की पूर्ति के लिए पृथक्-पृथक् आयोजन नही कर सकता। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ जैन धर्म व्यापारी की यह महत्त्वपूर्ण सेवा है । यह सेवा करता हुआ व्यापारी अपने निर्वाह के लिए कुछ अश बचा लेता है । जिसे मुनाफा कहते हैं। जिस व्यापारी के जीवन निर्वाह का दूसरा स्रोत मौजूद है, उसे मुनाफा लेने की आवश्यकता नहीं। फिर भी वह प्रजा के अभावो को दूर करने के लिए सेवा के रूप में व्यवसाय करता है। ‘जैनशास्त्र इस आदर्श व्यापार नीति की ओर सकेत करते है। श्रावक की जीवन-नीति की इससे अच्छी कल्पना आ सकती है । जैन श्रावक सन्तोष के साथ अपना जीवन निर्वाह करता है । प्रतिदिन वीतराग देव की पूजा (भाव-भक्ति) करना, गुरु की उपासना करना, स्वाध्याय करना, सयम का सेवन करना, यथाशक्ति तपस्या करना और यथोचित दान देना गृहस्थ का दैनिक कर्तव्य है। चारित्र का मूलाधार अहिंसा गृहस्थ के व्रतो का नो शब्द-चित्र खीचा गया है, उसे पढने से एक बात सहज ही ध्यान मे आ सकती है, वह यह है कि वहा ससार को छोडकर भागने की बात नही है। ससार को मिथ्या मानने या अवास्तविक कहने की भ्रमपूर्ण बात भी नही है । जगत् के प्राणियो से अपना सम्बन्ध-विच्छेद कर लेने का प्रश्न भी नहीं है । इस समग्र साधना का प्रधान-आधार है--"सर्वभूतात्मभूतता" अर्थात् प्राणीमात्र को प्रात्मीय भाव से अगीकार करना। दूसरे शब्दो मे यही अहिसा है। अहिसा की भूमिका पर ही व्रतो की विशाल अट्टालिका का निर्माण हुआ है। अहिसा से ही सर्वसमासंस्कृति का प्रादुर्भाव हुआ है। मानवता के उत्थान और आत्मविस्तार का माध्यम अहिसा ही है । अहिसा से ही सार्वभौम शान्ति का सर्जन होगा। यही कारण है कि जैनधर्म मे अहिसा को ही धर्म एव सदाचार की कसौटी माना गया है। अहिसा जैन सस्कृति की आत्मा है । अहिसा से ही आत्मा की पुष्टि होती है । अहिसा आध्यात्मिक जीवन की नीव है, जीवन का मूल मन्त्र है। अहिसा दैवी शक्ति है, अहिसा परम धर्म, और परम ब्रह्म है। अहिसा वीरता की सच्ची निशानी है। मानव और दानव मे अहिसा और हिसा का ही अन्तर है । अहिसा ही सुख-शान्ति की जननी, और जगत् की रक्षा करने वाली अलौकिक शक्ति है। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र १९५ साडे बारह वर्ष और पन्द्रह दिन तक कठोरतम तपश्चर्या करने के पश्चात् भगवान् महावीर ने सर्वज समदर्शी होकर जो मौनभग किया तो उनके मुख से यही घोय हुग्रा-"मा हण, मा हण ।" किसी प्राणी को मत मारो, मत मारो। किनी का छेदन न करो, न करो। किसी को परिताप न पहुचायो । मारोगे तो मरना पडेगा। छेदोगे तो छिदना पडेगा, भेदोगे तो भिदना पडेगा। परिताप पहुचायोगे तो परितप्त होना पडेगा।" भगवान् ने कहा--जो अरिहन्त अतीत-काल में हो चुके है, वर्तमान में विद्यमान है, और भविष्य मे होगे उन सब का एक ही आदेश और एक ही उपदेश है कि किसी भी प्राणी, भूत, जीव और सत्व को किसी भी प्रकार से ग्लेग न पहुंचाया जाय। यही धर्म शुद्ध, नित्य और साश्वत है । ज्ञानी-जनो ने पूरी तरह अनुभव करके और ससार के स्वरूप का विचार करके इस धर्म की प्ररूपणा की है। छोटे-मोटे मभी प्राणियो को दुःख अप्रिय, और सुख प्रिय है । सभी को जीवन इप्ट और मरण अनिष्ट है। तुम अपने सुख के लिए दूसरो को सतायोगे, तो दूसरे भी अपने सुख के लिए तुम्हे सताएगे । इस प्रकार सभी जीव हिसा के द्वारा सुख प्राप्त करने का प्रयत्न करगे, तो परिणाम मे दु ख ही आगे आएगा । कोई सुखी न हो सकेगा। अतएव जनधर्म ने दृढतापूर्वक यह विधान किया है कि भगवती अहिसा की वरदायिनी छत्रछाया में ही वास्तविक सुख की उपलब्धि हो सकती है । मुनि धर्म वय और योग्यता--विश्व के समस्त धर्म त्याग को प्रधानता देते हैं। परन्तु जैनधर्म ने त्याग की जो मर्यादाए स्थापित की है, वे असाधारण है । वैदिक वर्म के समान जैनधर्म ने त्यागमय जीवन अगीकार करने लिए वय-विशेष का कोई निर्धारण नही किया है। वह नहीं कहता कि जीवन के तीन चरण बीतने के बाद अन्तिम चौथा चरण सन्यास के लिए है । जीवन क्षण-भगुर है और कोई नही जानता कि कौन जीवन के चारो चरण समाप्त कर सकेगा और कौन नही ? मृत्यु मनुष्य के मस्तक पर सदैव मडराती रहती है और किसी भी क्षण जीवन का अन्त आ सकता है । यही कारण है कि जैन-शास्त्र आश्रम-व्यवस्था को स्वीकार नहीं करते। वय पर जोर न देने पर भी जैनशास्त्रो में त्यागमय जीवन अगीकार Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ जैन धर्म करने वाले व्यक्ति की योग्यता श्रवश्य निर्धारित कर दी गई है । जिसे शुभ तत्त्वदृष्टि प्राप्त हो चुकी है, जिसने आत्मा ग्रनात्मा के स्वरूप को समझ लिया है, जो भोग को रोग और इन्द्रियविपयों को विप समझ चुका है, अतएव जिसके मानम-सर में वैराग्य की ऊर्मिया लहराने लगी है, वही त्यागी बनने के योग्य है । पूर्ण विरक्त होकर, शरीर-सम्वन्धी ममत्व का भी परित्याग करके जो आत्मा-आराधना में ही सलग्न रहना चाहता है, वह मुनि धर्म अगीकार करता है । समाज का रक्षक, राष्ट्र का सैनिक और परिवार का पोपक वन कर ही मनुष्य पूर्णता नही प्राप्त कर सकता । उसे इन कर्तव्यो से भी पार होकर जीवन के अन्तिम मार्ग को अकेले होकर भी पार करना पड़ता है । तभी ग्रात्मा को सर्वोच्च सिद्धि का लाभ होता है । चरम साधना के वीहड़ पथ पर एकाकी चल पडने वाला साधक ही मुनि, श्रमण साधु, भिक्षु या त्यागी कहलाता है । श्रमणत्व की उच्च भूमिका स्पर्श करने के लिए गृह-परिवार, धन सम्पत्ति ग्रादि बाह्य पदार्थों का त्याग करना पड़ता है, मगर यही पर्याप्त नहीं है । सच्चा श्रमण वही है जो जीवन मे गहरी जड जमाये हुए आन्तरिक विकारो पर विजय प्राप्त कर सकता है तथा जिसके लिए मान-अपमान, निन्दा-स्तुति और जीवन-मरण एकाकार हो जाते हैं, वह तिरस्कार के गरल को अमृत बना कर पी जाता है । मगर कटुक वचन बोलकर किसी का तिरस्कार नही करता । वह अनीह और अनासक्त रह कर भी सम्पूर्ण पृथ्वी की अपना मानता है और ससार के जीवो को मैत्री श्रौर करुणा प्रदान करता है । वह चलती फिरती सस्था बनकर जगत् मे आध्यात्मिकता की उज्ज्वल ज्योति प्रज्वलित रखता है । श्रमण का अहम् इतना विराट् रूप धारण कर लेता है कि किसी भी कृत्रिम परिधि में वह समा नहीं सकता । इसलिए वह राष्ट्रीय ग्रहम् का समर्थन नही करता । उसके आगे यह सब मनोवृत्तियां सकीर्ण है । श्रवास्तविक है । खट जीवन के प्रति उसकी ग्रास्था है, विभिन्न रग-रूपो में बटी टुकडियो मे नही । साबु ससार की भलाई मे कभी विमुख नही होता, परन्तु उसका प्रतिफल पाने की किसी भी प्रकार की कामना नही रखता । वह अपनी पीडा को वरदान मानकर तटस्थ भाव से सहन कर जाता है, मगर परपीड़ा उसके लिए १. उत्तराध्ययन, अ० १९, गा०८९, ९०, ९२ । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र १९७ असह्य होता है । यह सत्य है कि उसकी साधना का केन्द्रविन्दु आत्मोत्थान ही है, किन्तु लोककल्याण उसके प्रात्मोत्थान का साधन होती है । आत्मकल्याण के उद्देश्य से लोक कल्याण करने करने वाले के चित्त मे अहकार नही उत्पन्न होता, और इन प्रकार माधु अपनी साधना को कलुपित होने से बचा लेता है, क्योकि उसके मन में यह भाव बरावर वना रहता है कि मैं अपनी भलाई के लिए दूसरो की भलाई कर रहा हू । जैन साधु वह नौका है, जो स्वय तैरती है और दूसरो को भी तारती है। भगवान महावीर कहते है--साधुओ । श्रमण निर्ग्रन्थो के लिए लाघवकम-से-कम साधनो से निर्वाह करना, निरीहता-निष्काम वृत्ति, अमूच्छा-अनासक्ति, प्रागृद्धि, अप्रतिवद्धता, अक्रोधता, अमानता, निष्कपटता और निर्लोभता ही प्रशस्त है। इस प्रकार की साधना के द्वारा साधु अपने जन्म-मरण का अन्त करता है, और पूर्ण सिद्धि लाभ कर परमात्मपद प्राप्त कर लेता है। यो तो जैनशास्त्रो मे साधु के आचार-विचार की प्ररूपणा बहुत विस्तार से की गई है । उसका सक्षिप्त वर्णन करने पर भी कई पुस्तके बन सकती है। तथापि यहा अतिसक्षेप मे उसका दिग्दर्शन कराना है।। पांच महावत पाच महाव्रत साधुत्व की अनिवार्य शर्त है। इनका भलीभाति पालन किए बिना कोई साधु नही कहला सकता। महाव्रत इस प्रकार है १ अहिंसामहावत--जीवनपर्यन्त अस और स्थावर सभी जीवो की मन, वचन, काय से हिसा न करना, दूसरो से न कराना, और हिंसा करने वाले को अनुमोदन न देना, अहिसा महाव्रत है।। __ साधु का मन अमृत कुण्ड, वाणी अमृत का प्रवाह, और काया अमृत की देह के समान होती है। प्राणी मात्र पर वह अखड करुणा की वृष्टि करता है । अतएव वह निर्जीव हुए अचित्त जल का ही सेवन करता है। अग्निकाय के जीवो की हिसा से बचने के लिए अग्नि का उपयोग नही करता । पखा आदि हिलाकर वायु की उदीरणा नहीं करता । कन्द, मूल, फल आदि किसी भी प्रकार की वनस्पति का स्पर्श तक नहीं करता। पृथ्वी काय के जीवो की रक्षा के लिए जमीन खोदने आदि की क्रियाए नही करता । महाव्रत-धारी स्थावर और चलतेफिरते त्रस जीवो की हिसा का पूर्ण त्यागी होता है। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ जैन धर्म २. सत्यमहाव्रत--मन से सत्य सोचना, वाणी से सत्य बोलना और काय से सत्य का आचरण करना और सूक्ष्म असत्य का भी कभी प्रयोग न करना, सत्य महाव्रत है। आत्मसाधक पुरुष सत्य को भगवान मानता है। वह मन, वचन या काया से कदापि असत्य का सेवन नहीं करता। उसे मौन रहना प्रियतर प्रतीत होता है, फिर भी प्रयोजन होने पर परिमित, हितकर, मधुर और निर्दोप भापा का ही प्रयोग करता है। वह विना सोचे-विचारे नही बोलता। हिसा को उत्तेजना देने वाला वचन नही निकालता । हसी-मजाक आदि बातो से, जिनके कारण असत्य-भापण की सभावना रहती है, उससे दूर रहता है । __३. अचौर्य महाव्रत--मुनि संसार की कोई भी वस्तु, उसके स्वामी की माना लिए विना ग्रहण नहीं करते, चाहे वह शिष्य आदि हो चाहे निर्जीव घास आदि हो । दात साफ करने के लिए तिनका जैसी तुच्छ चीज भी पाजा लिए विना नहीं लेते। ४ ब्रह्मचर्य महाव्रत--साधक कामवृत्ति और वासना का नियमन करके पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करता है। इस दुर्धर महाव्रत का पालन करने के लिए अनेक नियमो का कठोरता के साथ पालन करना आवश्यक होता है । उनमें से कुछ इस प्रकार है (क) जिस मकान मे स्त्री का निवास हो, उसमे न रहना ।' (ख) स्त्री के हाव-भाव, विलास आदि का वर्णन करना। (ग) स्त्री-पुस्प का एक आसन पर न बैठना । (घ) स्त्री के अंगोपांगो को स्थिर दृष्टि से न देखना । (ड) स्त्री-पुरुष के कामुकतापूर्ण गब्द न सुनना । (च) अपने पूर्वकालीन भोगमय जीवन को भुला देना और ऐसा अनुभव करना कि शुद्ध साधक के रूप मे मेरा नया जन्म हुआ है। (छ) सरस, पौष्टिक, विकारजनक, राजस और तामस आहार न करना। (ज) मर्यादा से अधिक आहार न करना। मुर्गी के अडे के बराबर १ जैसे साधक पुरुष के लिए स्त्री का सम्पर्क वर्ण्य है, उसी प्रकार स्त्री के लिए पुरष का सम्पर्क भी वर्जनीय है। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र १९९ अधिक से अधिक बत्तीम कौर भोजन करना साधु के आहार की मर्यादा है। (अ) स्नान, मंजन, शृगार आदि करके आकर्पक रूप न बनाना। ५. अपरिग्रह महाव्रत-माधु परिग्रहमात्र का त्यागी होता है, फिर भले ही वह घर हो, धन-धान्य हो, या द्विपद-चतुप्पद हो या कुछ अन्य हो । वह मदा के लिए मन, वचन, काय से समस्त परिग्रह को छोड़ देता है । पूर्ण असग अनासक्त, अपरिग्रह और अममत्वी होकर विचरण करता है। साधुता का पालन करने के लिए उसे जिन उपकरणो की अनिवार्य आवश्यकता होती है, उनके प्रति भी उसे ममत्व नहीं होता। यद्यपि मूर्छा को परिग्रह कहा गया है, तथापि बाह्य पदार्थो के त्याग से अनासक्ति का विकास होता है, अतएव वाह्य पदार्थो का त्याग भी आवश्यक माना गया है। पांच समिति पाप से बचने के लिए मन की प्रशस्त एकाग्रता, समिति कहलाती है। महाव्रतो की रक्षा के लिए पाँच प्रकार की समितियाँ साधु धर्म का आवश्यक अग हैं। वह इस प्रकार है१ र्यासमिति जीवो की रक्षा के लिए, सावधानी के माथ, चार हाथ आगे की भूमि देखते चलना। २. भापा-समिति हित, मित, मधुर और सत्य भाषा बोलना । ३. एपणासमिति निर्दोप एव शुद्ध आहार ग्रहण करना । ४ पादाननिक्षेपणसमिति - किसी भी वस्तु को सावधानी के साथ उठाना या रखना, जिससे किसी जीव-जन्तु का घात न हो जाय। ५. परिष्ठापनिका-समिति - मल-मत्र आदि को ऐसे स्थान पर विजित करना जिससे जीवोत्पत्ति न हो और किमी को घृणा या कष्ट भी न हो। तीन गुप्ति इन्द्रियो का और मन का गोपन करना, अर्थात् उन्हे असत्य प्रवृत्ति से हटाकर आत्माभिमुख कर लेना, गुप्ति के तीन भेद इस प्रकार है Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० जैन धर्म १. मनोगुन्ति - २. वननगुप्ति ३. कायगुप्ति मन को अप्रशस्त, अशुभ वा कुत्सित संकल्पो से हटाना। असत्य, कर्कग, कठोर, कप्टजनक अथवा अहितकर भाषा के प्रयोग को रोकना। शरीर को असत् व्यापारो से निवृत्त करके शुभ व्यापार में लगाना, उठने बैठने, सीने, जागने आदि गारीगिक क्रियानो मे यत्ला--सावधानी रखना। अनाचीर्ण साधु की साधना का व्यवस्थित रूप से निर्वाह हो, इस प्रयोजन से जैनगास्त्रों मे वावन अनाचीर्णो का उल्लेख कर दिया गया है। अनाचीर्ण वह कृत्य है जिनका महर्षि साधको ने आचरण नहीं किया है। अतएव जो अनाचारणीय है, इनमे साधु की लगभग सारी त्याज्य वाह्य चर्या का समावेश हो जाता है । इनका सक्षिप्त परिचय इस प्रकार है-- १. औद्देशिक अपने निमित्त बनाये हुए भोजन, पानी, मकान या किसी भी अन्य पदार्थ को ग्रहण करना। २. निर्यापण्ड मेगा एक ही घर से आहार लेना, भ्रामरी-वृत्ति का आश्रय न लेना। ३. क्रीतकृत साधु के लिए खरीदी हुई वस्तु ले लेना। ४. अभ्याहृत - उपाश्रय मे या जहा साधु ठहरा हो, वहां श्रावक आहार आदि लाकर दे और उसे ग्रहण कर लेना। ५. त्रिभक्त रात्रि मे भोजन करना । ६. स्नान - नहाना। इत्र, चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थ काम मे लाना। ८. माल्य माला पहनना। ६. वीजन पखे, पुढे या वस्त्र आदि से हवा करना। १० मन्निवि दूसरे दिन के लिए भोजन का मग्रह कर रखना। ११. गृहिपात्र गृहस्थ के पात्र मे पाहार करना। १२. राज पिण्ड - राजा के लिए वना पौष्टिक आहार लेना। १३. किमिच्छक दान- दानशाला आदि में जाकर सदावर्त लेना, भिखारियो को दी जाने वाली भिक्षा मे से हिस्सा बटा लेना। ७. गंध Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ' १४. संवाहन १५. दन्तधावन १६. सप्रश्न १७. देहप्रलोकन १८. अष्टापद १६. नालिक २०. छत्रवारण २१. चिकित्सा २२. उपानह २३. ज्योतिरारभ २४. शय्यातरपिण्ड २७ गात्रमर्दन २८. गृहिवैयावृत्य २५. आसन्दी २६. गृहान्तरनिषद्या ३० तप्तानिवृत्ति - ३१. प्रातुरस्मरण ३२. मूली खाना ३३. अदरख खाना २६. जात्याजीविका Bagal - - - -- चारित्र और नीतिशास्त्र शरीर को श्रानन्द देने वाला तैलमर्दन करना ।, मजन आदि का प्रयोग करके दातो को चमकदार बनाना । गृहस्थो से उनकी निजी पारिवारिक बाते पूछना | का मुह देखना । आदि खेलना । चौपड़ ग्रादि खेलना । सिर पर छतरी आदि प्रोढना । रोग न होने पर भी वलवृद्धि के लिए औषध सेवन करना । चिकित्सा करवाना | २० जूते, खडाऊ, मौजे यादि पहनना । दीपक जलाना, चूल्हा जलाना अथवा किसी भी प्रकार से अग्नि का व्यवहार करना । जिसकी आज्ञा लेकर मकान में ठहरा हो, उसके घर से आहार लेना । पलग, खाट आदि का उपयोग करना । रोग, तपश्चर्या जनित दुर्बलता एव वृद्धावस्था यादि विशेष कारण के बिना गृहस्थ के घर मे बैठना । पीठी आदि लगाना । गृहस्थ से पैर दबवाने प्रादि की सेवा लेना या उसकी सेवा करना । सजातीय या सगोत्री वनकर आहार आदि प्राप्त करना । पूरी तरह उचित न होने पर भी, जल आदि ले लेना | कष्ट ग्राने पर अपने कुटुम्बी जनो का स्मरण । करना, पत्नी-पुत्र आदि को याद करना । गडेरिया लेना । ३४. इक्षुखड ३५. कन्दो का उपभोग करना । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ जैन धर्म ३६. जडी-बूटी आदि काम में लाना। ३७. सचित्त फल खाना। ३८. वीजों का भक्षण करना। ३९-४५ सौचल नमक, सैधा नमक, सामान्य नमक, रोमदेशीय नमक, समुद्री नमक, पाखुखार नमक काम मे लेना। ४६. धूपन - शरीर या वस्त्र आदि को धूप देना। ४७. वमन निष्कारण मुह मे उंगली डाल कर या औषध लेकर वमन करना। ४८-४६. वस्तीकर्म - गुदामार्ग से कोई वस्तु पेट मे डालकर दस्त करना तथा जुलाब लेना। ५०. अजन काजल या सुरमा लगाना। ५१. दन्तवर्ण दांत रगना। ५२. शारीरिक बलवृद्धि के लिए कुश्ती आदि व्यायाम करना। जैन साधु के लिए इन अनाचीर्णो का त्याग करना आवश्यक है। बारह भावनाएँ मनुष्य के बाह्य व्यवहार उसके मनोभावो के मूर्तरूप होते है । अतएच साधना को सजीव बनाने के लिए मन को साधने की अनिवार्य आवश्यकता है। मन को साधने तथा श्रद्धा और विरक्ति की स्थिरता और वृद्धि के लिए जैन शास्त्रों मे अनुप्रेक्षापो का विधान है। पुन. पुन. चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। इसके बारह प्रकार है - १ अनित्य भावना-जगत् का प्रत्येक पदार्थ नाशशील है, अनित्य है, वन, वैभव, सत्ता परिवार आदि सव क्षण भगुर है। लक्ष्मी सध्याकालीन लालिमा की भाति अनित्य है । जीवन जल के बुलबुले के समान है, और यौवन वादल की छाया के समान है । इनके नष्ट होने मे विलम्ब नही लगता । इन अनित्य पदार्थो के लिए नित्य अानन्द से वचित होना बुद्धिमत्ता नही है । २. अशरण भावना--विकराल मृत्यु के पजे मे से कोई किसी को बचा नहीं सकता। अन्तिम समय मे विशाल मैन्य, बल, धन के भण्डार और वृहद परिवार कुछ काम नहीं आता। अतएव किसी पर भरोसा करना नादानी है। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र २०३ ३ संसार भावना इस भावना मे ससार के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन किया जाता है । यथा ससार मे क्या राजा, क्या रक, कोई सुखी नही है । प्रत्येक को किसी न किसी प्रकार का दुख सता रहा है। सभी समारी जीव जन्म-मरण के चक्कर मे पडे है । आज जो ग्रात्मीय है, अगले जीवन मे वही पराया वन जाता है । पराया अपना हो जाता है । अतएव ग्रपने पराये का भेदभाव कल्पना पर निर्भर है । न कोई अपना है, न पराया है । ४. एकत्व भावना--- जीव अकेला ही जन्मता, मरता और सुख-दुख भोगता है । परलोक की महायात्रा के समय कोई किसी का साथ नही देता । ५. अन्यत्व भावना - - जगत् के समस्त पदार्थो से ग्रात्मा को भिन्न मानना और उस भिन्नता का बार-बार चिन्तन करना, अन्यत्वभावना है । ६. अशुचिभावना -- शरीर सम्बन्धी मोह को नष्ट करने के लिए शरीर की शुचिता पावनता का पुनः पुन चिन्तन करना वैराग्यवृद्धि के लिए अत्यन्त उपयोगी होता है । ७. आस्रव भावना - दुखो के कारणों पर विचार करना ग्रस्रवभावना है । दुखो का कारण कर्मबन्ध है । कर्मों का बन्ध किन किन कारणो से होता है ? राग, द्वेष, अज्ञान, मोह, हिसा, असत्य, असन्तोष, प्रमाद, कषाय आदि किस प्रकार आत्मा को कर्मों से लिप्त कर देते है ? इत्यादि चिन्तन ग्रासव भावना है । ८. संवर भावना - दुखो के एव कर्मवन्ध के कारणो का किस प्रकार निरोध किया जा सकता है । यह चिन्तन करना सवरभावना है । ९. निर्जरा भावना- जो कर्म पहले बन्ध चुके हैं, उन्हें किस प्रकार नष्ट किया जा सकता है, इस प्रकार का चिन्तन करना निर्जरा भावना है। १०. लोकभावना -- नोक के पुरुषाकार स्वरूप का चिन्तन करना, लोकभावना है । ११. वोधिदुर्लभ भावना - जिससे आत्मा का उत्थान होता है, जिनमे सार प्रसार का विवेक प्राप्त होता है और जिसके प्रभाव से ग्रात्मा मुक्ति प्राप्त करने में समर्थ बनता है, वह ज्ञान बोधि कहलाता है । उसकी दुर्लभता का विचार करना बोधिदुर्लभ भावना है । १२ धर्मभावना -- धर्म के स्वरूप का और उसकी महिमा का चिन्तन करना धर्मभावना है । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ जैन धर्म चार भावना इन वारह भावनाओ के अतिरिक्त साधक के जीवन को उन्नति के शिखर की ओर ले जाने के लिए चार भावनाए और है-मैत्री, प्रमोद, करुणा, और मध्यस्थ | १. मैत्री - भावना - जब तक साधक के अन्तःकरण में प्राणीमात्र के प्रति मैत्री का भाव विकमित नही होता, तब तक ग्रहिसा का पालन भी नही हो सकता दूसरो के प्रति ग्रात्मीयता के भाव की स्थापना और अपनी तरह दूसरो को दुखी न करने की वृत्ति, अथवा इच्छा, मंत्री कहलाती है। मंत्री भावना का विकान होने पर मनुष्य दूसरे का कष्ट देखकर छटपटाने लगता है, और उनका निवारण करने लिए कोई कसर नही रखता है । मनुष्य की हृदय भूमिका जब मैत्रीभाव से मुसस्कृत हो जाती है, तभी उसमें ग्रहिंसा सत्य आदि के पौधे पनपते है । उनके ग्रन्तकरण से अनायास ही यह शब्द फूट पडते है मित्तो मे सब्वे भूएसु । वैरं मज्झं ण केगई ॥ इस भूतल पर बसने वाले प्राणी, चाह वे मनुष्य हो पशु-पक्षी हो अथवा कीट-पतग हों, मेरे मित्र है । कोई मेरा शत्रु नही है । क्योकि ससार के समस्त प्राणियो के साथ मेरा अनन्त अनन्त वार ग्रात्मीयता का सम्बन्ध हो चुका है । इस प्रकार की मैत्रीभावना की परिधि ज्यो- ज्यो यढ़ती जाती है, ग्रात्मा में समभाव का विकास होता चला जाता है और राग-द्वेष का बीज क्षीण होता जाता है । अन्त मे मनुष्य को ऐसी स्थिति प्राप्त होती है, जहां जीव मात्र में आत्मदर्शन होने लगता है । उस स्थिति में हिसा या पर पीड़ा के लिए कोई अवकाश नही रहता । २. प्रमोद भावना - गुणी जनो को देखकर ग्रन्त करण में उल्लास होना प्रमोदभावना है। प्राय. मनुष्य मे एक मानसिक दुर्बलता देखी जाती है । वह यह कि एक मनुष्य अपने से आगे बढे हुए मनुष्य को देखकर ईर्ष्या करता है । यही नहीं, कभी-कभी ईर्ष्या से प्रेरित होकर वह उसे गिराने का भी प्रयत्न करता है | जब तक इस प्रवृत्ति का नाग न हो जाय, अहिंसा और सत्य आदि टिक नही मकते । इस दुर्वृत्ति को नष्ट करने के लिए प्रमोदभावना का विधान किया गया है । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र २०५ ३ कारुण्य - भावना - पीड़ित प्राणी को देखकर हृदय में अनुकम्पा होना पीड़ा का निवारण करने के लिए यथोचित प्रयत्न करना करुणा भावना है । करुणा भावना के अभाव मे अहिसा यादि व्रत सुरक्षित नही रह सकते । मन मे जब करुणा भावना सजीव हो उठती है तो मनुष्य अपने किसी व्यवहार अथवा विचार से किसी को कष्ट नही पहुचा सकता । यही नही, किसी दूसरे निमित्त से कप्ट पाने वाले की उपेक्षा भी वह नहीं कर सकता । ४. मव्यस्यभावना -- जिनसे विचारो का मेल नही खाता अथवा जो सर्वथा संस्कारहीन है, किसी भी प्रकार की सवस्तु को ग्रहण करने के योग्य नही है, जो गलत राह पर चला जा रहा है और सुधारने तथा सही रास्ते पर लाने का प्रयत्न सफल नही हो रहा है, उसके प्रति उपेक्षाभाव रखना मध्यस्थ भावना है । मनुष्य मे प्राय असहिष्णुता का भाव देखा जाता है । वह अपने विरोधी या विरोध को सहन नही कर पाता । मतभेद के साथ मन-भेद होते देर नही लगती । किन्तु यह भी एक प्रकार की दुर्बलता है । इस दुर्बलता को दूर करने के लिए माध्यस्थभाव जगाना आवश्यक है । इस भावना से विरोधी विचार मनुष्य को क्षुब्ध नही करता और उसका समभाव सुरक्षित बना रहता है । यह चार भावनाए आनन्द का निर्मल निर्झर है । मनुष्य का जो ग्रान्तरिक सताप शीतल पवन, चन्दन - लेप या चन्द्रमा की अह्लादजनक किरणो से भी शान्त नही हो सकता, उसे शान्त करती है। इन भावनाओ से जीवन विराट् और समग्र वनता है । जिन प्राध्यात्मिक गुणो के विकास के लिए साधना का पथ अंगीकार किया जाता है उनके विकास में यह उपयोगी सिद्ध होती है । दशविध धर्म यद्यपि जीव अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त न कर सकने के कारण जन्ममरण के चक्र मे पडा है, फिर भी स्वभाव से वह अमरत्व का स्वामी है । मरना उसका स्वभाव नही है । अपने इस स्वभाव के प्रति अव्यक्त आकर्षण होने से ही जीव को मरना अनिष्ट है । अन्यान्य जीवधारियों में तो विवेक का विकास नही है, मगर मनुष्य विकसित प्राणी है । उसके सामने भविष्य का चित्र रहता है । वह जानता है कि इस जीवन का अन्त अवश्यम्भावी है । अतएव वह जव शरीर से अमर रहना असम्भव समझता है, तो किसी दूसरे रूप मे श्रमर होने का प्रयत्न करता है । कोई कीर्ति को चिरस्थायी बना कर अमर रहना चाहता है, कोई सन्तान परम्परा के रूप मे अपने नाम पर विजयस्तम्भ बनाना, अथवा Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जैन धर्म दूसरे स्मारक खडे करना, यह सब अमर बनने की प्रान्तरिक प्रेरणा का ही । फल है । मगर खेद है कि कोई भी भौतिक पदार्थ मनुष्य की इस अभिलाषा को तृप्त नही कर सकता । भौतिक पदार्थ सव नाशगील है, और जो स्वयं नागगील है, वह दूसरे को अमर कैसे बना सकता है । हा, अमरत्व प्रदान करने की शक्ति है कर्म मे । जैनशास्त्र कहते है कि दगविध धर्म मनुष्य को अमर बनाता है । इसी कारण जैन साधुग्रो के लिए इनका पालन करना आवश्यक बतलाया गया है । उसका संक्षिप्त स्वरूप यह है १ क्षमा--क्षमा अहिसा धर्म का एक विभाग है। अपराधी को क्षमा देने और अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करने से जीवन दिव्य वन जाता है। जैनशास्त्र मे साधु के लिए दृढतापूर्वक क्षमा याचना करने का विधान है । शास्त्र कहता है साधुनो ! तुमसे किसी का अपराध हो गया हो तो सारे काम छोड से और सब से पहले क्षमा मागो । जव तक क्षमा न मांग लो; भोजन मत करो, गौच मत करो और स्वाध्याय मत करो। क्षमा याचना करने से पहले मुह का थूक गले न उतारो। तीर्थकरो के इस कठोर विधान का परिणाम यह है कि न केवल जम में ही वरन् श्रावक मे भी, क्षमायाचना की परम्परा अब तक अक्षुण्ण रूप से चली आ रही है । वे प्रतिदिन, प्रति पखवाड़े, प्रति चौमासी और प्रतिवर्ष खले हृदय से अपने अपराधों के लिए क्षमायाचना करते है। जैनो का सबसे बडा धार्मिक पर्व, जो पर्दूपण के नाम से विख्यात है, क्षमा याचना का ही पर्व है। उस समय समस्त जैन मुनि और श्रावक सभी जीवो से अपने से ज्ञात-अज्ञात सभी अपराधो के लिए विनम्रभाव से क्षमा मांगते है । २. मार्दव--चित्त मे कोमलता और व्यवहार में नम्रता होना मार्दव धर्म है। मार्दव की साधना विनय से होती है । जैन धर्म मे विनय को इतना महत्व दिया जाता है कि जैन-धर्म विनयमूलक धर्म ही कहलाता है। शास्त्र कहते है-"धम्मस्स विणो मूल ।” अर्थात् धर्म की जड विनय है । मार्दव धर्म की सिद्धि के लिए जाति, कुल, धन, वैभव, सत्ता बल, बुद्धि १. हरिभद्र सूरि द्वारा उद्धृत, संग्रहणी गाथा, समवायांग १० समभाव स्थानांग सूत्र । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र २०७ श्रुति और तपस्या आदि के मद का त्याग करना आवश्यक है। अपने आपको ऊची जाति और उच्च कुल का समझ कर दूसरो के प्रति हीनता का भाव रखता इसी प्रकार धन, वैभव आदि के घमण्ड मे आकर किसी को तुच्छ समझना मद है। साधु सब प्रकार के मदो का त्याग करके मार्दव धर्म की आराधना करते है । ३ आर्जव-ऋजुता अथवा सरलता को आर्जव कहते है। विचार, वाणी और व्यवहार की एकरूपता होने पर इस धर्म की साधना होती है। इस की साधना के लिए कुटिलता का त्याग करना अनिवार्य है। आर्जव धर्म समाज में पारस्परिक विश्वास के लिए जितना आवश्यक है उतना ही बुद्धि की निर्मलता के लिए भी आर्जव से निर्मल बनी हुई बुद्धि वस्तु के सत्य स्वरूप को ग्रहण करने में समर्थ होती है। कुटिलता के त्यागी पुरुप को किसी प्रकार का छल कपट प्रपच नहीं करना पडता । उसका चित्त शान्त, कलुषताहीन और सरल रहता है । ४ शौच-लोभ का त्याग करना शौच धर्म है। साधक के जीवन में रहा हुआ तुच्छ पदार्थ का लोभभी अनर्थकारक होता है, लोभ से सभी सद्गुण नप्ट हो जाते है । अतएव साधक को शिष्य लोभ, कीतिलोभ, और प्रतिष्ठा लोभ से भी दूर रहना होता है । धन-सम्पत्ति आदि भौतिक पदाथो का लोभ तो उसे स्पर्श कर ही नही सकता। ५. सत्य--पाच अणुव्रतो एव महाव्रतो के विवेचन मे सत्य उल्लेख किया जा चुका है। मूल व्रतो मे सत्य की गणना करके भी पुनः दश धर्मों में उसे स्थान देना , सत्य के विशिष्ट महत्व का बोधक है। जैन शास्त्रो मे बडे ही मार्मिक और प्रभावशाली शब्दो मे सत्य की महिमा बखानी गई है। प्रश्न व्याकरण शास्त्र में कहा है "जं सच्चं तं खु भगवं ।" "अर्थात् सत्य ही भगवान् है ।" इसके पश्चात् सत्य का महत्व दिखलाते हुए कहा है--सत्य ही लोक मे सारभूत वस्तु है । वह महासमुद्र से भी अधिक गम्भीर है, मेरु पर्वत से भी अधिक स्थिर है । चन्द्र मण्डल से भी अधिक सौम्य है । सूर्य मण्डल से मी अधिक तेजस्वी है । शरत्कालीन आकाश से भी अधिक निर्मल है और गन्धमादन पर्वत से भी अधिक सौरभवान है। ६. संयम--मनोवृत्तियो पर, हृदय में उत्पन्न होने वाली कामनाओं पर इन्द्रियो पर, अकुश रखना सयम है। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जैन धर्म पाश्चात्य विचारधारा से प्रेरित कई भारतीय जन भी आज लालसानो की तृप्ति मे जीवन का उत्कर्ष समझ बैठे हैं । इच्छायो का दमन करना वे पौरुषहीनता का चिन्ह मानते हैं। मगर इस भ्रान्त गरणा का परिणाम हमारे सामने है । मानव जाति की आवश्यकताए दिनोदिन बढती जा रही है, और मनुष्य उनकी पूर्ति की मृगतृष्णा मे परेशान हो रहा है। निरंकुश कामनाओ की बदौलल ही समार नाना प्रकार के संघर्षो का अखाडा बन रहा है। कोई नही जानता कि मनुष्य की कामना किस केन्द्र पर जा थमेगी और कव मनुष्य की परेशानियों और संघों की इतिश्री होगी ? यह जानना सम्भव भी नहीं है । क्यो "इच्छा हु आगास समा अणंतिया।" जैसे आकाश अनन्त है, उसी प्रकार इच्छाएं भी अनन्त हैं । एक इच्छा की पूर्ति होने से पहले ही अनेक नवीन इच्छानो का प्रादुर्भाव हो जाता है । स्पष्ट है कि मन और इन्द्रियो को सयत किए बिना और लालसाम्रो को काबू में किए विना, न व्यक्ति के जीवन मे तुष्टि पा सकती है, और न समाज, राष्ट्र या विश्व मे ही शान्ति स्थापित हो सकती है। अतएव जैसे प्राध्यात्मिक उन्नति के लिए सयम की आवश्यकता है, उसी प्रकार लौकिक समस्याओं को सुलझाने के लिए भी वह अनिवार्य है। भगवान महावीर हमारा पथ प्रदर्शन करते हुए कहते है "कामे कमाही, कमियं खुदुक्खं ।" । अर्थात्-~-अगर तुमने कामनाओ को लांघ लिया, तो दुखो को भी । लांघ लिया । ७. तप--जैनधर्म मे तप को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। तपस्या के द्वारा समस्त कार्य सिद्ध होते है, तप असाधारण मगल है । भगवान् महावीर ने अपने समय मे प्रचलित तपस्या के सकीर्ण रूप की विशालता प्रदान की है, उस समय मे धूनी तपना, काटो पर लेटना, गर्मी के दिनो मे धूप में खडा हो जाना, गीत मे जलागय मे प्रवेश करना आदि कायक्लेग ही प्रायः तप समझा जाता था। पर जैन-दृष्टि सकुचित और वहिर्मुखी नही है। उनके अनुसार आत्मा के गुणो का पोपण करने वाला तप ही वास्तविक तप है। इस कारण जैनशास्त्रो मे तप के दो विभाग कर दिए गए है-वाह्य और आभ्यन्तर । उपवास करना, कम खाना, अमुक रस अथवा अमुक वस्तु का त्याग कर देना आदि बाह्य तप है, और अपनी भूलो एव अपने अपराधो के लिए प्रायश्चित करना, Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र २०९ गुरुजनो का विनय करना, सेवा करना, स्वाध्याय करना और उत्सर्ग (त्याग) करना अन्तरग तप है। ८. त्याग-~-अप्राप्त भोगो की इच्छा न करना और प्राप्त भोगो से विमुख हो जाना, त्याग है । जीवन मे सच्चे त्याग का जब आविर्भाव होता है, तब मनुष्य कम से कम साधन-मामग्री से भी सन्तुष्ट एव आनन्दमय रहता है। भोग-लोलुप व्यक्ति प्रचुर मामग्री पाकर भी सन्तोष का अनुभव नहीं कर सकता । व्यक्तियों के जीवन में त्याग-भाव जागृत करने से अनावश्यक वस्तुप्रो का मग्रह नहीं किया जाता, परिणामत दूसरे लोग उनमे वचित नहीं होते, और विपमता फैलने से रुकती है। ९ किचनता--किमी भी वस्तु पर ममत्व न होना, किसी भी पदार्थ को अपना न समझना, और फूटी कौडी भी अपने अधिकार में न रखना अकिंचनता है । ममत्व समस्त दुखो का मूल है। जव पर-पदार्थ को अपना माना जाता है तो उसके विनाश या वियोग से दुख होता है। जो किसी भी पदार्थ को अपना नही मानता, उसे दुख ही क्या ? दु ख का मूल ममता और सुख का मूल समता है। १०. ब्रह्मचर्य--गव प्रकार के विषयविकार से दूर रहकर ब्रह्म अर्थात प्रात्मा मे विहार करना ब्रह्मचर्य हैं । व्रतो के प्रकरण में इसका विचार किया जा चुका है। इन दश धर्मों का पालन करना मुनियो के लिए परमावश्यक है । श्रावको को भी अपनी शक्ति के अनुसार पालन करना चाहिए। व्यक्ति और समष्टि की शक्ति के लिए यह धर्म कितने आवश्यक ह, यह वात इन पर विचार करने मे गहन समझी जाती है। निन्थो के प्रकार प्रात्मा अनादिकाल से विकारग्रस्त चला आ रहा है। दीर्घकालीन मस्कारो मे ऊपर उठना भी कठिन होता है, अनादि कालीन सस्कारो से सर्वथा ऊपर उठ जाना कितना कठिन है, यह कल्पना कर लेना सरल है । प्रयत्न करतेकरते और निरन्तर सावधान रहते-रहते भी भूतकालीन सस्कार कभी-कभी उभर १ मनुस्मृति और विष्णुपुराण में भी यति धर्म के दश भेदो के नाम ने इनका वर्णन किया गया है। यति शब्द से श्रमण धर्मो का ही बोध होता है। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म पाते है और इस कारण साधु जीवन की साधना मे तरतमता होना अनिवार्य है । इस तारतम्य को लेकर जैनशास्त्रो में निर्ग्रन्थ श्रमणो का अनेक प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। उनमें से यहा श्रमणो के पाच भेदो का उल्लेख कर देना उचित प्रतीत होता है । वे पाच' प्रकार के श्रमण-निर्ग्रन्थ यह है--- १ पुलाकनिर्ग्रन्थ--गेहू की फसल काट कर उसका ढेर किया जाता है, तो उसमे दाने कम और इतर भाग अधिक होता है, उसी प्रकार जिस निर्ग्रन्थ मे गुणो की अपेक्षा दोषो की मात्रा अधिक विद्यमान है, वह पुलाक कहलाता है। २ बकुशनिम्रन्थ--गेहू की कटी हुई पुत्राल को अलग कर दिया जाय, और बाले-बाले अलग छाट ली जाये, तो घास अपेक्षाकृत थोड़ा रह जाता है, फिर भी दानो से अधिक ही होता है । इसी प्रकार जिस निर्ग्रन्थ मे पुलाक की अपेक्षा अधिक गुण है । फिर भी दोषों की अपेक्षा गुणो की मात्रा अधिक नही बट सकी, वह बकुगनिम्रन्थ कहलाता है। ३ कुशीलनिर्ग्रन्थ---कषायकुशील निर्ग्रन्थो मे दो श्रेणिया होती है कपाय कुशील और प्रतिसेवना कुशील । कपायकुशील निर्ग्रन्थ सयम पालता है, शानाभ्यास करता है और यथाशक्ति तपस्या करता है, फिर भी उसके अन्त करण मे कपाय उमड आता है। कपाय को दबाने का प्रयत्न करने पर भी वह पूरा सफल नहीं होता। वह कटुक वचन और निन्दा सुनकर क्रुद्ध हो जाता है। आत्म प्रगसा सुनकर अभिमान करता है और शिप्य तथा सूत्र के लोभ से छटकारा नही पाता। प्रतिसेवना कुशील निर्ग्रन्थ--प्रतिसेवना कुशील निग्रन्थ ज्ञान की सम्यक् प्रकार से आराधना नहीं करता, दर्शन का विराधक होता है और चारित्र का तथा लिग की विराधकता का भी उसमे दोप हो सकता है, और वह तपादि का नियाणा भी कर लेता है इसी लिए उसे प्रतिसेवना कुगील कहते है। ५ निर्ग्रन्थ--निर्ग्रन्थ जो अपनी सावना के अन्तिम शिखर पर पहुचने ही वाले है, जो लर्वन-सर्वदर्णी वनने ही वाले है, वे साधु निर्ग्रन्थ कहलाते है । १. पंच पियंठा पण्णत्ता-पुलाए, वउसे, कुसले, णियंठे सिणाए, भगवती श० २५, उ०६। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र २११ ५. स्नातकनिम्रन्थ--जिनकी साधना फलित हो चुकी है, जो समस्त आत्मिक विकारो को नष्ट करके वीतराग, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी हो चुके है, जिन्हे जीवन्मुक्त दशा प्राप्त हो चुकी है, वे अरिहन्त स्नातकनिम्रन्थ कहलाते है। प्रावश्यक क्रिया ____ चाहे अणुव्रती साधक हो, चाहे महानती, उसे अपनी साधना को अग्रसर करने के लिए नित्य नयी स्फति, और प्रेरणा मिलनी चाहिए। इससे साधना पीछे न हट कर आगे बढती जाती है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए जैनगास्त्रो मे कुछ नित्यकृत्यो का विधान है। जिन्हे श्रावक और साधु दोनो करते है । वह नित्यकृत्य छह है । वह इतने आवश्यक माने गये है कि जैनशास्त्रो मे उन्हे आवश्यक नाम मे ही अभिहित किया गया है। उनका दिग्दर्शन यो है-- १ सामायिक-- राग-द्वपमय विचारो से चित्तवृत्ति को पृथक् करके मध्यस्थ भाव मे रहना सामायिक है। समस्त पापमय क्रियानो का त्याग करके दो घडी पर्यन्त समभाव के सरोवर मे अवगाहन करना श्रावक की सामायिक क्रिया है। साधु की सामायिक जीवन पर्यन्त रहती है। क्योकि साधु सदैव समभाव मे रमण करते है। २ स्तवन--तीर्थकरो के गुणो का कीर्तन करना । तीर्थकर देव आदर्श महापुरुप है। जिन्होने आत्मशुद्धि का चरम रूप हमारे सामने प्रस्तुत किया है । उनके गुणो के कीर्तन से, कीर्तन करने वाले को अपने निज के स्वाभाविक गुणो का परिचय एव स्मरण होता है । उन गुणो को प्राप्त करने की प्रेरणा मिलती है और दृष्टि निर्मल होती है । ३ वन्दना---पूजनीय पुस्पो के प्रति मन, वचन, काय के द्वारा प्रादर प्रकट करना वन्दना है । पाच परमेष्ठी पूजनीय है। ४. प्रतिक्रमण--प्रतिक्रमण शब्द का अर्थ है--पीछे फिरना, लोटना । तात्पर्य यह है कि प्रमाद के कारण शुभ सकल्प से विचलित होकर अशुभ सकल्प मे चले जाने पर पुन शुभ सकल्प की पोर आना प्रतिक्रमण कहलाता है । इस आवश्यक क्रिया मे अगीकार किए हुए व्रतो मे त्रुटिया, भूले हो गई हो, उनका चिन्तन करके पश्चात्ताप किया जाता है। १ आवश्यक सूत्र । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ जैन धर्म साधु और श्रावक के व्रत पृथक्-पृथक् है, अतएव दोनो का प्रतिक्रमण भी भिन्न-भिन्न है । प्रतिक्रमण के पाच भेद है- १ दैवसिक, २ रात्रिक, ३. पाक्षिक, ४ चतुर्मासिक और ५. सावत्सरिक । दिन भर में हुए दोपो का सध्यासमय चिन्तन करना ( प्रतिक्रमण करना) दैवसिक और रात्रि सबधी दोषो का प्रात काल चिन्तन करना रात्रिक प्रतिक्रमण कहलाता है । पन्द्रह दिन के दोषो का चिन्तन करना पाक्षिक, चार मास के दोषो का चिन्तन करना चातुर्मासिक और वर्ष भर के दोषो का प्रतिक्रमण करना, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण है । दैवसिक और रात्रिक प्रतिक्रमण प्रतिदिन सन्ध्या और प्रात समय किए जाते है | पाक्षिक प्रतिक्रमण पूर्णिमा और अमावस्या के दिन सध्यासमय, चातुर्मासिक पाढी, कार्तिकी और फाल्गुनी पूर्णिमा को तथा सावत्सरिक प्रतिक्रमण भाद्रपद मास मे पर्यूषण पर्व के अन्तिम दिन किया जाता है । ५ कायोत्सर्ग -- शरीर सम्बन्धी ममत्व को हटाने का अभ्यास करना कायोत्सर्ग श्रावश्यक है । इससे देहाध्यास हटता है, और समभाव का विकास होता है । ६ प्रत्याख्यान -- इच्छाओ का निरोध करने के लिए प्रत्याख्यान (त्याग) किया जाता है । आहार, वस्त्र, धन आदि बाह्य पदार्थो का त्याग करना, द्रव्यप्रत्याख्यान और राग-द्वेष, ग्रज्ञान, मिथ्यात्व आदि का त्याग करना भाव प्रत्याख्यान है । साधना की कठोरता जैन श्रमण की आचार पद्धति ससार मे मुक्तिसाधना की कठोरतम प्रणाली है। केशलुचन, भूमिशय्या, पैदल विहार, अनियत वास अर्थात वर्षाकाल को छोड़ कर ग्राम नगर मे एक मास ग्रथवा सात दिन से अधिक न ठहरना, फूटी कौडी भी पास में न रखना, साथ ही इन्द्रियो पर विजय प्राप्त करने के लिए सतत जागृत रहना, अन्तःकरण मे कलुपता न आने देना, भूख-प्यास सर्दी-गर्मी डास-मच्छर का दर्शन आदि के कष्टो को धैर्य के साथ सहन करना, हमेशा हरेक वस्तु याचन करके ही ग्रहण करना, श्राहार-पानी का लाभ न होने पर Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारिन और नीतिशास्त्र २१३ विषाद न करके उमे तपस्या का लाभ मान लेना आदि ऐसी चर्या है, जिसके लिए जीवन को एक खास तरह के साये मे ढालने की आवश्यकता होती है। साधना का आधार इनमे पहले माधु-जीवन की चर्या का जो उल्लेख किया गया है, उससे पाठक को यह स्याल अवश्य आ जाएगा कि जैन-साधु वैराग्य और त्याग की माक्षात् प्रतिमा होता है। उम के त्याग-वैराग्य का आधार क्या है ? यह प्रश्न बडा हो सकता है। इस का उत्तर शास्त्रो में दिया गया है। दास्तव मे इम उग्र साधना का उद्देश्य आत्म-शुद्धि है । यात्मा अनन्त जान, अनन्त दर्शन, अमीम अानन्द और विराट् चेतना का धनी होकर भी कर्म उपाधि के कारण सासारिक दुःख का भाजन बन रहा है। कर्म की उपाधि इस साधना के विना नष्ट नही हो सकती। इसी कारण सावु इस साधना को स्वेच्छापूर्वक अगीकार करता है। बैराग्य की क्षणिक तरग मे बह कर साधु बन जाने से काम नही चलता। ऐमा करने वाला व्यक्ति न इधर का और न उधर का ही रहता है, ऐसे अस्थिरचित्त लोगो को सावधान करते हुए भगवान् महावीर ने कहा है-"तू जिस श्रद्धा के साथ घर छोडकर निकला है, जीवन के अन्तिम श्वास तक उसी श्रद्धा का निर्वाह कर।" जिस श्रद्धा और विरमित से प्रेरित होकर मनुष्य श्रमणत्व अगीकार करता है, जीवन-पर्यन्त उसको स्थायी बनाए रखना साधारण बात नही । उसके लिए श्रमण को क्षण भर का भी प्रमाद न करके निरन्तर जागृत रहना पड़ता है । भगवान् महावीर ने कहा है सुत्ता अमुणी, मुणिणो सया जागरंति, आचाराग। "जो प्रमाद मे पड जाता है, वह मुनित्व से च्युत हो जाता है, अतएव मनिजन सदैव जागते रहते है।" सतत जागृति को बनाए रखने के लिए जैनशास्त्रो मे साधुनो के लिए विविध उपायो का निर्देश किया गया है। जिनका निस्तार-भय से यहा उल्लेख नहीं किया जा रहा है। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ जैन धर्म मृत्युकला (संलेखनावत) जनदृष्टि के अनुसार धर्म एक कला है और धर्मकला का स्थान समस्त कलायो में सर्वोपरि है। "सव्वा कला धम्मकला जिगई" अर्थात् धर्मकला सब कला को जीतती है। धर्मकला जैसे सर्वोच्च है, उसी प्रकार सर्वव्यापक भी है। जैसे जीवन के प्रत्येक व्यापार मे वह प्रोत-प्रोत रहनी चाहिए, उसी प्रकार म्त्यु में भी जगन् के सभी धर्मोपदेष्टायो और नीतिप्रणेतानो ने जीवन की कला का रूप मानव जाति के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मगर मृत्यु जो जीवन का ही दूमग पहलू या अनिवार्य परिणाम है की कला का सुन्दर निदर्गन भगवान् महावीर ने कराया है, जैसा अन्यत्र कही देखने को नहीं मिलता है। मृत्यु की कल्पना भी अत्यन्त भयावह है। सभवत संमार में अधिक मे अधिक भयकर कोई वस्तु है, तो वह मौत ही है । पर भगवान् महावीर जैसे अनूठे कलाकार ने उसे भी उत्कृष्ट कला का रूप प्रदान किया है। उस कला की साधना में सफलता प्राप्त कर लेने वाला सावक ही अपनी साधना में उत्तीर्ण समझा जाता है। जीवन कला की साधना के पश्चात् भी मृत्युकला की साधना में जो असफल हो जाता है, वह मिद्धि मे वचित ही रह जाता है। भगवान् महावीर ने कहा है-“मत्यु से भयभीत होना अज्ञान का फल है । मृत्यु कोई विकराल दैत्य नहीं है । मृत्यु मनुष्य का मित्र है और उसे जीवन भर की कठिन सावना को सत्फल की ओर ले जाती है । मृत्यु सहायक न बने तो मनुप्य ऐहिक धर्मानुष्ठान का पारलौकिक फल-स्वर्ग और मोक्ष-कैसे प्राप्त कर सकता है ?" __कारागार से मनुष्य को मुक्त करने वाला उपकारक होता है । तो इस गरीर के कारागार से छुड़ा देने वाली मृत्यु को क्यो न उपकारक माना जाय। इस कृमिकुल से मकुल एव जर्जर देह रूपी पिजडे से निकालकर दिव्य देह प्रदान करने वाली मृत्यु से अधिक उपकारक और कौन हो सकता है ? वस्तुत. मृत्यु कोई कप्टकर व्यापार नहीं वरन् टूटी-फूटी झोपडी को छोटकर नवीन मकान में निवास करने के समान एक आनन्दप्रद व्यापार है । किन्तु अनान जनित ममता इस नफे के व्यापार को घाटे का व्यापार बना देता है, और अनानी जीव को अपने परिवार और भोगसाधनो के विछोह की कल्पना करके मृत्यु के ममय हाय-हाय करता है, तदपता है, छटपटाता हैं और Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र २१५ याकुल-म्यानुल हो जाता है, परन्तु नत्वदनी पुग्प अनासक्त होने के कारण मध्यस्वभाव में स्थिर रहता है और जीवन भर की साधना के मन्दिर पर स्वर्णकाला चटा लेता है। वह परम मान्न एव निराकुल भाव से अपनी जीवन यात्रा पूरी करता है. और इस प्रकार अपने वर्तमान को ही नहीं, भविप्य को मी मगलमय बना लेता है। गयन नीर धर्म मर्यादायो में आबद्ध जीवन ही मोकाट नीयन है। मणयम का कठोर गाधना मे जीवन की उद्दाम और उन्द्र पल वृत्तियों का नियन्त्रित करना भयमी पुस्प के लिए आवश्यक है। जैन धर्म जीवन मे पलायनवादी नीति पर विश्वास नहीं रखता, अपितु सयम और नतोप, ग्वाध्याय और ना विवेव और वैराग्य द्वारा इगी जीवन में आध्यात्मिक यन्तियों का विकास नजपद पा लेना ही, यह ध्येय सिद्धि मानता है। जैनधर्म रहता कि "जब तप जीयो, विवेक और मानन्द से जीत्रो, ध्यान और समाधि की नन्मयता में जीयो, अझिा और सत्य के प्रमार के लिए जीरो, और जब मृत्यु आये तो प्रात्म-साधना की पूर्णता के लिए, पुनर्जन्म में अपने आध्यात्मिक लक्ष्यमिद्धि के लिए अयवा मोक्ष के लिए, मत्यु का भी, समाधिपूर्वक वरण करो। मृत्यु के आने से मन की एकाग्रता, ध्यान तन्मयता तथा तदाकारता का आनन्द लो। किन्तु जगत् में जीवन को ऐच्छिक इप्ट, प्रिय और मुखद समझा गया है, और मृत्यु को अप्रिय, भयावह, तया अनिष्टकारक माना गया है। यही कारण है कि मृत्यु के समय साधक यदि मोह का त्याग न कर पाया तो जीवन की साधना पर कालिन्य पुत जाती है और दोनो जन्म वर्वाद हो जाते है । भगवान् ने मृत्यु विज्ञान के विगद विवेचन मे मृत्यु के भी १७ प्रकार बताये है ---- १ प्रावीचिमरण क्षण-क्षण मे आयुक्षय होती है, यह क्षण-क्षण का मरण है, मृत्यु । २ तद् भवमरण शरीर का अन्त, देहान्त हो जाना। ३ अवभि मरण आयुपूर्ण होने पर मृत्यु का होना । ४. पाद्यन्तमरण दोनो भवो मे एक ही प्रकार की मत्यु का होना। ५ बालमरण ज्ञानदर्शन हीन होकर विप-भक्षण आदि से मरना। ६ पण्डित मरण समाधि भाव के साथ देह त्याग करना। ७. श्रारान मरण सयम पुष्ट होकर मरना। ८. वालपण्डित मरण - श्रावकपने मे मरण अर्थात् अणुव्रत ही धारण कर मरना। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जन बम ९. सशल्य मरण परलोक की सुरवाशा के साथ या मन मे कपट लेकर मरना। १०. प्रमाद मरण सकल्प विकल्प से मुक्त होकर जीवन त्याग करना। ११. वगात् मत्यु इन्द्रियाधीन अथवा कषायाधीन होकर मरना १२. विपुल मरण सयमशील व्रत आदि पालन में असमर्थता देख अपवात करना। १३. गद्वपष्ठ मरण युद्ध के मैदान मे लडते हुए मरना । १४. भक्तपान मरण - विधिपूर्वक त्याग करके मरना । १५. इगित मरण समाधिपूर्वक मरण। १६. पाटोप गमन मरण - साहार आदि त्याग कर वृक्ष के समाननिश्चल । भाव से मरना। १७. केवलि मरण - केवल ज्ञान हो जाने के बाद निर्वाण प्राप्ति। इन मृत्यु के भेदो मे बालपण्डित मरण, पण्डित मरण तथा अन्तिम शेष के चार मरण, जैनधर्मावुकूल मरण है। जैनधर्म ने मृत्यु के समय समाधि मरण के निमित्त अभ्यस्त हो जाने के लिए सथारा, सल्लेखना, तथा सस्तारक-विस्तार पर सोने के समय रात्रि को भी सागारी सथारा करने का विधान किया है। प्रतिरात्रि इस प्रकार सथारा करने से समाधि मरण की कला का ज्ञान भी हो जाता है, और अकस्मात् सोते-सोते ही मत्यु हो जाये तो जगत् के मोह की पाप क्रिया भी नहीं लगती । इस सथारे मे अन्तर इतना ही होता है कि यह सागारी सथारा कहलाता है, अर्थात् मोकर उठने पर, अथवा रोग शान्त हो जाने पर, कष्ट विकल जाने पर यह नियम समाप्त किया जा सकता है। क्योकि सथारे की मर्यादा लेने पर व्यक्ति का जगत् की अथवा अपनी ही किसी भी उपाधि पर अधिकार नही रहता। मृत्यु कला मे शिक्षा भी यही दी जाती है जिससे मरने के समय साधक ममत्व का पूर्णत त्याग कर सके। इसी लिए सभी प्रकार की मृत्यु मे से समावि मरण को ही श्रेष्ठ माना गया है । यह विवेकयुक्त समाधिमरण, पण्डितमरण और सकाममरण भी कहलाता है। प्राणान्तकारी सकट, दुर्भिक्ष, जरा अथवा असाध्य रोग होने पर, जब जीवन का रहना संभव न प्रतीत हो, समाधि मरण अगीकार किया जाता है। जैनगास्त्रो में समाधि मरण का विस्तृत वर्णन है। इसे मृत्युमहोत्सव की भाव पूर्ण सज्ञा दी गई है और अनेक प्रकार के भेद-प्रमेद करके इमका विशद वर्णन किया गया है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारित्र और नीतिशास्त्र २१७ ममाधिमरण अगीकार करने वाला महासाधक सब प्रकार की मोह-ममता को दूर करके शुद्ध आत्मस्वरूप के चिन्तन मे लीन होकर समय यापन करता है। उसे पाच दोषो से बचने के लिए सतर्क किया गया है - १. इहलोकाशमा ऐहिक सुखो की कामना करना । २. परलोकागसा पारलौकिक सुखो की कामना करना। ३. जीवितारासा समाधिसरण के समय पूजा-प्रतिष्ठा होती देख कर अधिक समय तक जीवित रहने की इच्छा करना। ४. मरणाशमा भूख, प्याम या रोगजनित व्याधि से कातर होकर जल्दी मरने की इच्छा करना। ५. कामभोगाशमा - इन्द्रियो के भोगो की आकाक्षा करना। समाधिमरण लेने वाले महात्मा को इन पाँच दोषो से बचना चाहिए, और पूर्ण समभाव में स्थित होकर ममाधिमरण के परमानन्द को कलुषित नही , करना चाहिए। भगवान् महावीर द्वारा निर्दिष्ट मृत्युकला का यह सक्षिप्त दिग्दर्शन है। दस कला की उपासना श्रावक और सावु दोनो को करनी चाहिए। १ उपासकक्शाक-सूत्र, अ० १, भगवती, शतक १३, उ०८ पा० ३० । Page #236 --------------------------------------------------------------------------  Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .....००००.००.००००... ....०००.........००००... जम्बहीवे णं भंते ! दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणु प्पियाणं केवतियं काल तित्थे अणुसज्जिस्सति ? गोयमा ! जम्बद्दीवे भारहे वासे इमीसे ओसप्पिणीए ममं एगवीसं वाससहस्साई तित्थे अणुसिज्जस्सति । -~-भगवती, श० २, उ० ८। ..........................................०००० .००.०.००००००............................. ___ "हे भंते ! अन्हित भगवत द्वारा प्रवत्तित यह धर्म-तीर्थ इस अवसर्पिणी काल में जम्बूद्वीप के भारत देश मे कब तक चलेगा?" "हे गौतम । मेरा धर्म तीर्थ इसी अवसर्पिणी काल मे जम्बूद्वीप के भारत देश में २१ हजार वर्ष तक चलेगा।" .........००.००००००००००००००........................ PARE जैन-धर्म की परम्परा Page #238 --------------------------------------------------------------------------  Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की परम्परा भारत के प्राध्यात्मिक निर्माण मे जैनाचार्यों का योगदान भारत के मास्कृतिक निर्माण में जैनाचार्यों की कितनी महत्त्वपूर्ण देन है, इम सवध में अब तक कोई व्यवस्थित विचार नहीं किया गया है। किन्तु अमदिग्ध रूप में कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों ने अपने उच्च कोटि के त्यागमय और मयमपूर्ण जीवन और उपढेगो मे भारत की सस्कृति को बहुत प्रभावित किया है। उनकी देन अनठी है। जब म पूर्व, दक्षिण और उत्तर के अन्तर्मानम का साक्षात्कार करना चाहेगे, नो हाँ चलचित्र की भॉति जैनाचार्यों की भव्य झांकियॉ दृष्टिगोचर होगी, जिनका प्रभाव अाज नक भारत की कला और जन-जन के मानस पर अक्षुण्ण एवं व्यापक रूप से पड़ा है। भगवान् महावीर से १७० वर्ष बाद उत्पन्न होने वाले महान् प्राचार्य भद्रवाह को कौन भुला सकता है, जिन्होने अपने योगवल से भविष्य को जानकर मगव की जनता और मम्राट चन्द्रगुप्त को द्वादशवर्षीय दुर्भिक्ष का सकेत किया था। उन्ही के उपदेशो का फल था कि मम्राट् चन्द्रगुप्त उनके माथ दक्षिगयात्रा मे गया, भिक्ष बना, और अन्त मे जैनविधि के अनुसार समाधिमण करके कृतकृत्य हो गया। प्राचार्य भद्रबाहु के दक्षिण प्रवाम के परिणाम बडे दूरगामी, स्थायी प्रभाव Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૨૨ जैन धर्म वाले, और अनोग्ये सिद्ध हुए। इस प्रवाम के फलस्वरूप मगध का जैन सब दो भागो मे बँट गया। इसका दुष्परिणाम दिगम्बर-श्वेताम्बर के सम्प्रदाय भेद के रूप में प्रकट हुग्रा, मगर दूसरा महत्त्वपूर्ण मुफल यह हया कि उन्होने दक्षिण के (कलन, होयमेल, गग आदि) के राजदगो पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप मे जैनधर्म और अहिगा का जो प्रभाव छोडा, वह पार्यों और द्रविडो की एकता का कारण बना । महान् श्रुनधर आचार्य भद्रबाह पूर्व और उत्तर के मवर मम्मिलन की प्रयम कडी थे। ग्रार्य महागिरि और आर्य मुहम्नी के गिाय गुणसुन्दर ने सम्राट् सम्प्रति की सहायता से भारत के विभिन्न प्रान्तो के अतिरिक्त अफगानिस्तान, यूनान और ईगन ग्रादि एगिया के समस्त गप्ट्रो में जैन धर्म का व्यापक प्रचार किया। मूत्रय ग के प्रतिष्ठापक उमास्वाति, भारत के महान् दार्गनिक मिद्धमेन दिवाकर ने जैन तर्कशास्त्र को व्यवस्थित रूप प्रदान किया और प्राचार्य कुन्दकुन्द ने आध्यात्मिक ग्रथो की रचना करके और स्वामी मामन्तभद्र ने तर्कशास्त्र की प्रतिष्ठा करके जैन साहित्य को समृद्ध बनाया। जब हम विक्रम की पहली महस्राब्दी पर दृष्टि दौडाते है, तो सहसा हो अनेको विनियाँ दिग्वाई देती है, जिन्होने माहित्य के विविध अगो को पुष्ट करने मे मराहनीय प्रयत्न किया है। देवधिगणीक्षमाश्रमण, जिनभद्रगणीक्षमाश्रमण अभयदेव, हरिभद्र, गीलाक, धनेश्वर मूरि, कालिकाचार्य, जिनदास महत्तर आदि और दूसरी सहस्राब्दी के कलिकाल सर्वन हेमचन्द्राचार्य, वादी देव मूरी, यगोविजय आदि वे प्राचार्य है, जिन्होने धार्मिक, राजनीतिक, साहित्यिक तथा आध्यात्मिक विचारो से देग को सम्पन्न बनाया है। दूसरी तरफ प्राचार्य गणधर, भूतवली, पुष्पदन्त,. कुन्दकुन्द, पूज्यवाद, पात्रकेमरी, अकलक, विद्यानन्दी, सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र जिनमेन, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र आदि भी है जिन्होने दक्षिण और उत्तर को अपनी प्रतिभा से प्रभावित किया है। भारत के निर्माण मे जैनाचार्यों का योगदान यद्यपि मुख्यतया आध्यात्मिक रहा है, तथापि गजरात का साम्राज्य कुमारपाल को अहिंसा की दीक्षा, तथा दक्षिण मे विजय नगर की राज्य-व्यवस्था मे अहिसा की प्रतिष्ठा तथा विहार और मथुरा प्रदेशो मे, अहिमक वातावरण उत्पन्न करने मे भी इन्ही प्राचार्यों का योग रहा है । जब तक भारतवर्ष मे हिसा और भूतदया, निरामिप भोजन, दुर्व्यसनो के प्रति वृणा, मद्यपान एवं चारित्रिक निर्बलताग्रो के विरुद्ध जो माहिक भावना दिखाई देती है उसके पीछे जैनाचार्यों का प्रवल हाय रहा है। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की परम्परा जैनाचार्यो ने तथा जैन मावो ने श्रहिंसा, तप, त्याग की कसौटी पर जो उज्ज्वल स्वरूप विश्व के सामने रखा है, वह ग्राज भी भारत के लिए गौरव की वस्तु है । २२३ सौराष्ट्र में ग्रहिमक भावना को जो उल्लेखनीय प्रश्रय मिला है, वह जैनाचार्यों की ही देन है । उसका फल अनेक रूपो मे हमारे सामने ग्राया । स्वामी दयानन्द ने वेढी का जो ग्रहिमापरक अर्थ किया और महात्मा गाधी ने जो ग्रहिंसानीति ग्रपनाई, उसके पीछे मौराष्ट्र का अहिंसामय वातावरण ही कारण है । गाधी जी को तो जैन सन्त बेचर स्वामी ने विलायत जाने से पूर्व मद्य, मास और परस्त्रीगमन का त्याग करवाया था । कवि राजचद भाई ने उन्हें पूर्ण ग्रहिमक बना दिया । ग्राममार ग्रहमा की ओर बढने की सोच रहा है । यह प्रसन्नता की बात हैं । किन्तु जैन मघ ने हिमा से भरी विगत शताब्दियों में ग्रहिमा की जो दिव्य ज्योति जलाए रक्खी वह उसकी भारत को, विश्व को और समस्त मानवता को सब से बडी देन हैं । राजाओं का योगदान भारतीय इतिहास का गहरा ग्रालोडन करने वाले कुछ विद्वानो का मत है कि ब्रह्मविद्या या प्राध्यात्मिक ज्ञान क्षत्रियों में प्रारंभ होकर ब्राह्मणो के पास पहुँचा । जैन इतिहास इस ग्रभिमत की पुष्टि करता है । ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त चीवीमो तीर्थकरो का जन्म राजवशो मे ही हुया था । प्रत्येक तीर्थकर के काल मे ग्रनेकानेक जैन राजा भी हुए । चक्रवर्ती भी हुए, जिन्होने जैनेन्द्रीय दीक्षा धारण की, और जैनधर्म के प्रचार और प्रसार में योग दान दिया । उन सब का इतिहास ग्राज उपलब्ध नही । तथापि भ० महावीर के सममामयिक और उनके पञ्चाद्वर्ती कुछ राजाओ का उल्लेख कर देना ग्रनुचित न होगा, जिन्होने जैन धर्म की प्रभाववृद्धि में योग देकर ग्रुपने को धन्य बनाया है । चेटक तथा अन्य राजा -- राजा चेटक भगवान् के प्रथम श्रमणोपासक थे । वैशाली के ग्रत्यन्त प्रभावशाली और वीर राजा थे । वह ग्रठारह देशो के गणराज्य के अध्यक्ष थे । उन्होने प्रतिज्ञा की थी कि मैं अपनी कन्याएँ जैन के सिवाय किसी अन्य को नहीं दूंगा। नीति की प्रतिष्ठा और शरणागत की रक्षा के लिए चेटक को एक बार मगधराज कूणिक के साथ भीषण मग्राम करना पडा था । सिन्धु सौवीर के उदयन, ग्रवती के प्रद्योत, कौशाम्बी के शतानीक Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ जैन धर्म चम्पा के दधिवाहन, और मगध के श्रेणिक राजा, चेटक के दामाद थे। यह मभी राजा जैन धर्म के अनुयायी थे। राजा उदयन ने तो भगवान् के निकट दीक्षा ग्रहण की थी। श्रेणिक और कूणिक-इतिहासप्रसिद्ध मगधाधिपति विम्बसार, जैन माहित्य मे श्रेणिक नाम से भी प्रसिद्ध है। उनकी गाथाएँ जैन साहित्य मे प्रसिद्ध है। श्रेणिक के पुत्र सम्राट् कूणिक भी भगवान् के परम भक्त थे। कूणिक के पुत्र उदयन ने भी जैन धर्म की ही गरण गही थी। काशी-कौगल के अठारह लिच्छवी, और मत्ली राजानो ने भगवान् महावीर का निर्वाण महोत्सव मनाया था। इससे प्रतीत होता है कि यह सब राजा जैन धर्म से प्रभावित थे। मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त--चन्द्रगुप्त जैनधर्म के अनुयायी थे । भद्रबाहु स्वामी के निकट, मुनि दीक्षा अगीकार करके मैमूर (दक्षिण) गये । श्रमण-बेलगोला की गुफा मे अात्मसाधना की। इनके मत्री चाणक्य भी जैनवर्मी थे और जैन श्रावक गणी के पुत्र थे। सम्राट अशोक---अशोक चन्द्रगुप्त के पौत्र थे। उन्होने अहिसा की जो सेवा की है, वह प्रसिद्ध है। "अर्ली फेथ आफ अशोक" नामक पुस्तक के अनुसार अशोक ने अहिमा विषयक जो नियम प्रचारित किये, वे बौद्धो की अपेक्षा जैनो के साथ अधिक मेल खाते थे। पशु-पक्षियो को न मारते, निरर्थक जगलो को न काटने, और विशिष्ट तिथियो एव पर्वदिनो में जीवहिमा बद रखने आदि के आदेश जैन धर्म से मिलते है। सम्राट सम्प्रति--सम्प्रति अशोक के पौत्र थे । यह एक बार युद्ध मे विजय प्राप्त करके खुशी-खुशी माता के पास पहुँचे। देखा, माता के चेहरे पर प्रसन्नता के बदले, आँग्यो मे प्रॉमू है। कारण पूछने पर माता ने वनलाया-- नरमहार करके प्राप्त की गई विजय, सच्ची विजय नहीं। सच्ची शान्ति अहिसा के द्वाग ही प्राप्त की जा सकती है। इत्यादि उपदेश सुन कर मम्प्रति ने प्रख्यात जैन मुनि आर्य सुहस्ती मे जैनधर्म अगीकार किया। सम्राट् सम्प्रति ने अनार्य देशो में जैन धर्म के प्रचार के उद्देश्य मे, जैनधर्माराधको के लिए धर्मस्थानो की व्यवस्था कन्याई थी। अनार्य प्रजा के उत्थान के लिए सम्प्रति ने महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। उनने धर्मप्रचारक भेजकर जैनधर्म की शिक्षाएं प्रमारित की। अनेक विद्वानों का Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म को परम्परा २२५ मन है कि याज जो गिलाच अशोक के नाम से प्रसिद्ध है, सभव है वे सम्प्रति के निखवारे हुए हो । । कलिंग चक्रवर्ती खारवेल - इम्पी सन् से पूर्व दूसरी शताब्दी में महाराजा सावेत ए । उस युग की राजनोनि मे खारवेल सब से अधिक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति थे। उनके समय में जैनधर्म का व उत्कर्ष हुआ। उनके प्रयास में जैन साधुग्रो तथा जैन विद्वानों का एक सम्मेलन हुआ । जैन-मब ने उन्हें महाविजयी मेमराजा तथा मिक्षराजा और धर्मराजा की भी पदवी प्रदान की। जैनधर्म के पति की गई खारवेल की सेवाएं बहुमूल्य है । वह प्रत्यन्त प्रतापी राजा हुए है। कलचूरी और कलभ्रवंशी राजा - क्लचूरि राजवंश मध्यप्रान्त का सबसे वडा राजवा था । साठवी-नौवी शताब्दी में उसका प्रवन नाम चमक रहा था । इस वंश के राजा जैनयम के कट्टर अनुयायी थे । त्रिपुरी इनकी गजवानी थी। प्रो०रास्वामी का कथन है कि इनके वराज ग्रान भी जैन कलार के नाम से नागपुर के ग्रासन्भाग मोजड है । होयसेल वंशी राजा -- हायमेल वा के अनेक राजा, श्रमात्य और सेनापति जैनयम के अनुयायी थे । मुदत्त मुर्ति इस वश के राजगुरु थे। पहले यह चालुक्यो के माण्डनिक थे, पर १९१६ में उन्होने स्वतंत्र राज्य की प्रतिष्ठा की थी । गगवशी राजाईमा की दूसरी सदी मे गग राजाओ ने दक्षिण प्रदेश में अपना राज्य स्थापित किया। ग्यारहवी सदी तक वे विस्तृत भूखण्ड पर शासन करते रहे। यह सब राजा परम जैन थे। इस वग के प्रथम राजा मानव थे, जिन्हे कोणी वर्मा भी कहते है । वह जैनाचार्य मिनन्दि के शिष्य थे । उनके समय मे जैनधर्म, राजधर्म वन गया था। इसी वग का दुर्विनीत राजा प्रसिद्ध वैयाकरण जैनाचार्य पूज्यपाद का शिष्य था । एक और राजा मारसिह ने अनेक राजाओ पर विजय प्राप्त करके, ऐश्वर्यपूर्वक राज्य करके अन्त मे भिक्षु का पद अगीकार किया । जैनाचार्य जितसेन मे पादमूल मे समाधिमरणपूर्वक आयु पूर्ण की। शिलालेख के आधार में उनकी मृत्यु ई० स० ९७५ में हुई । इस ऋण की महिलाएँ भी जिनेन्द्र देव की महान् उपासिकाएँ थी । राजा मारमिह द्वितीय के सुयोग्य मत्री चामुण्डराय थे । गारसिंह के पुत्र राजमल्ल के वह प्रधानमंत्री, और मेनापति हुए। वह दृढ जैनधर्मानुयायी थे । सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्र चामुण्डराय के धर्मगुरु थे । कनडी भाषा मे लिखित " त्रिपठिलक्षण" महापुराण उनकी प्रभित्र रचना है। इन्ही चामुण्डराय ने श्रमण वेलगोला मे, 1 Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ जैन धर्म - मच्या बढती घटती रही है, किन्तु जैन धर्म की सरिता कभी मूम्बी नहीं, वह सना से मानव-जाति को गान्ति का सदेग देती रही है। जनता पर और राजानो पर जैन धर्म का बहुत बडा असर रहा है। भारत के बड़े-बड़े सम्राट् जैन धर्म के ध्वज की या मे आत्मनिरीक्षण का पाठ पढते रहे हैं। स्वय भगवान् महावीर के समय मे ही जैन धर्म मगध' का राज्य-धर्म था। तात्कालिक भारत के १६ प्रमुव गज्यो मे जैन धर्म बहुत तेजस्वी रहा था। भ० महावीर के मामा की पाँच पुत्रियो ने ही पाँच राजानो को जैन धर्म की दीक्षा दी थी। यद्यपि महागजा चेटक की मात पुत्रियाँ थी, किन्तु इनमे मे दो तो, ब्रह्मचारिणी ही रही थी। मग इन पाँचो मे से प्रभावती ने सिन्धु मौवीर के सम्राट् उदयन को, गिवा ने अवन्नीपति चण्डप्रद्योत को, चेलणा ने मगधाधिपति श्रेणिक को, मृगावती ने वत्सपति गतानीक को और पद्मावती ने अगदेग के अधिपति दविवाहन को जैन धर्म को ओर उन्मुख किया था। उस समय के राजाम्रो और राजकुमारो राणियो और राजकुमारियों पर श्रमग महावीर का इतना प्रभाव था कि कितने ही गजपुत्रो और राजपुत्रियो ने माधु धर्म की दीक्षा तक ग्रहण की थी। वह जैन धर्म का स्वर्ण युग था, चारो पोर जै। धर्म की माधना का स्वर गूंज रहा था। गज्याश्रय जैनधर्म को पूर्णतया प्राप्त था किन्तु जैन धर्म प्राचार का धर्म है। उसे राज्याश्रय या व्यक्ति के आश्रय की तडप नही है उस समय यदि राज्यस्तर पर विधान के नाते जैन धर्म प्रचारोन्मुख बनाया जाता नो अत्यधिक विस्तृत हो जाता। विन्तु जैन धर्म लोकषणा और लोक मग्रहप्वृत्ति को धार्मिकता के लिए अनिवार्य गर्त नहीं मानता, फिर भी जैनधर्म का प्रचार बढा। सब मे पहली क्षति जैन धर्म को चेटक और कोणिक के वैवालि युद्ध मे हई, उसमे जैन धम के मानने वाले १८ राजाम्रो का विनाग हो गया, चेटक की पराजय हुई, और, कोणिक विजित होने पर भी जैनो का ग्लानि-पात्र बन गया और अत मे वह बौद्ध हो गया। फिर दो शताब्दी के बाद जैन धर्म का वर्चस्व गप्तवग के राजत्व काल मे वना। महागजा मगीक के पौत्र मम्प्रति ने तो गुरु गुणसुन्दर की प्राज्ञा लेकर जैन धर्म को विश्व विस्तृत करने के लिए बहुत प्रयत्न किया पर मम्प्रति के पश्चात् जैन धर्म के प्रमार की परम्परा चल नहीं सकी। यही कारण है कि उस समय जैन धर्म ईरान, अफगानिम्नान और ग्रीय ग्रादि समग्र देगो मे फैला। यही नहीं अपितु जैन धर्म ने ग्रीस के महान् चिन्तक पाइथेगोरस को "प्रार्हन" धर्म की दीक्षा दी। आज भी मसार में १ कंबोज, पाञ्चाल, कौशल, काशी, वत्स, श्रावस्ती, वैशाली, मगध, बग, कुशम्थल अग, धन फटक, आंध्र, कलिंग, अवंती, मिन्बुसौवीर । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की परम्परा २२९ पाइथेगोरियन नांगो की कमी नहीं। उनके सिद्वान्त, उनकी मान्यताए जैन धर्म में ग्रनप्राणिन है। दिगम्बर पट्टावलियो मे नो पिहिताश्रव (पाइथेगोरस) नाम के मत का उल्लेख मिलता है। भगवान् महावीर से २० वर्ष पूर्व पाइथेगोरस भारत मे पाये थे, और उन्होने भगवान् पार्श्वनाथ के साधुनो मे जैन-दीक्षा ग्रहण कर ग्रीस मे जैन धर्म का प्रचार किया था। तत्व और मिद्धान्त की दष्टि से जैन धर्म ग्राज विश्व-व्यापी बना जा रहा है क्योकि विश्व मे सामाजिक, मैद्धान्तिक, और राजनैतिक नेता-गण अहिसा को ही सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त के रूप में रवीकार करते है। आज युद्ध के विरुद्ध शान्तिवादियों का मोर्चा भगवान् महावीर के उस कथन के अनमार बन रहा है जिसमे उन्होने कहा था कि --- "मा हणो, मा हणो" (मत हिंसा करो, मत हिंसा करो) का उपदेश देने की भी प्रेरणा दी थी। जनवमं एक विचारधाग हे जो मामाजिक नियमो व व्यावहारिक गम्बन्धो को परिवर्तन करना धम के लिये अनावश्यक गमझता है। जैन धर्म न तो किसी की भापा परिवर्तित करना चाहता है, न किमी की विवाह गद्धति में हस्तक्षेप करना चाहता है, और न ही राज्य तथा भोतिक समृद्धि पर उसने कभी विश्वाम किया है, वह नो मानवता के जागरण, विकारों के नियत्रण और आत्मदर्शन का सदेश विश्व में फैलाना चाहता है। ये सभी सम्राट' स्वय शुद्धाचरगी थे, इनके शासनकाल मे निरपराध प्राणियो की हत्या बन्द रही है, लोग मुखी और समृद्धिशालो थे। सभी अपने-अपने नियत कार्यों को किया करते थे, एक को दूसरे के प्रति ईर्ष्या या ढेप नहीं था, ऊँचनीच के भेदो को पुण्य-पाप का फल समझते थे, इसी लिए पाप कर्म से हट कर, गुण्य कर्म करने का यथागक्ति प्रयत्न करते थे। शासक कभी किसी के धर्म या सामाजिक नियम में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करते थे। प्रजा की रक्षा-व्यवस्था के लिए भूमि और चुङ्गी कर के अतिरिक्त कोई कर नहीं लेते थे, वह या "सुराज्य" जिसे लोग चाहते है। दक्षिण भारत मे गगवशीय आदि जैन धर्मानुयायी राजानो ने मैकडो वर्ष तक निष्कटक राज्य किया है। चामुण्डराय आदि वीरो ने अपनी शक्ति का परिचय दिया है। आज भी मुडविक्री मे राजवश के उत्तराधिकारी विद्यमान है । १. प्रसिद्ध जैन सम्राटो की तालिका पृ० २३० पर देखिए। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- क्रम । - - नाम सम्राट निम्बसार m प्रजातशत्र = = m - - उदयन महापद्म चन्द्रगुप्त बिन्दुमार अशोक मौर्य و ش भारतवर्ष के ऐतिहासिक क्षत्रिय जैन सम्राट् तथा भूपति वश | शासन-काल इस्नी पून । कुल वर्ष । राजधानी विशेप विवरण शिशुनाग ५४३---४६१ । ५२ । राजग्रह उपनाम श्रेणिक, भ० महावीर के मोमा। ४६१-~~-४५६ पाटलीपुत्र | उपनाम, कोणि, बुद्ध के गम कालीन। ४५६-४१३ सिकन्दर भारत मे पाया ३२३----- ३२२-१६८ भारत प्राया। मौर्य २६८-१७३ २७३-~-२३२ भारत का महान् मम्राट् गज्य के केवल चार वा न रहा फिर पाद बन गया। अगोता का पोस। चदी १७७-~१५२ लिग कोलग निजग किया। मन् ७८ ईस्वी बीन्द-मन में दो सम्प्रदाय हुए। परमार ३७५ उज्जैन नीनी यानी फाहियान पाया। परमार नीनो गाती हेनगाग पाया। राष्ट्रकूट तोमर १०००-१०५० श्रावस्नी | गैगद गालार मराजा को पद ग मारा। चालुक्य ११४२----११७३ महिनपुर परिहार दिलली पार मे गहलो टारनवाला जैन धर्म is सम्प्रति खारवेल कनिक विक्रमादित्य " AAM कन्नौज ७५० अमोघवर्ग सहिल देवराय कुमारपाल हेम् (हेमराज) . - - meenaweiomonam Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SREESS.Oñcazosé "जत्ता ते भंसे! अवणिज्जं अव्वायाहं फासुग्रविहारं ?" "सोमिला ! जत्ता विसे, जयणिज्जं पि मे अव्यवाहं पि मे फासूयबिहारं पि मे । , 000000coocooooooogeb -- भगवती, श० १८, ३०१० १ "हे भते ! आपके धर्म मे यात्रा, यापनीय अव्यावाध प्रौर विहार है नया ?" ... " हे सोमिल, है ! तप, नियम, सयम, स्वाध्याय, ध्यान और आवश्यक आदि योगों में हमारी यत्ना की प्रवृत्ति ही हमारी यात्रा है ।" इन्द्रिय और कपायो को जीतना ही यापनीय है । वात, पित्त, कफ और सन्निपात रोगो की उपशान्ति और अशुभ कर्मो का उदय में नही आना ही अव्यावाध है । उद्यान, धर्मशाला, स्त्री- पशु रहित शुद्ध आसन ग्रहण करना ही हमारा प्रासुक विहार है । "हे सोमिल । सयम की प्राप्ति द्रव्य, नय और निक्षेप के ज्ञान-विज्ञान के बिना नही हो सकती ।" यही धर्म की विशेषता है । CODEC 08000....socccccpoisonspocop008Ecocoooo जैन-धर्म की विशेषताएँ Page #248 --------------------------------------------------------------------------  Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की विशेषताएँ जैन धर्म की वैज्ञानिकता--पिछले प्रकरणो मे जैन धर्म की मान्यताएँ मक्षेप में बतलाई जा चुकी है। ध्यानपूर्वक उन्हे पढने से जैन धर्म मे, अन्य धर्मों की अपेक्षा जो विशेपताएँ है, उनका आभास मिल सकता है। किन्तु उनकी ओर विगेप स्पसे ध्यान आकर्षित करने के लिए उनका पृथक् उल्लेख कर देना ही उचित होगा। तत्त्व का जान तपस्या एव साधना पर निर्भर है। सत्य की उपलब्धि इतनी सरल नहीं है कि अनायास ही वह हाय लग जाय । जो निष्ठावान् माधक जितनी अधिक तपस्या, ग्रार साधना करता है, उसे उतने ही गुह्य-तत्त्व की उपलब्धि होती है। पूर्ववर्ती तीर्थकरो की बात छोड दे और चरम तीर्थकर भगवान् महावीर के ही जीवन पर दृष्टिपात करे तो स्पष्ट विदित होगा कि उनकी तपस्या और साधना अनुपम और असाधारण थी। भ० महावीर साढे बारह वर्षों तक निरन्तर कठोर तपश्चर्या करते रहे। उस असाधारण तपश्चर्या का फल भी उन्हे असाधारण ही मिला। वे तत्वबोध की उस चरम सीमा का स्पर्श करने में सफल हो सके, जिसे साधारण साधक प्राप्त नही कर पाते । वास्तव मे जैनधर्म के सिद्वान्तो मे पाई जाने वाली खूवियाँ ही उनका रहस्य है । जैन मान्यताएँ यदि वास्तविकता की Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ जैन धर्म सुदृढ नीव पर अवस्थित और विज्ञानसम्मत है तो उनका रहस्य भगवान् महावीर का तपोजन्य परिपूर्ण तत्त्वज्ञान ही है। सृष्टि रचना-उदाहरण के लिए सृष्टि रचना के ही प्रश्न को ले लीजिये, जो दार्शनिक जगत् मे अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आधारभूत है। विश्व मे कोई दर्शन या मत न होगा, जिसने इस गम्भीर प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास न किया हो। क्या प्राचीन, और क्या नवीन, सभी दर्शन इस प्रश्न पर अपना दृष्टिकोण प्रकट करते है। मगर वैज्ञानिक विकास के इस युग मे उनमे अधिकाश उत्तर कल्पनामात्र प्रतीत होते है। इस मबध मे महात्मा बुद्ध विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिन्होने बिना किसी सकोच या झिझक के स्पष्ट कह दिया कि लोक का प्रश्न अव्याकृत है-अनिर्णीत है। इसका प्रागय यही लिया जा सकता है कि लोक-व्यवस्था के सबब मे निर्णयात्मक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इस स्पष्टोक्ति के लिए गौतम बुद्ध धन्यवाद के पात्र है, मगर लोक के विषय मे हमारे अन्त करण मे जिज्ञासा सहज रूप से उदित होती है, उसकी तृप्ति इस उत्तर से नहीं हो पाती। और जब हम जिज्ञासा तृप्ति के लिए इस विपय के विभिन्न दर्शनो के उत्तर की ओर ध्यान देते है, तब भी निराशा का सामना करना पडता है। सृष्टि रचना के विपय मे अनेक प्रश्न हमारे समक्ष उपस्थित होते है। प्रथम यह कि सृष्टि का विधिवत् निर्माण हुआ है या नहीं? अगर निर्माण हुआ है, तो इसका निर्माता कौन है ? यदि निर्माण नहीं हुआ तो सृष्टि कहाँ से आई ? सृष्टि-निर्माण से पहले क्या स्थिति थी ? इन प्रश्नो पर दार्गनिक कभी सहमत नही हो सके। एक कहता हैसृष्टि देव' के द्वारा उत्पन्न की गई है। तो दूसरा कहता है---"ब्रह्म या ब्रह्मा नं इसकी रचना की है।' किसी का मत है कि ईश्वर इसका निर्माता है, और किसी के मतानुसार प्रकृति से सृष्टि बनी है। कोई स्वयभू को सृष्टि का कर्ता कहते है। कोई अडे से उसकी उत्पत्ति बतलाते है। उनकी मान्यता के अनुसार यह चराचर विश्व, अडे से उत्पन्न हुआ है। जब ससार में कोई भी वस्तु नही थी तब ब्रह्मा ने पानी मे एक अडा उत्पन्न किया। बढ़ते-बढते वह बीच मे से फट गया। उसके दो भागो मे से एक से ऊर्ध्व-लोक की और दूसरे से अधोलोक की उत्पत्ति हुई। १. सूत्र कृतांग ३० श्रु०, भ० १, उ० ३ । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म को विशेषताएं कोई स्वभाव से वृष्टि की उत्पत्ति स्वीकार करते है, कोई काल से, कोई नियनि मे और कोई यदृच्छा से । नृष्टि से पहले कौन-सा तत्त्व था, इस विषय मे भी विभिन्न दर्शनो मे मर्नक्य नहीं है। किसी के मन्तव्य के अनुसार सृष्टि से पहले जगत् असत् था"असहा इदमन ग्रासीत् ।" दूसरे कहते है-“सदेव सोम्येदमन ग्रासीत्" अर्थात् हे सौम्य । जगत् मृष्टि से पहले सत् था। किसी का कहना है--"आकाशः परायणम्" अर्थात् सृष्टि से पूर्व आकाश-तत्त्व विद्यमान था। कोई इस मन्तव्य के विरुद्ध कहते है :-- ___ "नयेह किञ्चनाग्र आसीत् ।" "मृत्युनवेदमावतमासीत्" सृष्टि से पहले कुछ भी नही या, सभी कुछ मृत्यु से व्याप्त था, अर्थात् प्रलय के समय नष्ट हो चुका था। अभिप्राय यह है कि जैसे सृष्टि-रचना के सबध मे अनेक मान्यताएँ है, उसी प्रकार सुप्टिपूर्व की स्थिति के सबध मे भी परस्पर विरुद्ध मन्तव्य हमारे समक्ष उपस्थित है। __ सृष्टिप्रक्रिया सबबी इन परस्पर विरुद्ध मन्तव्यो की आलोचना जैनदर्शन मे विस्तारपूर्वक की गयी है। उसे यहाँ प्रस्तुत करने का अवकाश नही । तथापि यह समझने में कोई कठिनाई नही हो सकती कि इन कल्पनाओ के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नही है। यदि सृष्टि से पूर्व जगत् सत् मान लिया जाय तो उसके नये सिरे से निर्माण का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। जो सत् है वह तो है ही। यदि सृष्टि से पूर्व जगत् एकान्त असत् था और असत् से जगत् की उत्पत्ति मानी जाये तो शून्य से वस्तु का प्रादुर्भाव स्वीकार करना पडेगा, जो तर्क और बुद्धि से असगत है। इसी प्रकार सृष्टिनिर्माण की प्रक्रिया भी तर्कसंगत नही है। इस विषय मे जैन धर्म की मान्यता ध्यान देने योग्य है। जैन धर्म के अनुसार जड़ और चेतन का समूह यह लोक सामान्य रूप से नित्य और विशेष रूप से अनित्य है। जड और चेतन मे अनेक कारणो से विविध प्रकार के रूपान्तर होते रहते है। एक जड पदार्थ जब दूसरे जड पदार्थ के साथ मिलता है तब दोनो में रूपान्तर होता है, इसी प्रकार जड के सम्पर्क से चेतन मे भी रूपान्तर होता रहता है। रूपान्तर की इस अविराम परम्परा मे भी हम मूल वस्तु की सत्ता का अनुगम स्पष्ट देखते है। इस अनुगम की अपेक्षा से जड और चेतना अनादिकालीन है, और अनन्त Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ ___., जैन धर्म काल तक स्थिर रहने वाले है। गत् का शून्य रूप मे परिणमन नही हो सकता, और शून्य से कभी सत् का प्रादुर्भाव या उत्पाद नही हो सकता है। । पर्याय की दृष्टि से वस्तुओ का उत्पाद और विनाग अवश्य होता है ।। परन्तु उसके लिए देव, ब्रह्म, ईश्वर या स्वयभु की कोई आवश्यकता नहीं होती, अतएव न तो जगत् का कभी मर्जन होता है, न प्रलय ही होता है । अतएव लोक नाश्वत है। प्राणीशास्त्र के विशेपज माने जाने वाले श्री जे० बी० एस० हाल्डेन का मत है कि ----"मेरे विचार मे जगत् की कोई आदि नही है। सृष्टिविपयक यह सिद्धान्त अकाट्य है, और विज्ञान का चरम विकास भी कभी इसका विरोध नहीं कर सकता।" पृथ्वी का आधार-प्राचीन काल के दार्शनिको के सामने एक जटिल समस्या और खडी रही है। वह है इस भूतल के टिकाव के सबध में, यह पृथ्वी क्रिम आधार पर टिकी है। इस प्रश्न का उत्तर अनेक मनीपियो ने अनेक प्रकार मे दिया है। किसी ने कहा-“यह गेपनाग के फण पर टिकी है। कोई कहते है, "कछुए की पीठ पर ठहरी हुई है", तो किसी के मत के अनुसार “वराह की दाढ पर।" इन सब कल्पनालो के लिए ग्राज कोई स्थान नहीं रह गया है। __ जैनागमो की मान्यता इस सवध में भी वैज्ञानिक है। इस पृथ्वी के नीचे बनोदधि (जमा हुआ पानी) है. उसके नीचे तनु-बात है और तनुवायु के नीचे प्राकाग है। ग्राकाश स्वप्रतिष्ठित है, उसके लिए किसी ग्राधार की आवश्यकता नही है। __ लोकस्थिति के इस स्वरूप को समझाने के लिए एक बड़ा ही सुन्दर उदाहरण दिया गया है। कोई पुरुष चमडे की मगक को वायु भर कर, फुला दे और फिर मगक का मुंह मजबूती के साथ वाँव दे। फिर मशक के मध्य भाग को भी एक रस्पी से कस कर बांध दे। इस प्रकार करने से मगक की पवन दो भागो मे विभक्त हो जायेगी और मशक डुगडुगी जैसी दिखाई देने लगेगी। तत्पश्चात् मशक का मुंह खोल कर ऊपरी भाग का पवन निकाल दिया जाय और उसके स्थान पर पानी भर कर पुन मगक का मुंह कस दिया जाय, फिर बीच का बन्धन खोल दिया जाय, ऐसा करने पर मगक के ऊपरी भाग मे भरा हुआ जल ऊपर ही टिका रहेगा, वायु के आधार पर ठहरा रहेगा, नीचे नही जाएगा, क्योकि मशक के ऊपरी भाग मे भने पानी के लिए वायु प्राधार रूप है। इसी प्रकार वायु के अाधार पर पृथ्वी आदि ठहर हुए है। भगवती मूत्र श० १, उ० ६ । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की विशेषताएँ २३७ स्थावरजीव-जैन धर्म वनस्पति पृथ्वी, जल, वाय और तेज मे चैतन्य गक्ति स्वीकार करके उन्हें स्थावर जीव मानता है। श्री जगदीशचन्द्र वसु ने अपने वैज्ञानिक परीक्षणो हाग बनम्पति की मजीवता प्रमाणित कर दी है। उसके पश्चात् विज्ञान पथ्वी की जीवत्वशक्ति को स्वीकार करने की ओर अग्रसर हो रहा है। विव्यात भगर्भ वैज्ञानिक श्री फ्रासिम ने अपनी दशवीय भूगर्भयात्रा के मम्मरण लिखते हुए Ten years under earth नामक पुस्तक में लिया है कि.--- "मैंने अपनी इन विविन यात्रामो के दौगन मे पृथ्वी के ऐसे-ऐसे स्वरूप दे है जो आधनिक पदार्थविज्ञान में विरोधी थे। वे स्वरूप वर्तमान वैज्ञानिक मृनिश्चिन नियमो द्वाग समझाये नहीं जा सकते।" इसके पश्चात् वे अपने हृदय के भाव को अभिव्यक्त करते हुए कहते है--- "नो प्राचीन विद्वानो ने पृथ्वी में जीवत्वशक्ति की जो कल्पना की थी, व्या वह सत्य है ?" श्री-फ्रामिन्न भूगभ मववो अन्वेपण कर रहे हैं। एक दिन वैज्ञानिक जगत् पृथ्वी की नजीवता स्वीकृत कर लेगा, ऐमी पागा की जा सकती है। जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक प्रात्मा मे अनन्त ज्ञानशक्ति विद्यमान है, परन्तु जब तक वह कर्म द्वारा ग्राच्छादित है, तब तक अपने अमली स्वरूप में प्रकट नहा हो पाती। जब कोई सबल प्रात्मा प्रावरणो को नि शेष कर देती है, तो भूत पार भविष्य वर्तमान की भॉति माफ दिखाई देने लगते हैं । सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डा० जे० बी० राइन ने अन्वेषण करके अनेक अाश्चर्यजनक तथ्य घोपित किये है। उन तथ्यो को भौतिकवाद के पक्षगानी वैज्ञानिक स्वीकार करने मे हिचक रहे है, मगर उन्हे अमान्य भी नही कर सकते है। एक दिन वे तथ्य अन्तिम रूप में स्वीकार किये जायेगे, और उस दिन विज्ञान प्रात्मा तथा सम्पूर्ण ज्ञान (केवल जान) की जैन मान्यता पर अपनी स्वीकृति की मोहर लगाएगा। लोकोत्तर ज्ञान--ध्यान और योग जैन-साधना के प्रधान अग है । जैन धर्म की मान्यता के अनुसार ध्यान और योग के द्वारा विस्मयजनक आध्यात्मिक गक्तियो की अभिव्यक्ति की जा सकती है। आधुनिक विज्ञान भी इस मान्यता को स्वीकार करने के लिए अग्रसर हुअा है। इस सबध मे प्रसिद्ध विद्वान् डा० ग्रेवाल्टर की The leaving brain नामक पुस्तक पठनीय है। वे कहते है - Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ जैन धर्म भनेकान्त दृष्टि दर्शन शास्त्र का उद्देश्य शुद्ध सोध की उपलब्धि और उसके द्वारा समस्त बधनो से विमुक्ति पाना है। मनुष्य का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति है, क्योकि मुक्ति के विना शाश्वत बान्ति की प्राप्ति नही हो सकती। बोव मुक्ति का साधन है, मगर यह भी स्मरणीय है कि वह दुवारी खड्ग है । जान के साथ अगर नम्रता है, उदारता है, निप्पक्षता है, सात्विक जिज्ञासा है, सहिष्णुता है, तो ही जान, आत्मविकास का माधन बनता है। इसके विपरीत जान के साथ यदि उद्दडता, सकीर्णता, पक्षपान एव अमहिष्णुता उत्पन्न हो जाती है तो वह अध पतन का कारण बन जाता है। मानवीय दाबल्य से उत्पन्न यह अवाछनीय वृत्तियाँ अमृत को भी विष बना देती है।" जैनधर्म ने उस कला का प्राविष्कार किया है, जो जान को विपाक्त बनने से रोकती है। वह कला जान को सत्य, गिव, और सुन्दर बनाती है, उम कला को जैनदर्शन ने अनेकान्तदप्टि का नाम दिया है, जिसका निरूपण पहले किया जा चुका है। यह दृष्टि पररपर विरोधी वादो का साधार समन्वय करने वाली, परिपूर्ण सत्य की प्रतिष्ठा करने वाली और बुद्धि मे उदारता, नम्रता, महिष्णुता और सात्त्विकता उत्पन्न करने वाती है। दार्शनिक जगत् के लिए यह एक महान् वरदान है। ___ अहिंसा मानव जाति को मामभक्षण की अवाछनीयता एव अनिप्टकरता समझा कर मासाहार से विमुख करने का सूत्रपात जैन धर्म ने ही किया है। समस्त धर्मों का आधारभूत और प्रमुख सिद्वान्त अहिंसा ही है। यह मन्तव्य बनाने का अवकाश जैन धर्म ने ही दिया है। जैनधर्म ने अहिसा को इतनी दृढता और सवलता के साथ अपनाया, और जैनाचार्यों ने अहिसा का स्वरूप इतनी प्रखरता के साथ निरूपण किया, कि धीरे-धीरे वह सभी धर्मों का अग बन गई। जैन धर्मोपदेगको की यदि मवये बड़ी एक सफलता मानी जाय, तो वह अहिंसा की साधना ही है। उनकी बदौलत ही ग्राज अहिंसा विश्वमान्य सिद्धान्त है। देश-काल के अनुसार उसकी विभिन्न गाग्वाएं प्रस्फुटित हो रही है। जैन धर्म की, अहिंसा के रूप मे एक महान् दन है, जिसे विश्व के मनीपी कभी भूल नही सकते। यो तो भगवान् ऋपभदेव के युग मे ही अहिमा तत्त्व, प्रकाश में आ चुका था मगर जान पडता है कि मध्यकाल में पुन हिसा-वृत्ति उत्तेजित हो उठी। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म की विशेषताएं २३९ तब बाईनवे तीर्थकर भगवान् अरिष्टनेमि ने अहिमा की प्रतिष्ठा के लिए जोरदार प्रयास किया। उन्होने विवाह के लिए श्वसुरगृह के द्वार तक पहुँच कर भी पशुपक्षियो की हिना के विरोध मे विवाह करना अस्वीकार करके तत्कालीन क्षत्रियवर्ग में भारी मनमनी पैदा कर दी। वासूदेव कृष्ण के भाई अरिष्टनेमि का वह गाहमपूर्ण उन्मर्ग नायक हया और ममाज मे पशो और पक्षियो के प्रति व्यापक महान भनि जागी। उनके पश्चात् तीर्थकर पार्श्वनाथ ने सर्प जैसे विपैले प्राणियो पर अपनी करुणा की वर्षा करके, लोगो का ध्यान दया की ओर आकर्षित किया। फिर भी धर्म के नाम पर जो हिमा प्रचलित थी, उसे निग्गेप करने के लिए चरम नीर्य कर भगवान् महावीर ने प्रभावशाली उपदेश दिया। आज यद्यपि हिसा प्रचलिन है, फिर भी विचारवान् लोग उसे धर्म या पुण्य का कार्य नहीं समझते, बल्कि पाप मानते है। इस दृष्टिपरिवर्तन के लिए जैन-परम्पग को बहुन उद्योग कन्ना पडा। अवतारवाद जैन बर्म के विशिष्ट सिद्धान्तो पर विचार करते समय एक वात अनायास ही ध्यान मे आ जानी है। वह है उसके अवतारवाद की मान्यता । प्रात्गा की चन्म और विशद स्थिति क्या है, यह दर्शनशास्त्र के चिन्तन का एक प्रधान प्रश्न रहा है। विभिन्न दर्शनो ने इस पर विचार किया है और अपनाअपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। बौद्वदर्शन के अनुसार चित्त की परम्परा का अवरुद्ध हो जाना, आत्मा की चरम स्थिति है। इस मान्यता के अनुसार दीपक के निर्वाण की भाँति आत्मा शून्य मे विलीन हो जाता है। कणाद मुनि का वैशे पिकदर्शन प्रात्मा की अन्तिम स्थिति मुक्ति स्वीकार करता है, पर उसकी मुक्ति का स्वरूप कुछ ऐसा है कि उसे समझ लेने पर अन्त - करण में मुक्ति प्राप्त करने की प्रेरणा जागृत नहीं होती। कणाद ऋपि के मन्तव्य के अनुसार मुक्त ग्रात्मा जान और सुख से सर्वथा वंचित हो जाता है। ज्ञान और मुग्व ही प्रात्मा के अमाधारण गुण है और जब इनका ही सम्ल उच्छेद हो गया तो फिर क्या आकर्षण रह गया मुक्ति मे ? ससार मे जितने अनादिमुक्त एकेश्वरवादी सम्प्रदाय है, उनके मन्तव्य के अनुसार कोई भी आत्मा, ईश्वरत्व की प्राप्ति करने में समर्थ नही हो सकता। ईश्वर एक अद्वितीय है। जीव जाति से वह पृथक् है। मसार मे अधर्म की वृत्ति Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० जैन धर्म और धर्म का ह्रास होने पर उसका मनार में होता है। उस समय वह परमात्मा में प्रात्मा का रूप ग्रहण करता है। जैन श्रम अवतारवाद की उस मान्यता को स्वीकार नहीं करना । जैन धर्म प्रत्येक ग्रात्मा की परमात्मा बनने का अधिकार प्रदान करता है। और परमात्मा बनने का मार्ग भी प्रस्तुत करना है, किन्तु परमात्मा के पुन भावतरण का विरोध करता है। इस प्रकार हमारे समक्ष उच्च से उच्च जो आदर्श सभव है, उसकी उपलब्धि का ग्राश्वासन और पथप्रदर्शन जैनधर्म मे मिलता है। वह आत्मा के अनन्त विकास की सभावनायो को हमारे समक्ष उपस्थित करना है। जैन धर्म का यह प्रत्येक नर को नारायण, और भक्त को भगवान्, बनने का अधिकार देना ही उसकी मौलिक मान्यता है । गुणपूजा जैनधर्म सदैव गुणपूजा का पक्षपाती रहा है। जाति, कुल, वंग गथवा बाह्य वेष के कारण वह किसी व्यक्ति की महत्ता ग्रगीकार नहीं करता । भारतवर्ष मे प्राचीन काल मे एक ऐसा वर्ग चला आता है जो वर्णव्यवस्था के नाम पर ग्रन्य वर्गों पर अपनी मत्ता स्थापित करने के लिए, तथा स्थापित की हुई मत्ता को क्षुण्ण बनाये रखने के लिए एक ग्रखण्ड मानव जाति को अनेक खडों में विभक्त करता है। गुण और कर्म के आधार पर, समान की सुव्यवस्था का ध्यान रखते हुए विभाग किया जाना तो उचित है, जिसमे व्यक्ति के विकास को अधिक-सेare raकाश हो परन्तु जन्म के आधार पर किसी प्रकार का विभाग करना सर्वथा अनुचित है । " एक व्यक्ति दुशील, अज्ञान और प्रकृति मे तमोगुणी होने पर भी प्रमुक वर्ण वाले के घर मे जन्म लेने के कारण समाज मे पूज्य श्रादरणीय, प्रतिष्ठित श्रीर ऊँचा समझा जाय. और दूसरा व्यक्ति सुगील ज्ञानो और मनोगुणी होने पर भी केवल अमुक कुल में जन्म लेने के कारण नीच और, तिरस्करणीय माना जाय, यह व्यवस्था समाज-वातक है। इतना ही नहीं, ऐसा मानने से न केवल समाज के एक बहुसंख्यक भाग का ग्रपमान होता है । प्रत्युत यह गद्गुण और सदाचार का भी घोर अपमान है । इस व्यवस्था को अगीकार करने से दुराचार, सदाचार मे ऊँचा उठ जाता है, ग्रज्ञान, ज्ञान पर विजयी होता है और तमोगुण मतोगुण के मामने आदरास्पद बन जाता है । यही ऐसी स्थिति है जो गुणग्राहक विवेकी जनो को ना नही हो सकती ।" (निर्ग्रन्थ प्रवचन भाष्य, पृष्ठ २८६ ) अतएव जैन धर्म की मान्यता है कि गुणों के कारण, कोई शक्ति ग्रादर Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन धर्म की विशेषताएं २४१ णीय होना चाहिए और अवगुणो के कारण अनादरणीय एव अप्रतिष्ठित होना चाहिए। इस मान्यता के पोपक जैनागमो के कुछ वाक्य ध्यान देने योग्य है ___ मस्तक मुडा लेने से ही कोई श्रमण नहीं हो जाता, प्रोकार का जाप करने ___ मात्र से कोई ब्राह्मण नहीं बन सकता, अरण्यवास करने से ही कोई मुनि नही होता ___ और कुग-चीर के परिवानमात्र से कोई तपस्वी का पद नही पा सकता । (उनगध्ययन अ० २५ सूत्रकृताग १ श्रु०, अ० १३, गा० ६, १०, ११) । समभाव के कारण श्रमण, ब्रह्मचर्य का पालन करने से ब्राह्मण, जान की उपासना करने के कारण मुनि, और तपश्चर्या मे निग्त रहने वाला तापस कहा जा मकता है। क्रर्म (आजीविका) से ब्राह्मण होता है. कर्म मे क्षत्रिय होता है, कर्म से वैश्य होता है, और कर्म मे शूद्र होता है। मनुष्य-मनुष्य में जानि के आधार पर कोई पार्थक्य दृष्टिगोचर नहीं होता मगर तपस्या (मदाचार) के कारण अवश्य ही अन्तर दिखाई देता है। (उत्तराध्ययन) इन उद्धरणो से स्पष्ट होगा कि जैन धर्म ने जन्गगत वर्णव्यवस्था एव जाति__ पाति की क्षुद्र भावनायो को प्रश्रय न देकर गुणो को ही मत्त्व प्रदान किया है। इसी कारण जैन मघ ने मनुष्य-मात्र का वर्ण एव जाति का विचार न कगते हुए समान-भाव से स्वागत किया है। वह आत्मा और परमात्मा के बीच मे भी कोई अलव्य दीवार स्वीकार नहीं करता तो आत्मा-अात्मा और मनुप्य-मनुष्य के बीच कैमे स्वीकार कर सकता है। अपरिग्रहवाद मसार का कोई भी धर्म परिग्रह को स्वर्ग या मोक्ष का कारण नही मानता है। किन्तु सब धर्म एक स्वर मे इसे हेय घोपित करते है। ईसाई धर्म की प्रसिद्ध पुस्तक बाइबिल का यह उल्लेख प्राय सभी जानते है कि -"सूई की नोक मे से ऊँट कदाचित् निकल जाय, परन्तु धनवान् स्वर्ग में प्रवेश नहीं कर सकता।" परिग्रह की यह कडी-मे-कडी आलोचना है। इधर भारतीय धर्म भी परिग्रह को समस्त पापो का मूल और आत्मिक पतन का कारण कहते है। किन्तु जैन धर्म मे अपरिग्रह को व्यवहार्य रूप प्रदान करने की एक बहुत सुन्दर प्रणाली निर्दिष्ट की गई है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ जैन धर्म जैन संघ मुख्यतया दो भागो मे विभक्त है-त्यागी और गृहस्थ । लागी वर्ग के लिए पूर्ण अपरिग्रही, अकिंचन रहने का विधान है। जैन त्यागी सयमसाधना के लिए अनिवार्य कतिपय उपकरणो के अतिरिक्त अन्य कोई वस्तु अपने अधिकार मे नही रखता। यहाँ तक कि अगले दिन के लिए भोजन भी अपने पान नहीं रख सकता। उसके लिए अपरिग्रह महाव्रत का पालन करना अनिवार्य है। गृहस्थवर्ग अपरिग्रही रहकर संसार-व्यवहार नहीं चला सकता और इम कारण उसके लिए पूर्ण परिग्रहत्याग का विधान नहीं किया गया है, उसे सर्वथा अनियन्त्रित भी नही छोडा गया है। गृहस्थ को श्रावक की कोटि में आने के लिए अपनी तृष्णा, ममता एवं लोभ-वृत्ति को सीमित करने के लिए परिग्रह का परिमाण कर लेना चाहिए। परिग्रह-परिमाण श्रावक के पाँच मूल व्रतों मे अन्यतम है। इस व्रत का समीचीन रूप से पालन करने के लिए श्रावक को दो व्रत और अंगीकार करने पड़ते है, जिसका भोगोपभोग परिमाण और अनर्थदंड-त्याग के नाम से गृहस्थधर्म के प्रकरण मे उल्लेख किया जा चुका है। परिमित परिग्रह का व्रत तभी ठीक तरह से व्यवहार में आ सकता है, जब मनुप्य अपने भोग और उपयोग के योग्य पदार्थों की एक सीमा बना ले और माथ ही निरर्थक पदार्थों से अपना संबंध विच्छेद कर ले। इस प्रकार अपरिग्रह व्रत के लिए इन सहायक व्रतो की बड़ी आवश्यकता है। अर्थतप्णा की आग मे मानव-जीवन भस्म न हो जाय, जीवन का एक मात्र लक्ष्य धन न वन जाय, जीवन-चक्र द्रव्य के इर्द-गिर्द ही न घूमता रह, आर जीवन का उच्चतर लध्य ममत्व के अधकार में विलीन न हो जाय, इसके लिए अपरिग्रह का भाव जीवन मे आना ही चाहिए। यदि अपरिग्रह भाव जीवन में आ जाय, और सामूहिक रूप मे आ जाय तो अर्थवैषम्यजनित सामाजिक समस्याए स्वत ही समाप्त हो जाती हैं। उन्हें हल करने के लिए समाजवाद या साम्यवाद या अन्य किमी नवीन वाद की आवश्यकता ही नहीं रहती। जैन धर्म का यह अपरिग्रहवाद आधुनिक युग की ज्वलन्त समस्याओ का सुन्दर समाधान है, अतएव समाजशास्त्रियों के लिए अध्ययन करने योग्य है। इससे व्यक्ति का जीवन भी उच्च और प्रशस्त बनता है और साथ ही समाज की समस्याएँ भी सुलझ जाती है। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . .............०००. ००.......०००००००...०००००००००००००००००० .............................००००....०००००...... विवत्ती अविणीयस्स, संपत्ती विणियस्स य । जस्सेयं दुहओ नायं, सिक्खं से अभिगच्छई ।। --८०, ९,२, २१॥ नच्चा नमई मेहावी, लोए कित्ती से जायइ। हवा किच्चाणं सरणं, भूयाणं जगइ जहा ॥ --उत्तराध्ययन, अ० १, गा• ४५ । हे साधक | सभ्यता का मूल विनय है, अविनय नही । अत. अविनीत को विपत्ति प्राप्त होती है और सुविनीत को सम्पत्ति ये दो बाते जिसने जान ली है, वही शिक्षा प्राप्त कर सकता है। हे साधक ! विनय के स्वरूप को जानने वाला सदा नम्र रहता है, और वह इस लोक मे कीर्ति प्राप्त करता है। जिस प्रकार पृथ्वी समस्त वनस्पति और प्राणियो के लिए आधार रूप है, उसी प्रकार विनीत पुरुष भी समस्त गुणो का आधार रूप होता है। ....................................... 000000०.००००................००००.....००००.....०००.०.००.००..." जैन-शिष्टाचार Page #260 --------------------------------------------------------------------------  Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन शिष्टाचार जैन धर्म भारत का एक प्राचीन धर्म है, जैन धर्म के २४ तीर्थकर इसी भारत-भूमि मे उत्पन्न हुए है। जैन समाज भारतीय समाज के साथ सदा प्रभिन्न रहा है, ग्रार्यत्व के नाते जैन और जैन तीर्थकर ग्रार्यवा मे ही पैदा हुए हैं । जैन धर्म प्रारम्भ से ही कोई जातिगत धर्म नही बना, वह सदा से एक चिन्तनात्मक मुक्ति मार्ग के रूप में ही स्थित रहा है । सासारिक, राजनीतिक तथा शासनिक ग्रहभावना थवा अधिकार- एपणा का उसने कभी पोपण नही किया । भारतीय सभ्यता और प्रार्यसस्कृति को जैनो की बहुत महत्त्वपूर्ण देन है । पर वह प्रार्यत्व के ग्रगभूत होने के नाते पराई नही, और न ही ग्राक्रामक रूप से बलात् थोपी गई है, अपितु जैन-धर्म के नाते निर्ग्रन्थ पथ का अनुयायी है, तथा जाति, वंश, सभ्यता संस्कृति और रक्त के सम्बन्ध रो ग्रार्य है। जैन और जैनेनरो मे परम्परा से विवाह सम्बन्ध होते ग्राये है, क्योकि जैन धर्म सामाजिक सम्बन्धो में हस्तक्षेप नही करता, त जैन शिष्टाचार और सभ्यता मे व भारतीय सभ्यता मे कोई मौलिक ग्रन्तर नही है' फिर भी जैन धर्म के विचारों, सिद्धान्तो का जो अनुयायियो पर प्रभाव पडा है, उससे कतिपय विशेषताओ को जन्म मिला है। इसका कारण है जैन धर्म की विनयगीलता । जैन धर्म मे विनय और समता पर प्रत्यधिक बल दिया है, प्रायश्चित्त, विनय, तथा वैयावृत्म (सेवाधर्म ) को तप का अन्तर स्वरूप बताया है । प्रायश्चित्त Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जैन धर्म से प्रभाव का नाग होता है, और विनय मे नम्रता तथा विवेक को बल मिलता है ! जैन शिष्टाचार का अर्थ है विनय । ' ज्ञान, दर्शन तथा चारित्र के प्रति श्रद्धा रखना और इन गुणो के भारक के प्रति आदर रखना जैनागम मे बहुत बड़ा तप बताया है । " मन, वचन, तथा काया को प्रशस्त, पापकारी तथा वृणाकारक कार्य से हटाकर प्रशस्त, पुण्य-कारक तथा उपयोगपूर्वक उठने-बैठने की सभ्यता की ओर उन्मुख होना महान् तप बताया गया है । 3 जैनागम मे लोकव्यवहार को ठीक ढंग से सावने के लिए भी लोकीपचार विनय का उल्लेख किया है । अध्यापक गुरु की आज्ञापालन, श्रादर के साथ गुरु से व्यवहार करना, ज्ञानदान निमित्त नम्रतापूर्वक दान देना, दुखी जीवो के प्रति कोमल भाव रखना, देशकाल की विज्ञता और सब से प्रेममय ग्रात्मीयपन के अनुकूल रूप से स्नेहभरा व्यवहार करना भी जैनधर्म के अनुसार धर्म की प्रधानतम सेवा है । " साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका अरिहंत, सिद्ध, देव, धर्म, तथा गुरु के प्रति श्रगातना - श्रनादरभाव नही रखना ही जैन साधु और श्रावको का परम कर्त्तव्य है । जैनगास्त्रो मे ग्रगातना का बहुत विस्तृत वर्णन है, गुरु की प्रशासना ३२ प्रकार की बताई जाती है । गुरु के श्रागे खडा होना, गुरु के आसन पर बैठ जाना, गुरु के आगे चलना, तुकार का प्रयोग करना, आदि ग्रनादर भावो का उल्लेख किया गया है । इसी प्रकार विशिष्ट व्यक्तियो के प्रति भी जैनो के शिष्टाचार का उग नियत है जैसे कि ---- १. देव और गुरु के प्रति : - जैन श्रमणोपासक जब तीर्थकर भगवान् को उपदेश सभा मे ग्रथवा साधु के निवास स्थान पर जाता है, तो उसे पाँच बाते करनी चाहिएँ, जो जैन परिभाषा मे पॉच अभिगम के नाम से प्रसिद्ध है । वे ये है- १. भगवती सूत्र, श० २५ । २ ܕܕ 13 " ३. 13 " 11 ४. भगवती सूत्र श० २५ । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिष्टाचार २४७ १ फूलमाला सचित्त आदि वस्तुप्रो को हटा देना यावश्यक है। २ अचित्त वस्तुओ का त्याग ग्रावश्यक नहीं। ३ छत्र-चवर आदि ऐश्वर्य के चिह्न तथा जूता, छतरी आदि पदार्थ न ले जाना। ४ तीर्थकर या साधु पर दृष्टि पडते ही हाथ जोड़ना। ५ मन की चचलता त्याग कर एकाग्र होना। (भगवती सूत्र) २ बन्दनापाठ-तीर्थकर या साधु के समक्ष पहुँच कर निम्नलिखित पाठ पढ कर उन्हे वन्दना की जाती है-- "तिक्खुत्तो आयाहिण, पयाहिण करेमि, वदामि नमसामि, सक्कारेमि, समाणेमि, कल्लाण मगल देवय चेइय पज्जुवासामि, मत्थएण वदामि।" ___-आवश्यक सूत्र, सामायिक पाठ। अर्थात्--भगवन् | मै तीन बार दक्षिण से प्रारभ करके प्रदक्षिणा करता हूँ, वन्दना करता हूँ, नमस्कार करता हूँ, सन्मान करता हूँ। आप कल्याण और मंगल के रूप है। देवता स्वरूप है, चैत्य-ज्ञान स्वरूप है। मै आपकी पुन -पुन. उपासना करता हूँ। मस्तक झुका कर वन्दना करता हूँ। ३ भमणों का पारस्परिक शिष्टाचार-~जैन मघ मे वन्दनीयता का आधार पर्यायज्येष्ठता है। अर्थात् प्रत्येक मुनि अपने से पूर्व दीक्षित मुनि को नमस्कार करता है। इसमे उम्र आदि किसी अन्य बात का विचार नहीं किया जाता । पुत्र यदि पहले दीक्षित हो चुका है और पिता पश्चात् दीक्षित हुआ है तो पिता अपने पुत्र को नमस्कार करेगा। सूत्रकृताग अ० २, उ० २ सूत्र मे बतलाया है कि चक्रवर्ती राजा भी यदि बाद मे मुनि दीक्षा ग्रहण करे तो उसका कर्तव्य है कि वह पूर्वदीक्षित अपने दास के दास को भी लज्जा और सकोच न करता हुया वन्दना करे। मुनि वन जाने पर मनुष्य का गृहस्थ जीवन समाप्त हो जाता है और एक नवीन ही जीवन का सूत्रपात होता है। ४ श्रावकों का पारस्परिक शिष्टाचार-शास्त्रीय उल्लेखो से पता चलता है कि प्राचीन काल मे श्राविकाएँ और श्रावक भी अपने से बडे श्रावक को वन्दना किया करते थे। -भगवतीसूत्र, १२शतक, शख-पोक्खली सवाद । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ जैन धर्म ५ पति-पत्नी सम्बन्धी-~-दम्पनि को पृथक पाया पर ही नहीं, अपितु पृथक्-पृथक् कक्षो मे गयन करना चाहिए। पत्नी जब पति के नमीर पानी है तो पति आदरपूर्ण मधुर गन्दी मे उसका स्वागन करना है । वैठने को महागन प्रभात करता है। क्योकि जैनागमो में पत्नी पति की "धम्मगहाया". अर्थात धर्मगहायिका मानी गई है। --उपासक दगाग । ६ स्वामी-मेवक संबंधी--जैन शास्त्रो में मेवक का "कादम्बियपुरि" अर्थात् कौटुम्बिक पुरुप परिवार का ही मदद के रूप में उलला किया गया है। सम्राट भी अपने मेवक को "देवाणुपिया' कह कर मवाचन कन्ने है । देवाणपिया का अर्थ है-"देवो के प्यारे।" कितना प्रौदार्य, कितना माधुर्य है योग कितना स्नेह भरा हे, इन शब्दो में। __ "देवाणुप्पिया" शब्द नबोधन का मामान्य शब्द है। स्वामी गवत को, सेवक स्वामी को, पति पत्नी को, पत्नी पति को और प्रत्येक प्रत्येक को प्राय. इनी शब्द से सबोधित करता है। जैन पर्व पर्व, धर्म और समाज के अन्तर्मानस की मामूहिक अभिव्यक्ति है। व्यष्टि और समष्टि के जीवन क्रम में जिस विश्वास. वारणा तथा उत्माह की आवश्यकता पडनी है, उसकी पूर्ति पर्यों से होती है। पर्व और उत्सव दोनो ही मानव की मूलभूत भूक मस्कार निर्माण, सभ्यता शिक्षण, और सस्कृति अभिव्यजन का कार्य पूरा करते है, किसी भी धर्म अयवा समाज की आधारभूत पृष्ठभूमि को समझने के लिए पर्वो और उत्सवो को जान लेना अत्यावश्यक है। प्रत्येक धर्म के शास्त्र सिद्धान्त, और प्रतीक की तरह अपने मौलिक रूप मे पर्व भी होते है। दार्शनिक, धार्मिक, मामाजिक और सैद्धान्तिक विभिन्नता ही पर्वो की विभिन्नता का कारण है। जैनधर्म के भी कुछ अपने पर्व है। एक जैन भी वर्ष के किसी-न-किमी दिन को पर्व का रूप देकर अपने धार्मिक स्वरूप का माक्षात्कार करता है। पर्वो का मीया सम्बन्ध समाज-अनुयायी वर्ग से है, किन्तु पर्यों का मूल रूप धर्म के प्रान्तर विचारो से उत्प्रेरित होता है । जैन पर्व जैन धर्म का प्रतिनिधित्व करते है जैन पर्व मानव से खेल-कूद, ग्रामोद-प्रमोद, भोग-उपभोग अयवा हर्प व विपाद की मॉग नही करते, अपितु वे तो मनुष्य को तप, त्याग, स्वाध्याय, अहिमा, सत्य प्रेम, विश्ववन्धुत्व तथा विश्व मंत्री की भावना को प्रोत्साहित करते है। जैन पर्वो को दो स्पो में विभक्त किया जा सकता है, जैसे कि, Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिष्टाचार २४९ मवत्सरी-पyषण पर्व, दशलक्षणीपर्व, सायम्बिलअष्टान्हिका, श्रुतपचमी, श्रादि तो धार्मिक पर्व है। महावीर जयती, वीर गासन जयन्ती, दीपावली, सलूनो ( रक्षाववन) श्रादि सामाजिक पर्व है। संवत्सरी-वेताम्बर सम्प्रदाय मे सम्वत्सरी पर्दूपणपर्व को पर्वाधिराज कहा जाता है। जैन शास्त्रो मे पर्युपण के दिनो मे से आठवे दिन सवत्सरी को धर्म का गर्वोच्च पवित्र दिन माना गया है। श्रमण सुधर्मा कहते है कि हे जम्बू ।' इन पर्व को श्रमण भगवान् महावीर ने आषाढ पूर्णिमा से १ मास २० दिन के बाद मनाया था। चातुर्मास मे एक मास और २०वे दिन अर्थात् भाद्रपद शुक्ला ५ को गवत्नरी पर्व आता है। प्रात्म गुद्धि के इस महान पर्व को जैसे भगवान् मनाते है उसी प्रकार गौतम स्वामी, उमी प्रकार आचार्य, उपाध्याय तथा श्रीसघ मनाता है। सम्वत्सरी की गत का किसी भी प्रकार से उल्लघन नहीं करना चाहिए। समवायाग सूत्र मे सवत्सरी का समय निश्चित करते हुए यह भी बताया है कि चातुर्मास के ५० दिन बाद और ७० दिन गेप रहते सवत्सरी पर्व की याराधना करनी चाहिए। ___सवत्मरी के अाठ दिवमो को पर्दूपण कहते है। सम्वत्मरी और पर्यंपण दोनो में केवल इतना ही अन्तर है, कि सवत्मरी प्राध्यात्मिक साधना-क्रम मे बर्ष का अन्तिम और सर्वप्रथम दिन का बोधक है, और पर्युपण शब्द तप और वैराग्य साधना का उद्बोधक है। अत. मवसत्सरी का अर्थ है, वर्ष का प्रारभ और पर्युषण का अर्थ है कपाय की गान्ति । आत्मनिवास तथा वैराग्यवृत्ति । पपण के अर्थ को प्रकट करने वाले प्रागमो मे कितने ही शब्द उपलब्ध होते है, जैसे कि पज्जमणा, पज्जोमवणा, पज्जुसणा, आदि। पर्दूपण का शाब्दिक अर्थ है, पूर्ण रूप से निवास करना, अात्मरमण करना और पज्जोमवणा का अर्थ है, कषायो की सर्वथा उपशान्ति । अनादिकालीन प्रात्मा मे स्थित विकारो का सर्वथा नाग करना, तथा ऊर्ध्वमुखी वृत्ति द्वारा ऊर्ध्वगमन करना ही पज्जोसवणा का वास्तविक अर्थ है। जैन साधु और साध्वी, इन आठ दिनो मे १. कल्पसूत्र, 'तेण कालेणं-समणे भगवं महावीरे वासाणं सवो सइराए मासे विइक्कन्ते वासावासं पज्जोसवेई ।" २. समवायाग सूत्र, “समणे भगवं महावीरे वासाण सवीसई राइमाते वइक्कन्ते सत्तरिाह राइदिएहि सेसेहि वासावासं पज्जोसवेई।" Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० जैन धर्म वर्ष भर मे लगे अतिचारो का पालोनन, केगलंचन, पर्युषणालला वानन, वमति, भगवदागधन अष्टम तप, तथा साम्बत्मरिक प्रतिक्रमण कप छ उपनामो को अवश्य करते है। श्रावक और धाविका इन दिनो में व्यावहारिक तथा जागतिक सम्बन्त्री से अलग हट कर निरन्तर धर्म माधना तथा तपस्या मे लीन रहते है, और गंवत्सरी के दिन तो जैन समाज का कोई भी बच्चा तक यथा गक्य,तप. स्वाध्याय और कयाश्रवण के बिना नहीं रहते। पाठ दिन तक कितने ही जैन, भाद्र कृष्णा १२ मे भाद्र शुक्ला पचमी तक निर्जल और निराहार रहकर एक ही स्थान में ध्यान प्रार स्वाध्याय मे ही पयूषण पर्व मनाते है । सम्वत्मरी के सायं प्रतिक्रमण के अवसर पर प्रत्येक जैन को चौरासी लाख जीवायोनि से मन, वचन, काया पूर्वक क्षमायाचना करनी पड़ती है। इस दिन भी जो क्षमायाचना नहीं मांगता है, और न ही क्षमा प्रदान करता है, वह जैन कहलाने का अधिकारी भी नहीं है। प्रेम मिन्नन, बिबमंत्री तथा विश्ववात्सल्य ही इस पर्व का मुख्य प्राधार है। दशलक्षणपर्व-दिगम्बर सम्प्रदाय में पयूषण पर्व के स्थान पर दश लक्षण पर्व मनाया जाता है। भाद्र शुक्ला पचमी मे भाद्र गु० अनन्तचतुर्दगी तक इस पर्व की माराधना की जाती है। प्रतिदिन धर्म के दशलक्षणों का क्रमश विवेचन होता है। उत्तम क्षमा, मार्दव, अार्जव, गौच, सत्य, सयम, तप, त्याग आकिंचन्य पौर ब्रह्मचर्य रूप दशधर्मो का व्याख्यान, अभ्यास तथा तत्त्वार्थ मूत्र के दश अध्यायो का क्रमश स्वाध्याय किया जाता है । धर्म के विशाल वाट मय मे धर्मके इन दगरूपी के लिए किसी भी धर्म मे कोई भेद नहीं है। मनु जी के धर्म के दश लक्षण, पद्मपुराण के यति धर्म और जैनधर्म के दश यतिधर्म परस्पर मे एक ही है। इन दिनो मे जैन भाई यथाशक्य व्रत पीपव उपवास आदि तप क्रिया का भी अनुष्ठान करते हैं। इन पर्यो के दिनो मे जैन समाज में एक उत्साह छाया रहता है, और जैन मन्दिर धर्मस्थान तथा स्वाध्याय भवन जनता से खचाखच भरे रहते है। अनतचतुर्दशी के दिन किसी किसी स्थान पर विराट् जलूस भी निकाला जाता है। ____श्वेताम्वर सम्प्रदाय का पyपण पर्व और दिगम्बर सम्प्रदाय का दशलक्षण पर्व परिपूर्ण हिंसा के विरुद्ध जैन जाति का सामूहिक अभियान है। अत प्राचीनकाल से जैन इन दिनो मे अन्य प्रकार की हिसा कसाई खाने आदि भी बंद करवा देते है। सम्राट अकबर ने तो आचार्य हीरविजय सूरीश्वर के उपदेश से प्रभावित होकर अपने साम्राज्य में इन दिनों में हिंसा बन्द करवा दी थी। इसी प्रकार प्राज भी भारत के कितने ही प्रान्तो मे सम्वत्सरी को हिमा बन्द रहती है। अष्टान्हिका पर्वः-तथा आयंबिल-ओली पर्वः-दिगम्बर सम्प्रदाय Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-शिष्टामार २५१ में कार्तिक, फाल्गन और आपाढ़ मास के अन्तिम पाठ दिनो मे सिद्ध भगवान् की आराधना तथा स्वाध्याय रूप धार्मिक क्रियाएँ उत्साह के साथ की जाती है । श्वेताम्बर सम्प्रदाय मे चैत्र और असौज मे सप्तमी से पूनम तक ६ दिन आयंबिल तप की साधना की जाती है। हजारो जैन भाई और बहिन प्रायम्बिल तप करते है। प्रायम्बिल तप का अर्थ है अम्ल रस से रहित भोजन, जिसमे रस, गव, स्वाद, घृत, दुग्ध, छाछ प्रादि किसी भी प्रकार से मिश्रित नही किया जाता है। जैन वर्ग की प्रास्वाद माधना का यह बहुत विचित्र और उपयोगी उपक्रम है। भुत पंचमी-दिगम्बर सम्प्रदाय मे इस पर्व को आचार्य पुष्पदन्त और भूतवलि के द्वारा निर्मित “पट् ग्वण्डागम" नामक सिद्धान्त ग्रन्थ की परिसमाप्ति के रूप में और स्वाध्याय प्रेरणा मे इसे मनाया जाता है। ज्येष्ठ शु० पचमी को उन्होने यह ग्रन्य सघ को समर्पित किया था, साधिक सम्मान श्रुत ज्ञान के प्रति बढे, यही इसका उद्देश्य है।' श्वेताम्वरो मे श्रुत पञ्चमी कात्तिक शुक्ला पचमी को मनाई जाती है। श्रताराधना और श्रुत ज्ञान के प्रति अटूट निष्ठा तथा विनय प्रकट करना ही इसका उद्देश्य है। महावीर जयन्ती-चैत्रगुक्ला त्रयोदशी के दिन श्रमण भगवान् महावीर की जन्म जयन्ती जैन समाज मे धूमधाम के साथ मनाई जाती है। इस वर्ष तो महावीर जयन्ती, अमेरिका, इगलैण्ड आदि में भी मनाई जाने लगी है। इस दिन विशाल समारोह के साथ चौवीसवे तीर्थकर महावीर के जीवन, सिद्धान्त तथा दर्शन तथा धर्म के विषय मे मनन किया जाता है। उत्सव, जलूस, भापण आदि का रोचक रूप से कार्यक्रम रहता है। आजकल महावीर जयन्ती राष्ट्रीय तथा अन्तराष्ट्रिीय रूप धारण करती जा रही है। इसी प्रकार अन्य २३ तीर्थकरो की सामान्यतया जयन्तियाँ मनाई जाती है । बीपावली-श्रावण पूर्णिमा, दगहरा, दीपावली तथा होली भारत के राष्ट्रीय पर्व है। चारो वर्णों के अनुसार प्रत्येक पर्व का एक-एक व्यावहारिक और वार्मिक सन्देश है। क्रमश. जैसे कि जान, क्षात्रत्व, लक्ष्मी और मनोरजन तथा १. स्येष्ठसित पक्ष पंचम्यां चातुर्वर्ण्य संघ संभवतः ।। सत्पुस्तकोपकरण य॑मात् क्रियापूर्वकं पूजाम् ॥ १४३ (इन्द्रनन्दि श्रुतावतार) Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ जन धर्म शुद्धि और धार्मिक रूप से तपस्या, ब्रह्मचर्य, प्रात्मज्ञान (लक्ष्मी) तथा श्रात्मा गुद्धि दीपावली भी भारत का प्रसिद्ध तथा लोकव्यापी त्योहार है। तो भी दीपावली का ऐतिहासिक उद्गम रूप विवरण किमी ग्रथ मे उपलब्ध नहीं होता है। किन्तु श्वेताम्बर' आगमो और दिगम्बर पुराणोरे में इस नम्बल में विस्तृत उल्लेख पाया जाता है। प्राशय दोनो का एक है। श्रमण महावीर के निर्वाण के समय नव लिच्छवि और नव मल्लिगजात्रो ने पोपत्र बन कर रचा था। कार्तिक अमावस्या का दिन था । रात्रि के समय भगवान् महावीर का निर्वाण हो गया। उस समय राजानो ने आध्यात्मिक ज्ञान के मूर्य महावीर के अभाव मे रत्नी के प्रकाश से उस स्थान को देदीप्यमान किया था। परम्परागत उमी प्रकार जनता दीप जलाकर उस परम जान की उपासना कर प्रेरणा प्राप्त करती है, इसी का नाम दीपावली है। यही कारण है कि दीपावली पर्व जनो के लिए महत्त्वपूर्ण पर्व है। सलूनो रक्षा बन्धन-ब्राह्मण लोगो के हाथो मे राग्वियाँ बाँचते समय, इस पर्व का महत्त्व तथा इतिहास प्रतिपादक इलोक पत्रा करते है, जिसका प्राशय हे कि "जिम राखी से दानवो का इन्द्र महाबली बलिराजा बांधा गया उससे मैं तुम्हे बाँधता हूँ, अडिग अोर अडोल होकर मेरी रक्षा करो।"3. बलिराजा की कथा वामानवतार के प्रसग मे उद्धृत अवश्य हो गई है, किन्तु इससे रक्षा बधन के महत्त्व का अनुभव नहीं मिलता है। जैन साहित्य मे इसी पर्व के सम्बन्ध में कया अत्यन्त प्रसिद्ध है। जैन सानो से घृणा और द्वेप रखने वाले बली को महाराज पद्म से उपकृत रूप से वरदान पूर्ति के निमित्त सात दिन का राज्य मिल गया था, अकस्मात् अकम्पनाचार्य अपने सात सौ शिष्यो सहित उधर या निकले, बलि को बदला लेने का अवसर प्राप्त हुआ। उसने मुनि सघ को एक वाड़े मे घेर कर पुरुषमेव यज्ञ मे बलि करने की ठानी। एमे सकट काल मे एक वैक्रिय लब्धिधारी मुनि विष्णुकुमार से प्रार्थना की गई कि आप ही इस मुनि मघ पर आये सकट को दूर कीजिए। नपस्या मे लीन विष्णुकुमार मुनि, मुनि वर्ग की रक्षा निमित्त नगर मे आये और अपने भाई पद्मराज १. कल्पसूत्र । २. हरिवंश। ३. येन बद्धो बली राजा, दानवेन्द्रो महाबली। तेन त्वामपि बध्नामि रक्ष मा चल मा बल ॥ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५३ जैन-शिष्टाचार को समझाया कि भाई, इस कुरुवश मे नो माधुग्रो का आदर होता आया है, किन्तु इस प्रकार का पापकारी कुकृत्य नहीं हुग्रा। पद्मराजा को दुग्व तो बहुत था,किन्तु वह वचनबद्ध था, अत उसने अपनी विवगता बताई। विष्णुकुमार मनि वलि के पास पहुंचे और उससे मुनि मघ के निए स्थान मांगा। बलि ने कहा कि अच्छा मै ढाई कदम जगह देता हूँ, उसमे ग्ह लो। इन पर विष्णकुमार जी को रोप हुआ और अपनी शक्ति का चमत्कार उन्होंने वहां प्रगट किया, और एक पैर सुमेरू पर्वत पर रखा और दूसरा मानुपोत्तर पर्वत पर, और तीमग कदम बीच मे लटकने लगा। यह देख कर पृथ्वीवामी जन अन्यन्न भव्य हो गए, बलि क्षमा मांगने लगा, गज्य उमने वापस कर दिया, और ममचा मंकट टल गया। मुनिजनो पर संकट पाया देख कर लोगो ने अन्न-जल का त्याग कर दिया था। मंकट टलने पर मनि जब घर नही आये तो लोग भोजन कैसे करे। यात मौ मुनि जितने घर आ सकते थे, उतने घर गये और बाकी ने श्रमणो का स्मरण कर, प्रतीक बना कर भोजन किया, अत उमी दिन से रक्षाबंधन के दिन दोनो ओर मनग्य का चित्र बना कर राग्वी बांधने की प्रथा चल पडी। इस प्रथा को आज भी उनभान्त में “मीन" कहते है मौन गब्द "श्रमण" का ही अपभ्रम है।' १. जैन धर्म" फैलाशचन्द्र शास्त्री। Page #270 --------------------------------------------------------------------------  Page #271 --------------------------------------------------------------------------  Page #272 --------------------------------------------------------------------------  Page #273 -------------------------------------------------------------------------- _