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________________ अतीत की झलक ४३ शख श्रावक, कामदेव तथा आनन्दादि श्रावको का विस्तृत वर्णन, गौतम स्वामी को तपस्वियो के स्वागतार्थ जाने के लिए अनुमति देना व स्कन्धक सन्यासी जो गौतम स्वामी के वाल मित्र थे उन्हे गौतम गणधर को स्वागतार्थ जाने की अनुमति देना महावीर की महानता प्रकट करते है। केगीकुमार श्रमण का परदेशी को समझाने के लिए जाना, साधुओं का नगर नगर मे घूमना-यह सब व्यवस्थाए प्रचार के लिए ही हुई थी। राजा परदेशी का जीवन और केशीकुमार श्रमण का श्वेताम्बिका जाना प्रचार वृत्ति का एक ज्वलन्त उदाहरण है। __धर्म के लिए आवश्यक है, प्रचार प्रचार विना धर्म कभी ठहर नही सकता । इसलिए भगवान् ने धर्म प्रभावना तथा धर्म प्रद्योत करना सम्यक्त्व के महत्वपूर्ण अंग माने है । दीक्षा से पहले भगवान् महावीर को नवलोकान्तिक देवताओ ने जो प्रार्थना की है, उसमे भी आत्मकल्याण की अपेक्षा "सन्व जग्ग जीव हिंयं तित्य, पवत्तेहि" का उल्लेख आया है, अर्थात् जगत् के हित के लिए तीर्थ की प्रवर्तना करो। (प्राचाराग सूत्र) विश्व के उद्धार के लिए ही अहिसक धर्म की स्थापना की गई है। भगवान् महावीर ने उन्हे धन्य पुरुष कहा है, जो सकटो का सामना करके अहिसा तथा आहतो की सस्कृति का प्रचार करते है । महावीर और भारत की तत्कालीन अवस्था श्रमण परम्परा को अधिक सुव्यवस्थित करने के कारण महावीर के पास एक शान्ति सेना बनाई गई जो सामाजिक एव धार्मिक क्षेत्र मे क्राति कर सकी। यही कारण है कि महावीर तत्कालीन बुराइयो के विरुद्ध लड़ सके । यद्यपि उनकी विचारधारा का मोड़ निवृत्ति-गामी था, तथापि विधायक विचार कम महत्वपूर्ण नही थे । उस काल मे यज्ञो मे जो हिसा हो रही थी, उसकी अमानवीयता से समाज और प्रजा काप उठी थी। लेकिन ब्राह्मण एव उच्चवर्ग के सम्मिलित पड्यन्त्र के फलस्वरूप किसी व्यक्ति मे इतनी शक्ति नहीं थी कि वह उठ खडा होता और असामाजिक, अमानवीय प्रवृत्तियो के सचालको को ललकारता । समाज एक बडा बदीगृह था, जहा वर्णाश्रम और भेद उच्चवर्गों की दया और दान पर निर्भर था। उसे व्यक्तिगत स्वतत्रता नही थी, क्योकि
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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