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कर्मवाह
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फल देने के लिए कर्मों को किसी अन्य शक्ति की अपेक्षा नही है, और न ही किसी की आज्ञा की आवश्यकता है। कोई मनुष्य मद्यपान करता है, तो उन्माद उत्पन्न करने के लिए मदिरा को किसी की सहायता नहीं चाहिए। उसके सेवन से ही मनुष्य मे उन्मत्तता आ जाती है, दुग्धसेवन से पोषण मिलता है, भोजन से क्षुधानिवृत्ति होती है और पानी से तृषा शान्ति होती है । इन सब जड पदार्थों को अपना फल देने के लिए किसी अन्य सहारे की तलाश नही करनी पडती । इसी प्रकार जड़ होने पर भी कर्म स्वय ही अपना फल प्रदान करते है।
कर्म करने की स्वतन्त्रता जीव को प्राप्त है, किन्तु फल देने की सत्ता कर्म अपने पास सुरक्षित रखता है।
आयुर्वेद का सिद्धान्त है कि भोजन करते समय किसी प्रकार का अवांछनीय काषायिक आवेग, क्रोध आदि नही होना चाहिए और मानसिक सन्ताप के होने पर भोजन विष बन जाता है। भोजन के समय मन शान्त, प्रशस्त एव मध्यस्थ हो तो भोजन अमृत बन जाता है । यही बात कर्म के सम्बन्ध मे भी समझी जा सकती है । अन्त करण मे जैसे-जैसे शुभ या अशुभ, प्रशस्त या अप्रशस्त भाव होते हैं, उसी प्रकार का कर्म-रस बनता है, तो जैसे हमारे मनोवेग भोजन के रस को शुभ या अशुभ बना देते है, उसी प्रकार वे कर्मो को भी शुभ या अशुभ, रूप में परिणत कर देते है ।
कर्मवन्ध का प्रधान कारण मन है, और उसके सहायक वचन तथा काय है । मन, वचन और काय की अनन्त-अनन्त वृत्तियाँ शुभ भी होती है और अशुभ भी होती है।' हिंसा, चोरी, मैथुन आदि काय के अशुभ व्यापार है दया, सेवा, ब्रह्मचर्य कषाय के शुभ व्यापार है (असत्य और कटु भाषण) वाणी का अशुभ व्यापार है और निरवद्य, सत्य एव मधुर भाषण वाणी का शुभ व्यापार है। किसी के वध, बन्धन आदि का विचार करना मानसिक अशुभ व्यापार है और भलाई सोचना तथा पर का उत्कर्ष देखकर प्रसन्न होना आदि शुभ व्यापार है। शुभ व्यापारो से पुण्य कर्म का और अशुभ व्यापार से पापकर्म का वन्ध होता है। परन्तु यह नही भूल जाना है कि शुभ अशुभ कर्म के बन्ध का मुख्य आधार मनोवृत्तियाँ ही है।
एक डाक्टर किसी को पीड़ा पहुचाने के लिए उसका व्रण चीरता है। उससे चाहे रोगी को लाभ ही हो जाए, परन्तु डाक्टर तो पाप कर्म के बन्ध का ही
१. द्रव्यसंग्रह, गा० ३८॥