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जैन धर्म
भागी होगा। उसके विपरीत, वही डाक्टर अगर करुणा से प्रेरित होकर वण चीरता है और कदाचित् उससे रोगी की मृत्यु हो जाती है, तो भी डाक्टर अपनी शुभ भावना के कारण पुण्य का बन्ध करता है।
कर्मवन्ध के मुख्य दो कारण है--कषाय और योग। दूसरे सव कारण इन्ही दो मे अन्तर्भूत हो जाते है । दसवे गुणस्थान तक इन दोनो कारणो की सत्ता रहती है । आगे के गुण स्थानो मे सिर्फ योग ही कारण होता है । अतएव जो कर्माणु कषायो और योग से बंधते है, वे साम्परायिक कर्म कहलाते है, और जो कपाय के अभाव मे सिर्फ गमनागमन आदि क्रियानो के कारण वधते है, वे ईर्यापथिक कर्म कहलाते है।
उच्चकोटि के साधक की स्थिति कपायो की सीमा लाघकर समभावी भी हो जाती है और उस समय उसकी क्रिया भिन्न ही प्रकार की होती है। इस नथ्य को समझने के लिए जैनशास्त्रो मे एक उदाहरण प्रसिद्ध है
आत्मा को स्वच्छ दीवार, कपायों को गोद और योग को वायु मान लिया जाय तो बन्ध की व्यवस्था सरलता से समझ मे आ जायगी । आत्मा-रूपी दीवार पर जब कपायो का गोद लगा रहता है तो योग की आँधी से उड़कर आई हूई कर्म-रूपी धूल चिपक जाती है । वह चिपक जितनी सबल या निर्बल होगी, बन्ध भी उतना ही प्रगाढ़ या शिथिल होगा और धूल श्वेत या काली जैसी भी होगी, वैसी चिपकेगी । हाँ, कपाय का गोद यदि हट जाय और दीवार सूखी रह जाय तो धूल का आना-जाना तो नही रुकेगा, किन्तु चिपकना वन्द हो जाएगा। बस, यही अन्तर है साम्परायिक और ईर्यापथ कर्मो मे । कर्म परमाणुओ का आना योगगक्ति के बलावल पर निर्भर है। किन्तु बन्धन की तीव्रता-मन्दता या चिपकन कषायो के भावाभाव पर निर्भर है।
वन्धतत्त्व के विवेचन मे बतलाया जा चुका है कि स्थितिवन्ध और रसवन्ध कपाय से होता है । जव कषायो की सत्ता नही रहती फिर न तो कर्म
आत्मा मे ठहरते है और न उनका अनुभव ही होता है, योग के विद्यमान रहने से कम आते तो है, मगर ठहर नही पाते है।
वास्तव मे जन्म-मरण का मुख्य कारण कषाय है। कपाय के अभाव में
२. जोग बंधे, कषाय बंधे।