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जैन पर्म
भापा शब्दों से बनती है, और शब्द धातुओ से बनते है । एक धातु भले ही मोटे तौर पर अनेकार्थक मानी जाती हो, परन्तु एक कात मे, और एक ही प्रसग मे, वह अनेक अर्थों का द्योतन नही कर सकती, अतएव उनसे बना एक शब्द भी एक ही धर्म का बोध कराता है। हमारे पास कोई एक गब्द नही, जो एक साथ अनेक धर्मो का प्रतिपादन कर सके । अतएव यह आवश्यक है कि वस्तु के अस्तित्व, नास्तित्व आदि धर्मों का सापेक्षात्मक भापा से कथन किया जाय । 'घट है' कह कर हम घट के परिपूर्ण स्वरूप को व्यक्त नहीं कर सकत, क्योकि इस वाक्य द्वारा घट के केवल अस्तित्व धर्म का ही बोध होता है। घट मे अस्तित्व की तरह नास्तित्व आदि जो असख्य धर्म है, उनका इससे वोध नहीं होता । अतएव यह वाक्य घट की अधूरी जानकारी देता है । यही नही, घट मे जो अस्तित्व है, वह भी सर्वथा सत्य नही, किन्तु एक दृष्टिकोण से ही है । यह बात भी इस वाक्य से ध्वनित नही होती।
प्रश्न होता है कि एक ही शब्द एक धर्म का बोधक होता है, किन्तु वस्तु अनन्त धर्मात्मक है। उसका किसी भी एक शब्द द्वारा कथन नही किया जा सकता। ऐसी स्थिति मे दो ही बाते हो सकती है-या तो एक वस्तु को पूरी तरह कहने के लिए अनन्त शब्दो का प्रयोग किया जाय, अथवा मौन साधकर बैठा जाय । अनन्त शब्दो का प्रयोग करना सभव नहीं है, और मौन साध लेने से जगत् के सब व्यवहार ठप्प हो जाते है। फिर अपने अभिप्राय को प्रकट करने का मार्ग क्या है?
__जैन दार्शनिको ने बहुत विस्तार से इस प्रश्न का उत्तर दिया है। यहाँ सक्षेप मे यही कहा जा सकता है कि-स्यादादी जव वस्तु का अस्तित्व प्रकट करता है तो वह केवल 'अस्ति' (है) न कह कर 'स्यादस्ति' कहता है । 'अस्ति' के साथ 'स्यात्' जोड देने से वस्तु मे रहे हुए नास्तित्व आदि का निपेध भी नही होता और अस्तित्व का विधान भी हो जाता है।
'स्याद्वाद' शब्द स्यात्' और 'वाद' इन दोनो शब्दो के मेल से बना है। 'स्यात्' एक अव्यय है, जिसका अर्थ है-"कथचित्"-किसी अपेक्षा, अथवा अमुक दृष्टिकोण से। कुछ लोगो को भ्रम है कि 'स्यात्' का अर्थ 'शायद' है और इस कारण स्याद्वाद सशयवाद है। मगर यह उनका भ्रम है। 'स्याद्वाद' मे जो कुछ है, 'निश्चित' है । "यह पिता है अथवा पुत्र है" इस प्रकार अनिर्णीत ज्ञान सशय कहलाता है, मगर “यह व्यक्ति अपने पिता कर्मचन्द की अपेक्षा से