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सम्यग्ज्ञान
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निकला कि प्रत्येक पदार्थ के दो रूप है :- अन्तरग और बहिरंग । अन्तरग द्रव्य, और बहिरंग रूप पर्याय कहलाता है । पदार्थ का अन्तरंग रूप एक है, नित्य है, परिवर्तनशील है, और बहिरंग रूप अनेक, प्रनित्य और परिवर्तनशील है ।
द्रव्य परस्पर विरुद्ध श्रनन्त धर्मों का समन्वित पिण्ड है। चाहे वह जड हो या चेतन, सुक्ष्म हो या स्थूल, उसमें विरोधी धर्मों का अद्भुत सामंजस्य है । इसी सामजस्य पर पदार्थ की सत्ता टिकी है । ऐसी स्थिति मे वस्तु के किसी एक ही धर्म को अगीकार करके और दूसरे धर्मो का परित्याग करके वास्तविक वस्तु स्वरूप को ग्रांकने का प्रयत्न करना उपहासास्पद है, और अपूर्णता मे पूर्णता मानकर सन्तोष कर लेना प्रवचनामात्र है ।
अनेकान्तवादी का दृढ विश्वास है कि सत् का कभी नाग नही होता, और सत् की कभी उत्पत्ति नही होती । मिट्टी का मूल द्रव्य नवीन बनाया जा सकता है । हा, उसका रुपान्तर स्वतः भी और दूसरो के प्रयोग से भी होता रहता है ।
बस यही द्विविधात्मक पदार्थ की स्थिति है, जिसे ऐकान्तिक आग्रह से नही समझा जा सकता ।
अनन्त धर्मात्मक वस्तु के विचार मे उठे हुए अनेकविध दृष्टिकोणो को समुचित रूप से समन्वित करने की श्रावश्यकता होती है । उसी आवश्यकता ने नयवाद की विचार सरणि को प्रस्तुत किया है ।
स्याद्वाद
पिछले प्रकरण मे ग्रनेकान्तवाद के विषय मे विचार किया गया है । पृथक्-पृथक् दृष्टिकोणो से वस्तु को समझना और एक ही वस्तु मे, विभिन्न दृष्टिकोणो से सगत होने वाले किन्तु परस्पर विरुद्ध प्रतीत होने वाले अनेक धर्मो को प्रामाणिक रूप से स्वीकार करना ग्रनेकान्तवाद है । साधारण तौर पर अनेकान्त सिद्धान्त ही स्याद्वाद कहलाता है, किन्तु वास्तव मे अनेकान्तसिद्धान्त को व्यक्त करने वाली सापेक्ष भाषापद्धति ही स्याद्वाद है ।
जब हम मान लेते है कि प्रत्येक वस्तु मे अनन्त धर्म विद्यमान है और उन समस्त धर्मों का अभिन्न समुदाय ही वस्तु है, तो उसे व्यक्त करने के लिए भाषा की भी आवश्यकता होती है । यह अनेकान्त की भाषा ही स्याद्वाद है । '
१ स्याद् इत्यव्ययम् अनेकान्त - द्योतकं, तत स्याद वाद अनेकान्तवादः । -- स्याद्वाद मञ्जरी, मल्लिषेणसूरि ।
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