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जैन धर्म
जान सकता । वह सत्ता मात्र का ग्राहक होता है, जिसकी सत्ता को वह ग्रहण करता है, उसके नाम, गुण, क्रिया, जाति आदि विशेप धर्मों के जानने मे असमर्थ होता है। उपयोग की यह प्राथमिक अवस्था दर्शन कहलाती है । दर्शन के पश्चात् उपयोग की धारा अग्रसर होती है। उस समय भी अनेक अवस्थाए होती है । उन सूक्ष्म अवस्थाओं का भी जैन-शास्त्रो में दिग्दर्शन कराया गया है। पर यहा अधिक विस्तार मे न जाकर चार स्थूल अवस्थामो का ही वर्णन कर देना पर्याप्त होगा वे चार अवस्थाएँ ये है .--
१. अवग्रह २. ईहा ३. अवाय और ४ धारणा २
दर्शन मे सत्ता नामक महासामान्य (परसामान्य) का बोध हो पाया था, 'कुछ है, इतनी-सी प्रतीति हुई थी। उसके अनन्तर जव उपयोग ने अपरसामान्य (मनुष्यत्व आदि अवान्तर सामान्य) को ग्रहण किया और 'यह मनुष्य है, ऐसी प्रतीति हुई तो वह उपयोग अवग्रह कहलाया। अपरसामान्य को जान लेने के बाद उपयोग का झुकाव विशेप की ओर होता है । वह झुकाव ईहा कहलाता है । ईहा विशेप की विचारणा है। इस विचारणा के पश्चात् जव ज्ञान विशेष का निश्चय करने में समर्थ हो जाता है तो वह अवाय या अपाय कहलाता है।
अवाय के पश्चात् धारणाजान होता है। उसके तीन रूप है -अविच्युति, वासना और स्मृति । इनके उत्पन्न होने के पश्चात् अवाय ज्ञान जितने काल तक स्थिर रहता है, अर्थात् उपयोग पलटता नहीं है, वह अविच्युति कहलाता है। उपयोग पलट जाने पर पूर्ववर्ती ज्ञान संस्कार का रूप ग्रहण करता है तो वासना कहलाता है। कालान्तर मे कोई निमित्त पाकर वासना का पुन. जागृत हो जाना स्मृति है।
___इस प्रकार एक ही ज्ञान की धारा क्रम से विकसित होती हुई अनेक नामो से अभिहित होती है। विकास-क्रम के आधार पर ही उसके पूर्वोक्त चार भेद किये गये है।
ये चारो जान पांच इन्द्रियो से तथा मन से होते है। इस प्रकार कारण
१ द्रव्यसंग्रह, गा० ४३। २. नदीसूत्र २७, तत्त्वार्थसूत्र, १-१५