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सस्यज्ञान
नेत्रो मे रूप को देखना, नासिका से गध का ज्ञान होना, जिह्वा से रस का, त्वचा से गीतोष्ण आदि स्पर्गों का, और कान से शब्द का ज्ञान होना, उनके मन्तव्य के अनुसार प्रत्यक्ष ज्ञान है। किन्तु जैनदर्शन इन्द्रिय-मनोजन्य ज्ञान को प्रत्यक्ष नहीं मानता। जैनदर्शन के अनुसार वास्तव में प्रत्यक्ष ज्ञान वह है, जो इन्द्रियो और मन की सहायता की अपेक्षा न रख कर साक्षात् आत्मा से ही होता है । हा, लोक व्यवहार के अनुरोध से इन्द्रियजन्य ज्ञान भी प्रत्यक्ष कहा जा सकता है, किन्तु वह साव्यवहारिक प्रत्यक्ष ही है, पारमार्थिक नहीं।
५ मतिज्ञान के भेद --मतिज्ञान कारणभेद से दो प्रकार का हैइन्द्रियजन्य और मनोजन्य ।' चक्षु आदि इन्द्रियो से होने वाला जान इन्द्रियजन्य कहलाता है और मन से होने वाला मनोजन्य । मन आन्तरिक कारण है और रूप आदि किसी एक ही विपय आदि को ग्रहण नहीं करता, इस कारण उसे अनिन्द्रिय कहते है । मतिजान सामान्यरूप से एक होने पर भी विषय-भेद से पांच प्रकार का माना गया है २ ।
१ मति, २ स्मृति, ३ सज्ञा, ४ चिन्ता, -५ अभिनिबोध ।
मति -वह ज्ञान है, जो इन्द्रिय और मन से उत्पन्न हो, तथा वर्तमानविषयक हो।
स्मृति -पूर्वानुभूत वस्तु का स्मरण करना। पूर्वजन्मो का स्मरण इसी के अन्तर्गत है।
संजा –पूर्वानुभूत और वर्तमान में अनुभव की जाने वाली वस्तु मे एकत्व या सादृश्य का अनुसधान करना। इसका दूसरा नाम प्रत्यभिज्ञान भी है।
चिन्ता -भविष्य की विचारणा । अभिनिवोध -अनुमान।
६ ज्ञान का क्रम विकास ---चेतना जीव का ज्ञानरूप गुण है, और मल मे वह एक है। कही विपय के आधार पर और कही कारणो के प्राधार पर, अनेक भेद-प्रभेद करके उसकी मीमासा की गई है । ज्ञान उत्पन्न होता है तो पहले पहल इतना सामान्य होता है कि वह वस्तु के विशेष धर्मों को नही
१ स्थानांगसूत्र स्थान २ उ० १, सू० ७१। २ नन्दी सूत्र, मतिज्ञान, गा० ८०, तत्त्वार्थमूत्र, १-१३ ।