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जैन धर्म
मृत्युकला (संलेखनावत) जनदृष्टि के अनुसार धर्म एक कला है और धर्मकला का स्थान समस्त कलायो में सर्वोपरि है। "सव्वा कला धम्मकला जिगई" अर्थात् धर्मकला सब कला को जीतती है। धर्मकला जैसे सर्वोच्च है, उसी प्रकार सर्वव्यापक भी है। जैसे जीवन के प्रत्येक व्यापार मे वह प्रोत-प्रोत रहनी चाहिए, उसी प्रकार म्त्यु में भी जगन् के सभी धर्मोपदेष्टायो और नीतिप्रणेतानो ने जीवन की कला का रूप मानव जाति के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। मगर मृत्यु जो जीवन का ही दूमग पहलू या अनिवार्य परिणाम है की कला का सुन्दर निदर्गन भगवान् महावीर ने कराया है, जैसा अन्यत्र कही देखने को नहीं मिलता है।
मृत्यु की कल्पना भी अत्यन्त भयावह है। सभवत संमार में अधिक मे अधिक भयकर कोई वस्तु है, तो वह मौत ही है । पर भगवान् महावीर जैसे अनूठे कलाकार ने उसे भी उत्कृष्ट कला का रूप प्रदान किया है। उस कला की साधना में सफलता प्राप्त कर लेने वाला सावक ही अपनी साधना में उत्तीर्ण समझा जाता है। जीवन कला की साधना के पश्चात् भी मृत्युकला की साधना में जो असफल हो जाता है, वह मिद्धि मे वचित ही रह जाता है।
भगवान् महावीर ने कहा है-“मत्यु से भयभीत होना अज्ञान का फल है । मृत्यु कोई विकराल दैत्य नहीं है । मृत्यु मनुष्य का मित्र है और उसे जीवन भर की कठिन सावना को सत्फल की ओर ले जाती है । मृत्यु सहायक न बने तो मनुप्य ऐहिक धर्मानुष्ठान का पारलौकिक फल-स्वर्ग और मोक्ष-कैसे प्राप्त कर सकता है ?"
__कारागार से मनुष्य को मुक्त करने वाला उपकारक होता है । तो इस गरीर के कारागार से छुड़ा देने वाली मृत्यु को क्यो न उपकारक माना जाय।
इस कृमिकुल से मकुल एव जर्जर देह रूपी पिजडे से निकालकर दिव्य देह प्रदान करने वाली मृत्यु से अधिक उपकारक और कौन हो सकता है ?
वस्तुत. मृत्यु कोई कप्टकर व्यापार नहीं वरन् टूटी-फूटी झोपडी को छोटकर नवीन मकान में निवास करने के समान एक आनन्दप्रद व्यापार है । किन्तु अनान जनित ममता इस नफे के व्यापार को घाटे का व्यापार बना देता है, और अनानी जीव को अपने परिवार और भोगसाधनो के विछोह की कल्पना करके मृत्यु के ममय हाय-हाय करता है, तदपता है, छटपटाता हैं और