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अतीत की झलक
१२. हे पुत्रो ! जो स्थावर और जगम जीवो की आत्मा को भी मेरे समान ही समझता है और कर्मावरण के भेद को पहचानता है, वही धर्म प्राप्त करता है। धर्म का मूल तत्व समदर्शन है।
१३ जो साधक यमो (महाव्रतो) को ग्रहण करता है और अध्यात्म-योग विविक्त सेवा द्वारा प्रात्मस्वरूप स्थिति का ज्ञान करता है, श्रद्धा और ब्रह्मचर्य द्वारा उसका साक्षात्कार करता है, वह अप्रमादी साधक मुक्ति के निकट' पहुंचता है।
१४ जो सर्वत्र विचक्षणतापूर्वक ज्ञान, विज्ञान, योग, धैर्य, उद्यम तथा सत्व से मुक्त होकर विचरण करता है, वही कुशल है और वही मेरा अनुयायी है।
१५. कर्मागय को विध्वंस करने के लिए हृदय-प्रथि को नष्ट करो, यही बंध का कारण है । अविद्या से ही वय होता है । प्रमाद कर्मबंध मे सहायक होता है।
१६. इस आत्मा की अपने कल्याण की दृष्टि नष्ट हो गई है और वह स्वार्थ के पीछे पागल हो गया है । पुत्रो ! निष्काम और निस्वार्थ होकर सुखलेश की उपेक्षा करके कर्ममूढता और अनन्त दु खग्रस्तता को नष्ट करो।
१७ नेत्रो के अभाव मे जैसे अन्धा कुपथ पर जा चढता है, इसी प्रकार जीव कर्मान्ध होकर कुमार्ग का अनुसरण कर रहा है। कुबुद्धि होने के कारण ही वह सच्चे धर्म पर श्रद्धा नहीं करता।
१५. हे पुत्रो ! मेरा शरीर मेरा नही है, यह तो आत्मा के विभाव का दुष्फल है। मेरा अपना तो आत्मस्वभाव ही है। वही मेरा सच्चा धर्म है। मैने उस विभाव रूप अधर्म को दूर कर दिया । अत मुझे लोग श्रेष्ठ आर्य कहते है।
१६ अग्निहोत्र मे वह सुख नहीं है जो आत्मयज्ञ में है।
२०. मैं उसे ही यज्ञ और धर्म मानता हूँ जो सतोगुण से युक्त, शम, दम, सत्य, अनुग्रह, तप, तितिक्षा और अनुभव से सम्पन्न होता है। इसी मार्ग से अनन्त आत्मायें परमात्मपद प्राप्त कर गई है। यही श्रेष्ठ मार्ग है।
२१. स्थावर और जगम जीवो पर सदा अभय दृष्टि रखो, यही सच्चा श्रेष्ठ मार्ग है और मोहनाश का कारण है । मुक्तिप्राप्ति के लिए प्रयत्न करो, यही सर्वोच्च ध्येय है। इसी सिद्धि से अनन्त सुख प्राप्त होता है।
भगवान् का यह उपदेश सुनकर उनके पुत्रो ने ससार त्याग दिया। कर्मकाण्ड त्याग कर उन्होने परमहंस धर्म (आत्मधर्म) की पद्धति का अनुसरण किया।