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जैन धर्म भागवत् मे भगवान् ऋषभदेव की तपस्या का बहुत ही रोमाचकारी वर्णन किया गया है। उपसर्गो, परीपहो और संकटो को पार करते हुए तथा वनवाम के नमस्त दुखो को सहन करते हुए भगवान् अवधूत वेग मे विचरने लगे। उनका मन अविग्वण्डित और प्रशान्त था। वे मानापमान की चिन्ता न करके घूमने रहते थे।
उनके गारीरिक अतिगय का वर्णन करते हुए लिखा है कि उनकी विष्ठा मे मे भी मुगध याती थी, मारा वातावरण मुगधमय बन जाता था।
एक दिन उनके कर्मागय का अन्त या गया, समस्त अर्थ परिपूर्ण होने से मिह बन गए, उन्हे केवल ज्ञान प्राप्त हो गया।
उनकी प्रात्मा मे परमानन्द था, समस्त प्रों का जान था, वे निाकम्प आलोकस्तम्भ थे। ___ भगवान् ऋप भदेव के भागवतोक्न जीवन की जैनागमो और जैन-पुराणो से पूरी तरह तुलना की जा सकती है। वास्तव मे भागवतकार ने श्री ऋषभदेव के जीवन और धर्म को विशुद्ध रूप में उपस्थित करने का प्रयत्न किया है। कहीं भी उन्हें यज-समर्थक या वेदानुयायी प्रदर्शित नही किया गया है। ___ वैदिक-धर्म के चौबीस अवतारो में भ० ऋपभदेव पाठवे अवतार स्वीकार किये गए है, मगर उनका जीवन किसी भी अन्य वैदिक अवतार से मेल नही खाता है। वह अनूठा है।
उपनिषदों में जैनधर्म
भगवान् ऋषभदेव के समय मे ही भारत मे दो मुख्य विचार धाराएँ प्रचलित हो गयी थी, एक धारा वह थी जिसमे कर्म (यज्ञ) की प्रधानता थी और दूसरी वह जिसमे व्रत, नियम, सयम एव तपश्चरण की मुख्यता थी। ये विचारधाराएँ आज ब्राह्मण विचारधारा और श्रमण विचारधारा के नाम से प्रचलित है। भगवान् ऋपभदेव श्रमण विचारधारा अथवा व्रात्यधर्म (व्रतवर्म) के आद्य प्रवर्तक थे। अतएव उपनिपदो मे जहाँ कही श्रमण विचारधारा का प्रतिपादन हुआ है, वह भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तिन जैन धर्म ही समझना चाहिए ।
जावाल उपनिषद् मे महायोगी दत्तात्रेय ने जिन अहिंसादि दश यमो का प्रतिपादन किया है, वही ऋपभदेव द्वारा उपदिग्ट धर्म के मूल व्रत है। ऋपभदेव द्वारा प्रलपित धर्म से दत्तात्रेय के प्रभावित होने का कारण यह है कि व्रात्य धर्म वेदो