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________________ जैन धर्म २. हे पुत्रो ! सत्पुरुषो के मनाचार से प्रीति करना ही मोक्ष का ध्रुद हार है। जो लोक मे और नंसार व्यवहार मे प्रयोजन मात्र के लिए आमक्तिकत्र्तव्यबुद्धि रखता है, वही समदी प्रनान्त साध है। 1. जो इन्द्रियो और प्राणो के मुख के लिए नया वामना-तृप्ति के लिए परिश्रम करता है, उसे हम अच्छा नहीं मानते। क्योकि गरीर की ममता भी यात्मा के लिए क्लेशदायक है। ४. साधु जब तक आत्मस्वल्प को नहीं जानता, तब तक वह कुछ नहीं जानता। वह कोरा अनानी है। जब तक वह कर्मकाण्ड (यन यादि) मे फंसा रहता है, तब तक आत्मा और गरीर का संयोग छूटना नहीं है । और मन के द्वारा कर्मों का वन्ध भी रुकता नहीं है। ५ जो सज्ञान प्राप्त करके भी सदाचार का पालन नहीं करते वे विद्वान् प्रमादी बन जाते हैं। मनुष्य अनान भाव से ही मैथुन-भाव में प्रवेश करता है और अनेक संतापो को प्राप्त करता है। ६ नर का नारी के प्रति कामभाव ही हृदय की ग्रंथि है। इसी के कारण जीब का घर, खेत, पुत्र-कुटुम्ब और धन से आकर्षण होता है। मोहासक्ति बढ़ती है। ७. जब हृदय-प्रथि को बनाए रखने वाले मन का बधन गिथिल हो जाता है, तव जीव इन ससार से छूटने लगता है और मुक्ति प्राप्त कर परम लोक में पहुंच जाता है। ८. सार-प्रसार का भेद जानने वाला जीव वीतराग पुरष की भक्ति करता है। भक्ति मे अनानान्वकार नष्ट हो जाता है। तब जीव तृष्णा, सुख-दुःख का त्याग कर तत्व को जानने की इच्छा करता है तथा तप के द्वारा मव प्रकार की चेप्टायो की निवृत्ति करता है। तभी आत्मा कर्मो का नाश करके मुक्ति प्राप्त करता है। ६. विपयो की अभिलाषा ही अन्वकप के समान नरक मे जीव को पटकन वाली है। १० हे पुत्रो । जो हेयोपादेय की विवेक दृष्टि से अन्य हैं, और कामनायो ने परिपूर्ण है, वह संसारी कन्याण के मूलपथ को नहीं पहचान सकता। ११ जो पुरप बुद्धि को मोह में उलझाकर और कुबुद्धि वनकर उन्मार्ग पर चलता है, दगलु विद्वान् उमे कभी भी उन्मार्ग पर नहीं चलने देते।
SR No.010221
Book TitleJain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilmuni
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1958
Total Pages273
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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